टिक्की वाले सरदार जी / अंजू खरबंदा

Gadya Kosh से
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सर्दियों की खुशनुमा सुहावनी सर्द शाम।

पीछे के कमरे में रखे इकलौते पलंग पर कॉपी किताबें ले मैं पढ़ने में तल्लीन थी कि अचानक पूरी फ़िज़ा मनभावन आकर्षक ख़ुशबू से महक उठी।

कॉपी किताब ताक पर रख खिड़की से गली में झाँकती मेरी उत्सुक आँखों ने देखा कि सरदार जी अपनी साइकिल पर एक बक्सा-सा जमाए जोरदार आवाज़ लगाते हुए हमारी गली से निकल रहे थे-

टिक्कीsssssss गर्मागर्म टिक्कीsssss!

जाने उस आवाज़ में आकर्षण था कि टिक्की की अद्भुत ख़ुशबू में! ध्यान बरबस ही उस ओर खिंचा चला जाता।

तभी पड़ोस के कुछ बच्चे टिक्की लेने धमक पड़े। अब सरदार जी ठीक हमारे दरवाज़े के आगे खड़े थे।

सरदार जी ने तीन-चार कागज़ एक के ऊपर एक जमाए, उस पर गर्मागर्म टिक्की रखी, झट से उसे दो फाड़ खोला! धुँए की लहरों के साथ तेज ख़ुशबू पूरे वातावरण को चीरती हुई सीधे मेरे नथुनों में समा गई।

अरे देखो! आलू, मटर और दाल कैसे टुकुर-टुकुर बाहर झाँकने लगे। सरदार जी ने उस पर हल्का-सा मसाला बुरका, इससे पहले कि आलू बेचारे कुछ समझ पाते पुदीने, धनिये, हरी मिर्च की तीखी चटनी छपाक से उस पर पड़ी और फिर उस हरी चटनी पर गुड़ की लाल चटनी!

हरे लाल चटख रंगों ने टिक्की की खूबसूरती को मानो चार चाँद लगा दिए हों।

अर्जुन की भाँति मेरा दिमाग़ मेरी आँखें, मेरी नाक ... सब पूरी तरह से टिक्की पर केंद्रित थे।

टिक्की वाले सरदार जी की आवाज़ सुन अधिकतर तो ख़ुद को कंट्रोल कर लिया जाता; पर कभी-कभी कंट्रोल करना मुश्किल, सच पूछो तो नामुमकिन हो जाता। अब अपनी खिड़की से ये नज़ारा देख भला कितनी देर ख़ुद को रोक पाती!

अरे बाबा रे! इतनी हिम्मत न थी कि सीधे पापा जी के पास पहुँच जाएँ। पापा तक अपनी बात पहुँचाने का एक ही ज़रिया थी-मम्मी!

मम्मी टिक्की खानी है!

चुप! हल्की-सी झिड़की पड़ती।

मम्मी! कितने दिन से नहीं खाई! खिला दो न!

अच्छा रुक तेरे पापा से पैसे लाती हूँ!

मैं डर के मारे दरवाजे के पीछे दुबक गई कि अभी पापा जी की झाड़ पड़ेगी।

मम्मी खाली हाथ वापिस आई, तो मेरा चेहरा उतरा देख मुस्कुरा दी।

दरवाजे के पीछे लगी कील पर पापा जी की पैंट टंगी रहती। उसे कील से उतारकर पापा के पास ले गई।

अब आशा की किरण मेरी आँखों में चमक उठी।

पापा ने पैंट मँगवाई यानी राजी हो गए।

मेरी मम्मी ने पापा की जेब में हाथ डालकर कभी भी ख़ुद पैसे नहीं निकाले। उनकी ये आदत कब मेरी आदत बन गई पता ही नहीं चला।

अब मम्मी मोहक प्यार भरी मुस्कान के साथ मेरे करीब आई और चमकता हुआ पचास पैसे का सिक्का मेरे हाथ पर धर दिया।

उस सिक्के को अपने हाथ में पाकर उस समय ऐसे महसूस हुआ मानो दुनिया जहान की खुशियाँ मुझे मिल गई हो।

सिक्का ले ये जा, तो वह जा!

गर्मागर्म टिक्की खा जो रूह को सुकून मिला, जिह्वा को जो आनंद आया, वह अवर्णनीय है। सच बताऊँ! मेरे शब्द उस स्वाद को छू भी नहीं पाएँगे।

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