टेम्स की सरगम / भाग 1 / संतोष श्रीवास्तव

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उस समय जब रातें ठंडी और लंबी थीं, रोशनी की तमाम शहतीरें, परछाइयाँ, चोट खाए पंछी-सी डैने फड़फड़ाती धरती पर बिछ गई थीं, डायना ने ईस्ट इंडिया कंपनी के उच्च पदाधिकारी अपने पति टॉम ब्लेयर के साथ भारत के कलकत्ता शहर में कदम रखा और उसे लगा कि भारत की यह धरती, यह शहर, सड़कें, उद्यान, पेड़-पौधे, नदी, पर्वत उसके अपने हैं... जैसे वह सदियाँ गुजार चुकी है यहाँ। कहीं अजनबियत नहीं जबकि लंदन से जब वह पानी के जहाज पर सवार हुई थी तो एक उदासी ने घेर लिया था उसे। वह एक ऐसी जगह जा रही है जहाँ कोई उसका अपना नहीं। अपना शहर, अपनी आलीशन कोठी, नौकर चाकर छोड़ते हुए उसका मन असुरक्षा की भावना से भर उठा था। वह अकेली डेक पर खड़ी अंधेरे में समंदर की काली लहरों की भयंकरता देख रही थी और टॉम अपने अंग्रेज साथियों के साथ जहाज में अंदर किसी केबिन में शराब पार्टी में मगन था। न जाने कितना रहना पड़े हिंदुस्तान में। इधर उसके पिता का करोड़ों का व्यापार है जिसकी जिम्मेवारी उस पर है। व्यापार को आगे बढ़ाना अब मुमकिन नहीं क्योंकि न पिता रहे न माँ... उनकी एकमात्र संतान सिर्फ वह। क्या करेगी व्यापार बढ़ाकर। जितनी चल, अचल संपत्ति है उसी को सहेजना मुश्किल है। जब टॉम की ईस्ट इंडिया कंपनी में नियुक्ति थी... लंदन से चलते समय डायना ने सोचा भी न था कि अपना देश छोड़ते हुए कैसा रीतापन घेर लेता है और यूँ लगता है कि मात्र शरीर जा रहा है... जान तो यहीं छूटी जा रही है पर ज्योंही जहाज ने हिंदुस्तान के समुद्री तट पर लंगर डाला वह देश की सीमाएँ भूल गई और उसे लगा जैसे एक मोहल्ले से चलकर दूसरे मोहल्ले ही तो आई है वह।

अंग्रेजों के शानदार बंगलों में से एक बंगला टॉम ब्लेयर को एलॉट किया गया था। बिल्कुल अछूता इलाका जहाँ सिर्फ अंग्रेज रहते थे। हिंदुस्तानियों के लिए ब्लैक टाउन था... कालों का काला इलाका... इस बात का टॉम को बहुत घमंड था। वह उन्हें गुलाम कहता। काले गुलाम। उनके बंगले में भी एक काला गुलाम नौकर था बोनोमाली। वह संथाल की ओड़ाओ जाति का युवक था। जिस्म आबनूस-सा काला। आँखें पीली। उन आँखों में करुणा का सागर लहराता था। अपने खाली वक्त में वह अपने इकतारे पर बाउल गीत गाता था। बंगले में खाना पकाने के लिए पार्वती थी जिसे सब पारो कहा करते थे। मँझोले कद की साँवली बंगालिन। कलाइयों में सफेद शाँखा, कड़ा। मांग में सिंदूर और लंबे काले बालों का ढीला-सा जूड़ा। वह खाना बहुत लज्जतदार बनाती थी। भारतीय, मुगलाई, राजस्थानी और अब तो विलायती खाना बनाना भी सीख गई थी वह। टॉम के शानदार बंगले के शानदार बगीचे को अधेड़ उम्र का माली सँभालता था। ड्राइवर मोटर या जीप की सीट पर बैठा हुकुम का इंतजार करता रहता था। अपने सेवकों की भीड़ से घिरा रहता था टॉम लेकिन डायना विनम्र थी। सीधी सरल... प्रेम से ओतप्रोत। न उसे अपने रूप सौंदर्य का अभिमान था न दौलत का। संगीत, पुस्तकें, देशाटन यही उसके शौक थे। वह बोनोमाली के बाउल गीतों की दीवानी हो गई थी। जब वह इकतारा बजाकर गीत गाता तो ऐसा लगता जैसे कई भ्रमर एक साथ गुनगुन कर रहे हों और उनका गुंजन शरीर में डूब-डूब जाने वाला रस पैदा कर मथ डालता था हृदय को। उसके गीतों को डायना चाहे जब सुनने लगती। बोनोमाली भी गीत सुनाने के मौके तलाशता रहता। उसे पता चल गया था कि उसकी मालकिन को संगीत का शौक है।

“मैं आपको चंडीदास से मिलवाऊँगा मेमसाहब। उन्होंने शांतिनिकेतन से संगीत सीखा है। उनके गीतों में नदी की धार मोड़ देने की ताकत है।”

“अच्छाऽऽ।” चकित थी डायना संगीत के जादू से... नदी की धार क्या, यहाँ तो संगीत के जादू से बुझते दीप जल जाते हैं, मेघ जल बरसा देते हैं और हिरन चौकड़ी भरना भूल ठगे से खड़े रह जाते हैं। रहस्यों से भरा है भारत... धर्म, दर्शन, साहित्य, संगीत, कला... पत्थरों में जान डाल देने की अद्भुत शक्ति से समृद्ध है भारत। पिता के घर असीमित संपत्ति का भोग करते हुए भी विरक्त मन की मालकिन थी वह। दुनिया जहान की किताबें पढ़-पढ़ कर ज्ञान तो बढ़ा लेकिन उससे कहीं अधिक बेचैनी बढ़ गई। उसके मन में सदैव प्रश्न मंडराते रहते। आकाश, तारे, चाँद, सूर्य क्यों हैं? सुबह, शाम, रात क्यों होती हैं? मरने के बाद हम कहाँ जाते हैं? क्या हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार यह सच है कि आत्मा पुनः शरीर धारणा करती हैं? जब अपने इन तर्कों का समाधान वह नहीं पाती तो फिटन पर सवार निकल पड़ती कलकत्ते की सड़कों पर।

फिटन चौरंगी से गुजरती जहाँ बड़ी कलात्मक इमारतें थीं। अंग्रेजों के टाउन हाउस थे... शानदार ऊँची बुर्जियों, बड़े-बड़े खिड़की दरवाजोंदार... फाटक खोलते ही बाँस के पेड़ों का सघन झुरमुट... सफेद पींड़ वाले यूकेलिप्टस और घास के लॉन में झरी उनकी सूखी, भूरी, नुकीली पत्तियाँ एक अजीब-सा एहसास करातीं। फैलते अंधेरे में जब कोई मोटर या जीप वहाँ से गुजरती तो हैडलाइट्स में झुरमुट की छायाएँ बंगलों की दीवार पर सरकती हुई गायब हो जातीं।

फिटन नदी के किनारे की सड़क पर दौड़ती। वहाँ भी अमीर अंग्रेजों के गार्डन हाउस थे... जहाँ काले गुलाम मालीगिरी करते थे। अंग्रेजों की कोठियों के पीछे इन गुलामों के लिए सर्वेंट क्वार्टर थे। बगीचे में छोटे-छोटे पुकुर और पुकुर में खिले सफेद गुलाबी कमल के फूल। एक ओर अंग्रेजों के शासन की शानदार समृद्धि थी। और दूसरी ओर भारत की अद्भुत सौंदर्यशाली प्रकृति और तमाम रहस्य… उन रहस्यों को परत दर परत खोलना चाहती थी डायना। भारत में घी दूध की नदियाँ बहती थीं। महलों, मंदिरों के दरवाजों पर हीरे, मोती, नीलम, पन्ना जड़े थे और इंग्लैंड इस कामधेनु का दोहन कर रहा था। वहाँ समृद्धि की नीवें मजबूत हो रही थीं। अमीर और अमीर हो रहे थे। गरीब अमीरी की तरफ बढ़ चुके थे। भारत से पाए धन के ढेर पर खड़ा था इंग्लैंड जहाँ उसका झंडा लहरा रहा था। पर इन बातों से अगर डायना को तकलीफ भी होती है तो उससे क्या? इसीलिए डायना ने इन फिजूल की बातों को सोचना बंद कर दिया था। उसे तो भारत के अद्भुत किस्से बेचैन किए हुए थे। कैसी अद्भुत बात है कि सीता राजा जनक को खेत के अंदर जमीन से निकले एक घड़े में मिलीं... रावण के दस सिर थे, कुंभकर्ण छह महीने सोता था और छह महीने जागता था... दशरथ की तीन पत्नियों को यज्ञ की अग्नि से निकले खीर के कटोरे से खीर खाकर पुत्र हुए और कुंती ने बिना पति के समागम के मंत्र पढ़-पढ़कर तीन पुत्र पैदा किए और उसी तरह माद्री ने दो पुत्र पैदा किए... असंभव... डायना चकरा जाती। जहाँ एक ओर त्रेता युग उसे भूलभुलैयों के जंगल में भटका देता वहीं द्वापर युग के कृष्ण... ओह, लॉर्ड कृष्ण। सोलह कलाओं से पूर्ण लीला पुरुष कृष्ण... अद्भुत व्यक्तित्व। कृष्ण को जानना है तो डायना को हिंदी और संस्कृत सीखना होगा।

बंगले के सामने फिटन से उतरते हुए डायना की नजर बगीचे में खिले रातरानी के फूलों पर गई। दोपहर ढलते ही रातरानी की कलियाँ खिल जाती हैं और हवाएँ महक उठती हैं। मौसम की दीवानगी में भी वह तनहा-सा महसूस करती है। जब से शादी हुई है... टॉम ने उसे कभी न तो प्यार से देखा... न दो बोल प्रेम के कहे। वैसे भी वह महीने के पंद्रह दिन तो टूर पर ही रहता है और बाकी के दिन में क्लब, बाल रुंज, दोस्तों के संग शराब, सिनेमा में गुजारता है। घर में उसकी मौजूदगी भी कभी डायना की तनहाई दूर नहीं कर पाई। तनहा अकेलेपन की छाया के संग जीना सीख लिया है उसने क्योंकि यह छाया न तो मिटती है न उसका पीछा छोड़ती है।

साँझ फूली थी और उसके खुशनुमा रंगों से चमत्कृत डायना अद्भुत प्रकृति में लीन थी कि तभी गेट खुलने की आवाज के साथ ही आदतन डायना ने कलाई में बँधी घड़ी देखी और अपने पर ही हँस दी-”अरे, टॉम तो आसाम गया है... मैं भी बस... ।”

लेकिन तभी बोनोमाली चंडीदास को लेकर हाजिर हुआ। डायना चंडीदास को देखती ही रह गई। साँवले रंग के, ऊँचे कद के तराशे हुए नाक-नक्श और बड़ी-बड़ी काली आँखों वाले आकर्षक युवक का नाम बोनोमाली ने चंडीदास बताया। उसकी आँखों में विद्वत्ता अलग से झलक रही थी। हाथ जोड़कर नमस्ते करके चंडीदास लॉन पर खड़ा हो गया।

“इन्हें हॉल में ले चलो बोनोमाली।” कहती हुई डायना जैसे खुद ही उसे अंदर लिवा लाई।

“बैठिए, सोफे पर बैठिए।” चंडीदास के बैठते ही बोनोमाली पानी ले आया। चंडीदास देख रहा था, एक आला अंग्रेज अफसर के आलीशान ड्रॉइंग रूम को... दीवारों पर टँगी पेंटिग्ज और फूलों की साज-सज्जा उनके कला के प्रति रुझान को स्पष्ट बता रही थी। कहीं बारहसिंगा, शेर, चीते का सिर नहीं था जो कि अक्सर समृद्ध घरों की दीवारों पर उनकी बहादुरी को प्रदर्शित करता है। जानवरों से प्रेम था ब्लेयर दंपति को। सोचा चंडीदास ने और स्वयं को बहुत अदना-सा समझने लगा। लेकिन... नहीं, कला की कद्र करना डायना के खून में बसा था। चंडीदास बचपन से संगीत की साधना में रत था। उसकी गायकी में निखार आया शांतिनिकेतन से। निम्न मध्यम वर्ग के परिवार में वह अपने माँ-बाप का इकलौता बेटा था। दो बहनें... दोनों उससे छोटी। माँ बाप की सारी आस चंडीदास पर लगी थी। पढ़-लिखकर वह स्कूल में पढ़ाता था और समय निकालकर संगीत साधना किया करता था। संथालियों की तरह इकतारे पर वह ऐसे-ऐसे बाउल गीत गाता था कि वक्त मानो ठहर-सा जाता था। चंडीदास ने डायना की तरफ गौर किया... पल भर को वह चकित हुआ कि अब तक उसकी पारखी नजरों ने कैसे नहीं परखा कि सामने बैठी खूबसूरत औरत के चेहरे पर शालीनता, सौम्यता और सरलता साफ दिखाई देती है।

“मिस्टर चंडीदास, आप मुझे संगीत सिखाएँगे?” डायना ने अपनी नीली चमकीली आँखें उसके चहरे पर टिका दीं। वह उनकी आँखों की गहराइयों में डूब गया।

“मैं बांग्ला, हिंदी और संस्कृत भाषा भी सीखना चाहती हूँ और बांग्ला संगीत भी।”

चंडीदास आश्चर्य से इस विदेशी औरत के अपने देश की भाषाओं के प्रति लगाव को देख रहा था। जैसे उसकी जबान डायना के आगे मूक हो चुकी थी। ऐसे में जबकि अंग्रेजों के भारतीयों पर अत्याचार अपने चरम पर थे क्योंकि इस देश के नागरिक अब आजादी चाहते थे। अंग्रेज उन्हें आपस में लड़वा रहे थें साम्प्रदायिकता का विष बीज बो रहे, ईसाई मिशनरियाँ स्थापित की जा रही थीं और शूद्र वर्ग को बरगला कर धर्म परिवर्तन कराए जा रहे थे... एक अंग्रेज औरत चंडीदास से इस देश के साहित्य, संगीत को अपनाने की, सीखने की बात करती है तो जबान मूक तो होगी ही।

“क्या सोच रहे हैं आप?” डायना ने अधीरतावश पूछा।

“जी?” चंडीदास सकपका गया जैसे पकड़ा गया हो।

“मैं लॉर्ड कृष्ण को जानना चाहती हूँ। औरों के मुँह से उनके बारे में मैंने जो कुछ सुना है उसने मेरे मन में खलबली पैदा कर दी है। चंडीदास... मेरा मानना है कि इस विश्व का पूरा ज्ञान हमारे अपने भीतर मौजूद है लेकिन उसे देखने वाली हमारी आँखें बंद है। इन बंद आँखों को खोलने के लिए गुरु की जरूरत होती है। गुरु अपने ज्ञान दीप की लौ का प्रकाश दिखा हमें ज्ञान मार्ग के दर्शन कराते हैं।”

चंडीदास का मन हुआ वह इस विदुषी औरत का चरण स्पर्श कर ले, वह गद्गद् था-”मैं उस संपूर्ण ज्ञान का कण भर भी नहीं जानता मैडम... बस एक शब्द जानता हूँ प्रेम... ... प्रेम पूरे ब्रह्मांड में समाया है बल्कि प्रेम की विशालता को समा लेने में ब्रह्मांड भी छोटा है। प्रेम में बड़ी शक्ति है मैडम।”

डायना ने पहली बार चंडीदास के वचन सुने... कितनी मधुरता है इसकी वाणी में। वह अभिभूत थी-”और संगीत में?” “संगीत तो आत्मा है... प्रेम की आत्मा।”

डायना के हाथ जुड़ गए-”मुझे उस आत्मा के दर्शन करा दीजिए चंडीदास जी।”

विधिवत संगीत शिक्षा आरंभ हुई। डायना में स्वरों की पकड़ थी और चंडीदास के पास अथाह खजाना... अभ्यास अनवरत चालू था। सप्ताह में दो दिन मास्टर जसराज आते हिंदी और संस्कृत सिखाने। डायना ने मास्टर जसराज के द्वारा निर्देशित की गई पुस्तकें खुद बाजार जाकर खरीद ली थीं। नई-नकोर किताबों पर हाथ फेरती डायना के आनंद का ठिकाना न था। टॉम ब्लेयर जब टूर से लौटता तो इस आनंद में थोड़ी रूकावट आ जाती क्योंकि चंडीदास और जसराज जल्दी क्लास खत्म कर देते। कभी-कभी शाम के झुटपुटे में ही जब बगीचे में झरी पत्तियाँ धीरे-धीरे तैरती हुई लॉन में बिखर जातीं... पोर्च की सीढ़ियों पर, बरामदे पर भी। कुछ पत्तियाँ मौलसिरी के पेड़ के नीचे रखी हुई बेंत की कुर्सियों के नीचे, आस-पास काँपती रहतीं। ये शिशिर ऋतु में झरी पत्तियाँ थीं जब जाड़ा पाला बनकर धरती की, बाग-बगीचों, खेतों की हरियाली को सहमा देता है और पत्तियाँ ठिठुर जाती हैं।

टॉम आसाम से लौट आया था। इस बार ज्यादा रहना पड़ा था उसे वहाँ। सुबह की हलकी धूप कोहरे की चादर चीरकर बगीचे के लॉन पर धब्बों में बिखर गई थी। बोनोमाली ने बेंत की कुर्सियों पर से ओस की बूँदें साफ कीं, गद्दियाँ लाकर रखीं और टेबल पर चाय की केतली टीकोजी से ढककर रख दी, साथ में बिस्किट और अखबार। धूप को सेंकते हुए डायना टॉम के साथ सुबह की चाय वहीं बैठकर पीती थी। प्याली में चाय ढाल बोनोमाली चला गया। टॉम ने प्याला उठाया-”कैसी चल रही है तुम्हारी प्रैक्टिस?” डायना उत्साह से भर उठी-”मैं कड़ी मेहनत कर रही हूँ। मेरे पास वक्त कम है और... जसराज सर बता रहे थे कि भारतीय संगीत के ढेरों प्रकार हैं। कजरी, दादरा, ठुमरी, बिरहा, आल्हा ऊदल। शादियों में गाए जाने वाले बन्ना-बन्नी, शिशु जन्म पर सोहर, मंदिरों में भजन कीर्तन, सबद... “

टॉम लापरवाही से हँसा। चाय का घूँट भरा और सिर्फ एक शब्द ही सुन पाया हो जैसे-”डायना, यह देश हमारा गुलाम है फिर तुम जसराज के लिए सर शब्द का इस्तेमाल क्यों कर रही हो?”

डायना ने आहत हो टॉम की ओर देखा और एक ही घूँट में चाय खत्म कर कुर्सी से उठ खड़ी हुई।

“कहाँ जा रही हो?”

डायना ने दोबारा टॉम को देखा पर इस बार हिकारत से। टॉम से कुछ भी कहना अब उसके बस में न था। वह जान गई थी कि जीवन के सफर को तय करने के लिए उसने हमसफर ही गलत चुना... चुना नहीं, चुन दिया गया। उसके पिता ने टॉम में न जाने कौन-सी अच्छाई देखी थी। टॉम उसके हुनर, उसकी भावनाओं के तो बिल्कुल भी योग्य नहीं। टॉम की दुनिया छोटी-सी है जिसमें केवल धन के लिए अथाह मोह है और अपने मालिक होने का घमंड है। जबकि डायना की दुनिया विस्तृत है क्योंकि उसका मन जिज्ञासु है। जिज्ञासु मन की दुनिया बड़ी आकर्षक होती है लेकिन उतनी ही खतरों से भरी और उतनी ही तकलीफ देने वाली भी।

शाम का वक्त। हुगली नदी के मंथर जल पर तैरती पालदार नौकाएँ। शरमाया हुआ सूरज क्षितिज की मिलन रेखा पर अस्त होने को था। सारी धरती अनुराग से भर उठी थी... सिंदूरी छिटका अनुराग। डायना और चंडीदास नौका पर बैठे थे। गंगा की शांत लहरों पर नौका के चलते चप्पुओं की छपाक-छपाक ध्वनि के बीच मल्लाह द्वारा छेड़े भटियाली संगीत पर डायना मोहित थी। अब डायना और चंडीदास के बीच औपचारिकता नहीं रही थी। इतने दिनों से आमने सामने बैठकर संगीत सीखते सिखाते वे एक-दूसरे के करीब आ गए थे। कभी चंडीदास को आने में देर हो जाती तो डायना बगीचे में चहलकदमी करती हुई गेट की ओर टकटकी बाँधे निहारती रहती और चंडीदास भी जल्द से जल्द उसके पास पहुँच जाने के लिए उतावला हो उठता। दोनों में प्रेम के अंकुर ने पनपना शुरू कर दिया था।

“तुम सुन रहे हो चंडीदास... एक विचित्र संगीत की ध्वनियों के बीच से मैं गुजर रही हूँ। मेरे अंदर प्रेम की शक्ति समा रही है जैसे राधा ने किया था कृष्ण से प्रेम ... अद्वितीय प्रेम” डायना की नीली आँखें प्रेम के गुलाबी डोरे, उसकी आँखों के सम्मोहन को दुगना बना रहे थे। धीरे-धीरे अंधेरा घिरने लगा था और हुगली के तट पर बत्तियाँ टिमटिमा उठी थीं। मल्लाह इंतजार में था कि मालिक का हुक्म हो तो लौटें। लेकिन डायना और चंडीदास को होश कहाँ था? प्रेम के चुंबक में वे खिंचे चले जा रहे थे। चँडीदास ने डायना की भीगी हथेलियाँ अपनी हथेलियों में भरकर उसके करीब मुँह लाकर कहा-”मैं तुम्हें प्यार करने लगा हूँ डायना।” डायना सिहर उठी। उसने घबराकर चंडीदास के होठों पर अपनी हथेली रख दी और फुसफुसाई-”कुछ मत कहो... केवल सुनो... हवाओं के स्वर, लहरों से पतवार के टकराने के स्वर चंडी... प्रेम को जबान नहीं चाहिए। मैं तुम्हारी हूँ... हमेशा तुम्हारी ही रहूँगी। पर कहकर इस पल को हलका मत करो।”

चंडीदास ने डायना के कंधे पर सिर टिका दिया। इशारा पाते ही मल्लाह ने किनारे की ओर नौका खेनी शुरू कर दी। हुगली की लहरें काली हो चुकी थीं और उन पर सितारे टंक चुके थे। चंडीदास ने डायना को फिटन में बिठा दिया था जो रात की तफरीह के लिए निकले लोगों की चहल-पहल से भरी सड़क पर दौड़ पड़ी थी।

चंडीदास अकेला ही हुगली के किनारे चहल-कदमी करता रहा। देश एक क्रांतिकारी, जोशीले दौर से गुजर रहा था। अंग्रेज अब फूटी आँख नहीं सुहा रहे थे। ऐसे में एक अंग्रेज युवती को दिल दे बैठना... पर प्रेम व्यापार तो नहीं जो ठोक बजा कर किया जाए। चंडीदास क्या करे, उसका अपने दिल पर वश नहीं... वह अपनी संपूर्ण ताकत से डायना की ओर उसे खींचे लिए जाता है। चंडीदास के मन में भी क्रांति की ज्वाला भड़कती है, देश के लिए कुछ कर गुजरने की चाह सिर उठाती है, पर अपने बूढ़े, असहाय माँ-बाप को वह कैसे बेसहारा छोड़ दे? उसे कुछ हो गया तो उन्हें कौन सँभालेगा? इन्हीं विचारों के मंथन से गुजर रहा था वह कि सामने से जसराज आते दिखाई दिए।

“अरे, मास्टरजी आप यहाँ?” चंडीदास ने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा। वे उम्र में चंडीदास से काफी बड़े थे और स्कूल में अध्यापन करते हुए अगले वर्ष रिटायर होने वाले थे।

“चंडीदास मिसेज ब्लेयर तो बड़ी विदुषी महिला हैं। इतनी जल्दी हिंदी और संस्कृत का ज्ञान हो गया है उन्हें कि मैं तो आश्चर्यचकित हूँ।”

“जी... संगीत भी उतनी ही तेजी से सीख रही हैं वे।” दोनों टहलते हुए एक चाय के होटल में आ बैठे। चंडीदास ने चाय मंगवाई साथ में समोसे।

“एक बात पूछनी थी चंडीदास... मुझे डायना ब्लेयर के उनके पति के साथ संबंध स्वाभाविक नहीं लगते।” जसराज ने चाय का घूँट भरते हुए कहा तो चंडीदास सतर्क हुआ... कहीं अगला प्रश्न जसराज उन दोनों के संबंधों को लेकर न पूछ लें।

“ऐसा लगता है जैसे रिश्ते का बोझ ढो रही हैं मिसेज ब्लेयर।” चंडीदास ने अनभिज्ञता प्रगट की-”इस ओर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया।”

जसराज ठहाका मारकर हँसे-”संगीत सिखाते हो न इसलिए अपने आसपास की दुनिया दिखाई नहीं देती।”

चंडीदास की हिम्मत नहीं हुई जसराज से आँखें मिलाने की। अभी-अभी तो उसने डायना के सामने प्रेम का इजहार किया है और अभी-अभी पकड़ा गया।

वायदे के मुताबिक चंडीदास को मुनमुन की किताबें लेकर लौटना था पर वह खाली हाथ लौटा... ट्यूशन वालों ने आज भी रुपए नहीं दिए थे। दरवाजा मुनमुन ने ही खोला था लेकिन उसके हाथ में किताबें न देख वह बुझ गई थी। बिना कुछ कहे वह चंडीदास के लिए खाना गरम करने लगी। माँ के घुटनों पर गुनगुन तेल मल रही थी और बाबा खर्राटे ले रहे थे। वे जब से नौकरी से रिटायर हुए हैं जल्दी सो जाते हैं और सुबह जल्दी उठ जाते हैं। मुँह अँधेरे उठकर वे घूमने चले जाते हैं और लौटते हुए दूध और अखबार लेते आते हैं। तब तक माँ नहा-धोकर पूजा पाठ से फुरसत हो लेती हैं। फिर चाय पीते हुए चश्मा लगाकर अखबार पढ़ती हैं।

“दादा... अगले महीने से मेरे इम्तहान शुरू हो जायेंगे। क्या आप मुझे स्कूल जाते हुए कॉलेज छोड़ते जाया करेंगे। वहीं बैठकर नोट्स बना लिया करूँगी।” मुनमुन ने चंडीदास की थाली परोसकर उसके सामने रख दी। चंडीदास समझ गया यह किताबें न मिल पाने की हताशा है।

“परसों से। कल और देख लेते हैं कि उनके यहाँ से रुपए मिल पाते हैं या नहीं।”

“आप मिस्टर ब्लेयर के यहाँ से क्यों नहीं ले लेते एडवांस। नोट्स भी मैं इतने कम समय में कैसे बना पाऊँगी।” मुनमुन की चिंता वाजिब थी। वार्षिक इम्तिहान थे और दो किताबें उसके पास नहीं थी। पर डायना से एडवांस लेना क्या उचित होगा? नहीं... नहीं... डायना के सामने वह अपनी विपन्नता इस रूप में उजागर करना नहीं चाहता, यह तो बड़ी अपमानजनक स्थिति हो जाएगी।

उस रात चंडीदास को दो कारणों से नींद नहीं आई। एक तो मुनमुन की पढ़ाई और दूसरा डायना से प्रेम निवेदन। मोहल्ले के काली माँ के मंदिर में घंटे टुनटुनाए। अब मंदिर के कपाट बंद कर दिए जायेंगे। क्योंकि यह वक्त उनके विश्राम का है तभी सड़क पर घोड़ों की टाप सुनाई दी। फिर कुछ लोगों की बात करने की आवाज। चंडीदास ने माँ के कमरे में झाँक कर तसल्ली कर ली... गुनगुन है तो... चंडीदास को तो गुनगुन हमेशा घर पर ही मिलती है। फिर लोग क्यों कहते रहते हैं कि गुनगुन क्रांतिकारी हो गई है और सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में भरती हो गई है।

पर यह सच था कि गुनगुन ने आजाद हिंद फौज में आजादी के लिए मर मिटने को नाम दर्ज करा दिया था। उसके मन में आजादी के सपने कुलबुलाने लगे थे। बाबा ने व्यक्ति से घृणा करना तो सिखाया न था उसके कर्मों से घृणा करना सिखाया था। इसीलिए गुनगुन अंग्रेजों से नहीं बल्कि उनके अत्याचारी शासन से घृणा करती थी। उसका सहपाठी डेव फ्रेंकलिन उसका दोस्त था। डेव के पिता फौज में थे और डेव का जन्म भारत में ही हुआ था। शायद यही वजह थी कि उसमें अंग्रेजियत कम और भारतीयता अधिक थी। गुनगुन भी खुलकर उससे अंग्रेजी शासन की निंदा करती थी।

“अंग्रेज शासन के नाम पर अत्याचार करते हैं, आतंक फैलाते हैं। आखिर यह सरजमीं हमारी है... हम क्यों नहीं आजाद होने का हक रखते।” वह डेव से कहती थी।

“कोई भी आसानी से हाथ आई समृद्धि, शासन कैसे वापिस कर सकता है। ममा बताती हैं कि इंग्लैंड विभिन्न देशों में शासन के बल पर ही समृद्ध हुआ है। सबसे ज्यादा समृद्धि तो उसे बंगाल से ही मिली है। अमेरिका से मिली है, केनेडा से। अफ्रीकी देशों में नीग्रों पर शासन कर उसने अपने लिए गुलाम इकट्ठे किए हैं। मैं कभी इंग्लैंड नहीं गया पर सुना है वहाँ हर नागरिक अमीर हैं... कभी सोचता हूँ इतना धन कमाऊँ कि वहाँ जाकर एक आलीशान कोठी खरीदूँ।” डेव सपने देखने लगता।

गुनगुन ने उसकी सपने देखती आँखों के आगे चुटकी बजाई-”जागो डेव जागो... धरती पर आ जाओ। सपनों को धरोहर समझ कर मंजिल की ओर कदम बढ़ाओगे तभी कुछ हासिल होगा।”

पढ़ाई के साथ-साथ गुनगुन इला और द्विजेन के साथ कमर कसकर नेताजी के बताए कामों को सरअंजाम देने लगी। इला नेताजी की भतीजी थी और द्विजेन भतीजा। एक बड़े क्रांतिकारी समूह का नेतृत्व उनके ही हाथों में था। गुनगुन वैसे तो नौ साढ़े नौ बजे रात तक घर लौट आती थी पर कभी-कभी रात अधिक हो जाती या मध्यरात्रि को उसे लेने समूह का कोई सदस्य आ जाता। ऐसे में उसने मुनमुन को पटा रखा था। मुनमुन उससे केवल दो वर्ष बड़ी थी और दोनों में बहनापा कम दोस्ती अधिक थी। एक-दूसरे के प्रति समर्पित दोनों बहने एक-दूसरे के सपनों को साकार करने में मदद करती थीं। जब गुनगुन को मध्यरात्रि दो बजे जाना होता तो वह मुनमुन को इसकी सूचना पहले से दे देती। समूह के किसी सदस्य के बाहर से विशेष आवाज में हलकी दस्तक देते ही गुनगुन मुस्तैदी से उठ जातीं-”चलती हूँ मुनमुन। सँभालना।”

“हाँ... वही रिहर्सल वाला बहाना... ठीक है? देखो सावधानी से जाना।”

अंधेरे में गुनगुन की गुम होती परछाई मुनमुन को थोड़ी देर के लिए विचलित कर देती-”क्या पता, वक्त किस मोड़ पर जिंदगी को ला खड़ा करे... हे माँ काली, गुनगुन की रक्षा करना।”

आज भी वह दरवाजे को आहिस्ते से बंद कर ही रही थी कि तभी अचानक हवाएँ सर्द-सी लगीं जबकि सर्दी लगभग अंतिम विदाई पर थीं। अंधेरे में ही कई जुगनू एक साथ चमके और कुछ लोगों के भागते कदमों की आहट कलेजा कंपा गई। तभी बंदूक चलने की आवाज सुन उसके मुँह से चीख निकलते-निकलते रह गई।

“कौन?” बाबा शायद जाग गए थे।

पर मुनमुन ने जवाब नहीं दिया और बिस्तर पर आ दम साधे लेट गई।

“कौन है?” माँ ने करवट बदल कर पूछा।

“पता नहीं।” बाबा ने लापरवाही से जवाब दिया “होंगे आजादी के मतवाले।”

रोजमर्रा की तरह बाबा मुँह अंधेरे उठ गए। नित्यकर्म से फुरसत हो वे घूमने निकल गए। सड़कों पर अंधेरा था और स्ट्रीट लैंप अभी गुल नहीं हुए थे। अपने मोहल्ले को जब उन्होंने पार किया तो साफ-सुथरी चौड़ी सड़क पर वे तेजी से चलने लगे। सड़क के किनारे गुलमोहर, अमलतास, बरगद, पीपल और भी तमाम दरख्तों का लंबा सिलसिला था। फुटपाथ इन दरख्तों से झरे पत्ते और बारीक फूलों से तब तक भरे रहते जब तक इन्हें जमादार बुहार नहीं लेता। सुबह के समय फुटपाथ पर जॉगिंग करने वाले युवक-युवतियों के जूतों की चरमराहट हवा में काँपती। अचानक उन्हें लगा जैसे पास से गुनगुन गुजरी है। वे थोड़ी देर रुक कर काला दुपट्टा ओढ़े उस लड़की को जाता देखते रहे। पीछे से बिल्कुल गुनगुन दिख रही है। क्या आवाज दें? आवाज देने में हर्ज ही क्या हैं? लेकिन यह गुनगुन कैसे हो सकती है? वैसे उनके मन में कई दिनों से इस शंका ने सिर उठाया है कि गुनगुन क्रांतिकारी हो गई है। देश जिस हालात से गुजर रहा है ऐसे में किसी भी युवक युवती का क्रांतिकारी होना आश्चर्य की बात नहीं। उनके तीनों बच्चे अलग ही स्वभाव लेकर पैदा हुए। चंडीदास को वे सिविल सर्विस में भेजना चाहते थे पर वो जिद्द करके शांतिनिकेतन चला गया और चित्रकारी और संगीत की शिक्षा लेकर ही लौटा। बच्चे कलाकार हों तो खुशी होती है पर कला को प्रोफेशन बनाना निरी मूर्खता है। कला समृद्धि नही देती। जिंदगी भर गृहस्थी के जुए में जुते रहो और एक दिन दुनिया से चल दो। बाबा ने खुद भी वही किया इसीलिए बच्चों के लिए डरते हैं।

वह लड़की सड़क के मोड़ पर न जाने कहाँ गायब हो गई। बाबा ने अपने संदेह को झटका, फिजूल की बातें हैं ये सब। उन्होंने हाथ की छड़ी जो आदतन वे साथ रखते थे हवा में घुमाई और कालीघाट की ओर जाने वाली सड़क को रुककर देखने लगे। सड़क पर एक पालकी जा रही थी। सुनसान माहौल में पालकी उठाने वालों की हईया हो, हईया हो गूँज रही थी।

जब वे अखबार और दूध लेकर घर लौटे तो गुनगुन अपने कमरे में पढ़ रही थी और मुनमुन ने चौके में चाय का पानी चढ़ा दिया था। उन्होंने गौर किया कि गुनगुन का दुपट्टा पीला है। जब उसने पढ़ते-पढ़ते बाबा की ओर नजरें उठाई तो उन्हें उसकी आँखों में उनींदा रीतापन-सा महसूस हुआ। जूते उतारकर बाबा ने रैक पर रखे और गुनगुन के पास आकर उसके सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा-”पढ़ाई ठीक ठाक चल रही है न?”

“जी बाबा।” गुनगुन की नजरें किताब पर ही झुकी थीं।

“और तुम्हारी रिहर्सल?” बाबा के पूछने पर गुनगुन के मन का चोर काँपा। लेकिन मुनमुन तो बता रही थी कि आज उसका जाना किसी को पता नहीं चला? आज उसे रिहर्सल का बहाना नहीं बनाना पड़ा?

“कब होगा तुम्हारा नाटक स्टेज?” बाबा के दुबारा पूछने पर उसने सधे शब्दों में जवाब दिया-”सरस्वती पूजा पर।”

और फिर से अपनी नजरें किताब के पृष्ठों पर गड़ा दीं। मुनमुन चाय ले आई थी। बाबा हाथ में कप लिए बाहर के कमरे में चले गए। गुनगुन ने राहत की साँस तो इस वक्त ले ली पर मन में यह विचार भी कौंधा कि आखिर कब तक ये बात वो घर से छुपा पाएगी। क्रांति क्या छुपने वाली चीज है? एक न एक दिन तो माँ बाबा को पता लगना ही है।

इतवार के दिन जब चंडीदास मुनमुन के लिए किताबें खरीद रहा था उसने किताबों की दुकान विश्वभारती से आई नई किताबों से भरी पाई। किताबें तो नई नहीं थीं उनके संस्करण नए थे। जयदेव, टैगोर, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, शरदचंद्र, मीराबाई, कबीरदार, सूरदास... चंडीदास अपने को रोक नहीं पाया। उसने सभी किताबों को पार्सल करने का ऑर्डर देकर डायना के बंगले का पता दे दिया। किताबें शाम तक बंगले पर पहुँच जाएँगी और पेमेंट भी वहीं से मिल जाएगा, आश्वासन दे, लेकर वह मुनमुन की किताबें लेकर घर लौट आया।

डायना बाकायदा हिंदी और बंगाली न केवल बोल लेती थी पर लिख पढ़ भी लेती थी। अपनी मोती जैसी सुंदर लिखावट में वह धीरे-धीरे लिखने का अभ्यास करती। उसका कमरा वैसे ही किताबों से भरने लगा था फिर जहाँ भी तफरीह के लिए जाती। किताबें खरीद लाती। शाम को चंडीदास का भेजा पार्सल बोनोमाली ने उसे लाकर दिया। डायना के असिस्टेंट जॉर्ज ने पेमेंट कर दिया था। अभी बोनोमाली पार्सल खोल ही रहा था कि फोन की घंटी बजी। बोनोमाली ने फोन उठाया और चंडीदास की आवाज पहचान रिसीवर डायना को थमा दिया-”मेमसाहब आपका फोन है।”

“हॅलो डायना... मैंने विश्वभारती की कुछ किताबें तुम्हारे लिए भिजवाई हैं।”

तब तक बोनोमाली पार्सल खोल चुका था और एक-एक किताब निकालकर टेबिल पर जमाता जा रहा था। डायना का चेहरा खिल पड़ा।

“हाँ चंडी... बस, अभी-अभी पार्सल मिला है। थैंक्स चंडी, तुम मेरा कितना ख्याल रखते हो। तुम सचमुच ग्रेट हो।”

“डायना, मैं कल शाम आऊँगा। आज कुछ काम निकल आया है। लेकिन तुम रियाज जरूर करना।”

“हाँ चंडी... जरूर करूँगी और अभी से तुम्हारा इंतजार भी।” फोन रखते ही डायना नई किताबों को उलट पलटकर देखने लगी। पृष्ठों पर हाथ फेरते हुए उसका मन असीम आनंद से भर उठा। कठिन शब्दों के लिए पार्सल में चंडीदास ने एक शब्दकोश भी रखवा दिया था। उसने सबसे पहले सूरदास को पढ़ने की कोशिश की। दो-तीन पन्ने पढ़कर उसका ध्यान तानपूरे की ओर गया। बंगले में एक म्यूजिक रूम भी था जिसे चंडीदास संगीत कक्ष कहता था। लगभग सारे वाद्य उस कक्ष में थे और फर्श पर चारों दीवारों को छूता मोटा, गुदगुदा कालीन बिछा था। कमरे की खिड़की से जुही की बेल झाँकती। जब फूल खिलते तो कमरा खूशबू से लबरेज हो उठता।

डायना ने संगीत कक्ष में जाकर तानपूरा उठा लिया और देर तक रियाज करती रही। अचानक उसका मन भटकने लगा। होम सिकनेस सताने लगी। वहाँ लंदन में वह अपने महल जैसे घर में पियानो बजाती थी। जब तक माँ थी घर भरा-भरा लगता था। वे रिश्तेदारों से घिरी रहतीं। डायना को शुरू से ही भीड़भाड़ पसंद नहीं थी, वह एकांतप्रिय थी। अकेले बैठी सोचती रहती या पियानो बजाती एक रहस्य से घिरी रहती थी। उसे लगता था जैसे पियानों से निकले सुर हवाओं में ऊँचे-ऊँचे होते हुए बाहर की नीली धुंध, चीड़ और चिनार के पेड़ों को चीरते न जाने किस लोक में समाते चले जा रहे हैं और उन सुरों के बीच उसका व्यक्तित्व पंख-सा हलका तैरता-सा कि जैसे सदियों को मुट्ठियों में भींच लाया हो। इस आग को... वह पसीने-पसीने हो उठती बावजूद बदन काटती ठंड के... बदन में उठी इस आग को अब किसी भी तरह नहीं बुझाया जा सकता। यह आग उसका वजूद है जो वह सब जलाने को आतुर है जो कुछ उसने चाहा था... लेकिन यहाँ हिंदुस्तान में उसे चंडीदास मिल गया और उस आग की लपटें सहमकर पीछे हट गईं।

डायना को चंडीदास में कोई अवगुण नजर नहीं आता। इतना रूपवान, विद्वान, कलाकार... शब्दों में, गले में, ऐसी मिठास जो बेकाबू कर दे। उस दिन नौका पर बैठे हुए उसका प्रेम निवेदन याद आते ही डायना शरमा गई। अब डायना की बारी है और वह चंडीदास के सामने अपना दिल खोलकर रख देगी। जैसा आज तक उसके जीवन में नहीं हुआ, अब होगा। टॉम ने उसे कभी दिल से नहीं चाहा। न कभी उसकी इच्छाओं की परवाह की, न शौकों की। दो घड़ी उसके साथ चैन से बैठकर कभी बात नहीं की। कभी जताया नहीं कि उसके जीवन में डायना है या डायना का ये स्थान है। इसीलिए तो डायना चंडीदास से मिलने से पहले तक अकेली थी, पर अब नहीं। उसने तानपूरा कोने से टिकाया और दोनों बाँहों से क्रॉस बनाया-”प्रभु यीशु... हमारी मदद करो।”

दूसरे दिन दोपहर ढलते ही चंडीदास आ गया। डायना उसी के इंतजार में थी।

“पसंद आई किताबें?”

“बहुत अधिक... मैं पहले जयदेव पढूँगी।” डायना ने संगीत कक्ष की ओर चलते हुए कहा।

डायना उतावली थी चंडीदास के साथ रियाज करने के लिए। आज दो दिन के अंतराल के बाद दोनों की महफिल सजेगी। दोनों कालीन पर आमने सामने बैठ गए। बीच में तबले की जोड़ी थी। चंडीदास की उँगलियाँ तबले पर और डायना की तानपूरे पर... चंडीदास ने उसे एक बांग्ला गीत सिखाया था-”एई कूले आमी आर ओई कूले तुमी, माझखाने नोदी ओई बोए चोले जाए... इस तट पर मैं हूँ और उस तट पर तुम हो, बीच में नदिया बहती चली जा रही है।”

“यह तो जुदाई का मंजर है चंडी... “

“हाँ... प्रेम करने वाले जुदाई में ही जीते हैं। कृष्ण का राधा से मिलन लघु था फिर जीवन भर की लंबी जुदाई... लेकिन फिर भी उनका प्रेम अमर है। नदी के तट भी कभी नहीं मिलते, बस प्रेम की नदी को थामे रखते हैं। अगर तट मिल जायें तो हाहाकार मच जाए। भूगोल बदल जाए... सारी कायनात बदल जाए।”

“पर मैं नहीं बदलूँगी... क्योंकि मैं तुम्हें प्यार करती हूँ। तुम मेरी आत्मा में समा गए हो।”

“तुम प्रेम की साक्षात अवतार हो राधे और मैं तुम्हारा दास... राधे का दास।”

डायना हुलसकर चंडीदास के सीने में समा गई।

“राधे, हमारे बीच प्रेम की अथाह नदी बह रही है। और उस नदी को सँभालने के लिए हम दोनों की जरूरत है उसे। प्रेम के दो कूलों की। कूल नहीं होंगे तो नदी भी नहीं होगी।” डायना ने चंडीदास के हाथ ऐसे थामे जैसे डूबते को तिनके का सहारा।

चंडीदास ने डायना के होठों को चूमा-”तो तुम्हें मेरी राधा बनना कबूल है? बोलो बनोगी मेरी राधे?”

“और तुम मेरे किसना... ।”

दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े... खिड़की से झाँकती जुही की बेल से खिले फूल चौंक कर चू पड़े... चंडीदास के स्पर्श ने डायना के बदन का रोम-रोम नशे से भर दिया था। वह गुनगुनाई तो जैसे सारी कायनात गुनगुना उठी। सूरज दूर मंदिर के कलश के पीछे छिप गया और अंधेरा जो इसी ताक में था कि कब सूरज डूबे, उचककर क्षितिज की रेखा से इस पार उतर आया। आज जब चंडीदास ने विदा ली तो डायना और उसके जीवन की किताब के नए पृष्ठ खुल चुके थे।

पुरानी ईंटों के ढेर के पीछे बिल्ली ने बच्चे जने थे। एकांतप्रिय डायना सुबह की सैर बिना अपने सेवकों के अकेले करती। टॉम उसके अकेले जाने पर उसकी सुरक्षा को लेकर सवाल खड़े कर चुका है पर डायना निश्चिंत है। जब वह किसी की दुश्मन नहीं तो उसका दुश्मन कौन होगा? लिहाजा वह अकेली ही जाती। ईंटों के ढेर के पीछे कई बच्चों के बीच एक सफेद बालों वाला बच्चा ईंट में दब गया था ओर उसकी माँ उसकी पूँछ पकड़कर उसे खींच कर बचाने में लगी थी। उसे घेरे सभी बच्चे सहमे से मूक हो खड़े थे। डायना ने ईंट हटाई तो बच्चे को घायल पाया। उसका पिछला एक पैर लहूलुहान हो चुका था। डायना उसे घर ले आई और माली से उसे जानवरों के अस्पताल ले जाने को कहा। गनीमत थी कि उसकी हड्डी नहीं टूटी थी। जब मलहम पट्टी करवाकर बच्चा घर लौटा तो डायना उसकी सुंदरता देखती ही रह गई। उसके भोले भाले मासूम चेहरे को देख डायना ने उसे पालने का निश्चय कर लिया। उसने उसके गले में लाल रिबन बाँधा और उसका नाम ब्लॉसम रखा।

ब्लॉसम को ठीक होने में हफ्ता भर लग गया। वह चंडीदास को भी पहचानने लगी थी। चंडीदास के आने के पहले डायना ब्लॉसम के बदन पर ब्रश करती... आज भी वह उसे ब्रश करके गोद में लिए बैठी गुनगुना रही थीं जब गुनगुनाना बंद हुआ तो ब्लॉसम ने एक लंबी जमुहाई ली और गेंद-सी गोल सिमटकर उसकी गोद में घुरघुराती हुई सो गई। बिल्ली के बदन की गरमाहट का सेंक डायना में एक विचित्र एहसास जगाता रहा।

नियत समय पर चंडीदास आया। बिल्ली उछल कर उसके कंधे पर चढ़ गई-”देखो डायना, तुम्हारी पहरेदार मेरा मुआयना कर रही है।”

डायना मुस्कुरा पड़ी। बिल्ली को चंडीदास देर तक प्यार करता रहा। फिर डायना के साथ संगीत कक्ष में आने से पहले उसे सोफे पर बैठा दिया। वह भी शांति से दुबककर सो गई। संगीत कक्ष का परदा हटते ही दोनों बड़ी प्रगाढ़ता से आलिंगनबद्ध हुए... आज चंडीदास ने देर तक डायना के अधरों का रसपान किया। सिहरते बदन सहित दोनों जब रियाज करने बैठे तो हवा रेशमी हो उठी और आसमान पर छाई सफेद बादलों की थिगलियाँ सूरज से लिपट-लिपट गईं।

बाहर अंधेरा गहराने लगा। सोफे से कूदकर ब्लॉसम पूँछ खड़ी कर डायना के पैरों से लिपटने लगी। उसे भूख लगी थी लेकिन डायना और चंडीदास एक के बाद एक गीतों के मुखड़े उठाते जाते ओर गायन में तल्लीन हो जाते जैसे समय उनके पास आकर ठिठक गया हो, बीतना ही भूल गया हो।

“चंडी... प्यार की नदी के कूलों को जोड़ने के लिए हम उस पर एक पुल बनाएँगे और एक-दूसरे के दिल में उतर जाएँगे।”

“यह इतना आसान नहीं राधे... पुल के आसपास भयानक बिजलियाँ कड़केंगी, उसे डायनामाइट से उड़ा दिया जाएगा... प्रेम को मिटा देते हैं लोग... वे डरते हैं क्योंकि प्रेम की शक्ति इस दुनिया की सारी शक्ति से भी अधिक शक्तिशाली है। इसीलिए दोनों कूलों के बीच नदी बहना जरूरी है... उसे कोई नहीं मिटा सकता।”

दोनों संगीत कक्ष से बाहर हॉल में आ गए। इतना प्यार पाकर डायना के पैर जमीं पर नहीं पड़ रहे थे। उसे ताज्जुब हुआ पंख तो कब से उसके पास थे पर खुले आसमान में उड़ने के लिए वह हौसला क्यों नहीं जुटा पाई।

बोनोमाली चाय की ट्रे लिए हॉल में दाखिल हुआ। नजरें झुकाए-झुकाए उसने ट्रे टेबिल पर रखी और म्याऊँ-म्याऊँ का शोर करती ब्लॉसम को उठाकर चला गया। जाने क्यों वह अपनी मालकिन और चंडीदास को जब साथ-साथ देखता है तो आह्लाद से भर जाता है... वह मालिक का मालकिन के प्रति व्यवहार जानता है... और इसीलिए उसे मालिक जरा भी पसंद नहीं।

दीवारघड़ी की टिक-टिक ने डायना को जैसे स्मरण दिला दिया कि अब चंडीदास को चला जाना चाहिए। उसने बाहर छाए अंतहीन सघन अँधेरे में अपनी तारों-सी दिपदिपाती स्वप्निल आँखें टिका दीं-”अब तुम जाओ किसना... आज टॉम टूर से किसी भी वक्त लौट सकता है।”

“डरती हो?”

“तुम्हारे लिए डरती हूँ किसना। तुम टॉम को नहीं जानते।”

“प्रेम करने वाले डरा नहीं करते... आइंदा मैं तुम्हारे मुँह से यह शब्द कभी नहीं सुनना चाहूँगा। प्लीज... इस वक्त चलता हूँ।”

जॉर्ज ने आकर खबर दी थी कि सर आज दोपहर तीन बजे लौट रहे हैं। डायना के चेहरे पर फीकी-सी मुस्कान उभर आई... कितनी अजीब बात है कि उसके पति के आने की खबर उसे उसके असिस्टेंट से मिलती है। टॉम की जिंदगी में अपना वजूद उसे पिघली हुई मोमबत्ती के नीचे फैली उस मोम की पपड़ी-सा लगा जो झाड़ बुहार कर कूड़ेदान में डाल दी जाती है। खिन्न मन से वह पूरे बंगले का चक्कर लगाने लगी। चौके में पारो एक स्टूल पर बैठी आलू छील रही थी और बोनोमाली आलमारी में से कुछ निकाल रहा था। बगीचे में माली क्यारियों में से सूखे पत्ते, घास का कचरा उठा-उठा कर पास रखी डलिया में भरता जा रहा था। नीम के पेड़ पर से एक सलेटी रंग की चिड़िया जिसकी पूँछ बहुत लंबी थी, उड़ती हुई पास ही जामुन के पेड़ पर जा बैठी। डायना अपने कमरे में लौट आई। खिड़की का परदा हटाया तो धूप का एक टुकड़ा आहिस्ता से फर्श पर सरक आया। मानो सुबह से वह बाहर खिड़की के पास दुबका परदा सरकने की प्रतीक्षा कर रहा हो। डायना ने टेबुल पर से जयदेव की पुस्तक उठाई और सोफे पर बैठकर पढ़ने लगी। ग्यारहवीं शताब्दी में बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन के राजकवि थे जयदेव। उन्होंने प्रेम काव्य का अद्भुत वर्णन किया था अपने लेखन में। डायना भाव विभोर थी कि तभी टॉम ने प्रवेश किया।

“हैलो... कैसी हो?”

डायना ने पुस्तक पर से नजरें उठाकर टॉम को देखा-”हाय... आ गए।”

आते ही टॉम टेबिल पर रखी डाक देखने गला। वह लिफाफे खोलता जाता और खुद से कुछ कहता जाता। आधा घंटे बाद वह कपड़े बदलने के लिए अपने कमरे में चला गया। डायना को लगा वह बाथ लेकर खाने की फरमाइश करेगा। लेकिन तभी वह तौलिया लपेटे कमरे से बाहर आया। अपने लिए पैग बनाया और सिगरेट सुलगा ली। डायना की नजरें पुस्तक पर थीं पर वह टॉम की हर गतिविधि का बारीकी से अवलोकन कर रही थी। रात से पहले बल्कि शाम से भी पहले टॉम का यूँ शराब पीना उसके लिए नया नहीं था। वह अक्सर छुट्टी के मूड में सुबह शाम की परवाह पीने के लिए नहीं करता। पैग हाथ में लिए वह कमरे में चहलकदमी करने लगा। फिर दूसरा पैग बनाया और पैग हाथ में लिए हुए ही वह अपने कमरे के बाथरूम में घुस गया। डायना ने इत्मीनान से सिर पीछे टिकाया ही था कि वह भीगे बदन बिल्कुल नग्नावस्था में बाहर आया। डायना के कमर तक खुले रेशमी बाल तेज हवा में लहरा रहे थे। वह बेहद खूबसूरत लग रही थी। उसका अलसाया सौंदर्य टॉम को बेकाबू किए दे रहा था। टॉम ने तीसरा पैग बनाया-”क्या गुलामों की लिखी किताबें पढ़ती हो। उन पर सिर्फ शासन किया जा सकता है।” कहते हुए उसने डायना की किताब छीनकर टेबिल पर पटक दी और उसे गोद में डठाकर बाथरूम में लाकर शॉवर के नीचे खड़ा कर दिया। डायना की नीली पोशाक भीग कर उसके बदन से चिपक गई जिसमें से उसका संगमरमरी बदन झलक रहा था। नशे में डूबा टॉम डायना के बदन से पागलों की तरह खेलने लगा। डायना के हृदय की प्रेम कलियाँ सूख गई... जयदेव की यमुना के कूलों पर धूल उड़ने लगी। एक बवंडर-सा उठा जिसमें कृष्ण और राधा जाने कहाँ गुम हो गए। रह गई वृंदावन के वंशी वृक्षों पर सर पटकती हवा। डायना के नयन अश्रुओं से भरे थे। वह पत्नी होने का दंड भुगत रही थी। टॉम बस देह पर हक जताता है और डायना को महसूस होता है जैसे हर बार वह उसका बलात्कार कर रहा है। एक पल को भी तो टॉम उसका हो न सका जबकि उसने टॉम को अपना बनाने की तमाम कोशिशें की लेकिन हर बार उसका दिल टूटा... हर कोशिश में उसे हार मिली। न जाने क्यों टॉम के दिल में उसके लिए भावनाएँ नहीं जागतीं, न जाने क्यों वह डायना के लिए कभी कुछ नहीं सोचता। बस उनके बीच देह का संबंध है। थक चुकी है डायना नशे और वासना की पंक, सिगरेट की तीखी गंध और कामातुर टॉम से...

डायना का मन टॉम के व्यवहार से टूट चुका था... बिल्कुल मर ही जाता अगर चंडीदास नहीं मिलता। चंडीदास से मिलने से पहले वह सोचा करती थी लौट जाए अपने देश... इस अजनबी देश में कुछ भी तो नहीं ऐसा जिसे वह अपना कह सके। न सगे-संबंधी, न मित्र, न भाषा, न रीति-रिवाज... लंदन से चलने से पहले उसके चाचा ने हिंदुस्तान की अजीबोगरीब तस्वीर खींची थी उसके सामने... बिल्कुल असभ्य देश है। जहाँ साँपों को, पेड़ों को और बिल्कुल कोयले जैसी काली, लाल रंग की जीभ निकाले... कई हाथों वाली मूर्ति को पूजते हैं। औरतों को परदे में रखते हैं मुसलमान और कई-कई शादियाँ करते हैं। वे मर्दों का लिंग काट कर उन्हें मुसलमान बनाते हैं। हिंदू औरत जब विधवा होती हैं तो उसे आग में जिंदा जला देते हैं या सिर मुँडाकर, सफेद कपड़े पहनाकर जिंदगी भर उबला खाना खिलाते हैं। ऐसी विधवा औरतें उनके धार्मिक उत्सवों में शामिल नहीं होतीं। कई घरों में तो लड़कियाँ जन्मते ही मार डालते हैं या राजा के हाथी के पैरों तले कुचलवा कर अपने को धन्य समझते हैं। सुनकर डायना ने फुरेरी ली थी। यह कैसा देश है... एकदम जंगली, पाशविक... उसका कोमल मन इन बातों से इतना अधिक दुखी हुआ था कि जब वह हिंदुस्तान आई तो ऐसा लगा जैसे उसे देश निकाला दिया जा रहा हो। लेकिन यहाँ मिला चंडीदास... जिसने उसके तमाम तर्कों, तमाम शंकाओं का समाधान किया। वह चंडीदास से प्रेम करने लगी। भूल गई अपने दुख और टॉम से मिली उपेक्षाओं को। दोनों के मन में प्रेम का ऐसा पुल बना कि जिस पर से होकर दोनों एक-दूसरे के अंदर उतरते रहे। उसके दिल में टॉम के साथ बिताए शुरुआती दिनों के चंद मोहक पल पुरानी तस्वीरों की तरह पीले पड़ चुके थे। वैसे भी वो सब कुछ भुला देना चाहती है। मन में बसा है चंडीदास... उसका किसना... टॉम से कहीं अधिक सुंदर, लंबा, छरहरा... एक भरा-पूरा सजीला युवक... टॉम से कहीं अधिक विद्वान, कहीं अधिक पढ़ा-लिखा... तेजस्वी किसना और वो उसकी राधा... लंबे-लंबे चरागाहों में घोड़े पर सवार राधा और पीछे प्रेम का उमड़ता सागर किसना... यही प्रेम चैतन्य महाप्रभु को ब्रज की धरती तक खींच ले गया जहाँ वर्षों से विचर रहे, आँख मिचौली खेलते राधा-कृष्ण को वन, वीथिकाओं, वल्लरियों की आड़ से निकालकर उन्होंने जनमानस में अवतरित किया था। उस कुसुम-कुंज में आज भी कृष्ण वनपुष्पों से जगतमोहिनी राधा का श्रँगार करते नजर आते हैं। एक दिन चंडीदास ने भी डायना का शृंगार किया। अपने छोटे-छोटे बालों को चंडीदास के ही आग्रह पर डायना ने कमर तक बढ़ा लिया था। घने, सुनहले, रेशम के गुच्छों जैसे मुलायम बालों की चोटी गूँथी थी चंडीदास ने और सिंदूर से मांग भर दी थी। अपनी सद्य परिणीता के माथे पर बिंदी लगाकर पैरों में आलता लगाया था और पाजेब पहना दी थी। पाजेब भारी और पेच वाली थी। उसके कोमल गुलाबी पैरों को चूम लिया था उसने। डायना पाजेब पहने तीन चार डग जिस ढंग से चली उसे देख चंडीदास हँस पड़ा था। उस पल डायना को लगा वह चंडीदास की इस प्रेम भरी चितवन पर अपनी पूरी जिंदगी कुर्बान कर सकती है।

शाम ने परछाइयाँ समेट ली थीं और जादूगरनी-सी परछाइयों की पिटारी लिए दबे पाँव चली गई थी। आसमान तारों से सँवरने लगा था।

“बंगाल का काला जादू प्रसिद्ध है। अपने लंबे बालों और बड़ी-बड़ी काली आँखों में मर्द को बाँधकर मेढ़ा बना देती हैं यहाँ की औरतें... पारो ने डायना के बालों की मालिश करते हुए बताया था।”

“अच्छाऽऽ... “ आश्चर्य से डायना की आँखें फैल गई थीं।

“वैसे मेमसाहब... मर्द भी कुछ कम नहीं होते यहाँ के। बड़े बहादुर होते हैं जैसे हमारे बाघा जतिन थे।”

“बाघा जतिन?”

“हाँ... वैसे तो उनका नाम यतींद्रनाथ मुखर्जी था पर उन्होंने बाघ मारा था न इसलिए उनका नाम बाघा जतिन पड़ा।”

“कैसे मारा था बाघ?... बाघा जतिन ने?” डायना की आँखें मालिश की वजह से मुँदी जा रही थीं।

“अरे... आपको ये किस्सा नहीं मालूम? यह किस्सा तो पूरा बंगाल जानता है। नदिया जिले के कोया गाँव में आस-पास के जंगल से एक खूँखार आदमखोर बाघ आता था और गाय, बैलों, छोटे बच्चों को मारकर खा जाता था। तब बाघा जतिन ने अकेले दम पर मार डाला बाघ को... वो भी चाकू से... “

डायना सचमुच रोमांच से भर उठी। उसकी आँखों के आगे चित्र-सा खींच दिया था पारो ने... पारो और भी बहुत कुछ बताने के मूड में थी... आज न चंडीदास आने वाला है, न जसराज। वे अपने स्कूल के सालाना जलसे की तैयारियों में जुटे हैं। सेवानिवृत्त होने के बावजूद मास्टर जसराज अपने स्कूल से संपर्क रखे हुए थे और हिंदी नाटक आदि की रिहर्सल करा देते थे। पारो को आज पूरी शाम मिल गई थी डायना से बतियाने के लिए।

“आपको पता है मेमसाहब... अपने संगीत मास्टरजी की छोटी बहन क्रांति की सिपाही है।... बोस बाबू की फौज में हैं वो।”

“क्याे? तुम कैसे जानती हो पारो?” डायना चौंक पड़ी।

“जानती हूँ न... तभी तो... वो घोषाल बाबू का लड़का भी उसी फौज में हैं। घोषाल बाबू बोनोमाली को जानते हैं... इसीलिए तो... “

“अरे वाह... तुम तो सारी दुनिया की खबर रखती हो?”

पारो ने इसे अपनी प्रशंसा समझी। वह शरमाते हुए मुस्कुरा दी। पारो के मन में एक प्रश्न जो महीनों से कुलबुला रहा था... आज बाहर आने को उतारु हो गया। आज मालकिन का मूड अच्छा है। पूछ ही लेती है... “मेमसाहब... एक बात पूछूँ... बुरा तो नहीं मानेंगी?”

“हाँ, पूछो पारो... बुरा होगा तो डाँट खाओगी।”

“डाँट लेना... डाँट लेना... आपकी तो डाँट में भी प्रेम होता है। अब जो इतनी लड़ाई हो रही है। सब लोग फिरंगियों को उनके देश वापिस भेज देने पर उतारू हैं, तिरंगा लिए घूमते हैं... वंदे मातरम् गाते हैं... मेमसाहब... क्या आप भी अपने देश लौट जाओगी?”

डायना के मन में छन्न से कुछ टूटा... शायद शीशए दिल, जिसकी किरचे बिखरकर उसकी पोर-पोर लहूलुहान करने लगीं। यह कैसा सवाल किया पारो ने? कि उसे जड़ से उखाड़कर धरती पर ला पटका। क्या यह देश अब उसका नहीं? जब चंडीदास उसका है तो यह देश भी उसका ही हुआ। वह चंडीदास की परिणीता है... हिंदुस्तान उसका ससुराल... इस वक्त वह पारो के सवाल पर खामोश रही लेकिन इसका जवाब उसके मन में तैयार था।

सालाना जलसे में चंडीदास इस कदर व्यस्त था कि वह महीने भर डायना को समय नहीं दे पाया। बस फोन पर ही बातें हो जातीं। वह जयदेव के राधा कृष्णमय गीतगोविंद पर एक नृत्य नाटिका तैयार करवा रहा था। साथ ही अपने बनाए चित्रों की प्रदर्शनी की भी तैयारी में जुटा था। वह एक बेहतरीन चित्रकार था और पैदाइशी इस गुण को सँवारा था शांतिनिकेतन ने। इस बार वह डायना की तस्वीरों के एल्बम पर भी काम कर रहा था।

डायना जयदेव की किताब तो पढ़ चुकी थी पर उसकी इच्छा केंदुली गाँव देखने की भी थी जहाँ जयदेव का घर था। उसने इस काम के लिए बोनोमाली को चुना। बोनोमाली जाकर गाँव आदि देख आया। सब जानकारी ले आया। डायना ने चंडीदास को फोन लगाया। वह केंदुली जा रही है सुनकर चंडीदास खुश हो गया।

“मैं भी चलता पर इधर व्यस्तताएँ बढ़ गई हैं।”

“जानती हूँ... तुम्हारी व्यस्तता से उपजे शून्य को ही तो भरने जा रही हूँ वहाँ। वैसे जयदेव के बाद अब मैं बंकिमचंद्र का आनंदमठ पढ़ रही हूँ। अद्भुत पुस्तक है। उनके वंदे मातरम् गीत को मैंने याद कर लिया है। अपनी तरह से कंपोज भी किया है और हारमोनियम पर गाती भी हूँ।”

“ओह... यह ग्रेट न्यूज है। तुम एक दिन महान गायिका बनोगी।”

“ज्यादा तारीफ नहीं... बस इतना बताओ, तुम्हारा सालाना जलसा कब है? मुझे बुलाओगे?”

“ए... शरारती, सोच कैसे लिया तुमने? अगले महीने की पाँच तारीख शाम छह बजे... पंक्चुअल रहना... वरना... “

“वरना क्या?”

“मिलने पर बताऊँगा, उधार रहा।”

इन दिनों कलकत्ता जलसों की तैयारी में जुटा था। सरस्वती पूजा के लिए जगह-जगह तैयारियाँ चल रही थीं। कुछ स्कूलों के सालाना जलसे भी इसी माह थे। फिजाओं में कला का नूर समाया था। सड़कों के किनारे खड़े पेड़ जो पतझड़ से बिसूर रहे थे अब बसंत की नई कोपलों से सज गए थे। जैसे किसी चित्रकार ने अपनी तूलिका ताजे घुले रंग में डुबोकर शाखों पर फेर दी हो... चंडीदास भी रात रात-भर चित्र बनाता था। आठ दस चित्र उसने प्रकृति और उल्लास तथा दुख के रंगों से बनाए थे... कुछ महापुरूषों के पोट्रेट थे... अब उसकी पूरी तल्लीनता डायना की तस्वीरों को लेकर थी। वह डायना के चेहरे को लेकर पूरा हिंदुस्तान रचना चाहता था। हिंदुस्तान की तमाम पोशाकों में वह डायना को उतारेगा, बस यही धुन चढ़ी थी उसे।

गुनगुन भी सरस्वती पूजा के लिए अपने ग्रुप के साथ नाटक की रिहर्सल में जुटी थी। घर पर केवल माँ और मुनमुन होतीं। मुनमुन पढ़ती रहती थी। उसे टॉप करना है और स्कॉलरशिप लेना है। बाबा अपने बच्चों की प्रतिभा से संतुष्ट थे।

रात के दो बजे थे। पढ़ते-पढ़ते मुनमुन को प्यास लगी तो देखा चंडीदास के कमरे की लाइट अभी तक जल रही है। वह उसके लिए भी एक गिलास पानी ले गई, “पानी पियोगे दादा?” कहते हुए गिलास आगे बढ़ा दिया और दीवार पर टंगे चित्रों में एक ही चेहरा देख पूछा-”दादा ये लड़की कौन है?”

चंडीदास का चेहरा खिल पड़ा। वैसे डायना शादी के बाद भी लड़की ही दिखती थी... कमसिन... उम्र भी तो उसकी छोटी थी। जिस साल टैगोर को नोबल पुरस्कार मिला उसी साल डायना का जन्म हुआ। सत्ताइस, अट्ठाइस साल की उम्र ही तो है उसकी।

“ये मिसेज डायना ब्लेयर हैं जिन्हें मैं संगीत सिखाता हूँ।”

“अच्छाऽऽ... तो ये हैं डायना ब्लेयर... मैं तो कोई प्रौढ़ महिला समझ रही थी। ये तो बहुत छोटी दिखती हैं।” मुनमुन ने आश्चर्य से कहा।

“हाँ... लेकिन कम उम्र में भी वे गजब की टैलेंटेड हैं, मिलवाऊँगा तुमसे।”

ऐसा कहते हुए अपने दादा की आँखों में मुनमुन ने प्रेम का वह भाव देखा जो सदा के लिए उसकी आँखों में अंकित हो गया। प्रेम में यही तो खूबी है जब जन्मता है तो अपने आस-पास समूचे माहौल को प्रेममय कर देता है और तब एक भूख जन्म लेती है जो जिस्म की नहीं होती पर जिस्म से होती हुई आत्मा तक फैल जाती है।

नरेंद्र ने दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में उपासना करते स्वामी रामकृष्ण परमहंस से पूछा था-”आप ईश्वर को देख सकते हैं?”

“मैं उन्हें साक्षात देख रहा हूँ।” परमहंस ने नरेंद्र को चकित करते हुए कहा था।

“कैसे?”

“जैसे मैं तुम्हें देख रहा हूँ।” परमहंस ने शांत भाव से जवाब दिया था।

“कुछ समझ में नहीं आई बात।”

“ईश्वर को समझने के लिए मनुष्य से प्रेम करो नरेंद्र। मनुष्य के हृदय में ही तो ईश्वर विराजमान है।”

नरेंद्र ने उसी क्षण उन्हें अपना गुरु स्वीकार करते हुए उनके चरणों में अपना सिर नवा दिया था-”मैं आज से ही मानव प्रेम, मानव सेवा को अपना लक्ष्य बनाऊँगा।”

परमहंस गद्गद थे-”तो आज से तुम मेरे शिष्य विवेकानंद। क्योंकि तुममें विवेक भी है और आनंद भी।”

चंडीदास ने भी यही किया... डायना के हृदय में छुपे आनंद को, बुद्धि और विवेक को बाहर निकालने की दिशा दी। और हुआ यूँ कि वह दिशा डायना ने चंडीदास की ओर मोड़ दी। अब दोनों एक-दूसरे की बुद्धि बन गए, विवेक बन गए, आनंद बन गए। चंडीदास ने एक बड़े कैनवास पर दक्षिणेश्वर का बेलूड़मठ चित्रित किया। मठ की बाहरी दीवारों पर नवग्रह की प्रतिमाएँ बनाई और जब मंदिर को छूकर बहती हुई हुगली नदी बनाने लगा तो अचानक डायना याद आ गई। वह अविस्मृत शाम जब नौका पर बैठे हुए उसने डायना से प्रेम निवेदन किया था। तब से कितना कुछ बीत गया। उसे लगता है जैसे सदियाँ गुजर गई हों और हर सदी में डायना और वह वहीं के वहीं हैं। वैसे ही प्रेम सागर में आकंठ डूबे। प्यार की यह कशिश कैसी अद्भुत अनुभूतियों को जगाती है।

सुबह-सुबह माँ ने एक बड़ी-सी चादर धो डाली थीं... कनस्तर भर चावल में से कंकड़ चुने थे और केले के फूल सब्जी के लिए तोड़े थे और अब कमर दर्द लिए पड़ी थीं। मुनमुन उनकी कमर में तेल की मालिश करती उन्हें डाँट रही थी-”जरूरत क्या थी एक ही दिन में सब कुछ निपटा देने की। बीमार पड़ गई तो? एक तो परीक्षा को कुल एक महीना बचा है।”

“चलो, इसी बहाने तुम्हारे मुँह से बोल तो फूटे।” माँ ने औंधे शरीर को सीधा किया और उठकर बैठ गई-”'वरना मुझसे बात करने की फुरसत ही किसे है? इस घर में दिन-भर अफरा-तफरी मची रहती है। कोई पढ़ रहा है, कोई चित्र बना रहा है, कोई नाटक की रिहर्सल कर रहा है। आधी-आधी रात तक तुम्हारे कमरे की खिड़कियों के पल्ले शोर करते हैं, बाहर सीटियाँ गूँजती हैं।”

मुनमुन अब दौड़ती चौके में गई और माँ के लिए चाय बना लाई-”लो... गरम-गरम पियो... और हमारे बारे में सोचना छोड़ो।”

“नही सोचूँ तो क्या करूँ? एक वो चंडी है। कितनी मन्नतों से तो हमने उन्हें पाया, तुम्हारे बाबा तो उम्मीद ही छोड़े बैठे थे और तुम्हारी दादी उनकी दूसरी शादी की बात सोच रही थीं।”

“क्यों?”

“शादी के चार साल हो गए थे और मैं... “

कहती माँ झिझक गईं। बेटी के सामने कैसे कबूल करें कि वे चार साल तक माँ बनने के लिए तरसती रही थीं। कहाँ-कहाँ की दवाई की। झाड़-फूँक जादू-मंतर किया तब जाकर चंडी का मुँह देखना नसीब हुआ। आज भी वो दिन याद करती हैं तो दुनिया की तमाम खुशियाँ छोटी लगती हैं। घर पर ही जचकी हुई थी। चंडीदास की दादी सुबह से काली माँ के मंदिर में आसन-पाटी लिए बैठी थी-”हे माँ! पोते का मुँह दिखा दो... जिंदगी में तुमने बहुत से अभाव दिए पर यह अभाव सहा नहीं जाता।” और शाम पाँच बजे जब चंडीदास पैदा हुआ तो वे बौरा-सी गई थीं... सारे घर में जश्न का माहौल। बाबा संदेश और रसगुल्ले बाजार से खरीद कर लाये थे और मोहल्ले में बाँटे थे। साल भर तक दादी ने माँ को किसी काम को हाथ नहीं लगाने दिया था। वे बस अपने नन्हें-से शिशु की देखभाल करतीं और आराम करतीं। कितना प्यारा लगता था चंडी... वे नहला धुलाकर काजल लगाकर पालने में लिटातीं और वह शरारती आँखों पर हथेलियों की मुट्ठियाँ बाँध सारा काजल फैला लेता और मचल-मचल कर पालने में हलचल मचाए रखता। उसे लेटना बिल्कुल पसंद न था। हर वक्त गोद में लिए घुमाते रहो और लोरियाँ गाते रहो।

“मुझे तो बचपन से ही पता चल गया था कि ये गायक बनेगा।”

“माँ तुम्हारी चाय ठंडी हो रही है। चाय पीकर तुम आराम करो। भात मैं पका लेती हूँ।” मुनमुन ने माँ को जबरदस्ती लिटा दिया और कप उठाकर चौके में चली गई।

माँ आँखें मूँदकर उस जमाने में खो गईं जो अभी-अभी बेसाख्ता याद आने लगा था।

चंडीदास की सभी पेंटिंग्स पूरी हो चुकी थीं। वह नहाकर तैयार होने लगा। कमरा रंग, ब्रश आदि के बिखराव से बेतरतीब नजर आ रहा था। मुनमुन उसके लिए खाना परोस लाई।

“आज मेरी पढ़ाई नहीं होने वाली। उधर माँ के कमर दर्द के कारण चौका सँभालना पड़ा, इधर कमरा बिल्कुल गोदाम बना कर रखा है दादा तुमने।”

“कलाकारों का घर है। कोई मामूली बात थोड़ी है।” चंडीदास ने खाना खाते हुए मुनमुन को चिढ़ाया।

“दादा... तुम भी न!” कहती हुई मुनमुन ब्रश, रंग समेटने लगी।

“अच्छा सुनो मुनमुन शाम को मैं जीप भेजूँगा। नंदलाल आएगा साथ में। ये सारी पेंटिंग्स तब तक सूख जायेंगी। वह ले जाएगा। चाय-वाय पिला देना उसे।”

“लो... अब एक ऑर्डर और... हो गई पढ़ाई की पूरी छुट्टी।”

चंडीदास ने मुनमुन के सिर पर हलकी-सी चपत लगाई और चला गया। धूप तेज हो गई थी ओर चंडीदास के गीले बाल धूप में चमक रहे थे। तभी अंग्रेज युवकों का एक झुंड सड़क से निकला। हँसता, बतियाता, सड़क पर पड़ी गिट्टियाँ अपने जूते की नोक से उछालता। मुनमुन ने दरवाजा बंद कर लिया।

बहुत तल्ख अनुभव था मुनमुन को इन अंग्रेज युवकों का। जुलाई का महीना था। बादलों से भरा सुहावना मौसम था। मुनमुन अपनी सहपाठिनों के साथ फोर्ट विलियम गेट की सड़क पर बायीं ओर चल रही। सभी बातों में मशगूल थीं कि एक बग्घी सड़क से निकली और अचानक उनकी बातों का क्रम टूट गया। बग्घी में कुछ बंगाली औरतें बैठीं बांग्ला में कुछ कहती हुई चीख-सी रही थीं। मुनमुन ने देखा कि बग्घी के ऊपर तीन-चार अंग्रेज युवक बैठे उन औरतों के साथ अश्लील हरकतें कर रहे थे। औरतें चीखकर इस ओर राहगीरों का ध्यान आकर्षित कर रही थीं पर किसी की हिम्मत न थी कि वो इन युवकों को रोके। मुनमुन के तन-बदन में आग लग गई। उनकी सहपाठिनों के साथ गुपचुप मंत्रणा हुई और फिर बिजली की फुर्ती से उन्होंने किनारे पड़े पत्थरों को उठा-उठाकर युवकों पर फेंकना शुरू किया। कुछ पत्थर लगते कुछ चूक जाते। बग्घी वाले ने बग्घी चलाना रोक दिया था और खुद भी उन्हें मारने में इन लड़कियों की सहायता करने लगा था। तभी एक पुलिस जीप वहाँ से गुजरी। पुलिस ऑफीसर भला व्यक्ति था। अंग्रेज होते हुए भी उसने इन लड़कियों की तरफदारी करते हुए चारों गुण्डों को गिरफ्तार कर लिया और सभी औरतों को अपनी जीप में बैठाकर उनके गंतव्य तक पहुँचाया। मुनमुन जानती थी थोड़ी ही देर में पुलिस उन गुण्डों को छोड़ देगी और यह भी जानती थी कि अंग्रेजों जैसी चालाक कौम दूसरी नहीं... क्रांति की लपटों ने अंग्रेजी शासन की नींव जला डाली थी और इसीलिए डूबती आस लिए अंग्रेजों के कारिन्दे यह जताने की कोशिश में रहते हैं कि वे कानून और न्याय के कितने पक्षधर हैं।

यह आग कोई मामूली आग नहीं है... इस आग के कुंड से उठी लपटों ने अंग्रेजों के शासन की हरी-भरी घास सुखा डाली है और अब घास का हर सिरा भड़कता हुआ एक बड़े दावानल में तब्दील होता जा रहा है। इस दावानल की एक झलक गुनगुन के स्टेज शो में भी दिखाई दी। सरस्वती पूजा के दिन कॉलेज में बड़ा भव्य कार्यक्रम हुआ था। गुनगुन की मंडली ने प्रतिस्पर्धा जीत ली थी। इतने दिनों की मेहनत रंग लाई थी। इस नाटक की नायिका गुनगुन थी और नायक सुकांत घोषाल। नाटक के बाद मंडली कैंटीन में आ जुटी।

“गुनगुन तुमने तो कमाल कर दिया।”

“नहीं, कमाल तो अब होगा सुकांत... अब हमारी भूमिका ज्यादा जटिल है।” गुनगुन की आँखों में आजादी के सपने तैर रहे थे। वह सुभाषचंद्र बोस के आह्वान पर अपने बदन का बूँद-बूँद खून निचोड़ने को तैयार थी।

“चलो तुम्हें घर छोड़ दूँ। आज की रात जमकर सोना।”

“क्या तुम्हें नींद आएगी सुकांत?”

गुनगुन के इस प्रश्न पर सुकांत अचकचा गया था। कभी-कभी गुनगुन जमाने भर की चिंता ले बैठती है। जैसे सारी की सारी जिम्मेवारी उसी ने ओढ़ रखी है। उसकी इसी अदा पर तो मर मिटा है सुकांत... पर गुनगुन अनजान बनी हुई है। उसकी आँखों में सुकांत को अकसर एक ज्वालामुखी नजर आता है। वह जानता है गुनगुन की सोच एक दिशा में सिमट कर रह गई है। यह दिशा जिधर रास्ते खोलती है उधर न जीने की चाह है, न मरने की इच्छा। हवा में दो शब्द भर तैरते हैं 'इंकलाब जिंदाबाद'... अपने लिए सोचने का वक्त ही कहाँ रह जाता है।

झाड़ियों में उलझे हँसिया-से पंचमी के चाँद की फीकी चाँदनी घायल-सी नजर आ रही थी। सुकांत ने गुनगुन के घर की ओर मुड़ने वाली गली पर साइकिल रोक दी। पीछे बैठी गुनगुन जिसके दोनों हाथ गफलत में सुकांत की कमर से रास्ते भर लिपटे रहे थे खुले और वह साईकिल से नीचे उतरी। अनायास ही सुकांत ने उसके कपोलों को चूम लिया। गुनगुन ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। बड़ी खामोशी से दोनों एक-दूसरे से जुदा हुए। गुनगुन गली में लोप हो गई। सुकांत सड़क की चढ़ाई पर साईकिल ढोने लगा।

दो दिन बाद चंडीदास की नृत्य-नाटिका और चित्रों की प्रदर्शनी एक बड़े सांस्कृतिक जलसों के हॉल में आयोजित होगी। इस बीच डायना शांतिनिकेतन हो आए तो अच्छा है।

पारो बाजार से तरह-तरह का गुड़ खरीद कर लाई थी। और बाग बाजार से नवीनचंद्र सरकार की ऐतिहासिक रसगुल्लों की दुकान से रसगुल्ले भी खरीद लाई थी। आते ही वह डायना के सामने झोला फैलाकर बैठ गई।

“यह देखिए मेमसाहब खजूरे पाटाली गुड़, ताल पाटाली गुड़।”

“ये तो गुड़ है, दो अलग-अलग पैकिटों में इतना क्यों ले आई पारो।”

“वही तो... ये कोई मामूली गुड़ थोड़े ही है। ये खजूर से बना गुड़ है, ये ताड़ से बना गुड़ है, ये गन्ने से बना गुड़ है और ये है काशुंदी।”

उसने एक बोतल में रखे हुए द्रव्य की ओर इशारा किया। “ये सरसों के दाने के रस से तैयार होता है। हम बंगाली लोग इसे माछझोल और भात में मिलाकर खाते हैं।”

डायना पारो के कहने के ढंग से खिलखिला पड़ी-”ए पारो दादी अम्मा... ..कल सुबह-सुबह ही शांतिनिकेतन चलना है। हम बाहर का कुछ नहीं खायेंगे। बनाकर ले चलना।”

“माछझोल और भात बना लूँ? कांशुदी मिलाकर खाना मेमसाहब, मजा आ जाएगा।” कहती हुई पारो सामान समेटने लगी।

भोर के झुटपुटे में ही डायना पारो और बोनोमाली के साथ जीप पर शांतिनिकेतन रवाना हो गई। शाम से वह चंडीदास को फोन लगाने की कोशिश कर रही थी पर आखिरकार बात नहीं हो पाई। वैसे अपने शांतिनिकेतन और फिर केंदुली गाँव जाने के कार्यक्रम की सूचना वह पहले ही दे चुकी थी उसे।

जीप फर्राटे से सड़क पर दौड़ने लगी। “पहले केंदुली चलेंगे।” डायना ने ड्राइवर से कहा।

“'जी... “

कुछ ही घंटों में वे केंदुली पहुँच गए। डायना चमत्कृत-सी जीप से उतरी। जयदेव का काव्यमय प्रेम संसार उसके सामने था। किताब के पन्ने उसकी आँखों के आगे फड़फड़ा उठे और शब्द हवा में तैरने लगे। हर शब्द एक राग बनकर उसके कानों में झंकृत हो उठा। वह तेज-तेज चलने लगी। बावली-सी इस गली से उस गली... इस मोड़ से उस मोड़, इस पेड़ से उस पेड़... जैसे बावरी राधा अपने कन्हाई को खोज रही है। पलकें झपकाते हुए वह जयदेव को ढूँढने लगी... उस घर को... घर की उस कुठरिया को जहाँ बैठकर उन्होंने गीतगोविंद लिखा।

सामने कोपाई नदी बह रही थी। वह यंत्रचालित-सी कोपाई के तट पर बैठ गई। श्यामल लहरें कोमलता से बह रही थीं। मछुआरों के कुछ बच्चे नंगधडंग पानी में छलाँगे लगा रहे थे। आम के पेड़ के नीचे बैठी एक औरत टोकरी में उबले चने भरे बेच रही थी। डायना दूर-दूर बहती नदी के संग जैसे खुद भी बहने लगी। इसी तट पर जयदेव भी बैठे होंगे। इसी तट पर बैठकर उन्होंने नदी की चंचल उर्मियों का संगीत भरा आह्वान किया होगा। कितनी तड़प महसूस की होगी उन्होंने राधा के लिए तभी तो ऐसी अद्भुत रचना लिख पाए वे। डायना ऐसी खोई कि समय का एहसास ही नहीं रहा। डूबते सूरज की किरणों ने जब उन उर्मियों को सतरंगी जामा पहना दिया और जब आसमान पर अपने घोंसलों में लौटते परिंदों की कतारें गहराने लगीं तो पारों ने नजदीक आकर कहा-”मेमसाहब... वापस चलें?”

उस दिन शांतिनिकेतन जाना नहीं हो पाया।

निमंत्रण-पत्र देने से दस मिनट का समय निकालकर चंडीदास खुद आया। बीस दिन की जुदाई बीस सदियों-सी गुजरी थी। डायना उमगकर चंडीदास के सीने में समा गई। चंडीदास ने उसे चूमते हुए कहा-”राधे... कल मेरे इतने दिनों की मेहनत का इम्तिहान है। तुम समय पर आ जाना... दिखाओं तो अपनी पोशाकें। मैं सिलेक्ट करूँगा कि कौन-सी पहननी है तुम्हें कल।”

वह डायना के साथ उसके कमरे में आ गया। मंत्रमुग्ध-सी डायना ने अलमारी खोल दी। भूरे काले रंगों की शानदार पोशाक पर उसने हाथ रखा-”इसे पहनना।”

डायना ने उसके गले में बाहें डाल उसके होठों पर अपने होठ रख दिए... कमरे का सन्नाटा सजीव हो उठा... “चंडी... मेरे किसना... तुम कितने अच्छे हो।”

“बस... बस राधे... आज सम्मोहित मत करो। अब मैं चलता हूँ। आज ड्रेस रिहर्सल है।”

डायना ने उसे मोटर से जाने को कहा पर वह साईकिल से आया था। साईकिल सरपट दौड़ाते हुए वह स्कूल पहुँचा।

हॉल में मद्धिम प्रकाश था और पृष्ठभूमि में रवींद्र संगीत बज रहा था। आगे की कुसिर्यों में कुछ अंग्रेज अफसर बैठे थे। डायना को भी वहीं बैठाया गया। धीरे-धीरे परदे के पीछे से हुई घोषणा के बाद परदा उठा और नृत्य नाटिका आरंभ हुई। चंडीदास की गायकी ने हॉल में बैठे दर्शकों को मुग्ध कर लिया था। नृत्य नाटिका क्या थी डायना और चंडीदास की इतने दिनों की जुदाई का सबूत थी। नेपथ्य से गूँजती चंडीदास की आवाज डायना के इर्द-गिर्द लिपट रही थी। लिपटते-लिपटते उसने विशाल रूप धारण कर लिया और सारे संसार को अपने में समेट लिया... नदी, नाले, समंदर, झरने, पर्वत, हरे-भरे मैदान... चाँद तारे और आकाशगंगा... और फिर वह विशालता एक धुँध बन डायना में समाने लगी... और फिर गायब हो गई। परदा गिर चुका था। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच चंडीदास मंच की सीढ़ियाँ उतर डायना के पास आया। सफेद कुरता पायजामा और काली बंडी में वह बहुत खूबसूरत दिख रहा था।

“ब्यूटिफुल, बहुत सुंदर गाया तुमने और नाटिका भी बेहतरीन थी और तुम तो आज गजब ढा रहे हो।”

चंडीदास ने उसे हाथ पकड़कर उठाया और हॉल का प्रकाश धीरे-धीरे तेज होता गया। अभी तक जो कुछ अदृश्य था सब दृश्य हो उठा।

“वैसे तो प्रदर्शनी हफ्ता भर चलेगी पर उद्घाटन आज है। चलोगी न?”

“हाँ... क्यों नहीं। उद्घाटन कौन कर रहा है?”

“तुम्हारी ही बिरादरी के हैं। शिमला से आए हैं प्रोफेसर ऑल्टर।”

किसी ने डायना के हाथ में कॉफी का मग लाकर थमा दिया। चंडीदास हँसा।

“दोस्त है मेरा नंदलाल। चित्रकार है।”

कॉफी खत्म कर डायना अकेली ही मोटर से आर्ट गैलरी आई क्योंकि चंडीदास बाकी तैयारियों में मुब्तिला था।

उद्घाटन के बाद प्रोफेसर ऑल्टर की नजर डायना पर पड़ी और वे चौंक पड़े-”ओह... मिसेज ब्लेयर... क्या इत्तेफाक है? क्या टॉम यहाँ हैं?”

डायना भी ऑल्टर को देखकर चौंकी... लंदन में ऑल्टर का परिवार उसका पड़ोसी था। गैलरी में चलते हुए ऑल्टर डायना से ही मुखातिब रहे। चंडीदास दूर से देखता रहा। तसल्ली भी थी कि अब डायना तनहाई महसूस नहीं कर रही होगी... लेकिन जब डायना की नजरें पेंटिंग्ज पर पड़ीं और ऑल्टर ने ताज्जुब से कहा... ये सारे चेहरे आपसे हूबहू मिलते हैं मिसेज ब्लेयर... ओह, आज तो इत्तिफाकों की झड़ी लग गई... तो डायना चकरा गई। चंडीदास ने डायना की आकृति में हिंदुस्तान रच दिया था... कहीं लहँगा दुपट्टा पहने, कहीं बंगाली साड़ी, कहीं सलवार कुरता, कहीं कश्मीरी फ़िरन, कहीं सीधे पल्ले में सिर ढका हुआ... यह क्या कर डाला चंडी ने? यह आर्ट गैलरी में चप्पे-चप्पे में मौजूद डायना... उसने तमाम भीड़ पर एक सरसरी नजर डाली और प्रोफेसर ऑल्टर से क्षमा मांगते हुए मोटर में आ बैठी। चंडीदास भागता हुआ आया... “डायना क्या हुआ... मेरी बहनों से, माँ बाबा से नहीं मिलोगी? बस, आने ही वाले हैं वे।”

“बस... अब जाऊँगी चंडी... नहीं, कुछ मत पूछो... तुमने मुझे लेकर जो चित्रों का संसार रचा है... सच मानो चंडी... इतना प्यार में सँभाल नहीं पा रही हूँ। इस वक्त जाने दो प्लीज... “

बंगले की ओर लौटते हुए डायना को एक नई सोच की अनुभूति हुई... बल्कि नए ज्ञान की कि महारास खेलते हुए हर गोपिका के बाजू में कृष्ण थे... हर गोपी यही समझती थी कि कृष्ण केवल उसके हैं... प्रेम का यह निराला समीकरण आज चंडीदास ने उसे दिखा दिया।