टूटी टाँग / कामतानाथ

Gadya Kosh से
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यदि आप कोई छोटी-मोटी पार्टी दे रहे हों, यानी कुछ चुने हुए दोस्तों के साथ ड्रिंक और डिनर का आयोजन कर रहे हों, और आप चाहते हों कि आपकी पार्टी सफल हो, तो मेरा सुझाव है कि आप उसमें किसी अवकाश प्राप्त फौजी अफसर को अवश्य आमंत्रित करें, विशेषकर तब जब आपकी पार्टी में शामिल होने वाले आपके दोस्त एक-दूसरे से भली-भांति परिचित न हों। क्योंकि ऐसी स्थिति में प्रायः होता यह है कि वार्तालाप पर एक प्रकार की औपचारिकता और कभी-कभी चुप्पी तक हावी होने लगती है जो आपकी शाम को खुशगवार बनाने के बजाय उसे बरबाद कर सकती है। ऐसी स्थिति में एक फौजी अफसर की उपस्थिति पूरे माहौल को जिंदा दिल बनाए रखने में काफी सहायक होती है। फौजी अफसरों के पास अनुभवों का विपुल भंडार होता है और वह उसे दूसरों के साथ बांटने के लिए आतुर भी रहते हैं, खास तौर से तब जब बढ़िया किस्म की व्हिस्की के दो-ढाई पैग उनके आमाशय में उतर चुके हों।

यह बात मैं अपने निजी अनुभव के आधार पर कह रहा हूं। मेरे बाबा, जो पुराने रईस थे और उस जमाने के वकील थे जब पं. मोतीलाल नेहरू वकालत किया करते थे, अक्सर ही शाम को अपने दोस्तों को अपने घर पर आमंत्रित करते रहते थे। मैं उन दिनों काफी छोटा था और अपने बाबा का चहेता भी। शायद इसीलिए घर के नौकरों को छोड़कर मैं घर का एकमात्र ऐसा सदस्य था जो उस समय अपने बाबा के कमरे में मौजूद रहता। मेरे बाबा और उनके दोस्त अपने-अपने गिलासों में शराब के पैग ढाले बैठे उसकी चुस्की ले-लेकर आपस में बातें करते रहते और मैं अपने बाबा की गोद में जमा बैठा उनकी बातें सुनता रहता और कभी-कभार गुर्दे, कलेजी का कोई टुकड़ा मुंह में डालकर चुभलाता रहता।

उनकी इस मित्र मंडली में एक मेजर आर डायल हुआ करते थे। ‘आर डायल’ उनका असली नाम नहीं था। असली नाम तो था राम दयाल लेकिन वह ‘आर डायल’ नाम से जाना जाना पसंद करते थे। उनकी एक टांग लकड़ी की थी और ऐसा समझा जाता था उनकी यह टांग उनके किसी फौजी अभियान की नज़र हो गई। इसके बावजूद वह मोटर चलाते थे और अपनी पुरानी फोर्ड गाड़ी खुद ड्राइव करके हमारे यहां आते थे। खासे लंबे, गोरे-चिट्टे आदमी थे वह। उस पर उनकी घनी मूंछें जिन्हें वह हमेशा खिजाब से रंगे रहते उनके चेहरे को और रोबदार बनाए रहतीं। व्हिस्की के डेढ़-दो पेग पेट में जाने तक भले कोई बोल ले उसके बाद प्रायः यह होता कि अकेले डायल साहब बोलते होते और लोग उन्हें सुनते होते। अक्सर ही बात उनकी लकड़ी की टांग को लेकर शुरू होती क्योंकि कोई न कोई ऐसा आदमी निकल ही आता जो उनसे उसके बारे में पूछ बैठता कि क्या यह हादसा उनके किसी फौजी अभियान के दौरान गुजरा। मेजर साहब इसका सीधा जवाब न देकर कुछ इस तरह की बात करते कि अजी साहब हादसे की क्या पूछते हैं, हादसा तो फौजी आदमियों की जिंदगी का जरूरी हिस्सा होते हैं। कोई एक हादसा हो तो आपको बताऊं। इस पर लोग उनसे अपने अनुभव सुनाने का आग्रह करने लगते और वह अपने गिलास में बची व्हिस्की खत्म करके नया पैग ढालकर सामने रख लेते और शुरू हो जाते। पता नहीं कितने ही किस्से, जिन्हें वह अपनी फौजी जिंदगी का हिस्सा बताते थे उन्हें याद थे। लेकिन एक किस्सा जो मैंने उनकी जबान से कितनी ही बार सुना था उन्हें बहुत ही प्रिय था। और तारीफ करनी होगी उनके किस्सा सुनाने की कला की कि जो लोग उसे पहले भी सुन चुके होते वे भी उसे दोबारा सुनने में कतई बोर नहीं होते।

‘‘बात उन दिनों की है’’, वह कहते, ‘‘जब मैं ब्रिटिश फौज में कैप्टन था और अफगानिस्तान के बॉर्डर पर पोस्टेड था। दूसरी अफगान जंग को गुजरे अभी ज्यादा वकफः नहीं हुआ था और हालांकि अफगानिस्तान के अमीर और हिंदुस्तान की ब्रिटिश हुकूमत के बीच ट्रीटी साइन हो चुकी थी लेकिन सरहद के पास रहने वाले अफरीदी कबाइली अंग्रेज हुकूमत की नाक में दम किए हुए थे और अंग्रेजों का यह ख्याल था कि अफगानिस्तान का अमीर खुफिया तौर पर उन्हें शह देता है। जब भी इन कबाइलियों का मूड आता ब्रिटिश राज्य में घुस आते, जहां चाहते लूट-पाट करते, कभी-कभी तो फौजी ठिकानों पर भी हमला बोल देते और हमारे असलहा लूट ले जाते। एक बार तो एक अंग्रेज अफसर को भी किडनैप कर ले गए। आखिर मजबूर होकर ब्रिटिश हुकूमत ने फैसला लिया कि जो भी हो इनको स्थायी रूप से कुचल देना है। इसके लिए पूरी तैयारी कर ली गई और पूरी एक बटालियन को इसके लिए बॉर्डर पर कूच करने का आदेश दे दिया गया। इसी की एक टुकड़ी की कामंड मेरे हाथ में भी थी। तो साहब पूरे इलाके का सर्वे करने के बाद हमने अपने कैंप वहां लगा दिए। जिस जगह मेरा कैंप लगा था वह बहुत ही स्ट्रेटजिक जगह थी। खासी ऊंची पहाड़ी थी वह जो ऊपर जाकर समतल हो गई थी। नीचे सात आठ सौ फुट गहरा खड्ड या खाई थी जिससे होकर एक पतला-सा रास्ता गुजरता था। एक तरह का दर्रा समझ लीजिए आप। इस दर्रे के अलावा एक ओर से दूसरी ओर जाने का और कोई रास्ता नहीं था। सो इस रास्ते के ऊपर हमने अपनी मशीनगनें लगा दीं। सारा काम रातोंरात इस तरह से हुआ कि दुश्मन कतई भांप न पाए। इस तरह पूरी तैयारी करके हम दुश्मन की ताक में बैठ गए।

लेकिन साहब दुश्मन का कहीं पता नहीं चल रहा था। अब हम बड़े ताज्जुब में कि आखिर यह कबाइली गए कहां। इतना हम जानते थे कि इन पहाड़ों में ही इनकी रिहाइश है। यहीं रहकर वह छापामारी करते थे, जानवरों का शिकार करके अपना पेट भरते थे, भेड़ें पालते थे और कभी-कभी जरूरत पड़ने पर उन्हें जिबह भी कर देते थे।

तो साहब इस तरह दिन गुजरने लगे। यहां तक कि हमारा राशन भी खत्म होने को आया। पहली आलमी जंग से पहले का जमाना था यह। हवाई जहाजों का इतना चलन नहीं था तब। बल्कि हवाई जहाज थे ही नहीं। खच्चरों पर राशन आता-जाता था। लेकिन खच्चरों के आने-जाने में इस बात का खतरा था कि हमारी पोजीशंस का पता दुश्मन को न लग जाए। बाहर भी निकलना मुश्किल था क्योंकि हम जानते थे कि यह कितने खतरनाक होते हैं। ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी इलाके में इस तरह घोड़े दौड़ाते थे गोया समतल जमीन पर चल रहे हों और निशाने का यह आलम कि एक हाथ में घोड़े की रास और दूसरे में बंदूक और घोड़ा दौड़ाते-दौड़ाते ही जो फायर किया तो आसमान में उड़ती चिड़िया पैरों के पास आ गिरे। बंदूक चलाना तो आप यह समझिए कि घुट्टी में मिलता है इन्हें। जैसे अपने यहां गांव-देहात में जरा-जरा से लौंडे गुलेल लिए फिरते हैं उसी तरह वहां बंदूक के बराबर लंबाई नहीं होने पाती बच्चे की कि मां-बाप उसके हाथ में राइफल थाम देते हैं। और रियाज का यह आलम कि अगर चार-छः घंटे बंदूक न चलाएं तो इनका खाना न हजम हो।’’

डायल साहब एक क्षण रुककर व्हिस्की का एक घूंट लेते तब आगे कहते, ‘‘एक बार का किस्सा सुनाता हूं आपको। उसी इलाके की बात है। मैं ट्रेन में सफर कर रहा था। तभी किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो अचानक गोली चलने की आवाजें आने लगीं। ताबड़तोड़ आठ-दस फायर हो गए। प्लेटफार्म पर भगदड़ मच गई। गाड़ी में सवार होने आए मुसाफिर अपना-अपना सामान छोड़कर भागे। खोमचेवाले अपने खोमचे छोड़कर स्टेशन की इमारत में घुस गए। मैंने अपने फर्स्ट क्लास के डिब्बे की खिड़की से बाहर झांककर देखा।

प्लेटफार्म पर बिस्तर, संदूक, जूते, चप्पल वगैरह लावारिस से पड़े थे। रेलवे का स्टाफ तक कहीं नजर नहीं आ रहा था। आखिर मैं अपने डिब्बे से बाहर निकला और स्टेशन मास्टर से जाकर पूछा कि माजरा क्या है। वह अपने कमरे में डरा हुआ एक कोने में दुबका था। केवल इतना बता सका वह कि जहां तक उसका ख्याल है गोली गाड़ी के किसी डिब्बे से चली है। मैं टहलता हुआ उधर गया तो एक डिब्बे में दो-चार पठान कबाइली दिखाई दिए। सबके पास बंदूके थीं। जाहिर है लाइसेंसी नहीं रही होगी। खैर इस बात को नजरअंदाज करते हुए मैंने उनसे पूछा, ‘गोली किसने चलाई?’ तो साहब उनमें से एक ने बड़ी दबंगई से जवाब दिया, ‘हमने चलाया और कौन चलाएगा।’ मुझे उसकी ढिठाई पर आश्चर्य हुआ। लेकिन मैंने केवल यह पूछा कि क्यों चलाई गोली तो जवाब क्या देता है कि बहुत देर हो गया था हमको गोली चलाए। इसी वास्ते चलाया और किस वास्ते चलाया! तो साहब यह कैरेक्टर है इस कौम का कि बहुत देर से गोली नहीं चलाई थी लिहाजा रेलगाड़ी के रुकते ही खिड़की से बंदूक की नली बाहर निकालकर ताबड़-तोड़ फायर कर दिए। जैसे आप कहें कि बहुत देर से सिगरेट नहीं पी थी, तलब लगी हुई थी लिहाजा एक सुलगा ली।’’

डायल साहब फिर व्हिस्की का एक लंबा घूंट लेते तब कुछ टूगंते हुए पूछते, ‘‘हां तो बात शुरू कहां से हुई थी?’’

‘‘आप फ्रंटियर में कबाइलियों के खिलाफ चलाए गए अभियान के बारे में बता रहे थे।’’ कोई उन्हें याद दिलाता तो वह आगे कहते, ‘‘जी हां, वही बता रहा था मैं कि हम लोग एक महीने से ऊपर कैंप डाले वहां पड़े हुए थे और यह बागी कहीं नजर ही नहीं आ रहे थे। राशन तो खत्म होने को आ ही रहा था हमारा। इधर जाड़ा शुरू हो गया था और पिछले कुछ दिनों से बरफ गिर रही थी। अजीब मुश्किल में फंस गए थे हम लोग। तभी साहब एक रात देखते क्या हैं कि हमारी पोजीशंस के ठीक नीचे खड्ड में जो संकरा-सा रास्ता था उसमें बाकायदा एक जुलूस-सा निकल रहा है। जलती मशालों की एक लंबी-सी लाइन आराम से बढ़ती हुए चली जा रही थी। हमारे आश्चर्य की सीमा नहीं रही। इतनी हिम्मत इनकी कैसे हुई। कहीं यह तो नहीं समझे यह कि हम लोगों ने मोर्चा उठा लिया है। बहरहाल मौका चूकना बेवकूफी थी। सो मैंने तुरंत फायर का हुक्त दे दिया। मुश्किल से चार-पांच सेकेंड लगे होंगे कि हमारी मशीनगनें घनघना उठीं। सब इधर-उधर भागे लेकिन हमारे गनर्स ने सबको भूनकर रख दिया। मशालें जरूर देर तक जमीन पर पड़ी जलती रहीं।

‘‘दूसरे दिन सुबह हुई तो हमने अपने आदमियों को नीचे घाटी में उतरकर दुश्मन की कैजुअल्टी की रिपोर्ट लाने का हुक्म दिया। ऑर्डर पाते ही हमारे लोग नीचे उतर गए। अब साहब नीचे जाकर हमारे आदमी देखते क्या हैं कि आदमी तो वहां कोई है ही नहीं। हां, भेड़ें जरूर मरी पड़ी हैं पूरी घाटी में। कमबख्तों ने किया यह था कि भेड़ों की सींगों में मशालें बांधकर उन्हें हंका दिया था। चलो यही सही मैंने मन ही मन कहा, कम से कम एक-आध हफ्ते के राशन की समस्या तो हल हो गई। एक भेड़ आठ आदमियों के लिए तीन दिन के लिए काफी थी। लिहाजा मैंने हुक्म दिया कि सारी भेड़ों को उठा लाओ। ऊपर जो लोग थे उनसे मैंने जमीन पर जमी बर्फ खोदने को कहा ताकि भेड़ों को काटने के बाद उनका गोश्त उसी बर्फ में दबा दिया जाए। इस तरह गोश्त को दस-पंद्रह दिनों तक आसानी से सुरक्षित रखा जा सकता था।

‘‘हमारा हुक्म पाते ही हमारे जवानों ने एक एक भेड़ कंधे पर लादी और कैंप की ओर लौटने लगे। इसमें उन्हें काफी मेहनत करनी पड़ रही थी क्योंकि चढ़ाई काफी कठिन थी उस पर कंधों पर असलहा और भेड़ का बोझ सो अलग। तभी मुश्किल से आधी दूरी हमारे जवानों ने तय की होगी कि सामने की पहाड़ी से ताबड़-तोड़ फायरिंग शुरू हो गई। आदमी कोई नजर नहीं आ रहा था। जाहिर था सब कहीं न कहीं छिपे हुए थे लेकिन फायरिंग इतनी बेढव थी कि मुश्किल से दो-एक को छोड़कर हमारे सारे जवान जो नीचे खड्ड में उतरे थे मारे गए।

‘‘मुझे बहुत अफसोस हुआ कि खामखाह मैंने अपने जवानों को मरवा दिया। खैर जो लोग बचे थे उन्हें रिआर्गेनाइज करने का हुक्म देकर मैंने उसी शाम सीनियर अफसरों की एक मीटिंग बुलाई और एक राय से फैसला किया कि इनको इन्हीं की चाल से मारना होगा। सो पूरा प्लान बनाकर हमने अगले दो-तीन दिनों में अपनी मशीनगनें कैमफ्लाज करके अपने ही कैंप को निशाना बनाकर लगा दीं और हर मशीनगर पर दो-दो गनर्स तथा दो स्पेयर जवान छोड़कर बाकी को पीछे हटने का आदेश दे दिया। यह विद्ड्राअल हमने दिन के उजाले में किया और कैंप का काफी कुछ सामान जिसमें रम की बोतलें भी थीं छोड़कर कैंप उखाड़ दिए। सारे जवानों को पांच-छह मील पीछे हटकर हमारा इंतजार करने को कहकर मैं एक मशीनगन पर तैनात जवानों के साथ रुक गया और अपनी योजना के अगले चरण की प्रतीक्षा करने लगा।

‘‘तीन-चार दिनों तक बल्कि एक हफ्ते तक कुछ नहीं हुआ। तब कबाइली धीरे-धीरे अपने ठिकानों से निकलने लगे। कुछ देर के लिए बाहर निकलकर वह इधर-उधर देखते, फिर छिप जाते। आखिर जब उन्हें यकीन हो गया कि हमारी फौज पीछे हट गई है तो बड़ी संख्या में निकलकर उन्होंने हमारे कैंपों में बचे हुए सामान को लूटना शुरू कर दिया। रम तो हम वहां छोड़ ही आए थे। उसे पीकर वह नाचने-गाने लगे। उनकी औरतें भी निकल आईं और वह भी नाच-गाने में हिस्सा लेने लगीं। मैं इसी मौके के इंतजार में था। जैसे ही उनकी महफिल शबाब पर आई मैंने जेब के रूमाल निकालकर इशारा किया और हमारी मशीनगनें घनघना उठीं। लेकिन तारीफ करनी होगी उनकी कि उन्होंने भी तुरंत मोर्चा संभाल लिया। मगर इस बार वह खुले में थे और हम आड़ में। सो थोड़ी ही देर में हमने उन्हें भूनकर रख दिया।

‘‘इस बार हमने पहले वाली भूल नहीं की। पूरे दिन हमने इंतजार किया। तब तीसरे दिन हम अपने छिपने के स्थान से बाहर आकर दुश्मन की कैजुअल्टी का अनुमान लेने जाने ही वाले थे कि हम क्या देखते हैं कि एक बूढ़ी औरत जिसके सिर के सारे बाल सफेद, कमर झुकी हुई हाथ से लाठी टेकती हुई चली आ रही है। मैंने अपने जवानों को रोक दिया और गौर से देखने लगा कि आखिर यह बूढ़ी औरत यहां क्या करने आ रही है। तभी उस औरत ने वहां पहुंचकर हर लाश को उल्ट-पुल्ट कर देखना शुरू किया और एक लाश से चिपट कर बुरी तरह रोने लगी जबकि एक और लाश को पैर से दो-तीन ठोकरें मारकर आगे बढ़ गई। तभी मैंने अपने जवानों को भेजकर उसे पकड़वा लिया।

‘‘संयोग से हमारा एक जवान पश्तो बोलना जानता था सो मैंने उससे उस बुढ़िया से उसके इस विचित्र व्यवहार के बारे में पूछने को कहा। उसने उससे सवाल-जवाब करने के बाद हमें बताया कि वे दोनों लाशें उसके बेटों की थीं। उनमें से एक के सीने में गोली लगी थी लिहाजा वह उससे चिपटकर रोई थी जबकि दूसरे की पीठ में गोली लगी थी यानी उसने जंग के मैदान से मुंह मोड़कर भागने की कोशिश की थी लिहाजा उसे अपने पांव से ठोकर मारी थी।’’

‘‘अपने जवान से यह बात सुनकर मेरा मन उस बुढ़िया के प्रति सम्मान से भर उठा। मैंने उसी दिन सारी घटना का ब्योरा अपने से बड़े अधिकारियों को लिखकर भेज दिया। साथ ही अपनी यह टिप्पणी भी लगा दी कि जिस कौम में ऐसी मांएं हैं उसे कुचला-दबाया नहीं जा सकता।’’

‘‘मुझे यह जानकर खुशी हुई कि हमारे बड़े अधिकारियों ने मेरी यह बात मानकर उनसे अलिखित समझौता कर लिया जिसके तहत कबाइली ब्रिटिश सरकार से एक खास रकम के बदले शांति बनाए रखने के लिए तैयार हो गए।’’

किस्सा खत्म करके डायल साहब मेरे बाबा की ओर देखते और उनसे पूछते, ‘‘एक एक पैग और चलेगी या खाना तैयार है?’’

तभी कोई उनसे पूछ बैठता, ‘‘लेकिन आपकी यह टांग...?’’

‘‘अजी साहब उसका तो दूसरा ही किस्सा है। फिर कभी सुनाऊंगा।’’ और डायल साहब अपनी मूंछों पर हाथ फिराने लगते।

अब यह बात तो मेरे बाबा ही जानते थे या फिर बाद में मुझे पता चली कि मेजर डायल फौज में कभी रहे ही नहीं थे। ‘मेजर’ उनका घर का नाम था जो उन्होंने अपने नाम के साथ जोड़ दिया था और जहां तक उनकी टांग की बात थी वह एक ट्रेन एक्सीडेंट में कटी थी।

तो साहब जब डायल साहब जिन्होंने कभी फौज की शक्ल तक नहीं देखी थी अपने काल्पनिक किस्सों से ऐसा समा बांध देते थे तो आप सोचिए कि जो आदमी वाकई फौज में रहा हो और मोर्चे पर लड़ा हो उसके पास इस तरह के किस्सों का कितना बड़ा भंडार होगा और आपकी पार्टी को जीवंत बनाने में वह कितना सहायक होगा।