टाइम-पास / प्रताप सहगल

Gadya Kosh से
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हम दोनों नाटक देखकर घर लौटे थे। चन्द्रशेखर कांबार का नाटक ‘राम नाम सत्य है’। नाटक देखकर हम दोनों कुछ इस बात से क्षुब्ध थे कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगमण्डल को क्या हो गया है! अभिनय का स्तर गिरा है। कभी-कभी इक्का-दुक्का अभिनेता ही अपेक्षित प्रभाव पैदा कर पाते हैं।

बहुत दिनों की गरमी के बाद मौसम सुहावना हुआ था। मैंने दो गिलासों में बीयर उँडेली और हम दोनों थोड़ा टाइम-पास करने की ग़रज़ से बाहर बालकनी में आकर बैठ गये। कई दिनों बाद हम बाहर बालकनी में बैठे थे। हल्की सी बयार के झोंके शरीर को सहला जाते। हम बीयर सिप करते हुए देखे हुए नाटक पर बात करने लगे।

बालकनी के ठीक सामने रिंग रोड है। खुली आठ लेन वाली रिंग रोड। रोड के किनारे पर लगीं मास्ट लाइटों की जगमग में रिंग रोड नहा रही थी। दोनों और से ट्रैफिक इतनी तेज़ी से भाग रहा था, जैसे सभी कहीं आग बुझाने जा रहे हों। हम दोनों बातें करते-करते कभी भागते ट्रैफिक पर नज़र डाल लेते और कभी एक-दूसरे पर।

अचानक मेरी नज़र सामने मास्ट-लाइट के नीचे खड़ी एक लड़की पर पड़ी। मुझे सिर्फ़ उसकी पीठ दिखाई दे रही थी। उसके बाल खुले हुए थे। लम्बे, घने और काले। कद लम्बा। जींस और टाप पहने उस लड़की के बायें कन्धे पर एक प्रोफेशनल थैला लटक रहा था। दायें हाथ में पर्स पकड़े हुए लगातार विपरीत दिशा से आती गाड़ियों को देखे जा रही थी वह लड़की। बीयर का एक घूँट लेते हुए मैंने कहा-”यह लड़की इस वक़्त यहाँ क्या कर रही है?”

मेरी पत्नी की नज़र भी उस ओर मुड़ी-”हम बहुत दिनों बाद बैठे हैं न यहाँ...अरे यह तो दस बज चुके...रात के दस बजे यह यहाँ क्यों खड़ी हैं?”

“मुझे लगता है किसी का इन्तज़ार कर रही है। देखो तो अपने मोबाइल से बात भी कर रही है किसी से।”

“उससे क्या होता है...दिल्ली में लड़की सेफ़ नहीं है और वह भी रात के दस बजे!”

“अरे नहीं, ऐसा अन्धेर भी नहीं है...समझदार लगती है जो ठीक लाइट के नीचे खड़ी है...ऐसे में कोई कुछ नहीं कर सकता।”

“रोज़ तो पढ़ते हो अख़बारों में...पूरी दिल्ली क्रिमिनिल कैपिटल बनी हुई है।”

“हाँ, जिसे कुछ करना ही हो तो वह दिन-दहाड़े किसी को उठा ले जाये, लूट ले, मार दे...वह अलग बात है...उसे कोई नहीं रोक सकता...लेकिन ऐसी चलती सड़क पर कुछ करना मुश्किल है।”

“तुम तो हमेशा रामराज में जीते हो।”

मैं पत्नी की यह बात सुनकर थोड़ी देर के लिए खामोश हो गया। सोचने लगा रात को दस बजे के आसपास अक्सर यहाँ ट्रैफिक पुलिस मुस्तैद रहती है। ट्रकों को रोक-रोक कर उनका चालान काटते हुए अक्सर उन्हें मैंने देखा है। आज पुलिस नहीं थी। यही सोचते हुए मैंने एक गहरी निगाह उस लड़की की ओर डाली। उसके और हमारे बीच कोई पचास फुट का फ़ासला होगा। उसने अपना सिर थोड़ा सा घुमाया। हमें उसके चेहरे का थोड़ा सा हिस्सा दिखाई दिया। इतना कि उससे यह अनुमान तो लगाया ही जा सकता था कि लड़की सुन्दर और जवान है। यही कोई बाईस-तेईस के क़रीब।

हम दोनों के गिलास खाली हो गये थे। अब हम इस बात पर बहस करने लगते हैं कि कमरे में पड़े फ्रिज से बीयर कौन निकालकर लायेगा। हम दोनों को ही यह जानने की उत्सुकता थी कि वह लड़की सचमुच किसी आत्मीय का इन्तज़ार कर रही है या देर रात में कोई ग्राहक ढूँढ रही है। मैं तेज़ी से अन्दर गया और फ्रिज से बीयर निकालकर ले आया। बालकनी में लौटकर मैंने नीचे सड़क पर इस अन्दाज़ से निगाह डाली कि सब कुछ यथावत ही है न! दो पलों में कहीं कुछ बदल तो नहीं गया। नहीं बदला। यह देखकर मैं थोड़ा आश्वस्त हुआ और बीयर गिलास में उँडेलने लगा।

मैं यह बात मानने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था कि वह कोई चालू लड़की हो सकती है। मुझे वह दूर से ही सम्भ्रान्त लग रही थी। उसके कपड़े, चाल-ढाल और कन्धे पर लटकते थैले की वजह से ही मैं कह रहा था-”ज़रूर किसी मल्टीनेशनल या कॉल-सेंटर में काम करती होगी” लेकिन मेरी पत्नी की छठी इन्द्री बार-बार दाल में कुछ काला होने का संकेत दे रही थी।

हमारी निगाहें बराबर उसी पर टिकी हुई थीं। हम नाटक पर बहस करना भूल गये थे। हमें सम्भवतः टाइम-पास करने का एक दिलचस्प तरीका मिल गया था। सड़क पर ट्रैफिक लगातार तेज़ी से भाग रहा था, लेकिन कई वाहनों की रफ़्तार उस लड़की के पास पहुँचते-पहुँचते धीमी हो जाती। कोई तो पल भर के लिए रुक भी जाता। वह लड़की किसी भी धीमे होते या रुकते वाहन की तरफ देखती भी नहीं। उसकी निगाहें बराबर अपनी दायीं ओर से आते वाहनों पर ही थीं। वह शायद किसी खास वाहन का इन्तज़ार कर रही थी। उसका वह रवैया मेरे हक़ में जाता था। तभी मैंने ज़ोर देकर कहा-”देखा, शरीफ़ लड़की को लोग कैसे परेशान करने के लिए रुक जाते हैं।” मेरे मन में तो आया कि मैं नीचे जाकर उस लड़की के पास खड़ा हो जाऊँ और उससे पूछँ कि उसे किसका इन्तज़ार है। जब तक वह व्यक्ति आ न जाये मैं उसके पास ही खड़ा रहूँ। लेकिन मैंने इस डर के मारे कुछ नहीं कहा कि अपनी मंशा प्रकट करते ही पत्नी या तो मुझे डाँटकर बिठा देगी-”तुम्हें क्या लेना है उससे, खड़ी है खड़ी रहने दो...” या कहेगी-”अच्छा तो तुम भी लाइन मारने जा रहे हो” या कहेगी-”ज़माना बड़ा खराब है, तुम जाओ और वह तुम्हें ही फ़ँसा दे” या कुछ और या कुछ और।

मैं इधर यह सब सोच रहा था और उधर एक सैंटरो उसके पीछे की बायीं लेन में आकर रुकी। उसमें कुछ लड़के थे। कितने? यह ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था। गाड़ी के शीशे काले थे। बाहर से पड़ती रोशनी से ही अनुमान लगाया जा सकता था। उस लड़की ने उस गाड़ी की ओर नहीं देखा। उसकी निगाहें अभी भी अपनी दायीं ओर से आने वाले ट्रैफिक पर ही थीं। अब मैं भी कुछ-कुछ दुविधा में पड़ने लगा था कि अगर वह अपने किसी आत्मीय का इन्तज़ार कर रही है तो इतनी देर क्यों? मैं एक उधेड़बुन में फँसा जा रहा था। क्या यह वाकई कोई ग्राहक पटाने के लिए यहाँ खड़ी है या यह भी हमारी तरह से टाइम-पास कर रही है? और गाड़ी में बैठे वे लड़के...क्या वे भी टाइम-पास कर रहे हैं या रात गुज़ारने के लिए कोई माल तलाश रहे हैं?

तभी एक एस्टीम बिल्कुल उस लड़की के सामने आकर रुकी। वह लड़की घबराई नहीं। कम से कम मुझे ऐसा ही लगा कि वह ज़रा भी नहीं घबराई और उस मास्ट-लाइट से विपरीत दिशा में पटरी पर धीरे-धीरे चलने लगी। मेरा सोचना यकीन में बदलने लगा कि वह सचमुच एक निहायत शरीफ़ लड़की है, किसी का इन्तज़ार कर रही है और आने वाला किसी मुसीबत में फँसा है। दिल्ली का ट्रैफिक...उफ़!

मैंने गिलास में पड़ी बीयर का आखिरी घूँट अपने हलक के नीचे उतारते हुए कहा-”देखा...क्या हो रहा है, यह है हमारा समाज...अकेली लड़की देखी और लाइन लगाना शुरू...अभी मैं नीचे जाकर इस लड़की के पास खड़ा हो जाऊँ न...तो देखो...कोई नहीं रुकेगा यहाँ...सारी गाड़ियाँ बिना रुके सीधी निकल जायेंगी।”

“हाँ...इसी बात से मुझे तकलीफ़ होती है” पत्नी ने कहा।

“तकलीफ़ की बात तो है...लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है...अब इसे औरतें मानें चाहे न मानें” मैंने कहा।

“तुम यह कहकर क्या साबित करना चाहते हो?”

“यही कि बहुत सी जगहों और बहुत से कामों में आदमी की ज़रूरत पड़ती है।”

“और बहुत सी जगहों में औरत की नहीं पड़ती क्या?”

“पड़ती है न, हम तो मानते हैं कि पड़ती है, कॉम्प्लैक्स औरतों में आया है कि हम पुरुष के बिना भी समाज चला सकती हैं।”

“अरे छोड़ो यह बहस...वो देखो।”

मैंने देखा कि एक मोटर साइकिल उस लड़की से कोई दस-पंद्रह फुट की दूरी पर आकर रुकी। उस पर एक युवा सरदार और एक मौना लड़का था। वे वहीं खड़े हो गये। सैंटरो कार चली और एक चक्कर लगाकर ठीक उस लड़की के सामने मेन रोड पर खड़ी हो गयी। तभी एक और स्कूटर रुका। उस पर भी दो लड़के सवार थे। दोनों ने हैल्मेट पहन रखे थे, इसलिए उन्हें पहचानना मुश्किल हो रहा था। सैंटरो कार फिर वहाँ से हिली और थोड़ा आगे जाकर रुक गयी।

अब मुझे भी कुछ-कुछ विश्वास हो चला था कि हो न हो यह कोई कॉल-गर्ल ही होगी। पर वह ऐसे इस तरह से सड़क के किनारे क्यों खड़ी है? मेरे मन में ‘राम नाम सत्य है’ का वह चरित्र सिर उठाकर खड़ा हो गया। नाटक का विषय एड्स था। ट्रीटमेंट भी ठीक ही था। नाटक में एक लड़की आती है। बिंदास। सुन्दर। एक लड़का है जो मस्त-मौला है और खुली ज़िन्दगी में विश्वास रखता है। उसी से मिलती है वह लड़की और थोड़ी बातचीत और मान-मनौवल के बाद दोनों हम-बिस्तर होते हैं। और बाद में जब उस लड़के को पता चलता है कि वह लड़की तो एड्स पीड़ित थी तो उस लड़के के हाथों के तोते उड़ जाते हैं। वह लड़की जिसे किसी पुरुष से यह रोग मिला था, अब वह वही रोग पुरुषों में बाँट रही थी। यानी पूरी पुरुष-जाति से बदला।

तो क्या रिंग-रोड के किनारे रात को खड़ी यह लड़की भी इस नाटक की उस लड़की जैसी ही है? इसी तरह की ख़बर मैंने अख़बार में पढ़ी थी। तो क्या वह लड़की अख़बार से निकलकर सड़क पर आ गयी है? मैं यह सब सोचकर अन्दर ही अन्दर हिल गया। मेरे हिलने की वजह लड़की कम और मेरी अपनी कारगुज़ारियाँ ज़्यादा थीं। पल भर में कई चेहरे मेरी आँखों में तैरे और मुझे डराकर सड़क पर चलने लगे...तो क्या? मुझे लगा जैसे सड़क पर खड़ी वह लड़की मेरे अन्दर प्रवेश कर रही है। कुछ सालों बाद मैं भी किसी अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा मौत का इन्तज़ार कर रहा हूँ। ठीक उसी तरह से जैसे एड्स से पीड़ित नाटक का चरित्र अन्त में मृत्यु की अन्धी गुफ़ा में प्रवेश कर जाता है ओर कई चरित्र उसी राह के राही हो चुके हैं।

मैं जल्दी से जल्दी इस ख़याल को भी मन से हटा देना चाहता था। मैंने अपनी नज़रें सड़क पर हो रहे घटना-क्रम पर गड़ा दीं। वह लड़की अब आराम से पटरी पर बैठी हुई थी। स्कूटर पर सवार होकर आये दो लड़कों में से एक आगे खड़ी गाड़ी में बैठे व्यक्तियों से बात कर रहा था और सरदार लड़का सैंटरो में बैठे लड़कों से। अब तो बिल्कुल स्पष्ट हो चुका था कि मेरी पत्नी की असेसमेंट सही थी। हमेशा की तरह। और मेरी असेसमेंट ग़लत थी। हमेशा की तरह।

रात के ग्यारह बज चुके थे। सरदार लड़का उस लड़की के पास आया। उसने उससे कुछ बात की। दूसरी ओर से स्कूटर पर सवार लड़का भी उस लड़की के पास आया। उसने भी कुछ बात की।

पत्नी बोली-”यह लड़की क्यों डरने लगी, इसके साथ तो पूरा गैंग है।”

“यह लोग तो मोहरे हैं...असली बॉस तो कहीं आराम से बैठा या बैठी होगी” मैंने कहा और जोड़ा-”कि आजकल तो लड़कियाँ बहुत चुस्त हो गयी हैं और दो-चार मिलकर ख़ुद ही अपना धन्धा चलाने लगी हैं। नेट पर तो यह आम हो गया है।”

“पर यह सड़क पर क्यों खड़ी है...सड़क पर खड़ी लड़की को क्या कीमत मिलती होगी।”

लड़की से बात करने के बाद वे दोनों लड़के फ़ासले पर खड़ी दोनों गाड़ियों के पास गये और उनसे कुछ बात की। बात करने के बाद वे दोनों गाड़ियाँ चल दीं। वह लड़की भी बायीं दिशा में सड़क के किनारे-किनारे चलने लगी। उसकी चाल में सुस्ती थी। हमें लग रहा था कि उसका सौदा नहीं पटा और वह उदास होकर लौट रही है।

हमारी बीयर भी ख़त्म हो चुकी थी और मैंने खाना खाने का इसरार कर दिया। पत्नी उठकर रसोई में चली गयी और मैं बालकनी में बैठा आते-जाते ट्रैफ़िक को देखने लगा।

थोड़ी देर बाद देखता हूँ वहीं सैंटरो गाड़ी लौट रही है। उसमें कुछ लोग हैं। गाड़ी के शीशे काले हैं। मैं अनुमान लगाता हूँ कि वह लड़की भी अब इसी गाड़ी में होगी। मैंने उस लड़की को गाड़ी में देखा नहीं, इसलिए आप मेरे अनुमान को टाइम-पास कह सकते हैं। लेकिन एक बात तो तय है कि वह लड़की और वे लड़के सिर्फ टाइम-पास नहीं कर रहे थे।