टाइटिल राष्ट्रीय त्रासदी का प्रतीक / जयप्रकाश चौकसे

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टाइटिल राष्ट्रीय त्रासदी का प्रतीक
प्रकाशन तिथि : 29 जून 2013


'रंग दे बसंती' के लिए प्रसिद्ध फिल्मकार राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फरहान अख्तर और सोनम कपूर अभिनीत धावक मिल्खा सिंह के जीवन से प्रेरित फिल्म का नाम 'भाग मिल्खा भाग' दरअसल उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण एवं हृदय विदारक घटना से जुड़ा है। देश के विभाजन के समय उनके परिवार पर अंधी हिंसक भीड़ ने आक्रमण किया था, तब उनके पिता ने चिल्लाकर दूर खड़े अपने पुत्र से कहा 'भाग मिल्खा भाग'। उनकी आवाज में दर्द के साथ एक हुक्म था और फरमांबरदार मिल्खा भागा। सारी जिंदगी यह आवाज उनके मन में गूंजती रही। फिल्म में इस हृदय विदारक दृश्य का बखूबी इस्तेमाल हुआ होगा। बारह जुलाई को 'भाग मिल्खा भाग' के साथ ही अजय बहल की 'बीए पास' रिलीज हो रही है, जो एक साहसी फिल्म है और उसकी थीम के कारण ही शायद सेंसर ने उसे केवल वयस्कों के लिए प्रमाण-पत्र दिया है। अजय की यह पहली फिल्म उसके उज्ज्वल भविष्य का संकेत देती है।

दरअसल, फिल्म के नाम का उसके व्यवसाय पर थोड़ा असर पड़ता है। फरहान अख्तर की 'फुकरे' अपने नाम के कारण प्रारंभिक भीड़ नहीं जुटा पाई, परंतु दर्शकों की प्रशंसा से धीरे-धीरे भीड़ जुटी। फिल्म निर्माण की शिखर संस्था में टाइटिल रजिस्ट्रेशन किया जाता है और कई बार प्रार्थना करने पर पहले नाम दर्ज करने वाले की सहमति से टाइटिल मिलता है। कई बार अनुकूल टाइटिल के लिए संघर्ष करना पड़ता है, पैसा खर्च करना पड़ता है और हर साल दर्ज किए नाम का नवीनीकरण करना पड़ता है। बहरहाल, कभी-कभी निर्माताओं ने अजीबोगरीब नाम भी रखे हैं, जैसे पीएल संतोषी की फिल्म 'शिन शिनाकी बबला बू'।

बहरहाल, यह अत्यंत हर्ष की बात है कि दो दशक पूर्व दिलीप ताहिल नामक चरित्र अभिनेता ने अनेक फिल्मों में विविध भूमिकाएं कीं और वे एकाएक फलता-फूलता कॅरियर छोड़कर लंदन में बस गए, परंतु अपनी दूसरी पारी का प्रारंभ वे 'भाग मिल्खा भाग' में जवाहरलाल नेहरू की संक्षिप्त किंतु महत्वपूर्ण भूमिका से कर रहे हैं। ऐतिहासिक तथ्य है कि विभाजन की अपनी पारिवारिक त्रासदी के कारण मिल्खा ने पाकिस्तान में आयोजित अंतरराष्ट्रीय स्पद्र्धा में जाने से इनकार कर दिया था, क्योंकि वहां जाना पुराने जख्मों को हरा करना था। तब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मिल्खा सिंह को समझाया कि वहां अर्जित सफलता तुम्हें थोड़ा-सा सुकून देगी और इससे बुजुर्गों की आत्मा भी तृप्त होगी। नेहरू से प्रेरणा पाकर मिल्खा वहां ऐसे भागे कि उन्होंने रिकॉर्ड बना दिया और पाकिस्तान के सदर ने कहा कि आज मिल्खा दौड़ा नहीं, उड़ा है और उन्होंने उन्हें 'फ्लाइंग सिख' के खिताब से नवाजा। दरअसल, खेल-कूद ही ऐसा क्षेत्र है, जिसमें आप अपने देश के ध्वज को विदेश में बिना रक्त बहाए, बिना किसी को कत्ल किए फहरा सकते हैं। खेल युद्ध के बिना मनुष्य की विजय का पावन क्षेत्र है। नेहरू की पहल पर ही कॉमनवेल्थ खेल भारत में संपन्न हुए। उन्होंने कहा था कि 'खेल भावना से खेल खेलो।'

वह एक आदर्शवादी कवि हृदय प्रधानमंत्री का प्रेरक कालखंड था, जब सभी क्षेत्रों में खेल भावना दिखाई देती थी और आज क्रिकेट में तो 'फिक्सिंग' का बोलबाला है। इतना ही नहीं, अनेक क्षेत्रों में 'खेल भावना' का लोप हो गया है। राजनीति अब भावनाहीन खेल है। सत्ता के लिए किया जाने वाला स्वांग।

सुना गया है कि श्याम बेनेगल अस्वस्थ हैं, परंतु इतने नहीं कि अस्पताल में दाखिल हो जाएं। उनकी अस्वस्थता के कारण भारत के संविधान पर लोकसभा दूरदर्शन द्वारा बनाए जाने वाले वृत्तचित्र की शूटिंग अब सितंबर में शुरू होगी। इस सीरियल में दिलीप ताहिल ही नेहरू की भूमिका में प्रस्तुत होंगे। पहले प्राय: रोशन सेठ यह भूमिका करते थे। नेहरू निहायत ही खूबसूरत व्यक्ति थे और उनके व्यक्तित्व में गरिमा के साथ मानवीय करुणा का भाव था और उसी को अभिव्यक्त करना कठिन होता है। संविधान के निर्माण के पीछे की राजनीति अत्यंत रोचक थी और निहित स्वार्थ वाली संकीर्णता की ताकतें उसे प्रभावित करने की चेष्टा कर रही थीं। यह तो डॉ. आंबेडकर का साहस है कि उन्होंने संविधान बनाते समय किसी तरह का समझौता नहीं किया। डॉ. अंबेडकर के आदर्श और चारत्रिक दृढ़ता के कारण ही संविधान अपनी मूल कल्पना के अनुरूप बन पाया। आजादी की अलसभोर ही में नकारात्मक ताकतें संविधान में समानता, धर्मनिरपेक्षता की भावना को हानि पहुंचाने की कोशिशें कर रही थीं। बहरहाल, श्याम बेनेगल निष्ठावान फिल्मकार हैं, वे संविधान पर बनने वाले वृत्तचित्र को एक दस्तावेज की तरह रचेंगे।

बहरहाल, मिल्खा सिंह के जीवन पर बनी फिल्म में हमें कुछ समानताएं 'पानसिंह तोमर' से मिल सकती हैं। एक ओर मिल्खा विभाजन का शिकार था, दूसरी ओर पानसिंह तोमर को सामाजिक शोषण और सामंतवादी ताकतों के खिलाफ युद्ध करना पड़ा। इन दोनों की ही तरह ध्यानचंद ने भी हिटलर के प्रस्ताव को ठुकराया था। गुजरे जमाने के सारे खिलाड़ी देशभक्त रहे हैं, परंतु वर्तमान में क्रिकेट के व्यवसाय में इतने घपले हैं कि उनका सच कोई सक्षम संस्था ही खोज सकती है