टीस / प्रतिभा सक्सेना

Gadya Kosh से
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कुछ दिनों से, जब से यह नया लड़का ऑफ़िस में आया है, मैं स्थिर नहीं रह पाता।

ज़रा शऊर नहीं, न कपड़े पहनने का न चार लोगों में बात करने का। मुझे तो उसकी हर बात में बेतुकापन नज़र आता है। सामने होता है तो बड़ी उलझन होने लगती है।

कल ही चाय में ब्रेड के पीस डुबो-डुबो कर खाने लगा।

मैंने इशारे से धीर को दिखाया।

'उँह, चलता है', उसने कह दिया।

लंच टाइम में उँगलियाँ तक सान लेता है, ठीक से खाना भी नहीं आता - फिर चाट लेता है बीच-बीच में। किसी से परिचय की बार बुद्धू सा खड़ा, ताकता रहेगा या फिर झपट कर शेकहैंड को तैयार।

मैं तो गाहे-बगाहे उस पर कमेंट कर देता हूँ।

क्या करूँ। कोई एक बात हो तो कहूँ। मैनर्स बिलकुल हैं ही नहीं।

पर आज तो मुझसे बिलकुल रहा नहीं गया झिड़क दिया मैंने,

'बेशऊर कहीं के, रहने का ढंग सीखो, जाओ पहले हाथ धोकर आओ। ’

प्रसन्न चेहरा फक्क पड़ गया था। उसे यों घबराया सा देख कर बड़ा मज़ा आया।

वह चुपचाप उठ कर चला गया।

इतने दिनों से देख रहा था जब चाहे कर मुँह चियारे हँसने लगना।

जोर से जमुहाई लेना, बीच-बीच में सिर खुजाने लगना।

... अरे, देख कर तो सीखे, किन लोगों में बैठा है, कैसा व्यवहार करना है।

कोई बात कर रहा हो, बीच में अचानक टपक पड़ता है।

बिना पूछे अपनी राय ज़ाहिर करने लगता है।

आखिर कहाँ तक बर्दाश्त करे कोई?

अपने साथी को बताया, ’एकदम जंगली, देख कर कोफ़्त होती है!’

उधर से कोई उत्तर नहीं, पर मैं कहे चला गया, ’पेट भर खाना मयस्सर नहीं, मैनर्स कहां से आएँ?’

मेरे साथी ने बात खत्म कर दी, ’अरे छोड़ो भी, कहाँ चक्कर में पड़े हो। ’


बुझा-सा चेहरा लिये वह आकर चुपचाप बैठ गया था, सिर झुकाये काम करता रहा।

मेरा ध्यान बार-बार उसकी ओर जा रहा था।

बिलकुल मन नहीं लग रहा था।

अचानक बड़ी हुड़क उठने लगी। ब्रेड का पीस चाय में डुबो कर खाने की ।

ओह, कितने दिन हो गये!

एक बार सबको अजीब तरह से देखते नोट कर लिया। छोड़ दिया तब से। अब बटर लगा कर, चबा, चबा कर खाता हूँ।

वैसे दाल-चावल हाथ से मिला कर खाने का मज़ा ही और है। उंगलियों से

मिला मिला कर कौर बनाने से जैसे स्वाद ही और हो जाता है!

पर अब सब कुछ चम्मच से खाता हूँ, समोसा भी। उँगलियों से छू न जाय कहीं -

बैड मैनर्स!

इतना चाक-चौबस्त मैं!

कहीं कोई ज़रा सी कमी निकाल दे। बोल-चाल, व्यवहार, चाल-ढाल सब नपा-तुला। तभी तो कोई बेतुकी चीज़ एकदम खटकती है।

सुरुचि संपन्न, संस्कारशील, अभिजात लगता हूँ न!

वैसे। कभी -कभी अपने को खुद लगता है ओवर-रिएक्ट कर गया हूँ। जब लोग देखने लगते हैं मेरी ओर। तब कांशस हो जाता हूँ एकदम।

समय लग जाता है प्रकृतिस्थ होने में।

यों तो अभी भी कभी-कभी समझ में नहीं आता कि कहाँ क्या बोलना चाहिए। पर अब मेरा रहन-सहन बदल गया है इतना तो समझने ही लगा गहूँ कि अपनी तरफ़ ध्यान हो तब अपनी बात कहूँ। बेतुकी बात मुँह से न निकल जाय, इसलिए अधिकतर चुप रहता हूँ। क्या करूँ न शकल-सूरत, न गुन-ढँग। पर दुनिया को काफ़ी समझने लगा हूँ।


जब लगे कोई देख रहा है तो सहज होना बड़ा कठिन हो जाता है। और मेरे साथ तो यह होता कि जितना सँभालने की कोशिश करूँ उतना ही बस से बाहर होता जाता।

हर समय विचलित-सा, सामने पड़ने से कतराता।

हाँ, रॉ था, एकदम ठेठ। कौन, सँवारता काट - छांट करता?

वह सब याद कर एक उसाँस निकल गई।

अरे, बात तो उसकी है, मैं अपने बारे में क्यों सोचने लगा!

सिर झटक देता हूँ --क्या फ़ालतू ख़याल!

अब तो वह सब सोच कर हँसी आती है। मैं और बिल्कुल ठेठ? छिः...

कभी-कभी टीस उठता है अंतर से। बचपन से किशोर अवस्था बीत जाने तक लोगों की नज़रे पढ़ते-पढ़ते मेरे मन का चैन समाप्त हो गया था। निश्चिंत होकर नहीं रह पाता... अपनी हर कमी पहाड़-सी नज़र आती। कोई पता नहीं मेरे बारे में क्या सोचता होगा -ऊपर से गरीबी की मार - न ढंग के कपड़े, न रहने की तमीज़।


कितने अपमानों की कड़वाहट भरी है मुझ में, कितने उपहास और व्यंगों की चुभन! कपड़े पहनने का शऊर कहाँ था? एक तो पास में थे ही कितने, ऊपर से कैसे, क्या किसके साथ पहने जायँ चाहिए, अकल ही नहीं।

कुछ भी आसान नहीं रहा था।

बदल डाला मैंने अपने आप को, वह बिलकुल नहीं रहा जो था।

यह सब अर्जित करने में क्या-क्या पापड़ बेले हैं!

आज कोई देख कर कह तो दे। लगता हूं पीढियों से पॉलिश्ड परिवार में जन्मा हूं। बेढंगे-बेशऊर लोगों को ऐसी हिकारत से देखता हूं जैसे उनकी मानसिकता से कभी पहचान ही न हो।

जो कुछ संभ्रांत है उस पर सहज अधिकार है मेरा। फटाफट अंग्रेज़ी, और शिष्टाचार में कोई ज़रा-सी कमी तो निकाल दे। कहीं कोई झिझक नहीं कोई संकोच नहीं,

अब हूँ ऐसा -एकदम रिफ़ाइंड, सुरुचि-संपन्न!

ये सब बातें बचपन से सिखाई जाती हैं या अपने वातावरण से सीखता है आदमी।

सहानुभूति उमड़ती है अपने लिये। फ़ौरन उन लोगों पर ध्यान जाता है जो ऐसे हैं, क्यों कि मैं भी उन मे से एक रहा हूँ। पर निम्नवर्ग के वे दाग़ छुटा डाले हैं धो-धो कर। उस जीवन के अंश मिटा कर बड़ी मेहनत से ये ढंग विकसित किए हैं मैंने।


'मैनर्स सीखने की बात? जिसे पेट भर खाने को न मिलता हो उससे?’

अपने ही शब्द कानों से टकराते हैं। अंदर ही अंदर कुछ उमड़ता है। चैन नहीं पड़ रहा किसी तरह।

कोई पुरानी चुभन सारे वर्तमान को पीछे छोड़ती शिद्दत से उभर आई जैसे उसे नही, मुझे हड़का दिया हो किसी ने।

हाँ, झिड़का गया था मैं कितनी बार!

इसी लायक था - न मौका देखता न मुहाल। जो बात मन में आई मुँह पर दे मारी।

न किसी का लिहाज़, न शर्म। सुननेवाला भी भड़क उठे।

खूब बड़ों-बड़ों से लड़ जाता। उमर में कितने बड़े हों, ज़ुबान लड़ाता रहता। वे कुछ कहें तो उन्हीं से बत्तमीज़ कह देने में संकोच नहीं।

कैसा सँभला अपने को। कोई निशान बाकी नहीं। कोई दूसरा क्या पहचानेगा, अक्सर मैं स्वयं अपने को नहीं पहचान पाता।

'कितनी बनावट? कहाँ तक निभाओगे?’

चौंक पड़ा मैं - यह कौन?

'तुम कहाँ से आ गये, मैं तुम्हें बीती गहराइयों में गाड़ आया था?’

'बीतता यहाँ कुछ नहीं, साथ चला आता है। कैसे रह पाते हो ऐसे?’

'क्या मतलब तुमसे?'

'मैं अलग कहाँ तुम्हारा एक हिस्सा हूँ?”

'वह पीछे रह गया, मेरे साथ नहीं। ’

'मैं हूँ जो हूँ तुम्हें क्या -'

'स्वाभाविक कैसे रह पाओगे ऐसे?

झुँझला कर बिफ़र पड़ा -

हाँ, हाँ, मैं मिसफ़िट हूँ, हर जगह, मिसफ़िट। इन लोगों के साथ बिलकुल अकेला, अलग -?

उसके मुख पर छाई व्यंग्य भरी मुस्कान, मैं कट कर रह गया।

'क्यों आ गये तुम? किसने बुलाया था तुम्हें?’

'मैं गया ही कहाँ कभी? तुम्हीं मुझसे बचते हो, सामने पड़ने से घबराते हो। '

'नहीं, तुम नहीं मेरे साथ। '

'एक सिक्के की दो सतहें हैं हम। अलग कर पाओगे?

कुछ नहीं सूझ रहा, बड़ा बेबस, उदास, कपड़े बदले उतार कर फेंक दिए काउच पर।

बुरी तरह थकान लग रही थी।

बिस्तर पर पड़ गया, सामने ड्रेसिंग टेबल के शीशे में दिखाई दे गई अपनी, विकृत, खिसियाई शक्ल।

तकिया खींच कर मुँह औँधा लिया।

आँखों से बहते आँसू और कहाँ समाएँगे!