टाॅफी के बदले / मनोहर चमोली 'मनु'

Gadya Kosh से
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स्कूल के बांई ओर एक ही दुकान थी। माही ही इस 'माही कार्नर' दुकान पर बैठा करते थे। बच्चों को ज़रूरत की चीज़ें 'माही कार्नर' में मिल जाया करती थीं। एक दिन हिया ने एक रबर मांगा तो माही ने रबर के साथ एक टाॅफी दे दी। हिया चैंकी-"ये टाॅफी!" माही ने हंसते हुए कहा-"एक रुपया जो नहीं है।" हिया ने कहा-"लेकिन मुझे टाॅफी नहीं चाहिए।" माही ने मुंह बनाया-"तो चार रुपए खुले दो न।" हिया ने रबर और टाॅफी उठाई और अपनी क्लास में आ गई।

एक दिन फिर ऐसा ही कुछ हुआ। हिया ने दस रुपए दिए। माही ने एक पेंसिल, एक रबर और एक कटर दिया। दो टाॅफिया भी दे दीं। हिया ने कहा-"माही अंकल, मुझे टाॅफी नहीं चाहिए।" माही ने चिढ़ाते हुए कहा-"दो रुपए ़खुले नहीं हैं।" हिया ने सामान लौटाते हुए कहा-"आप हमेशा बचे रुपयों के बदले टाॅफी दे देते हो।" माही ने डांटते हुए कहा-"तुम्हें सामान लेना है कि नहीं? ये लो अपना दस रुपया। मुझे आठ रुपए दो।" हिया सोच में पड़ गई। फिर चुपचाप सामान के साथ टाॅफियाँ उठाईं और स्कूल चली आई।

एक दिन की बात है। इंटरवल था। सब अपना टिफिन खोल ही रहे थे। तभी स्टालिना गुस्से में अंदर आई। बोली-"दो रुपए का चूरन चाहिए था। चूरन के लिए पांच रुपए ख़र्च करने पड़े। ये देखो, तीन रुपए की टाॅफियाँ। माही अंकल बचे रुपए नहीं देते। टाॅफियाँ पकड़ा देते हैं।" बातों ही बातों में हिया ने भी पुराने किस्से सुनाए। फिर तो एक के बाद एक कई सहपाठियों ने ऐसा ही कुछ बताया। हिया ने सबको पास बुलाया। खुसर-पुसर हुई। फिर सब ज़ोर से हंसने लगे। सबने खाना खाया और मैदान में खेलने चले गए।

कई दिन बीत गए। फिर एक दिन निपुण, अनवर, स्टालिना, जाकिर, धनजीत, इसरत, दक्ष, गोकरण और ताहिरा माही की दुकान पर आ पहुँचे। हिया के हाथों में एक डिब्बा था। वह टाॅफियों से भरा हुआ था। हिया ने काउंटर पर टाॅफिया बिखेर दीं। माही ने चैंकते हुए पूछा-"ये क्या है?" हिया ने कहा-"टाॅफिया हैं।" धनजीत ने बताया-"माही अंकल, गिन लो। पूरी एक सौ बीस हैं।" अब इसरत बोली-"इनके बदले में एक सौ बीस रुपए दे दीजिए।" निपुण ने कहा-"माही अंकल, ये टाॅफियाँ आपने ही हमें दी हैं। बस, हमने इन्हें खाया नहीं है। इकट्ठा करते रहे। अब आपको लौटाने आए हैं।" जाकिर ने कहा-"हम बता सकते हैं कि हमने कब-कब आपसे क्या-क्या खरीदा है। हम बता सकते हैं कि बचे रुपयों के बदले आपने कब-कब किसे कितनी टाॅफिया दीं हैं।" गोकरण ने नोटबुक दिखाते हुए कहा-"ये देखो। हमने एक-एक टाॅफी का हिसाब लिखा हुआ है।" यह सुनकर माही चैंक पड़ा। फिर तुरंत जैसे नींद खुली हो। चीखते हुए कहा-"निकलो यहाँ से। बिका हुआ माल वापिस नहीं होता।"

बच्चे शोर मचाने लगे। प्रिंसिपल सामने से आ रही थीं। स्कूली बच्चों को देखकर प्रिंसिपल भी दुकान में आ गईं। हिया ने सारा किस्सा बताया। माही ने प्रिंसिपल से कहा-"ऐसे थोड़े न होता है। मैं ये बिकी हुईं टाॅफिया वापिस नहीं ले सकता।" हिया ने कहा-"माही अंकल, हमने आपसे कभी टाॅफियाँ नहीं खरीदीं। आपने हमें दीं। वह भी हमारे बचे हुए रुपयों के बदले दीं हैं।" प्रिंसिपल हंसते हुए हिया से बोलीं-"चलो कोई बात नहीं। मैं तुम्हें एक सौ बीस रुपए दे देती हूँ। तुम ये टाॅफियाँ क्लास में बांट देना। आगे से तुम सब उस दुकान से ही सामान खरीदना, जो बकाया रुपए वापिस करती हो। मैं सभी क्लास टीचर्स से कहूंगी कि वे यह बात सब बच्चों को बता दें। अब यहाँ से चलो।" यह सुनकर माही ने कहा-"नहीं, मैडम। ऐसा मत करिए। मैं सारी टाॅफिया वापिस ले लेता हूँ। लेकिन, मैं एक-दो रुपए कहाँ से लाऊँ? मुझे भी तो खुले पैसे चाहिए। मेरे बारे में भी तो सोचिए।" प्रिंसिपल सोचते हुए बोलीं-"हम महीने की पन्द्रह तारीख को फीस लेते हैं। बहुत सारी रेजगारी इकट्ठा हो जाती है। मैं सभी टीचर्स को कह दूंगी। वे आपको हर महीने खुले रुपए दे दिया करेंगे। वैसे सवाल नियत का है। समस्या है तो समाधान भी होता है। आपको समझना चाहिए कि इन बच्चों ने आपको समझाने के लिए धीरज से काम लिया है। आपको इनकी योजना से समझ लेना चाहिए कि बच्चे भी सही-गलत में अंतर कर लेते हैं।" यह सुनकर माही ने सिर झुका लिया। एक सौ बीस रुपए लेकर बच्चे स्कूल आ गए। इंटरवल हुआ। बच्चों ने गोकरण की नोटबुक से मिलान किया। रुपए बांटने में उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई।