टूटे घाट-छूटे घाट / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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कुछ रिश्ते मिलन के मोहताज नहीं होते वे सिर्फ़ भीतर-भीतर बहते हैं और इस धरती पर कभी समझे नहीं जाते। सरगुन और रेवा का-का रिश्ता भी कुछ ऐसा ही था।

गांव में जो नदी बहती थी, उसमें ख़ूब गहरा पानी था। बस दो-चार क़दम चलने पर ही डूबने का डर लगता था, इसलिए लड़की कभी भी चलकर उस पार नहीं गयी। लड़का भी नहीं आ सका इस पार, हालांकि उसे तैरना आता था। वह चाहता तो उससे मिलने रोज़ तैरकर आ सकता था, लेकिन वह कभी आया नहीं। लड़की अक्सर लड़के से इस बात पर नाराज ही रहती थी कि वह कभी भी नदी के इस पार नहीं आता।

ये तो लड़की को बहुत दिनों बाद पता चला था कि लड़के को फेफड़ों का रोग था और वह जल्दी हांफ जाता था इसलिए उसने चाहकर भी कभी तैरकर आने की कोशिश नहीं की। ये बात जानकर लड़की मन ही मन बहुत रोई थी, लेकिन किसी को बताया नहीं उसने कभी और फिर नाराज भी नहीं हुई लड़के से कभी।


समय बीत रहा था। गाँव में बहने वाली इस नदी की चौड़ाई ज़्यादा नहीं थी, इसलिए किनारे पास-पास ही नज़र आते थे, कभी-कभी तो उन्हें लगता कि बस हाथ बढ़ाकर ही वे दोनों एक-दूजे को बस छूने ही वाले हैं, लेकिन अगले ही पल डूब जाने के खयाल मात्र से वे कांप जाते। नदी की गहराई से दोनों ही ख़ौफ़ खाते थे। उनके प्रेम की तरह ही ये नदी भी अथाह थी, जिसमें डूबना यानी ख़ुद को मौत के हवाले कर देना था। वे दोनों ही मरने से बहुत डरते थे। वे हर हाल में ख़ुद को बचा लेना चाहते थे, लेकिन इस नदी किनारे आये बिन और एक-दूजे को देखे बिना रह भी नहीं पाते थे।

ये नदी उन्हें सम्मोहित करती थी या उनकी रूहें उन्हें खींचतीं थीं, वे कभी समझ ही नहीं पाए।

उनके बीच आकर्षण का रहस्य क्या है, कभी भी उन्हें समझ नहीं आया। हाँ, अगर वे डूब जाते तो शायद ये रहस्य भी जान लेते, लेकिन उन्होंने रहस्य को रहस्य ही बने रहने दिया और किनारों पर रुकना ही बेहतर समझा।

वे दोनों लगभग रोज़ उस नदी के किनारों पर आते और रुककर एक-दूसरे का इंतज़ार करते थे। उन दोनों के मिलने से नदी का पानी झूम के लहराकर बहता था और मुस्काते हुए किनारों को उछल-उछलकर छू लेता था। किनारों के ऐसे रोज़ भीग जाने से आसपास बहुत-सी हरी वनस्पति उग आई थी। लड़का किनारे उगी हरी डालियाँ तोड़ता और उन्हें हवा में हिलाता था और लड़की की तरफ़ संदेश भेजता था।

जवाब में लड़की अपनी हरी चुनर लहरा देती थी। दोनों बहुत दूर होने पर भी उस हरे संकेत को देखकर खुश हो लेते थे। सुकून पाते थे। उन दिनों उन दोनों के बीच वह हरा रंग महत्त्वपूर्ण हो गया था।

जब भी वे दोनों उदास होते, अपने-अपने किनारों पर बैठ जाते। लड़की उस नदी के ठंडे पानी में पैर डालकर ठंडी, गहरी सांस लेती और उस पार उस लड़के के बैठे होने की तसल्ली कर लेती। लड़की की तरफ़ से जब हरी चुनर लहराती तो लड़का भी मुस्कुराकर नदी के किनारे बैठ अपनी चिलम सुलगा लेता, लड़के को पानी से बहुत डर लगता था, लेकिन किनारों से उसे बड़ा प्रेम था।

कई बरस बीत गए, उनका नदी किनारे आना और ठहरना जारी था। बिन एक-दूजे को जाने-पहचाने और देखे बिना वे दोनों न जाने किस अनजानी डोर से बंधे

हुए थे।

किनारों पर ख़ामोश बैठे-बैठे यूं ही एक दिन लड़की ने अपनी कोमल उंगलियों से लहरों पर अपना नाम लिख दिया 'रेवाÓ और उसे घूरती रही। उसने देखा उसका लिखा नाम पानी पर तैर रहा है और लहरें उसे उस पार बहाकर ले जा रही हैं। ये देख वह ख़ुशी से पागल हो गयी, उसने तो सुना था कि पानी हर चीज को डुबो देता है, भिगो देता है, गला देता है, मिटा देता है, फिर उसके शब्द कैसे तैर रहे हैं। वह अचरज से देख रही थी। ज़रा देर में उसका लिखा नाम लड़के के पास जा पहुँचा। उसने बड़ी ही कोमलता से उस नाम को उठाकर चूम लिया और लहरों पर अपना नाम' निरगुनÓ लिखकर लड़की की तरफ़ भेज दिया।

ऐसे वे दोनों एक-दूसरे का नाम जानने लगे और धीरे-धीरे दोनों नदी की लहरों पर अपने मन की बात लिखने लगे। वे दोनों अपनी उंगलियों से लहरों पर जो भी चि_ी लिखते, लहरें उन्हें बहाकर उस पार ले जाती।

पानी पर लिखी चि_ी जिसे कोई नहीं पढ़ सकता था सिवाय उन दोनों के। जब भी वे दोनों एक-दूजे की चि_ी पढ़ते, दोनों की आंखों में ख़ुशी के आंसू तैरते और होंठों पर मुस्कान।

उन्होंने कई बार आंसुओं से भी लहरों पर चि_ी लिखी।

इस तरह एक लहर आती तो दूजी जाती। वे दोनों कई बरसों तक लहरों पर अपनी चिट्ठियाँ लिखते रहे। उन दोनों ने आपस में क्या बातें कीं, किन-किन विषयों पर कीं, कोई नहीं जान सका। कभी-कभी लहरें आपस में कहतीं, "चलो आज इनकी चि_ी पढ़ लेते हैं। देखें तो क्या लिखते हैं दोनों।" लेकिन तभी नदी उन्हें डांट देती और कहती, "ऐसा ग़ज़ब मत करना वरना लोग डाकियों पर भरोसा नहीं करेंगे। तुम सिर्फ़ डाकिया हो और डाकिये कभी चि_ी नहीं पढ़ते और प्रेमियों की चिट्ठियाँ ...तौबा-तौबा पाप लगता है।" नदी की इस अदा पर लहरें खिलखिलाकर हंस देती।

रेवा और निरगुन के प्रेम की एकमात्र गवाह थी वह नदी। उनके संग होने की, उनके प्रेम की, उनके सुख-दुख की, उनके होने की भी और नहीं होने की भी

साक्षी थी।

वे दोनों जब बहुत खुश होते और प्रेम से भरी बातें लहरों पर लिखते तो लहरें भी खुश होकर घाटों को भिगो देतीं और कई दिनों तक घाट गीले से दिखते और जब वे विरह के दुख से भरी चि_ी लिखते तो लहरें घाटों पर आकर बिखर जातीं और उस दिन घाट नदी में डूब जाते।

ये सिलसिला कई जन्मों तक चलता रहा, एक-दूजे को बिन देखे, बिन मिले बिना जाने वे यूं ही आते रहे।

उनका घाट पर आना बदस्तूर जारी रहा। मौसम कोई भी हो, वे उस नदी के घाट पर ज़रूर आते थे। रेवा हर गुरुवार और अमावस की रात नदी में दीपक सिराने आती थी और उस दीपक की रोशनी से निरगुन का चेहरा दमकता था।

रेवा ने इस बीच हरी चुनर लहराना कभी नहीं छोड़ा और निरगुन भी किनारे उग आई हरी वनस्पति को उठाकर संकेत देना कभी नहीं भूला था। समय गुजरता रहा, नदी बहती रही और फिर एक दिन अचानक मौसम बदले। उस बरस भयंकर अकाल पड़ा, बरसात नहीं हुई, नदी सूख गयी उसकी लहरें नष्ट हो गयी।

अब सिर्फ़ मिट्टी और रेत दिखती थी। अब बस्ती के लोग उस नदी को पैदल ही पार कर लेते थे। अब डूब जाने का कोई ख़तरा नहीं था। ये सब जानकर भी न कभी निरगुन चलकर रेवा से मिलने आया और न रेवा ने कभी सूखी नदी में उतरने की कोशिश की।

वे दोनों लहरों पर लिखी मधुर यादों में खोये हुए थे। वे चाहते थे फिर से ख़ूब बरसात हो, नदी फिर से गहरी हो जाये। अनगिनत लहरें बनें और फिर से वे एक-दूजे से अपनी बातें कहें-सुनें।

रेवा अब भी किनारों पर आती थी बिना नागा किये, लेकिन अब उसकी वह हरी चुनर आंसुओं के खारेपन से गल गयी थी, इसलिए वह अब लहराकर कोई संकेत नहीं भेज पाती थी। उस पार के घाट सूख गए थे तो कोई वनस्पति नहीं उगती थी कि निरगुन कोई संकेत भेज सके।

दोनों टूटे घाट और छूटे घाट पर उदास होकर एक-दूजे की राह तकते थे और दोनों ही सोचते थे उनका प्रेम लहरों के साथ समाप्त हो गया। उनके जीवन से हरियाली समाप्त हो गयी थी। सिर्फ़ सामने सूखा हुआ उदास रास्ता दिखता था। जिसे देखकर वे दुख से भर जाते थे। कभी-कभी सामने रास्ता दिखाई देने पर भी हम उस पर क्यों नहीं चलते, उन्हें समझ नहीं आता था। सामने मंज़िल दिखती है, फिर हम उसे बढ़कर क्यों नहीं छू लेते हैं, ये बात भी उन्हें समझ नहीं आती थी। रेवा कई दिनों तक टूटे घाट पर दीपक रखती रही। उसे समझ नहीं आता था बिन लहरों के कोई दीपक कैसे और कहाँ सिराये? अपनी दुआओं और प्रेम के दीपक अब वह कहाँ भेजे, समझ नहीं आता था। किसी भी रिश्ते में वादों का टूटना, कसमों का टूटना या दिल का टूटना इतना बुरा नहीं होता, जितना उस लय का टूटना होता है, जो दो लोगों के मध्य संगीत पैदा करती है। उन दोनों के बीच की लय टूट चुकी थी।

उन दोनों के नहीं आने से अब नदी का जल अक्सर उदास रहता और घाट मायूस।

फिर मौसम बदले और कई बरस बाद उस दिन ख़ूब बरसात हुई। आसपास के कई गाँव बाढ़ की चपेट में आ गए। सैकड़ों लोग बेघर हुए, कई लोगों की मौतें हुई, कई लोग बाढ़ में लापता हो गए थे। बरसात से सूखी नदी भर गयी। लहरें और मछलियाँ फिर आने-जाने लगीं।

बस रेवा और निरगुन का कुछ पता नहीं चला, वे किनारों पर नहीं आते। जाने वे जीवित हैं भी या नहीं। क्या पता वे दोनों नदी की बाढ़ में बह गए हों। कौन जाने वक़्त की बाढ़ उन्हें कहाँ बहाकर ले गयी थी। कौन जाने उन दोनों ने डूब के रहस्य जान लिए हों और वे दोनों किसी कमजोर पल में अपने दुख की नदी में ही डूब मरे हों, लेकिन उनकी लिखी चि_ियाँ लहरों पर आज भी तैरती हैं। मछलियाँ उन्हें चख-चखके प्रेम की भाषा सीख गयी हैं, अब वे पानी से बाहर नहीं कूदतीं। उस नदी का जल अब प्रेम-जल हो गया है। पनिहारिनें उस प्रेम-जल को अपने मिट्टी के घड़ों में भर-भर ले जाती हैं और वे समझ नहीं पातीं कि आजकल उनके सपने रंगीन क्यों हुए जाते हैं। उस उदास नदी के टूटे घाट, छूटे घाट और लहरें आपस में बतियाते हैं। इस शोर से नदी किनारे बने मरघट में धूनी रमाये जोगी के जोग में विघ्न पड़ता है।

कोई नहीं जानता और न जान सकेगा इन लहरों पर लिखे किस्से-कहानियों के रहस्य। कोई कभी नहीं जान सकेगा कि लहरों पर लिखे नाम कभी मिटते नहीं कि लहरों पर लिखे पत्र कभी गलते नहीं कि लहरों के बीच बनाये चित्र कभी धुलते नहीं।