टिस्का चोपड़ा की व्यावहारिक किताब / जयप्रकाश चौकसे

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टिस्का चोपड़ा की व्यावहारिक किताब
प्रकाशन तिथि : 25 सितम्बर 2013


टिस्का चोपड़ा प्रसिद्ध लेखक खुशवंत सिंह की पोती हैं और उनके पिता एक स्कूल के प्राचार्य रहे हैं। आमिर खान की 'तारे जमीं पर' का शिक्षा से संबंध और उसमें अपनी बेटी के अभिनय ने उन्हें खुश कर दिया। वे हमेशा गंभीर अध्ययनरत व्यक्ति रहे और सिनेमा संसार से उनका कोई संबंध नहीं था। टिस्का बचपन से ही अभिनय को पसंद करती थीं और यह उनका स्वाभाविक रुझान था। वे इतनी कल्पनाशील भी रही हैं कि फुर्सत के वक्त पात्रों की कल्पना भी करती हैं और उन्हें अभिनीत भी करती हैं। यह सब कोई व्यावसायिक तैयारी नहीं है और उन्हें कोई ऐसी आशा भी नहीं है कि इस तरह की विविध भूमिकाएं उन्हें मिल सकेंगी। यह कुछ ऐसा ही है जैसे कि बच्चे निर्जीव खिलौनों को सजीव मानते हैं और अपने खेल को सच्चाई मानते हैं तथा इसी प्रक्रिया में उनकी कल्पनाशीलता प्रखर होती है।

बहरहाल, टिस्का चोपड़ा ने एक किताब लिखी है, जो सिनेमा में आने की इच्छा रखने वालों के लिए गाइड का काम करेगी और साथ ही उन्हें फिल्म उद्योग में प्रसिद्ध लोगों के अनुभवों से भी परिचित कराएगी। इस तरह की किताबें प्राय: नीरस होती हैं, परंतु टिस्का चोपड़ा ने इसमें मनोरंजक प्रसंग भी जोड़े हैं। इस किताब के लेखन को खुशवंत सिंह की वंशज होने से नहीं जोड़ा जाना चाहिए, क्योंकि यह उनके लेखन से बिल्कुल भिन्न है। दरअसल, यह फिल्म अभिनय की कोई पाठ्यक्रम स्तर की किताब नहीं है, वरन व्यावहारिक सलाह इसमें संकलित है।

टिस्का चोपड़ा का कहना है कि अभिनय के लिए शरीर की मांसपेशियों का कार्यकलाप और लेखन के लिए उनका इस्तेमाल दो बिल्कुल विभिन्न बातें हैं। टिस्का चोपड़ा के पास रंगमंच का भी अनुभव है। दरअसल, आज इस तरह की किताबों की आवश्यकता है, क्योंकि देश के कोने-कोने से युवा फिल्म उद्योग से जुडऩे के लिए आते हैं। यह भी सर्वविदित है कि अनेक युवा लोग यहां ठगे भी जाते हैं। अनगिनत युवा अपनी महत्वाकांक्षा में अंधे होकर किसी पर भी विश्वास कर लेते हैं। अरसा पहले मेरे एक मित्र बॉम्बे सेन्ट्रल स्टेशन पर जाते थे और प्राय: उनका अनुमान सही सिद्ध होता था कि यह मुसाफिर फिल्मों से जुडऩे के लिए आया है। कुछ लोग इस तरह भांपकर उसे अपने दफ्तर ले जाते थे, जो आगंतुक को विश्वास दिला देता था कि वह सही जगह आया है। फिर उसकी जमापूंजी उसे बड़े निर्माता से मिलाने के जतन में लूट ली जाती थी। इसी तरह अनेक छोटे शहरों के कुछ अमीर चंद रीलों में अपना पैसा लुटाकर आधी फिल्म के साथ अपने पुश्तैनी व्यापार में लौट जाते हैं।

दरअसल, फिल्म उद्योग की गॉसिप पत्रकारिता ने एक मायाजाल रचा है और सच्चे फिल्म साहित्य के अभाव में ये खूब पढ़ी जाती हैं। पाठ्यक्रम में फिल्म आस्वाद के ऐच्छिक विषय के रूप में नहीं होने के भी बुरे परिणाम आए हैं। आश्चर्य की बात यह है कि फिल्म के सर्वव्यापी प्रभाव के बाद भी शिक्षाविदों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। आज अनेक सुप्रसिद्ध औद्योगिक घरानों ने फिल्म कॉर्पोरेट का निर्माण किया है, परंतु फिल्म शास्त्र की शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है। अनेक शहरों में फिल्म प्रशिक्षण के नाम पर बोगस संस्थाएं लूटपाट के काम में लगी हैं। आज तो हालत यह है कि पुणे फिल्म संस्थान में विद्यार्थी यूनियन अपना सिलेबस तय करता है और वातावरण इतना खराब हो चुका है कि पेंटल जैसे शिक्षकों ने वहां जाना बंद कर दिया।

आज युवा को पूरा फिल्म-शास्त्र पढऩे की आवश्यकता भले ही नहीं हो, परंतु कुछ व्यावहारिक जानकारियों की किताब पाठ्यक्रम में शामिल की जा सकती है। पूरे भारत में फिल्म-गीत लिखने की इच्छा अनगिनत लोगों की है, परंतु इतनी-सी बात भी प्रचारित नहीं है कि संगीतकार द्वारा दी गई धुन पर बोल लिखने पड़ते हैं। संगीत की प्राथमिक जानकारी बिना फिल्म गीत नहीं लिखी जा सकती। इस पृष्ठभूमि में टिस्का चोपड़ा की किताब व्यावहारिक ज्ञान दे सकती है।

टिस्का चोपड़ा का अपने काल्पनिक पात्रों को भावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने के शौक की प्रशंसा करनी होगी और इसी कल्पनाशीलता के साथ वे अपने मन में जन्मी फिल्म के प्रीमियर भी निजी कल्पना जगत में कर सकती हैं। अवाम की ऐसी अनदेखी, अप्रदर्शित, अघटित फिल्मों का भ मन के जलसाघर में स्वागत है।