टेम्स की सरगम / भाग 3 / संतोष श्रीवास्तव

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ऋग्वेद में लिखा है कि सृष्टि की रचना करते समय पहले अहं था जो पुरुष के रूप में प्रकट हुआ। डायना के विचारों में मंथन... एक हलचल-सी मची थी। दुनिया भर की किताबें पढ़ते-पढ़ते धीरे-धीरे वह इस बात को लेकर अपना चैन खोती जा रही थी कि वह एक औरत है और अहंकारी पुरुष से टकराना उसकी नियति है। औरत को लेकर ग्रीक के प्रारंभिक दार्शनिकों का नजरिया बहुत उपेक्षापूर्ण था। उनका तर्क था कि प्राकृतिक रूप से औरत में कमियाँ हैं और वह पूर्ण मानव नहीं है। पश्चिम ने भी इन विचारों को अपना लिया ओर दुनिया के बदलते युग में भी ये विचार खारिज नहीं हुए। रूसो और वॉल्टेयर जैसे लेखक भी इन विचारों से सहमत थे... वे मानते थे कि औरत एक चिंता है जो सदा पुरुष को पीड़ित करती है। लेकिन डायना का तर्क कुछ और कहता था। एक दोस्त के रूप में प्रोफेसर ऑल्टर, टॉम के रूप में पति और चंडीदास के रूप में प्रेमी... इन तीनों के तीन अलग-अलग व्यक्तित्व उसने देखे हैं। ऑल्टर के लिए यदि औरत चिंता होती तो वे कभी अपनी पत्नी की याद में यूँ घुल-घुल कर न जीते और चंडीदास... औरत को सच्चा प्रेम करने वाला पुरुष औरत को चिंता नहीं बल्कि उसके बिना स्वयं को अधूरा समझता है। टॉम के लिए औरत मात्र खिलौना है... शारीरिक भूख के लिए भोजन और शराब की तरह ही अनिवार्य... डायना को लगता है कि विश्व साहित्य में आज तक जो भी लिखा गया वह लेखक के अपने निजी अनुभव और अपने विचार ही हैं। जब वह लिखेगी तो केवल प्रेममय अनूभूतियों का जिक्र करेगी। वह लिखेगी कि चंडीदास में कृष्ण का अंश मौजूद है। लीलाधारी कृष्ण का जिन्हें हर गोपी केवल अपना समझती है और यह मानती है कि कृष्ण तो बस उसके हैं... उसके और उसके ही।

“मेमसाहब... साहब आ गए।” बोनोमाली ने डायना की सोच को जैसे विराम-सा दिया। पीछे-पीछे जॉर्ज चमड़े का बैग उठाए जो खुला था और जिसमें से कागज, फाइलें झाँक रही थीं अदर दाखिल हुआ। जॉर्ज ने बैग टेबिल पर रख दिया।

“हाय... कैसी हो।” टॉम ने मुस्कुराते हुए डायना की ओर देखा और अपना हैट उतारकर बोनोमाली के हाथों में थमा दिया।

“कैसी रही शिमला की ट्रिप?”

डायना खामोशी से बस मुस्कुराती भर रही। टॉम तरोताजा और खुश दिख रहा था। वह सोफे पर आराम से बैठकर अपना बेल्ट खोलने लगा। जूते बोनोमाली ने उतारे। डायना को उसका यह दूसरों से तीमारदारी कराने का स्वभाव नागवार गुजरता है पर उसे पता है टॉम अपनी यह आदत कभी नहीं छोड़ेगा। तभी कुत्ते के पिल्लों की कूँ-कूँ आवाज सुन डायना चौंकी। बोनोमाली अपनी गोद में छोटे-छोटे दो पिल्ले दबाए हुए आया। टॉम ने दोनों को सोफे पर रखने का हुक्म दे उससे कॉफी बना लाने को कहा। डायना एकदम खुश होकर पिल्लों के पास आई-”ओह, कितने प्यारे हैं।”

“पसंद आए न। ये दोनों तुम्हारे लिए हैं... बेहतरीन मोंगरेल जाति के हैं दोनों।”

डायना ने दोनों को गोद में बैठा लिया। पिल्ले सहमे से बैठे रहे।

“रास्ते में मैंने इनका नामकरण भी कर दिया। यह सफेद पिल्ला बेस है और भूरा वाला पोर्गीं... पोर्गीं शरारती है, मेरी तरह... “ और ठहाका लगाकर हँस पड़ा टॉम।

अपनी मालकिन की गोद में पिल्लों को देख ब्लॉसम कूद कर आई और डायना के कंधे तक चढ़ गई। डायना ने उसे जब प्यार कर लिया तो आश्वस्त हो कंधे से नीचे उतरी और दोनों को पहले सूँघा फिर पंजों से मारने लगी। पिल्लों का सहमापन भी खत्म हो चुका था। जानवर नए माहौल में सहज ही रम जाते हैं। डायना ने दोनों को कालीन पर छोड़ दिया जहाँ वे ब्लॉसम के संग खेलने लगे। टॉम ने फोन लगाया। डायना को टॉम के किसी काम से कोई सरोकार नहीं रह गया था। अब वह पूरी तरह चंडीदास की थी और अपनी इस प्रेमनगरी में उसे किसी का दखल बर्दाश्त न था। वह उठकर चलने को तत्पर हुई थी कि नादिरा का नाम सुन चौंकी। देखा, टॉम रिसीवर कान से लगाए नादिरा से हँस-हँस कर बात कर रहा था... “हाँ, काफी लंबा पीरियड आपके दीदार के बिना गुजरा... दार्जिलिंग की वादियों में आपको मिस करते रहे।”

आम पत्नियों की तरह यह सुन डायना को सतर्क हो जाना चाहिए था... सवालों की झड़ी लगा देनी चाहिए थी कि मेरे ही सामने एक पराई औरत के संग इस तरह की बातें। पर उस पर कुछ भी असर नहीं हुआ बल्कि आश्वस्ति से उसका मन तनाव मुक्त हो गया..अगर टॉम उससे खुद ही दूर हट जाए तो फिर दुविधा ही खत्म हो जाए।

शाम हो चली थी। डायना लॉन में चहलकदमी कर रही थी। चंडीदास से मिलने के लिए उसका मन बेचैन था। पर वह फोन पर भी उसका हालचाल नहीं पूछ पा रही थी क्योंकि टॉम वहीं बैठा फाइलें देख रहा था। चंडीदास परसों आएगा संगीत की प्रैक्टिस के लिए... तब तक... डायना के खयालों में प्रेम का नशा तारी था। शाम रौनक से भरी थी। दुनिया में इस समय क्या-क्या हो रहा होगा... इस विशाल दुनिया में बूँद सादृश्य उसका अस्तित्व... पर इस बूँद में प्रेम का सागर बनने की अपार कुशलता है... शायद इसीलिए उसका जन्म हुआ है और शायद इसीलिए वह भारत की धरती पर बस गई है आकर... दुनिया अपनी तमाम तमन्नाओं, तमाम इरादों, तमाम महत्वाकांक्षाओं के एक बड़े मेले को उठाए है इस सबका क्या अंत होगा। ईस्ट इंडिया कंपनी का फैलता विस्तार, व्यापार... आधुनिकता की होड़ में और धन जुटाने की हवस में संसार कहाँ जा रहा है? अमीरजादों को पाने के लिए इंगलैंड से भारत आई बिनब्याही लड़कियाँ अपनी स्वप्निल आँखों में कितना बड़ा आकाश उठाए हैं... क्या होगा अंत इस सबका... सोच में डूबी डायना कुर्सी पर बैठी ही थी कि नादिरा ने अपने अहाते के लॉन से उसे पुकारा-”हाय डायना... मिस्टर ब्लेयर लौट आए हैं इसका मतलब ये नहीं कि तुम बैडमिंटन नहीं खेलो। वैसे भी दस पंद्रह दिन से मैं बोर हो रही हूँ। शिमला फिर अकादमी का उद्घाटन... तुम तो ईद का चाँद हो गई डायना।”

“आओ न! एक दो पारी खेले लेते हैं।” डायना ने बोलोमाली से रैकेट और शटलकॉक मँगवाकर नेट बाँध देने को कहा।

बैडमिंटन खेलते हुए डायना ने शिकायत की “तुम नहीं आईं उद्घाटन के दिन।”

“अब क्या करें... कमिश्नर साब ऐन उसी दिन छुट्टी पर थे। और फिर तुम तो जानती हो मियाँ घर में हों तो मसरूफियत कितनी बढ़ जाती है।”

नादिरा के चेहरे पर उचक-उचक कर रैकेट चलाने के कारण पसीना आ गया था और उसका खूबसूरत चेहरा भीगे गुलाब-सा नजर आ रहा था। तभी टॉम भी आ गया। दोनों खेल बंद कर बेंत के सोफों पर आकर बैठ गईं। थोड़ी देर में पारों चाय नाश्ता ले आई।

“आप तो हर वक्त टूर पर ही रहते हैं।” नादिरा ने टॉम की ओर देखा और फिर नजरें झुका लीं। टॉम की आँखों में अजीब-सी भूख नजर आई डायना को शायद इसीलिए नादिरा आँख नहीं मिला पा रही है। चाय की घूँट भरते हुए डायना अकादमी के उद्घाटन के दिन का बयान करने लगी। वह टॉम की ऊल-जलूल एवं कुछ भी कह डालने का मौका नहीं देना चाहती थी पर टॉम मौका चूकता नहीं कभी। किसी भारतीय ऋषि ने कहा है कि इन्सान हर क्षण बदलता रहता है। वह बचपन में कुछ और होता है... जवानी में कुछ और... और बुढ़ापे में कुछ और... हम इस क्षण से पहले नहीं थे पर निरंतरता कायम रहती है। दूर सड़क की ढलान पर छतनारे बरगद की डालियों पर पंछियों का अनवरत शोर था... अंधेरा दम साधे गहराता जा रहा था उजाले की हर चीज को दबोच लेने को आतुर

“आप नहीं गातीं नादिरा जी?” टॉम ने बात का सिरा पकड़ा।

“गाती हूँ... हम भारतीय औरतों में गायन एक जरूरी बात मानी जाती है। जैसे खाना पकाना, सीना-पिरोना, वैसे ही गाना भी सीखना जरूरी है। हमारे यहाँ जब शादियाँ तय होती हैं तो लड़की के गले की भी परीक्षा ली जाती है कि वह सुरीला है या नहीं।” नादिरा की आँखें चमक रही थीं-”जानते हैं मि. ब्लेयर ऐसा क्यों होता है?”

टॉम ने सवालिया नजरें नादिरा पर टिका दीं।

“जितना मैं जानती हूँ बता सकती हूँ।” डायना ने आहिस्ते से कहा-”यहाँ जितनी ऋतुएँ आती है, जितने मौसम बदलते हैं, हर एक के अपने गीत अपना राग है। चैत्र मास में चैती गाई जाती है... फसल बोने-काटने के गीत होते हैं। वर्षा के गीत, बसंत के गीत, शिशिर और पतझड़ के गीत, शादी की रस्मों के गीत, विदाई के, मुंडन के, कान-नाक छेदने के, जनेऊ संस्कार के, जन्मदिन के... कितनी तरह के गीत... और लगभग सारे गीत औरतें ही गाती हैं।”

नादिरा ने ताज्जुब से डायना को देखा-”वाकई... इतनी गहराई से गीतों की महिमा मैंने सोची नहीं थी। दाद देनी पड़ेगी आपकी होशियारी की।”

डायना मुस्कुरा पड़ी-”और भी नादिरा... त्यौहारों के भी अलग-अलग गीत... जब शिशु जन्म लेता है तब सोहरें गाई जाती हैं जिनमें ननद भाभी के रिश्तों की चुटकी ली जाती है।”

“वाह... क्या बात है डायना, तुम सही अर्थों में गायिका हो... अब होली के बाद फागुन मास खत्म होकर चैत्र लग जाएगा। सुना दो चैती... “ नादिरा ने आग्रह किया।

टॉम इतनी देर से खामोश बैठा शायद कुछ और सोच रहा था। अब वक्त हो चला था, ड्रिंक का... तलब हावी हो रही थी। गाना सुनने का मूड भी नहीं था सो उठते हुए बोला-”आज रहने दीजिए नादिरा जी, सफर की थकान है जल्दी सोना चाहता हूँ।”

लेकिन माहौल तो संगीतमय हो चला था। टॉम के सुनने न सुनने से डायना को कोई फर्क नहीं पड़ता। वह बोझिल कदमों से नादिरा से माफी मांगते हुए चला गया। डायना गुनगुनाने लगी। गुनगुनाते हुए ही स्वर साधा और सुरीली आवाज नादिरा के कानों को मधुरता प्रदान करने लगी... पिछले दिनों ही चंडीदास ने यह भोजपुरी गीत डायना को सिखाया था।

रामा चैत कै निन्दिया बड़ी बैरनिया हो रामा,

सुतलो बलमवा न जागे हो रामा

चढ़त चैत चित न लागे हो रामा, बाबा के भवनवा

उर बीच उठत दहनवां हो रामा।

अचानक डायना के सुर में सुर मिलाकर नादिरा भी गाने लगी। डायना नादिरा के इस रूप से अपरिचित थी जैसे एक ही नादिरा अनगिनत जगहों पर मौजूद थी। जैसे आईने के टूटे टुकड़ों में एक ही चेहरे के अलग-अलग प्रतिबिंब दिखाई देते हैं।

नादिरा को विदाकर जब डायना कमरे में लौटी टॉम दूसरा पैग गिलास में ढाल रहा था। डायना सीधी कमरे में पहुँची और जूते उतारकर बाथरूम में तरोताजा होने चली गई। होली नजदीक थी और हलकी-हलकी गर्मी पड़ने लगी थी। हालाँकि रातें काफी ठंडी थीं। अलमारी में से उसने सफेद पोशाक निकाली जिस पर काले बटन टँके थे। पोशाक देखकर वह खो-सी गई। इस पोशाक की तारीफ में चंडीदास ने उसे चाँदनी नाम दिया था... “ऊपर से नीचे तक सिर्फ चंद्रिका हो उठी हो राधे... जानती हो चाँद पर एक धूमिल-सा धब्बा है पर तुम... बेदाग... निर्मल... संगमरमर-सी।”

“जानते हो चंडी वह धब्बा चाँद का दोष नहीं है बल्कि उसका पहरेदार है... कोई बुरी नजर नहीं डाल सकता।” डायना के इस तर्क पर चंडीदास निरुत्तर था। अपनी इस विदुषी प्रियतमा की तर्कशक्ति पर वह हमेशा चकित हो जाता। शायद इसीलिए उसका आग्रह था कि डायना अब लेखनी उठा ले। अपने अनुभवों, विचारों को वह कलमबद्ध करे... लिखे ताकि उसकी योग्यता और विकसित हो। डायना के मन में भी उथल-पुथल थी। वह भारतीयता पर और कंपनी शासन की निर्ममता पर लिखने का मन बना रही थी। इधर टॉम आकाश को छूना चाहता था। वह डायना पर दबाव डाल रहा था कि वह अपना व्यापार बंबई और कलकत्ता में भी शुरू करे... व्यापार के सिलसिले में रहने रुकने के लिए वह मालाबार हिल में एक कोठी खरीदना चाहता था पर डायना ने इस विषय पर गँभीरता से विचार नही किया था। आज भी जब डायना तरोताजा होकर सफेद पोशाक में कमरें में आई तो टॉम ने वही बात छेड़ दी-”तुम मन बना लो डायना, बहुत अधिक संभावनाएँ हैं बॉम्बे में... तुम्हें रुचि नहीं है बिजनेस को बढ़ाने में पर यह तो सोचो... हमारे बच्चे होंगे... परिवार बढ़ेगा, जरूरतें बढ़ेंगी।”

“टॉम, तुम इंडिया की राजनीतिक उथल-पुथल से वाकिफ नहीं हो क्या? यहाँ आजादी के दीवाने मरने-मारने पर उतारू हैं... देश नई करवट ले रहा है। जागरण की लहर पूरे देश में फैल चुकी है। कभी भी, कुछ भी हो सकता है। ऐसे में क्या यह ठीक रहेगा कि हम अपना बिजनेस यहाँ भी शुरू करें?”

“ओह डायना... तुम भी क्या फिजूल की बातें ले बैठीं। ऐसा कुछ नहीं होगा। हमारे पास बंदूकें हैं और इन गुलामों के पास केवल भावनाएँ। गांधी के आदमी सीना खोलकर अंग्रेजों की गोली खाते हैं... मूर्ख, जाहिल... लड़ना नहीं जानते।” और वह ठठाकर हँस पड़ा।

उसकी जहरीली हँसी देर तक डायना के कानों में चिनगारियाँ सुलगाती रही। टॉम को अपनी बंदूक पर बहुत भरोसा है पर वह नहीं जानता कि मतवाले हाथियों के आगे बंदूकें भोथरी हो जाती हैं। दुनिया में यही कुछ हो रहा है। मित्र राष्ट्रों ने फ्रांस का खात्मा कर दिया। अंग्रेजों को लड़ाई के लिए सैनिक चाहिए थे पर इन्हीं गांधी की कांग्रेस ने उनसे कहा कि यदि केंद्र में पूर्ण रूप से स्वतंत्र राष्ट्रीय सरकार स्थापित कर दी जाए तो वे लड़ाई में सहयोग देने को तैयार हैं पर अंग्रेजों को यह स्वीकार न था। स्वतंत्रता शब्द से ही चिढ़ थी उन्हें... और फिर आरंभ हुआ सत्याग्रह आंदोलन। जिन भारतीयों को टॉम मूर्ख, जाहिल कह रहा है उन्होंने ही अंग्रेजों को रोनी रुलवा दी। जेलों को सँभालना मुश्किल हो गया क्योंकि जेल भरो के नारों ने इंच भर जगह भी जेलों में नहीं छोड़ी। अब सँभालो उन्हें।... सारी व्यवस्था चरमरा गई।

अब तो डायना दिल से दुआ कर रही है कि इंडिया आजाद हो जाए। उसका चंडी आजाद हो जाए... आजादी की हवा में जीने का नशा ही कुछ और है।

पर इस वक्त... इस वक्त शराब का नशा है और एक तीखा सच... एक विडंबना कि वह टॉम की गुलाम है... जिस शरीर पर चंडीदास का हक है और जिस शरीर का रोयाँ-रोयाँ चंडीदास के लिए व्याकुल है... सामाजिक हक लिए आज उसी शरीर को भोग रहा है टॉम... यह कैसी बेबसी है कि उसे टुकड़ा- टुकड़ा बिखरकर टॉम की वासना को शांत करना पड़ रहा है? यह कैसी नियति है जो उसका पीछा ही नहीं छोड़ती जबकि वह पूरी तरह टॉम से विरक्त हो चुकी है। इन अनचाहे पलों में अपनी डबडबाई आँखों के आँसू आँखों में ही रोककर वह बुदबुदाई... “मुझे माफ करना चंडी, मेरे किसना...”

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मुनमुन की परीक्षाएँ खत्म हो चुकी थीं और वह संगीत चित्रकला अकादमी में संगीत सिखाने जाने लगी थी। एक-एक कर विद्यार्थी भी बढ़ते जा रहे थे। कमरा छोटा पड़ने लगा था तो चंडीदास ने सभी विद्यार्थियों को दो दलों में बाँट दिया था। सुबह के दल को संगीत सिखाने में नंदलाल उसकी मदद करता और शाम को मुनमुन... लिहाजा डायना के संगीत में लगातार चंडीदास की अनुपस्थिति होने लगी। डायना ने सलाह दी कि शाम के लिए एक संगीत मास्टर नियुक्त कर लो।

“लेकिन उसे तनख्वाह देनी पड़ेगी न।” चंडीदास ने शंका व्यक्त की।

“हाँ तो क्या हुआ... विद्यार्थी भी तो ज्यादा हो रहे हैं। उनकी फीस से ही एडजस्ट करना पड़ेगा। और फिर इतना घबराते क्यों हो चंडी... मैं किस दिन के लिए हूँ?”

चंडीदास को यह कबूल न था। उसका डायना से जो रिश्ता था उस रिश्ते के ऊपर कुछ न था... न पैसा, न समाज, न व्यक्तिगत अड़चनें... इन सबसे वह खुद निपट लेगा पर इसमें अपनी महबूबा को शामिल नहीं करेगा। यह उसके उसूलों के खिलाफ था। हँसकर बोला-”मेरी खजाँची... मेरे खजाने को भरने तो दो तब देना जितना जी चाहे...”

डायना चंडीदास के उसूलों के आगे नतमस्तक थी। एक ओर टॉम था जिसे डायना की दौलत से जुनून की हद तक लगाव था और डायना से केवल इतना कि वह उस मोमबत्ती की तरह हो जिसे रात होते ही वह जला दे और मोमबत्ती पिघलने लगे और दूसरी ओर चंडीदास जिसके लिए डायना ईश्वरीय अनुभूति थी... प्रेम की ऐसी नदी जिसकी लहरों पर उन दोनों की मोहब्बत के दीप आहिस्ता-आहिस्ता बहते हैं। डायना की दौलत चंडीदास के लिए महज ठीकरा थी... उससे उसे कोई वास्ता न था।

मुनमुन का ही एक सहपाठी सत्यजित शाम की कक्षा सँभालने लगा। चंडीदास को थोड़ा वक्त मिल गया अपने अधूरे कामों को निपटाने का और डायना को संगीत सिखाने का। तनख्वाह की बात पर सत्यजित दुखी हो गया-”कैसी बात करते हैं दादा... मैं मुनमुन का दोस्त हूँ और इसी नाते यहाँ आया हूँ... जब रुपयों की जरूरत होगी माँग लूँगा।”

चंडीदास ने साफ देखा कि यह कहते हुए सत्यजित ने बहुत स्नेह से मुनमुन की ओर देखा था और मुनमुन ने निगाहें झुका ली थीं।

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न ठंड का मौसम था, न बर्फीली हवा, फिर भी सुकांत के साथ चलते हुए गुनगुन ने कँपकँपी-सी महसूस की। सामने दूर तक सड़क बड़े साफ-सुथरे अंदाज में खुलती चली गई थी पर जाने क्यों गुनगुन का मन अंतहीन भटकाव में डैने पसारे परिंदें-सा भटक रहा था। राहें कहाँ तितर-बितर हुई जा रही हैं... मंजिल तो स्पष्ट है फिर भी मन में दुविधा क्यों?... किस बात का तनाव? किस बात की फिक्र? जैसे नदी की ठंडी मौजों में वह तैर रही है और बदन सिकुड़ा जा रहा है। सुकांत ने उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया-”गुनगुन... इतनी खामोश रहोगी तो कुछ भी हो नहीं पाएगा।”

सहसा गुनगुन के फीके चेहरे पर खोया हुआ जोश वापिस लौटने लगा-”होगा सुकांत... यह जो मैं थोड़े समय के लिए दुनिया को भूल जाती हूँ यह मेरा कल है। मेरे आज तो तुम हो सुकांत। सदा मेरे अंदर मौजूद। जानते हो आज की रात कितनों के ब्याह की रात होगी। कितनी पालकियाँ दुल्हनों को लेकर विदा हो जाएँगी... “

“तुम भटक रही हो गुनगुन... हमारा ब्याह आजादी के संग होना है। हम उसे ही वरेंगे।”

सुकांत के कथन से झटका-सा लगा गुनगुन को... अभी कुछ क्षण पहले खुली राहों पर वह जो यह महसूस कर रही थी कि अब मैं किस ओर जाऊँ? अजनबी और अनजाने रास्तों ने उसके शरीर में कँपकँपी पैदा कर दी थी... अब वह स्थिर थी। स्थिर और मजबूत... वह सुकांत को बताना चाह रही थी कि दो दिन पहले वह शिशिर बोस से मिली थी। वुडबर्न पार्क के उनके बंगले पर। उस दिन आजाद हिंद फौज के काफी लोग इकट्ठे हुए थे। मुसीबत की उस घड़ी में सभी के दिमाग में बस एक ही बात खलबली मचा रही थी कि नेताजी को कैसे सुरक्षा प्रदान की जाए। वे अंग्रेजों को फूटी आँख नहीं सुहाते थे। उन्हें गिरफ्तार कर लेने का शिकंजा कसता जा रहा था। नेताजी ने निर्णय ले लिया था कि अब उनका भारत में रहना ठीक नहीं इसलिए उन्होंने भारत से बाहर चले जाने की योजना पर विचार करना शुरू कर दिया। लेकिन वे जाएँ कैसे, यह एक गंभीर मसला था। इसी पर उस दिन विचार-विमर्श चल रहा था।

गुनगुन ने सुन रखा था कि नेताजी जब से बंबई से लौटे हैं, अंदर ही अंदर कोई योजना क्रियान्वित होने के लिए फड़फड़ा रही है। वैसे भी पूरा देश तरह-तरह के संगठनों, तरह-तरह के नियमों, तरह-तरह की योजनाओं को लेकर खलबला रहा है लेकिन सभी का उद्देश्य आजादी है। वह चाहे मार कर मिले या मर कर। नेताजी मारकर जीतना चाहते थे इसीलिए गांधीजी से उनका मतभेद था। इसीलिए उन्होंने कांग्रेस की अध्यक्षता से त्यागपत्र भी दे दिया था और फॉरवर्ड ब्लाक नामक दल का गठन कर लिया था। उनका बंबई जाना भी इसी उद्देश्य के तहत था ताकि वो अपनी पार्टी की स्थापना और विकास के लिए कार्य कर सकें। बंबई में वे प्रसिद्ध व्यापारी जटाशंकर डोसा चेचाणी के घर रुके। चेचाणी धनबाद में कोयला खान के मालिक थे। चेचाणी प्रभावशाली व्यक्ति थे इसलिए उनके सम्पर्क कलकत्ता और बंबई के कई नेताओं से थे। बुनियादी रूप से वे क्रांतिकारी विचारधारा के थे। सबसे पहले तो चेचाणी भवन में नेताजी के सम्मान में बंबई के क्रांतिकारियों ने एक विशाल जुलूस निकालने का तय किया। उस वक्त जबकि किसी भी एक घटना की बिनाय पर अंग्रेज नेताजी को गिरफ्तार कर सकते थे, यह एक खुली चुनौती थी। जुलूस दक्षिण बंबई के अनेक भागों से होता हुआ चौपाटी पहुँचा और विभिन्न अखबारों बंबई हेराल्ड, बंबई क्रॉनिकल, बंबई समाचार ओर दैनिक विश्वामित्र ने इस खबर के साथ उनके चित्र भी छापे और फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना हो गई। अपनी इस यात्रा में नेताजी की मुलाकात कॉमरेड डांगे से हुई। यह मुलाकात प्रगाढ़ संबंधों की नींव बन गई क्योंकि नेताजी ने डांगे से मजदूर यूनियन फॉरवर्ड ब्लॉक का समर्थन करें, इसके लिए आग्रह भी किया। उन्होंने वीर सावरकर से भी भेंट की जो आजादी के लिए एक विशेष भूमिका निभा रहे थे।

गुनगुन के सामने आजाद हिंद फौज की भूमिका स्पष्ट थी... इस फौज ने अंग्रेजों की नींद उड़ा कर रख दी थी। ब्रिटिश हुक्मरानों को अपना सिंहासन डोलता नजर आ रहा था लेकिन वे नेताजी को गिरफ्तार नहीं कर पा रहे थे जबकि फौज की कार्यवाहियों पर उनकी कड़ी नजर थी। पार्टी के गुप्त सूत्रों से गुनगुन को इतना पता चल गया था कि बंबई से नेताजी बहुत आश्वस्त होकर लौटे हैं। शायद... शायद नहीं, यकीनन उनके भारत छोड़ने की योजना गढ़ ली गई है। कॉमरेड डॉक्टर गंगाधर अधिकारी को यह कठिन काम सौंपा गया है। गुनगुन की रगों में खून उबाल मार रहा था... वह तन, मन, धन से सच्चे सिपाही-सी अपने को इस बात के लिए तैनात पाती थी कि भले ही रूप छोटा हो पर इस योजना में उसकी भी कोई न कोई भूमिका हो।

सुकांत इन बातों से बेखबर था। लगभग हफ्ते भर ननिहाल में रहकर वह कलकत्ता लौटा था... इस बीच क्या कुछ नहीं गुजर गया।

जूते से सड़क का कंकड़ उछालते हुए उसने गुनगुन से जानना चाहा था कि इस बीच पार्टी की क्या गतिविधियाँ रहीं। गुनगुन ने सतर्क योद्धा के समान आसपास के नजारे का जायजा लिया। सड़क पर इक्का-दुक्का आदमी थे... उनसे कुछ खतरा हो नहीं सकता था फिर भी गुनगुन ने धीमी आवाज में नेताजी के भारत से बाहर जाने की बात कह सुनाई।

“इसमें हमारी क्या भूमिका रहेगी?”

“वही जो इमारत बनाने में ईंट की होती है। हम सब मिलकर ही तो आजादी की इमारत खड़ी करेंगे।”

गुनगुन के इस उदाहरण पर सुकांत निहाल हो गया। उसका विश्वास था कि इंसान बस एक बार पैदा होता है और मरता है तो मर ही जाता है... न आत्मा है, न पुनर्जन्म... इसलिए जितनी गहराई से वह देश को आजादी दिलाना चाहता था उतनी ही गहराई से गुनगुन को चाहता भी था। सुकांत का घर नजदीक आ रहा था लेकिन वह गुनगुन का साथ कैसे छोड़े? अपने घर की सड़क पर वह ठिठक कर खड़ा हो गया। सामने आम, अमरूद के बगीचे में अंधेरा बढ़ रहा था और रखवाला तोतों को उड़ाने के लिए मुँह से तरह-तरह की आवाजें निकाल रहा था, जो शाम उस सन्नाटे भरे माहौल में डरावनी-सी लग रही थीं। तोते रात का बसेरा लेने के लिए टहनियों पर आ बैठे थे। घर के बरामदे में सुकांत के पिता आरामकुर्सी पर ध्यान मग्न बैठे थे।

“घर चलोगी?” सुकांत ने झिझकते हुए गुनगुन के सामने प्रस्ताव रखा।

“कॉफी मिलेगी?” दोनों खिलखिलाते हुए अंदर दाखिल हुए। सुकांत के पिता घोषाल बाबू के पैरों तक गुनगुन झुकी।

“अरे... अरे... रहने दो बेटी।” फिर उसके चेहरे को गौर से देखते हुए बोले-”सुकांत के साथ पढ़ती हो न!”

“जी... बाबा... “ गुनगुन के मुँह से अनायास बाबा शब्द सुन घोषाल बाबू तपाक से उठे-”अरे कहाँ हो... एई पुकू... देखो तो... कौन आया है।” और गुनगुन को साथ चलने का इशारा कर अंदर बैठक में ले आए। तब तक सुकांत की माँ एक प्लेट में मिठाई लाकर रख गईं... “बैठो... बैठो, कॉफी लाती हूँ। बातें बाद में होंगी।”

गुनगुन अपनत्व से भरे इस माहौल में ता-उम्र गुजारने के लिए लालायित हो उठी। पर उसके पास उम्र कहाँ है? उसने बड़ी लाचारी से बैठक का मुआयाना किया। घोषाल बाबू ने फुर्ती से मिठाई उठा कर मुँह में डाली-”खाओ... खाओ... अब तो मिठाई खाने के दिन आ गए हैं। अंग्रेजों को देश से खदेड़ने के लिए गाँधी बाबा अपनी लाठी लिए तैयार हैं।”

“हाँ बाबा... हम सब तैयार हैं... आजादी पाकर ही दम लेंगे।” गुनगुन ने भी मिठाई का टुकड़ा मुँह में रखा।

“अपने नेताजी तो प्राणप्रण से लगे हैं आजादी दिलाने में। मैं तो अपना खून देने को तैयार हूँ... छुटकारा चाहता हूँ इन अंग्रेजों से... अरे, हमारा ही देश, हमारा ही धन, हम ही कारीगर-मजदूर और हम पर तरह-तरह के टैक्स लगाते हैं... नहीं दो तो तोप का धमाका... इतना अत्याचार!!”

“पर बाबा, कुछ लोग तो अंग्रेजी राज की तारीफ करते हैं। कहते हैं बड़ा अमन चैन है।”

“बेटी, इन्हीं देश के सौदागरों ने तो देश बेचा है। इन्हीं के बल पर तो अंग्रेजो ने व्यापार के नाम पर घुसपैठ मचा दी। इन देशद्रोहियों ने पीढ़ियों तक के लिए मोहरें जमा कर लीं पर उन मोहरों पर हमारा खून लगा है। फलेंगी थोड़े ही।”

“तो पहले इन्हीं से क्यों न निपटा जाए।”

घोषाल बाबू ने स्नेह से गुनगुन को देखा... कमसिन उम्र और कुछ कर गुजरने का इतना बड़ा जज्बा! वे सुकांत को समझाते थे कि पहले पढ़ाई पूरी करो फिर कुछ सोचो पर अब सोचते हैं... मोहलत नहीं है इतनी। कांग्रेस आंदोलन तेजी से बढ़ रहा है... आजाद हिन्द फौज का हर सिपाही चिनगारियाँ समेटे तैनात है। ट्रेड यूनियन स्थापित हो रहे हैं। अंग्रेज सरकार उनके लीडरों को गिरफ्तार कर यूनियन को मिटाने पर तुली है... कम्यूनिस्ट पढ़े-लिखे इन्टेलेक्चुअल के रूप में आजादी के मंच पर उभरे हैं। मुस्लिम लीग का अखिल भारतीय अधिवेशन लखनऊ में सितारे-सा उदित हुआ है। लखनऊ में ही कांग्रेस मंत्रिमंडल की स्थापना हुई है... इतनी घटनाओं को नजरअंदाज तो नहीं किया जा सकता... तब वे कैसे रोक सकते हैं सुकांत और गुनगुन को...

“मैं बूढ़ा हो चुका हूँ पर शरीर में दम अभी भी है। तुम्हारे पीछे तो चल ही सकता हूँ।”

माँ कॉफी ले आई थीं-”एई पुकू... मैं कहता था न देश आजाद होकर रहेगा... जहाँ ऐसी वीरांगनाएँ मौजूद हैं वहाँ परतंत्रता कैसी?” माँ ने गौर से गुनगुन को देखा-”तुम्हारे भाई ने संगीत की क्लास खोली है न।”

“संगीत ही तो रणभेरी है।” घोषाल बाबू ने कॉफी सुड़की।

“आप भी बस... पूछने दीजिए न। इनके भाई वो अंग्रेजनी को भी तो संगीत सिखाते हैं। उसका पति कितना जालिम है... ब्लेयर, हाँ ब्लेयर है।”

“चुप भी करो माँ... उससे गुनगुन का क्या ताल्लुक।” सुकांत ने बात सँभालते हुए गुनगुन से कहा-”चलो तुम्हें घर तक छोड़ दें... रात हो रही है।”

“हो रही है नहीं, हो चुकी। साईकिल ले जाओ।” कहते घोषाल बाबू उठे तो गुनगुन ने दोबारा उनके पैर छुए। वे गंभीर विचारों के सुलझे हुए व्यक्ति लगे गुनगुन को जबकि सुकांत की माँ आम गृहस्थिन।

फाटक के दोनों और छाई टहनियों को हटाती गुनगुन का हाथ फाटक तक पहुँचा ही था कि टहनियों का काँटा उसकी उँगली में चुभा... टहनियों पर फूल और पत्ते समान मात्रा में थे... बोगनविला के बैंजनी फूल और हरे-हरे पत्ते... उसने काँटा चुभी उँगली मुँह में रखी ही थी कि बाजू वाली कोठरी से बिना ब्लाउज के सफेद साड़ी पहने... माथे पर गोरोचन की सफेद बिंदी लगाए अपने घुटे सिर को पल्लू से ढके एक महिला निकलीं-”साईकिल लेकर कहाँ जाता रे सुकांत।”

“बस बुआ... यहीं तक।” सुकांत ने गुनगुन को आने का इशारा किया। चलते-चलते गुनगुन ने कोठरी में जलता हुआ दीया देखा। दीये के उजाले में चारों ओर की दीवारें धुएँ की कालौंच से भरी थीं... न जाने किस चीज के बघार की महक कोठरी में भरी थी। महिला ने गुनगुन को अनदेखा कर जल्दी-जल्दी संध्या पूजन के लिए चाँदनी के सफेद फूल तोड़ने शुरू कर दिए।

रास्ते में सुकांत ने बताया-”बुआ चार साल पहले विधवा हो गई।”

“लेकिन वो कोठरी... “ गुनगुन ने शंका प्रगट की।

“उसी में तो रहती हैं बुआ... अपना खाना खुद पकाती हैं... हमारी तरह का खाना खाना मना है न उन्हें... धार्मिक बंधन... यही है विधवाओं की विडंबना।”

गुनगुन काँप उठी... अगर यही जिंदगी है तो ऐसी जिंदगी को ठोकर मारती है वह। मरना जीना क्या इंसान के वश में है। कौन पहले दुनिया से विदा ले, कौन बाद में... इसमें इंसान का क्या दोष?

रास्ते भर गुनगुन उदास रही। अमावस की रात में तारे मनमोहक नजर आ रहे थे। गुनगुन के घर की सड़क जिस चौराहे से मुड़ती थी उधर एक कटा नीबू, सिंदूर, राई के दाने पास रखे टिमटिमाते दिये की रोशनी में साफ दिख रहे थे।

“यह सब क्या है?” गुनगुन वहीं उतर गई थी और सुकांत के इस कथन पर बेबसी से उसकी ओर देख रही थी।

“वह अंग्रेजनी पूछती तो बात थी। तुम तो बंगाली हो और बंगाल का काला जादू जानते हो। यह अमावस की रात है। जादू टोने की रात है।”

“माँ की बात का बुरा मान गईं?”

“हाँ... उस वक्त तो बहुत ही बुरा लगा था। डायना जैसी औरत होना मुश्किल है। कौन से गुण हैं जो उसमें नहीं हैं। वह भारतीय संस्कृति को जितना जानती है... हम तुम उतना नहीं जानते... हिंदी, संस्कृत, बंगाली धाराप्रवाह बोलती है वह... “

“मैं माँ की तरफ से क्षमा चाहता हूँ।”

“सुकांत... ..मैंने पहले भी कहा था कि नफरत इंसान से नहीं उसके दुष्कर्मों से करो। न सभी अंग्रेज बुरे हैं, न सभी भारतीय अच्छे... यह बात दीगर है कि अंग्रेज हम पर हुकूमत करते हैं और हम उनके गुलाम हैं।”

खड़क खत्म हो चुकी थी और इस अंत से सुकांत को गुनगुन से विदा लेना था, पर दोनो के बीच बड़ी उदास खामोशी छाई थी। अंधेरे में केले के गाछ भूत की तरह लग रहे थे। गुनगुन ने ही बोझिल माहौल को हलका किया-”अब जाओ सुकांत, कल शाम को मिलते हैं... वहीं अपने पुराने अड्डे पर।”

“ओके बॉस... जो आज्ञा।” सुकांत ने तपाक से कहा तो दोनों खिलखिला पड़े। पेड़ के घोंसलों में बैठे पंछियों ने उस आवाज से सतर्क हो पँख फड़फड़ाए। गुनगुन ने उँगली पेड़ की ओर उठाकर कहा-”वो हैं असली कॉमरेड।”

खूब पटने लगी थी नादिरा और डायना में। अक्सर दोपहर में नादिरा घर आ जाती... उस वक्त डायना ब्लॉसम, पोर्गीं और बेस के साथ मन बहलाती मिलती। कलकत्ते के अंग्रेजी अखबार में पुलिस कमिश्नर खान साहब के कारनामे की कोई खबर छपी थी उसी को दिखाने नादिरा जब डायना के ड्राइंग रूम में आई उस वक्त दोपहर के तीन बजे थे। सामने लॉन में मौलसिरी के पेड़ की छाया में बैठा बोनोमाली अपना इकतारा बजा कर गीत गा रहा था। लॉन पर तमाम पत्तियाँ ही पत्तियाँ बिखरी थीं जिन पर छोटी-छोटी चिड़ियाँ फुदक रही थीं। हवाएँ पच्छिम की थीं।

“मियाँ की तारीफ छपी है।” नादिरा ने पेपर डायना की ओर बढ़ाया।

“हाँ, मैंने पढ़ी... खान साहब काबिल इन्सान हैं।” डायना ने पेपर लेकर मेज पर रख दिया और पोर्गीं के बालों से खेलने लगी।

“काबिल हैं पर औरतों के प्रति संकीर्ण।”

“वो तो तुम्हारे इस्लाम धर्म में ही औरतों के प्रति संकीर्णता का नजरिया है।”

“तुमने इस्लाम धर्म पढ़ा है डायना?” नादिरा के स्वर में तल्खी उभर आई थी।

“नहीं... सुना है। पढ़ने की बहुत इच्छा है। पर मुझे उर्दू-फारसी लिपि का ज्ञान नहीं और अनुवाद पढ़ने में विश्वास नहीं करती क्योंकि तथ्य बदल जाते हैं अनुवादक से।”

“बजा फरमाया... पर डायना मेरी जान... मैंने तो पढ़ा है इस्लाम धर्म। मैं जानती हूँ कि तुम्हारे मुल्क में ऐसी मान्यता है कि इस्लाम की नजर में औरत आदमी से कमतर है। पर यह सच नहीं है... मुझे तो लगता है कि पश्चिम के मुल्क कुरान और इस्लाम की परंपराओं तक पहुँच ही नहीं रखते अपनी।” नादिरा बहस पर उतर आई थी।

“तो फिर सच क्या है?” डायना को भी मजा आ रहा था... मजा भी और जिज्ञासा भी... वह पहलू बदल कर आराम से बैठ गई। उसकी गोद से कूदकर पोर्गीं कालीन पर एक अंगड़ाई लेते हुए बैठ गया।

“सच ये है कि इस्लाम ही एकमात्र ऐसा सिस्टम है जिसमें मर्द और औरत बराबर की नजर से देखे जाते हैं। औरत के अधिकारों की सुरक्षा और उसे पुरुषों के बराबर स्टेटस देने में जो काम इस्लाम ने किया वह किसी दूसरे धर्म और सिस्टम ने नहीं किया है। इस्लाम द्वारा औरत को दिया गया दर्जा बेजोड़ है, जिसका किसी भी दूसरी जगह या दूसरे समाज समरूप नहीं मिलता है।”

“क्या तुमने अन्य धर्मों को भी पढ़ा है?” डायना इस्लाम की प्रशंसा पर संदेह करने लगी।

नादिरा ने डायना की नब्ज पकड़ ली-”हाँ क्यों नहीं, ईसाई धर्म को ही लो। ईसामसीह कहते हैं औरतों और कोढ़ियों पर दया करो... यानी कि औरतों के अधिकारों को स्वेच्छा से या दया दिखाते हुए स्वीकार किया है पश्चिम के देशों में... बड़ा उपेक्षापूर्ण नजरिया है वहाँ।”

इस बात की कायल तो डायना भी थी और इसी बात को लेकर पश्चिम समाज से वह कुछ मतभेद भी रखे थी। नादिरा के तथ्य गहन अध्ययन को स्पष्ट कर रहे थे।

“डायना... आप पढ़िए इस्लाम धर्म जनाब... नाहक भ्रांतियों को मत पालिए... इस्लाम की तरह कुरान में औरतों को पुरुषों के समान ही अच्छे कार्य पर इनाम मिलने की बात कहीं गई है। अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर भी औरत और आदमी के बीच कोई भेदभाव नहीं है। संपत्ति पर तो दोनों का समान अधिकार है।”

“अच्छा!!” डायना की आँखें फैल गई-”यह तो नई बात सुन रही हूँ मैं जबकि तीन बार तलाक कहकर औरत को हर अधिकार से वंचित कर देता है पुरुष।”

“वह एक दीगर चर्चा का विषय हो जाएगा। मुझे तो बस इतना कहना है कि हमारी आजादी को मर्द ने अपनी मनमानी के कारण नकारा है। हमारे लिए स्कूल, मदरसे के दरवाजे बंद हैं और मुहम्मद साहब ने कहा है कि ज्ञान की खोज हर मुस्लिम स्त्री-पुरुष का परम कर्त्तव्य है। अब बताओ, मानते हैं क्या ये बात मर्द।”

“बड़ी गंभीर चर्चा चल रही है नादिरा बाजी और हमारी बेगम साहिबा में।” अचानक टॉम कब कमरे में दाखिल हुआ दोनों नहीं जान पाईं। नादिरा चिहुँकी-”अरे, अब तो आप मेरे भाईजान हो गए।”

टॉम ने हैट मेज पर रखा-”वह कैसे?”

“लीजिए... आपने अभी तो मुझे बाजी कहा। मतलब जानते हैं इस शब्द का। हमारे में बड़ी बहन को बाजी कहते हैं।”

“ओ माई गॉड... यह तो बुरा हुआ... हम अपने शब्द वापिस लेते हैं।”

“शब्द वापिस नहीं होते... अब तो आप मुझे बाजी ही कहिए।” नादिरा ने शरारत से कहा।

“बुरे फँसे।” टॉम ने ठहाका लगाया और दोहराया” “नादिरा बाजी।”

आदत के मुताबिक टॉम के आते ही चाय आ जानी चाहिए सो आ गई। केतली खुलते ही उम्दा चाय की महक कमरे में फैल गई।

“हूँ... दार्जिलिंग की चाय।” नादिरा ने हवा में महक को सूँघा।

“हाँ... एक बड़ा खोखा भरवा के लाए हैं चाय... वहाँ की चाय ही ऐसी है।” टॉम को बहुत कुछ चाय बागानों से जुड़ा याद आया। एक फुरेरी-सी ली उसने और प्रगाढ़ता से बारी-बारी से नादिरा और डायना को देखा। उसकी आँखों में सुरूर-सा छा गया। दूर कहीं गिरजाघर के घंटे टनटनाए... ऐन उसी वक्त मुल्ला ने अजान दी। नमाज का वक्त हो चला था।

“अब चले टॉम भाईजान।” नादिरा ने उठते-उठते फिर छेड़ा।

“ओके नादिरा बेगम।” टॉम भी मूड में आ गया था।

“ऐसे कैसे पहले बाजी फिर बेगम?”

“आप लोगों में तो ऐसा चलता है न?”

“हाँ... ऐसे रिश्ते भी समझाओगी नादिरा? इसे लेकर भी भ्रांतियाँ हैं मन में।” डायना उसे छोड़ने फाटक तक आई। सूनी सड़क पर उसकी आँखें चंडीदास को खोजने लगीं। उसके आने का वक्त हो चला था। टॉम अभी तैयार होकर क्लब चला जाएगा और चंडीदास की प्रतीक्षा में वह सुनसान होती शाम में एक-एक पल एक-एक युग के समान बिताएगी। न जाने क्या हो जाता है। शाम होते ही अथाह उदासी घेर लेती हैं... उस वक्त गोधूलि बेला में जब दोनों वक्त मिलते हैं और जब चिरागों से रोशन जगमगाते कमरों में लोग अपने-अपने हमसफर के साथ मौज-मस्ती करते हैं... डायना को एकाएक पछतावा-सा दबोच लेता है और ऐसा हर शाम होता है और वह समझ नहीं पाती कि क्यों?

चंडीदास ने साईकिल स्टैंड लगाकर खड़ी की और नाटकीय अंदाज में फाटक के पास ही टहलती डायना से बोला-”ओ मेरी चंपा की डाल... यह पंछी बसेरा लेने शाम होते ही आ धमका।”

डायना की उदासी पल भर में काफूर हो गई। वह चंडीदास से हाथ मिलाकर ड्राइंग रूम में जाने के लिए बरामदे की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी-”यहाँ द्वार पर किसे-सी ऑफ करने खड़ी थीं... टॉम को?”

“नहीं... तुम्हें वेलकम करने के लिए खड़ी थी, बस तुम्हारे इंतजार में। आज क्लब चलने के लिए टॉम आग्रह कर रहा था।”

“चली जातीं? बंदा दरवाजे से ही अबाउट टर्न हो हुगली के किनारे उसकी लहरों के साथ सर धुनता।”

“लगता है आजकल नाटकों की किताबों पर शामत आई है।” डायना ने चुटकी ली और संगीत कक्ष में आकर तानपूरा उठा लिया-”आज तुम्हें गालिब की गजल सुनाऊँगी जो मैंने खुद कंपोज की है।”

चंडीदास को इन्हीं पलों का इंतजार रहता है। अपनी इस संगीत शिष्या के हाथों के और गले के हुनर को वह बखूबी समझता है। उसने हारमोनियम खोला जरूर पर बजाया नहीं। वह टकटकी बाँधे अपनी प्रिया को निहार रहा था। जिसे वह अपने अंतर्मन से चाहता है लेकिन अपने जीवन के दुखों में कमियों में उसे कभी शरीक नहीं करना चाहता। प्यार और दुख के इस संगम पर वह खुद को असहाय महसूस करता है कि वह कुछ कर नहीं पाया अब तक अपनी राधे के लिए। उसे लगता है जैसे वह समंदर की लहरों के बीच एक जजीरे में है। चारों और अथाह जलराशि और डायना उस जजीरे से सैंकड़ों प्रकाश वर्ष दूर अपनी कोमल हथेलियों में मेहंदी लगाए और आँखों में सपने सजाए उसके इंतजार में बैठी है। वह महसूस कर सकता है उसे, सोच सकता है उसे... खुद के वजूद में खुशबू की तरह सूँघ सकता है उसे। अपनी बेचैनियों की अथाह गहराइयों में खिलते और मुरझाते मौसमों की सरगोशियों में सुन सकता है उसे... पर... पर उस तक उसकी पहुँच क्यों नहीं? जिंदगी की डगर पर हमसफर क्यों नहीं?

“कहाँ खो गए। गजल अच्छी नहीं लगी न... मैं और रियाज करूँगी, और मेहनत करूँगी।” डायना ने तानपूरा एक ओर रखते हुए कहा।

“नहीं राधे... बेमिसाल गायन था पर मैं इस दिल का क्या करूँ जो यह सोच-सोच कर घबराता है कि कहीं छूट न जाऊँ तुमसे।”

“अरे, कैसी बेतुकी बात सोचते हो।” कहती हुई डायना चंडीदास के नजदीक आ बैठी फिर उसके गले में अपनी बाँहें डालती हुई बोली-”जानती हूँ... चारों ओर आजादी के लिए आंदोलन छिड़े हुए हैं... किसी भी वक्त क्रांतिकारी अंग्रेजों को उनके देश का रास्ता दिखा देंगे पर तुम्हारी राधे काल, सीमा से परे है और केवल तुम्हारी है।”

चंडीदास डायना को पागलों की तरह चूमने लगा। उसकी डबडबाई आँखों से आँसू ढलक कर डायना के गालों को भिगोने लगे। वह बुदबुदाया-”नहीं रह पाऊँगा तुम्हारे बिना... तुमसे बिछुड़ते ही मैं तुम्हारे लिए तरसने लगता हूँ... कल्पना की खुलती बंद होती खिड़की से बस तुम्हारी राह तकता हूँ... और तब अपनी हसरतों को मायूसी में तब्दील पाता हूँ।”

“नहीं किसना... इस तरह मन को मत उलझाओ। इस तरह प्यार को असहाय मत करो। हमें ईश्वर ने मिलाया है तो कोई वजह जरूर होगी। बिना उसकी मर्जी के पत्ता भी नहीं खड़कता।”

दोनों ड्राइंग रूम में आ गए। बोनोमाली चाय-नाश्ता ले आया। धीरे-धीरे दोनों प्रकृतिस्थ हुए तो बातों के सूत्र खुलने लगे। संगीत अकादमी की बातें, मुनमुन के दोस्त सत्यजित की बातें, गुनगुन के देश के लिए देखे जा रहे सपनों की बातें और फिर नादिरा के दिए तथ्यों पर हुई गर्मागर्म बहस की बातें...

“नादिरा काफी जानकारी रखती है... और तो और कविताएँ भी लिखती है। मिलवाऊँगी तुमसे।”

टॉम के लौटने का वक्त हो चला था। चंडीदास भी घर के लिए अपना शांति निकेतन का झोला कंधे पर टाँगने लगा। डायना उसे छोड़ने फाटक तक आई... सुनसान सड़क पर उसकी साईकिल को जाता देखती रही। पोर्गीं और बेस उसकी टाँगों से लिपटे जा रहे थे... रातरानी की महक से बगीचा गुलजार था। वह दोनों कुत्तों को गोद में उठाए थकी-थकी-सी आकर सोफे पर बैठ गई। आज उसे चंडीदास काफी बेचैन लगा था। यह तो सही है कि देश नाजुक परिस्थितियों के दौर से गुजर रहा है। अक्सर वह खुली आँखों एक जलजला-सा महसूस करती है। उस जलजले में उसे हुगली के किनारे लगी नौकाएँ उलटी पड़ी नजर आती हैं। पेड़ जड़ से उखड़ गए से लगते हैं... घर, बंगले, कोठियाँ, गुरुद्वारा, मंदिर, मस्जिद सबकी नींवें ऊपर नजर आती हैं और बुर्जियाँ, कलश नीचे... लगता है जैसे सिंहासन डोल रहे हैं, चारों और हथगोले फूट रहे हैं, बंदूके चल रही हैं। तोपों के मुहाने आग उगल रहे हैं... उस जलजले के साथ कितना बड़ा जुलूस है जिसमें सफेद कपड़ों में मदर मेरी धीरे-धीरे अपनी छाती में क्रॉस दबोचे आगे बढ़ रही हैं क्योंकि वे जानती हैं कि वे जिसे जन्म देंगी उसे इस क्रास की जरूरत पड़ेगी। और अचानक सब कुछ गाढ़े धुएँ में तब्दील हो जाता है। और डायना बेचैन हो अस्फुट चीख को दबा लेती है... भीतर ही भीतर! ओह चंडी... यह कैसी मन की दशा होती जा रही है... कहीं तुम सचमुच छूट तो नहीं रहे हो मुझसे।

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हवाएँ गर्म हो चली थीं। क्षितिज चिलचिलाने लगा था। बाजार में खरबूजे, ककड़ियों का अंबार नजर आता। दोपहर होते ही तवे-सा दहकने लगता था शहर। धीरे-धीरे अमीरों की कोठियाँ खाली हो रही थीं और वे पहाड़ों का रुख कर रहे थे। डायना को भी टॉम के साथ बिना मर्जी के कश्मीर जाना पड़ा था। देखते ही देखते आसमान पर घटाटोप बादल छा गए... पहले रिमझिम फिर तेज बौछारों ने शहर को भिगो भिगो डाला। हर ओर जल ही जल। कश्मीर से लौटी डायना को जब चंडीदास ने बाहों में भरकर चूमा तो ठंडी तेज हवाओं में उसके बाल लहराकर चंडीदास के चेहरे पर छा गए। एक घटा वहाँ भी उमड़ आई। बरसात बीती तो क्वार लग गया। घर-घर में दुर्गा पूजा की तैयारियाँ शुरू हो गईं। इस बार दशहरे पर चंडीदास ने अपनी कमाई से सोने की मोती जड़ी अंगूठी डायना को पहनाकर उसके हृदय को अपने बंधन में बाँध लिया। अंग्रेजों में अंगूठी पहनाना महज एक शगल नहीं बल्कि एक पवित्र समझौता है... साथ-साथ जिंदगी गुजारने का। इस समझौते की परीक्षा से वे दोनों मुद्दतें हुई गुजर चुके हैं। कार्तिक की अमावस्या आई... जगमग दीपमालिका ने दुल्हन-सा सजा दिया अंधेरे को। फिर माघ-पूस की ठंडी पुरवाइयाँ चलने लगीं। ठंड में ठिठुरे मन, शरीर लिपट पड़ने को आतुर हो उठे। सड़कों पर, बाग-बगीचों में कोहरा ही कोहरा, ओस ही ओस और जोर शोर से क्रिसमस की तैयारियाँ शुरू हो गईं। कलकत्ते की रौनक देखते ही बनती थी। इस बार डायना चंडीदास को क्रिसमस पर सरप्राइज देना चाहती थी।

और गुनगुन और सुकांत व्यस्त थे अपनी पार्टी की गतिविधियों में। पार्टी का हर एक सदस्य नेताजी को गिरफ्तारी से बचाने और देश छोड़ने की योजना को क्रियान्वित करने की अपनी जिम्मेवारी को अलग-अलग ढंग से निभा रहा था। बंबई से सीमांत नेता भगतराम तलवार, डॉक्टर गंगाधर अधिकारी के निर्देशानुसार मुस्लिम फकीर के भेष में कलकत्ता पहुँच गए। नेताजी को भी मुस्लिम फकीर ही बनना था। उनके फकीराना वेशभूषा की खरीदारी का काम दो कॉमरेडों के साथ सुकांत और गुनगुन को सौंपा गया। चारों ने अभी बाजार में कदम ही रखा था कि डायना की मोटर भी वहीं आकर रुकी। वह पारो के साथ क्रिसमस की खरीदारी के लिए आई थी। बाजार की रौनक देखते ही बनती थी। बिजली के लट्टुओं, कंदीलों और खिलौनों से पटा पड़ा था बाजार। गुनगुन इस वक्त डायना से मिलना नहीं चाहती थी क्योंकि वह गुप्त खरीदारी के लिए आई थी। जब डायना एक कपड़ों की बड़ी-सी दुकान में घुस गई तब गुनगुन अपने साथियों के साथ दूसरी गली में मुड़ गई। डायना ने चंडीदास के लिए बेहतरीन, कीमती कोट और पैंट का कपड़ा खरीदा, कीमती जूते खरीदे और पन्ने की कीमती अँगूठी। डायना ने नगों के बारे में पढ़ा था कि कलाकारों को पन्ना बहुत सफलता दिलाता है। वह चंडीदास को सफलता के शिखर पर देखना चाहती थी तभी तो उसकी साधना भी सफल होगी।

गुनगुन और उसके साथियों ने भगतराम तलवारजी के आदेशानुसार नेताजी के लिए दो पाजामे और फैज टाइप टोपी खरीदी। सूटकेस अटैची और बिस्तरबंद खरीदा। एक चीनी दुकान से काबुली चप्पलें खरीदीं। खरीदारी के बाद चारों फुर्ती से बाजार से बाहर हो लिए। गुनगुन का मन फुचके खाने का था। खा भी लेती पर दोनों कॉमरेड क्या कहेंगे यह सोचकर रह गई। चारों ने सारा सामान वुडबर्न पार्क पहुँचाया। इला दी और द्विजेन दा ने सारा सामान चैक करके प्रशंसा भरी नजरों से गुनगुन की ओर देखा-”वाह, खरीदारी में तुम उस्ताद हो।”

गुनगुन के सीने में उमंग की लहर उठी और ओर छोर फैल गई।

“इला दी, और काम बताएँ।”

इला दी ने भगतराम तलवार की ओर देखा। वे एकदम सैन्य मुद्रा में कुर्सी पर तने बैठे थे। बोले-”कुरान शरीफ मैं बंबई से लेता आया हूँ। विजिटिंग कार्ड भी छप गए हैं।'

उन्होंने कॉमरेडों को विजिटिंग कार्ड दिखाया जिस पर नेताजी के नाम की जगह मुहम्मद जियाउद्दीन, ट्रेवलिंग इंस्पेक्टर, द अंपायर ऑफ लाइफ इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड छपा था। सबने बारी-बारी से कार्ड देखा और एक दूसरे की ओर... कि अब हमें इस बदले हुए स्वरूप को अंतिम अंजाम तक पहुँचाना है। लगभग दो घंटे चली इस बैठक में तमाम बातों पर पुनर्विचार हुआ और सभी कॉमरेडों को उनके कार्य समझा दिए गए। क्रिसमस के बाद मिलने का तय हुआ। बंगले से बाहर सब एक साथ नहीं बल्कि एक-एक कर थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद निकले क्योंकि पुलिस के गुप्तचरों की कड़ी नजर उन पर थीं। लेकिन सुकांत और गुनगुन साथ-साथ निकले। ढलती शाम के खुशनुमा माहौल में क्रिसमस का उत्सव अंगड़ाइयाँ ले रहा था। हर सड़क, हर गली रोशन थी। बच्चे सांता क्लाज के लिए अभी से पलक पाँवड़े बिछाए थे और क्रिसमस कार्डस से दुकानें सजी थीं। सामने ठेले पर फुचके देख गुनगुन का मन फिर मचला। वह सुकांत का हाथ पकड़ ठेले की ओर चलने लगी-

“चलो फुचके खाते हैं।”

“इस ठंड में इमली का पानी गला खराब कर देगा।”

“अरे, तुम कब से गायक हो गए?”

“जब से तुम मिलीं।” सुकांत की हाजिर जवाबी पर गुनगुन फिदा हो गई।

फुचके के ठेले के पास पंद्रह सोलह साल का एक अंग्रेज लड़का अपनी बहुत मोटी थुलथुल माँ के साथ खड़ा फुचके खा रहा था। वह फुचका मुँह में रखता और मुश्किल से चबा कर निगलता। मुँह से सी-सी की आवाज करता और आँख, नाक से पानी बहाता। फुचके वाला भी उसके फुचकों में मिर्ची वाली चटनी कुछ ज्यादा ही भर रहा था। गुनगुन और सुकांत को मजे से फुचके खाता देख लड़का बोला... “आपको हॉट नहीं लगता, इट्स वेरी हॉट...”

सुकांत ने चिढ़कर कहा-”हमें मिर्च खाने की आदत है... आप भी खाना सीख जाइए... पाचन-शक्ति बढ़ाती है मिर्ची” और हो-हो करके हँसने लगा। इस बार गुनगुन ने भी हँसी में उसका साथ दिया। पिछले कुछ घंटों का तनाव अब दूर हो गया था। यही खासियत है इन क्रांतिकारियों की। सुख-दुख, हँसी-खुशी उसी दिन जी लेते हैं। भविष्य के लिए कुछ बचाकर नहीं रखते क्योंकि ये जानते हैं कि इनका भविष्य बंदूक की नोक पर है। कब गोली चले और कब सब कुछ खत्म।

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क्रिसमस के दिन सुबह से ही डायना के बंगले पर बधाई देने वालों का ताँता लगा था। बंगला कंदीलों, बिजली के लटूटुओं, क्रेप पेपर की झालरों और क्रिसमस ट्री से दुल्हन की तरह सजा था। हर आगंतुक का स्वागत टॉम और डायना कर रहे थे। उपहारों का आदान-प्रदान तो देर रात तक चला। चर्च से लौटकर लगातार मेहमानों के संग बोलती-बतियाती डायना थक चुकी थी। थोड़ा एकांत, थोड़ा आराम चाहती थी... पर समय ही नहीं मिल पा रहा था। शाम के समय जब टॉम के ऑफिस से ऑफिसर वगैरह मिलने आए तो डायना ने राहत की साँस ली। अब वहाँ उसकी उपस्थिति की जरूरत नहीं थी। वैसे भी वह चंडीदास से मिलने को बेचैन थी। आना तो चाहिए उसे क्रिस्मस की बधाई देने। अभी तक आया क्यों नहीं? थोड़ी देर बाद डायना आराम करते हुए भी बेचैन हो उठी। हर पल फाटक खुलने का इंतजार रहता। साईकिल के फाटक की दीवार से टिकाने की आवाज से भी वह खूब परिचित थी। टॉम की बैठक से कहकहे गूँज रहे थे। ऐसा क्यों होता है कि जब भी वह बैचेन होती है बड़ी शिद्दत से लंदन याद आता है। क्रिसमस पर तमाम समृद्धि के बीच वह पिता को गुमसुम पाती थी... खामोशी उसे विरासत में मिली है अगर जीवनसाथी मनपसन्द मिलता... अगर टॉम की जगह उसका चंडी होता तो वह दुनिया की सबसे खुशनसीब औरत होती क्योंकि उसके जीवन में बस यही एक कमी है। अचानक उसने चंडी को सामने खड़ा पाया। उसके हाथों में लाल गुलाबों का एक बड़ा-सा गुच्छा था जिसमें ग्रीटिंग कार्ड अटका था।

“मैरी क्रिस्मस डायना” उसने हाथ आगे बढ़ाया। डायना हुलसकर उसके गले में बाँहें डाल फुसफुसायी-”मैरी क्रिस्मस चंडी... कहाँ थे अब तक? कब से इंतजार कर रही हूँ।”

“मेरी जानेमन से हजार-हजार बार माफी चाहता हूँ। तुम्हें मुझसे जरा-सा भी दुख मिले तो मैं मर जाता हूँ।”

डायना ने उसके होठों पर हथेली रख दी-”मरने की बात मत करो चंडी... आज के दिन तो बिल्कुल नहीं। आज तो ईसा का जन्म हुआ था। ईश्वर के उस दूत के जन्म से दसों दिशाएँ उजाले से भर उठी थीं।”

चंडीदास ने देखा डायना की आँखें भी जैसे उसी उजाले से चमक रही हैं। डायना का हृदय भी ईश्वरीय प्रेम से छलक पड़ता है। वह दिन का हर हिस्सा डायना के लिए जीता है पर ऐसा क्यों महसूस होता है कि डायना के छलकते प्रेम घट में बूँद भर भी प्रेम नहीं लौटा पाया वह। अपनी इस प्रिया के लिए क्या कुछ कर डालना चाहता है वह, पर हर बार यही पाता है कि डायना आगे बढ़ गई और वह पीछे रह गया।

डायना ने पहले चंडीदास को क्रिसमस केक खिलाया फिर उस बेशकीमती उपहार का डिब्बा उसे भेंट किया जिसे वह पिछले दिनों खरीद कर लाई थी।

“खोलूँ? इतना बड़ा डिब्बा! क्या है इसमें?”

“नहीं, घर जाकर खोलना।” कहते हुए डायना ने एक और डिब्बा दिया जिसमें चंडीदास के परिवार के लिए मिठाई, केक आदि था।

“ले कैसे जाऊँगा। आज तो साईकिल भी नहीं है।”

“मोटर छोड़ आएगी।”

डायना ने बोनोमाली को आवाज दी और सारा सामान मोटर में रखवा दिया। बैठक से कहकहों की आवाज बंद हो चुकी थी। टॉम के ऑफिस के लोग चले गए थे। वह बड़े हॉल में आया और तेजी से चंडीदास से हाथ मिलाया-”मैरी क्रिस्मस मिस्टर सेनगुप्ता। कैसे हैं आप? सुना है संगीत का इंस्टीट्यूट खोल लिया है आपने?”

“आइए कभी। आपको अपने विद्यार्थियों से मिलवाऊँगा।”

“क्यों नहीं... देखने की मेरी इच्छा है पर टूर से परेशान हूँ। ड्रिंक चलेगा?” टॉम ने चंडीदास की आँखों में गहरे देखा।

“मैं ड्रिंक नहीं लेता।” चंडीदास का लहजा सपाट था। उसके मन में टॉम के लिए कोई भावना नहीं थी। टॉम महज एक अंग्रेज था। ईस्ट इंडिया कंपनी का पदाधिकारी... जो भारत से और भारतीयों से घृणा करता था... ऐसे व्यक्ति के लिए चंडीदास के मन में एक बेचारगी थी... बेचारा टॉम... ईश्वर जाने इस हालत में लंदन से भटकता यहाँ क्यों आ गया और क्यों डायना के जीवन पर कुंडली मारे बैठा है।

नादिरा और उसके पति खान साहब उपहार का पैकेट थामे अंदर आए-”लीजिए, यहाँ तो पहले से महाफिल जमी है। सही वक्त पर आए हैं हम।”

“हाँ नादिरा... बैठो। बस तुम्हारी कमी थी। इनसे मिलो मेरे संगीत मास्टर चंडीदास सेनगुप्ता।” डायना ने नादिरा का हाथ पकड़ अपने पास ही सोफे पर बैठा लिया।

“आप अजनबी नहीं लगते।” नादिरा ने चंडीदास को मानो आँखों ही आँखों में परखा। जैसा डायना बताती है उससे कहीं आला इंसान लगा चंडीदास। वह अभिभूत हो पलकें झुकाने को बेबस हो उठी।

“मेरी बेगम साहिबा गजब की पारखी नजर रखती हैं मि. सेनगुप्ता... मिल रही है पहली बार और कहती हैं कि आप अजनबी नहीं लगते।” खान साहब ने चुटकी ली।

“यही तो फर्क है हमारी और आपकी जात में। आप जिंदगी भर जिसे अपना समझते हैं वही अंत में धोखा दे जाता है और हम औरतें पति के हर कदम पर नजर रखती हैं। यह बात दीगर है कि जानबूझकर धोखा खाना हम औरतों का नसीब है।”

“आज तो माफ करें बेगम साहिबा... यह औरतों पर बहस फिर कभी, आज तो खुशियाँ मनाने का दिन है... टॉम साहब... वहाँ लंदन में तो लोग व्हाइट क्रिस्मस मना रहे हैं?”

खान साहब ने अपनी जानकारी जताकर जैसे दिल जीतना चाहा टॉम का। पर टॉम का जवाब लापरवाही भरा था-”हाँ, बहुत ज्यादा स्नोफॉल हुआ है वहाँ।”

टॉम जानता है यह पुलिस कमिश्नर अंग्रेजों के आगे दुम हिलाता है पर है तो भारतीय ही... दुम हिलाने वालों से दो टूक बात ही करनी चाहिए। उसे तो चंडीदास के रुतबेदार व्यक्तित्व को छेड़ने, आहत करने में मजा आता है। वह चंडीदास के ड्रिंक न लेने की बात पर ठहाका लगाकर हंसना चाहता था और कहना चाहता था कि... “आप मर्द होकर ड्रिंक नहीं लेते। बड़े पोंगापंथी विचारों के हैं आप तो? फिर ब्राह्मणों की तरह अपनी खोपड़ी की लट बढ़ाकर गाँठ क्यों नहीं बाँध लेते आप?” पर तभी नादिरा और खान आ गए और टॉम को चंडीदास को शब्दों से बेधने का विचार हवा में बह गया। टॉम यह भी जानता था कि डायना का चंडीदास के प्रति गहरा रुझान था, पर वह हिदायत देने से डरता था कि कहीं डायना उसे तलाक न दे दे। तब तो वह कहीं का नहीं रहेगा। इसीलिए वह डायना का ध्यान संगीत से हटाकर व्यापार में लगाना चाहता था...। वह चाहता था डायना अपना व्यापार भारत में बंबई में स्थापित करें। आजकल इसी बात को लेकर दोनों में बहस होती रहती थी।

डायना ने सभी के सामने डिनर का प्रस्ताव रखा। नादिरा और खान तो झट से मान गए पर चंडीदास व्यस्तता का हवाला देकर उठ खड़ा हुआ-”डिनर फिर कभी। वैसे भी इतने पकवान खिला दिए हैं आपने कि पेट हाउसफुल हो रहा है।”

डायना उसे मोटर तक छोड़ने आई। ड्राइवर को हिदायत देने की जरूरत नहीं थी, वह चंडीदास से अच्छी तरह परिचित था। चंडीदास से विदा ले जब वह हॉल में लौटी तो लगा जैसे उसके अंदर एक विशाल आइसबर्ग है जिसे अलग-अलग लोगों के सामने अलग-अलग अनुभूतियों से भरे संवादों में काट-काट कर वह अब तक बहाती आई है पर अब बहाना कठिन हो रहा है। अब वह अपनी जगह शिला-सा अड़ गया है, जिस तक सूरज की एक भी किरण पहुँच नहीं पाती। बस, मन का एक कैनवास भर अछूता है उस ठिठुरन से जिसकी गुनगुनी मौजूदगी उसे हमेशा जीने की ऊर्जा देती है। उस कैनवास पर मात्र चंडीदास का चेहरा जो अंकित है।

नया साल लग चुका था। उन्नीस सौ इकतालीस का नया सूरज मानो एक जागरण लेकर आया था। वैसे भी उन्नीसवीं सदी से अब तक बंगाल के जनजीवन में एक नई चेतना, एक नए विकास को जन्म मिला था और वह था नवजागरण। राजा राममोहन राय, विद्यासागर, केशवचंद्र सेन, विवेकानंद आदि अनेक महापुरूषों के योगदान के फलस्वरूप धर्म, संस्कृति, कला, साहित्य जीवन पद्धति में व्यापक परिवर्तन का दौर आया था। ब्रह्म समाज जैसी संस्थाओं ने समाज में फैले अंधविश्वासों, कुसंस्कारों, पुरानी सड़ी-गली परंपराओं को नष्ट कर एक नए युग की शुरुआत करने की कोशिश की थी। उसके प्रयासों से समाज में राष्ट्रीयता जागृत हुई। लोग आजादी की कीमत पहचानने लगे थे और स्वतंत्र होने के कठोर प्रयास में जुट गए थे। औरतों की शिक्षा पर भी बल दिया जाने लगा। नतीजा यह हुआ कि राष्ट्र और अधिक शिक्षित होने लगा। राष्ट्रीय धारा के तमाम राष्ट्र में बहाव, फैलाव के कारण कई क्रांतिकारी अंग्रेजों की आँख की किरकिरी हो गए थे। जिसमें बंगाल और खासकर कलकत्ता में नेताजी सबसे प्रमुख थे। अब वह वक्त आ गया था जब उन्हें देश छोड़ विदेश भागना था ताकि वे वहाँ से अधिक सजगता से आजादी के लिए काम कर सकें। सत्रह जनवरी की मध्यरात्रि उनके विदेश प्रस्थान के लिए मुकर्रर की गई। पर पुलिस की कड़ी निगरानी के कारण इस काम को अंजाम देना आसान न था। पुलिस शिकारी कुत्ते की तरह उनकी मौजूदगी को सूँघने और झपटने की कोशिश में लगी थी।

हफ्ते भर पहले बैठक में मौजूद सभी कॉमरेडों को हर तरह की बातें अच्छी तरह समझा दी गई थीं। योजना की रूपरेखा जिसे बंबई से कॉमरेड गंगाधर अधिकारी ने तैयार कर भगतराम तलवार के हाथों भेजी थी, को सुनकर गुनगुन का शरीर रोमांचित हो उठा था। द्विजेन दा रूपरेखा पढ़कर सुना रहे थे और गुनगुन सुकांत का हाथ पकड़े दम साधे सब कुछ सुन रही थी। जिस दिन नेताजी विदेश के लिए प्रस्थान करेंगे उससे पहले उन्हें अपने मौनव्रत और एकांतवास की घोषणा करनी है। उनका एकांतवास ही अंग्रेजों की आँखों में धूल झोंकेगा... वे समझेंगे कि उनका शत्रु एकांतवास में मौनव्रत लिए चिंतन कर रहा है। नेताजी को यह भी घोषणा करनी है कि उनके एकांतवास के दौरान न तो कोई उनसे मिलेगा और न ही वे किसी से बात करेंगे। उनके एकांतवास में कोई खलल न डाले। यहाँ तक कि जिस कमरे में मौनव्रत धारण कर वे एकांतवास करेंगे वहाँ भोजन भी उन्हें पार्टीशन के पीछे से दिया जाएगा। भोजन शुद्ध शाकाहारी होगा जिसमें फलों और मेवों का समावेश रहेगा। अगर किसी को कोई बात पूछनी हो तो पर्ची पर लिखकर पूछी जाएगी। यह घोषणा पुलिस का ध्यान बँटाने के लिए थी।

नेताजी ने कई कॉमरेडों के नाम चिट्ठियाँ लिखीं थीं ताकि बाद की तारीखों में उन्हें भेजा जा सके। बहुत सारी पर्चियों में निर्देश लिख कर रख दिए थे। उनके प्रस्थान के बाद इला दी और द्विजेन दा बारी-बारी से उनकी यह भूमिका निभाएँगे। इला दी का गुनगुन के साथ खास लगाव था अतः वे अपने साथ उसे भी रखेंगी, इस बात के लिए उन्होंने नेताजी को मना लिया था। गुनगुन ओर सुकांत दोनों ने नेताजी के चरण छूकर आर्शीर्वाद मांगा कि हम देश के काम आएँ। नेताजी ने दोनों के झुके सिरों पर अपना दायाँ-बायाँ हाथ रखकर आर्शीर्वाद दिया-”हमें तुम्हारे जैसे युवाओं की जरूरत है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा। जय हिंद... “

दोनों ने उन्हें सावधान की मुद्रा में खड़े हो सेल्यूट किया... “जय हिंद”

इला दी नेताजी की अटैची जमा रही थी। गुनगुन उनकी सहायता करने लगी। वह खुद ही सारा सामान खरीद कर लाई थी। कपड़े टोपी आदि के साथ कुरान शरीफ और विजिटिंग कार्ड भी रखे गए। सतर्कता खास बरती गई कि कहीं कोई चूक न हो जाए। बंगले के आगे पार्किंग की जगह दो कारें खड़ी थीं जो खास इस काम के लिए तैयार थीं। एक बड़े मॉडल की स्टडबेकर प्रेसिडेंट और दूसरी जर्मन मॉडल की छोटी वांडरर। तय हुआ सभी सोलह तारीख की शाम को यहाँ इकट्ठा होंगे।

उस दिन गुनगुन सुबह से ही चहक रही थी। हालाँकि घर में यह चिंगारी सुलग चुकी थी कि गुनगुन आजाद हिंद फौज के लिए काम करती है पर माँ इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं थीं। उनकी नन्ही-सी मासूम बिटिया जिसके मुँह से अभी कच्चे दूध की महक आती है... कहाँ क्रांति की बड़ी-बड़ी बातों में उलझेगी। सोचते हुए उन्होंने भात पका कर बैंगन भूँजना शुरू किया। गुनगुन नहाकर भीगे बाल लिए चंदन के साबुन की खुशबू उड़ाती उनके पास खड़ी हुई-”हूँ... बैंगुन भाजा... मेरा फेवरेट... माँ बड़ी जोर की भूख लग आई है।”

“उधर डिब्बे में बेसन के लड्डू हैं। खा ले, तब तक खाना बन जाएगा। अच्छा गुनगुन... बता, तो क्या तू सच्ची में क्रांतिकारी हो गई है?”

“ओ माँ... क्यों सोच करती हो। हो भी गई तो क्या? हमारे देश में स्त्रियों ने क्या कुछ नहीं किया। हर क्षेत्र में बढ़-चढ़ कर काम किया है। अब वो जमाना गया जब औरतें घूमने के लिए ताँगे में घोड़ागाड़ी में चारों और से लगे परदे के अंदर बैठती थीं और तांगेवाला हाँक लगाता था-”बाजू... जनाना सवारी है... बाजू हटो... ।”

गुनगुन के इस अभिनय पर माँ हँसने लगीं। गुनगुन पीछे से उनकी कमर में बाहें डाल लिपट गई... “माँ टैगोर के समय तो जब उनके परिवार की औरतों को गंगा नहाने जाना होता था तो वे पालकी में बैठकर जाती थीं और कहार पूरी पालकी गंगा में डुबो कर उन्हें डुबकी लगवा देते थे।”

“तो! औरतें परदे में जो रहती थीं... खुले में कैसे नहाएँगी?” “हाँ, तो हमारी तो ऐसी दुर्दशा नहीं है न और माँ ये सुधार औरत ने ही किया है अपने लिए।”

“अच्छा चल... खाना परोसती हूँ... बहुत बढ़-बढ़ के बोलती है।' माँ ने मुनमुन को आवाज देते हुए सबका खाना परोस देने को कहा।

खाना खाकर गुनगुन तैयार होने लगी। उसे वुडबर्न पार्क एक दो कॉमरेडों से मिलते हुए जाना था और वहीं कहीं सुकांत भी उससे मिलने वाला था।

“इतनी जल्दी जा रही हो गुनगुन?” मुनमुन पलंग पर आराम से लेट गई थी उसकी आँखों में नींद की खुमारी थी-”आओ, थोड़ा आराम कर लो, फिर चली जाना।”

“मुनमुन... कॉमरेडों के लिए आराम हराम है। आज आखिरी बैठक है वुडबर्न पार्क में... और हाँ... मैं शायद रात को न लौट पाऊँ। मुँह अंधेरे आ जाऊँगी। किसी को पता भी नहीं चलेगा।”

“गुनगुन... तुम्हारे इन खतरनाक खेलों से अब मैं घबराने लगी हूँ। अब मुझे माँ बाबा की नहीं बल्कि तुम्हारी चिंता खाए जाती है।”

सहसा गुनगुन लेटी हुई मुनमुन से आकर उसी अवस्था में लिपट गई -

“काली माँ ऐसी बहन सबको दे... मैं कितनी खुशनसीब हूँ। जरूर पिछले जन्म के पुण्य होंगे जो तुम मिलीं... दादा मिले... माँ बाबा और सुकांत... “

“मैं तो पहले से जानती थीं।” मुनमुन मुस्कुराई।

“क्या?”

“यही कि तुम दोनों एक-दूसरे को चाहते हो।”

मुनमुन से लिपटी गुनगुन आहिस्ता से फुसफुसाई जैसे हरी-भरी दूब के सिरों को छूकर हवा का झोंका अभी-अभी गया हो... “मुनमुन देश आजाद होगा... मैं दुल्हन बनूँगी सुकांत की... कितना हसीन पल होगा... कितना विरल... जो मैंने अपने सपनों की पिटारी में एकदम तलहटी में दबाकर रखा है क्योंकि वह फिर मेरा अंतिम स्वप्न होगा।”

दीवार घड़ी ने तीन बजाए। गुनगुन फुरती से दरवाजे के पार यह कहते हुए चली गई-”चलती हूँ... ध्यान रखना मुनमुन।”

तब तक मुनमुन नींद की गिरफ्त में थी।

गुनगुन सुकांत के साथ अंधेरा होने के बाद वुडबर्न पार्क पहुँची। पार्टी के सभी लोग आ चुके थे। उस रात अंतिम बार इला दी, द्विजेन दा, गुनगुन, सुकांत और सभी ने नेताजी के साथ रात का भोजन किया। फिर जरूरी निर्देश लेकर बड़ी सतर्कता से वे बाहर पहरे के लिए आ बैठे। नेताजी मुहम्मद जियाउद्दीन के वेश में तैयार थे। गुनगुन के लिए बेहद रोमांचकारी मंजर था। द्विजेन दा को कहा गया कि वे ऊपर जाकर सड़क पर नजर रखें और जब सड़क एकदम सुनसान हो जाए तो खाँसकर उन्हें जाने का संकेत दें। नेताजी ने इला दी और गुनगुन से विदा ली, सुकांत को गले लगाकर उसका माथा चूमा। “मेरे जाने के एक घंटे बाद तक बत्ती जलाए रखना।”

लगभग डेढ़ बजे रात को वे नीचे उतरे। धीमे से कार का दरवाजा खोला और बिना कोई आवाज किए उसमें बैठ गए। नीम, पीपल के पेड़ों पर बैठे कुछ कौवों के पँख फड़फड़ाने की आवाज आई। फिर सन्नाटा छा गया। उनके घर के आसपास पुलिस गुप्तचरों का जाल बिछा था लेकिन योजना की रूपरेखा इतने महीने धागों से बुनी गई थी कि उन्हें कानों-कान भनक तक नहीं लगी कि नेताजी चले गए। लगभग दो घंटे तक सब दम साधे अपनी अपनी जगह तैनात रहे। फिर धीरे-धीरे सबने राहत की साँस ली। गुनगुन ने इला दी से इजाजत चाही -

“हाँ, जाओ, चार बजने वाले हैं। तुम्हारे घर में सब परेशान होंगे। सँभलकर जाना... सुकांत साथ जाएगा न।”

“हाँ, इला दी... उसके बिना इतनी सुनसान रात में घर कैसे पहुँचूँगी।”

इला दी ने उसके सिर पर हाथ रख उसका माथा चूम लिया। दोनों आहिस्ता से सीढ़ियाँ उतर जब बाहर निकले तो ऊँघते हुए पुलिस वाले ने उन्हें देखकर ललकारा-”कौन है वहाँ?”

यहीं दोनों से चूक हो गई। उन्हें रुककर जवाब देना चाहिए था पर दोनों भागने लगे। पुलिस वाले को शक हुआ... कहीं ये नेताजी के साथी तो नहीं हैं? वह उनके पीछे दौड़ा... “रुक जाओ, नहीं तो गोली चला दूँगा।” अंत में उसने गोली चला दी जो सुकांत की पीठ में लगी। वह पलटा... जेब में रखा चाकू निकालकर उसने निशाना साधकर पुलिस वाले की ओर फेंका। निशाना अचूक था। पुलिस वाला वहीं ढेर हो गया... तब तक पीछे से दूसरा पुलिस वाला उनकी ओर झपटा। अब की बार गुनगुन का चाकू भी नजदीक से दूसरे पुलिस वाले के दिल के आर-पार धँस गया लेकिन मरते-मरते उसने गुनगुन को भी गोली का निशाना बना लिया। कुछ ही पलों में सब कुछ खत्म हो गया। कौवों के पँख फिर फड़फड़ाए लेकिन इस बार भेष बदलकर जाते क्रांतिवीर की विदाई के लिए नहीं बल्कि देश के लिए शहीद हुए सुकांत और गुनगुन के लिए। सुकांत देश के लिए मरना चाहता था पर उसकी इच्छा थी कि अंतिम समय गुनगुन उसके साथ हो। ईश्वर ने उसकी ये इच्छा पूरी की। उसकी प्रिया उससे कुछ ही कदमों की दूरी पर चिरनिद्रा में लीन है। सुकांत के शरीर से निकला रक्त बह-बह कर गुनगुन का माथा भिगो रहा है-”लो मेरी प्रिया... आज मैंने अपने रक्त से तुम्हारी मांग भर दी। आज मैंने तुम्हें वरण किया।”

गोलियों की आवाज इला दी और अन्य कॉमरेडों तक भी पहुँची थी पर वे उनकी कुछ सहायता नहीं कर पाए क्योंकि भेद खुल जाने का डर था। करीब डेढ़ घंटे बाद जब पुलिस का पहरा थोड़ा ढ़ीला पड़ा... इला दी और दो कॉमरेड गुनगुन ओर सुकांत के पास गाड़ी लेकर आए। झटपट दोनों की लाश गाड़ी में रखी और गुनगुन के घर की ओर गाड़ी मोड़ दी। इत्तेफाक से घर में उस वक्त चंडीदास नंदलाल और सत्यजित के साथ बैठा था। जब गाड़ी से गुनगुन नहीं बल्कि उसकी लाश उतरी तो तीनों दौड़ पड़े गाडी की ओर... “क्या हुआ, गुनगुन को क्या हुआ?”

“कुरबानी दे दी गुनगुन ने देश के लिए।” इला दी ने कहा और रो पड़ीं। पूरा घर स्तब्ध था जैसे सबको साँप सूँघ गया हो। इला दी वहीं रुक गई थीं और सुकांत की लाश अन्य दो कॉमरेड उसके घर पहुँचाने चले गए थे। चंडीदास ने डायना को फोन से खबर दी थी। जिस वक्त डायना बोनोमाली के संग चंडीदास के घर पहुँची उसका मन विचलित हो उठा। बड़ा हृदयविदारक दृश्य था। माँ गुनगुन के शव के पास बैठी दहाड़े मारकर रो रही थीं। मुनमुन पत्थर हो उठी थी और वीरान आँखों से शून्य में ताके जा रही थी। चंडीदास बाबा को सँभाले था जो बुढ़ापे में बेटी की पालकी उठने की आस पाले जी रहे थे... पालकी उठेगी पर दुल्हन बनी गुनगुन के रूप में नहीं... बल्कि अर्थीं के रूप में। डायना उनके पास आई। उनके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर धीरज बँधाया “बाबा... आपकी बेटी महान थी। शहीदाना मौत मरी... ऐसी मौत के लिए तरसते हैं लोग।” बाबा कुछ नहीं बोले। उजाड़ आँखों से बेटी की अर्थी सजते हुए देखते रहे। डायना ने मुनमुन को जैसे ही गले से लगाया वह फूट-फूट कर रो पड़ी। अब डायना के लिए स्वयं को रोक पाना कठिन था। धारोंधार आँसू उसके कपोलों को भिगाने लगे। अर्थी पर लेटी हुई गुनगुन कितनी सुंदर लग रही थी। उसके माथे पर तिलक था। होठ अधखुले मानो कुछ कहना चाहते हों। चेहरे पर गौरव का दर्प था। अपने देश के लिए शहीद होने की शान... .दुश्मन को मारकर मरने की शान... “देखा बाबा, मैंने नेताजी से किया वादा निभाया। मैंने खून दे दिया अब उन्हें आजादी देनी है।”

बाबा ने शायद बेटी का स्वप्न स्वर सुन लिया था इसलिए उनके चेहरे पर बेटी की मृत्यु का गम नहीं बल्कि उसकी कुरबानी का गर्व था। फूलों से लद गई थी गुनगुन सिर से पाँव तक। जो आता, मुट्ठी भर फूल चढ़ाकर नमन करता... फूलों से महक उठी थी वह... शांत... परम तत्व में लीन... यही जिंदगी है बस... चार दिन की। उसके लिए इतनी हाय हाय। डायना चंडीदास के पास आकर खड़ी ही हुई थी कि एक युवक दौड़ता आया और हाथ में पकड़ा पन्ना चंडीदास को थमा दिया। पन्ने पर लिखा था-”अंतिम यात्रा मेरे घर से होते हुए हो। सुकांत और गुनगुन साथ-साथ देश के लिए शहीद हुए हैं... .साथ-साथ ही पंचतत्व में समाएँ यही ठीक रहेगा।” घोषाल...

पत्र पढ़कर चंडीदास ने बाबा को दे दिया। बाबा तैयार थी। अर्थी को कंधा डेव फ्रेंकलिन ने भी दिया... जो था तो अंग्रेज पर गुनगुन से प्रगाढ़ मित्रता थी उसकी।

दोनों की चिताएँ पास-पास तैयार की गई और जब चिता में से लपटें उठीं तो आपस में मिल-मिल जाती थीं। हवाएँ उन लपटों को एकमएक किए दे रही थी। अनायास ही दोनों की अंतिम इच्छा पूरी हो गई। कभी-कभी अनकहे ही कुछ ऐसा घटित हो जाता है कि इसे सिवा चमत्कार के और कोई नाम देना कठिन लगता है।

पारो सबका खाना बनाकर ले आई थी। पारो की समझदारी से डायना संतुष्ट थी। उसने जब तश्तरियों में खाना परोसा तो डायना सबको आग्रह करके खिलाने लगी। फिर खुद भी वहीं खाना खाकर जैसे अपने आप को उस परिवार से जोड़ लिया डायना ने। क्या हुआ अगर वह विधि-विधान से ब्याह कर इस घर में नहीं आई। है तो वह चंडी की ही... मन के बंधन से बड़ा और कोई बंधन नहीं होता। जब वह जाने लगी, तो बाबा के पास आई। उनके पैर छुए-”बाबा मैं जा रही हूँ। कल फिर आऊँगी। आप आराम कीजिए वरना तबीयत बिगड़ जाएगी।”

बाबा ने पनीली आँखों से विदा किया-”हाँ... वे सोएँगे... क्यों नहीं सोएँगे? उनकी बेटी देश के लिए शहीद हुई है। उनकी बहादुर बेटी... दुश्मन के एक सिपाही को मार कर शहीद हुई है।”

डायना मुनमुन से और माँ से भी लिपट कर विदा लेने लगी-”माँ... आपकी गुनगुन अमर है।”

“तुम नहीं जानती बेटी... वह कितनी होनहार लड़की थी। मुझसे कहती थी, माँ तुम क्यों इतना सोचती हो, औरतें तो शक्ति हैं... “अब कहाँ से लाऊँ मैं अपनी गुनगुन को।”

“आप शक्ति हैं और रोती हैं? आज तो गर्व करने का दिन है।” अचानक माँ को जाने क्या हुआ? आँसू पोंछे... पल्ला कमर में खोंसा और हाथ का पंजा माथे तक ले जाकर जोर से बोलीं-”जय हिंद।”

चंडीदास ने दौड़कर माँ को सँभाला। डायना काँप उठी। वह तेजी से आकर मोटर में बैठ गई। मुनमुन दौड़ी आई-”एक मिनट रुकिए, दादा आ रहे हैं।”

चंडीदास तेजी से चलता हुआ आया-”मैं चलूँ क्या?”

“चंडी इमोशनल मत हो... माँ-बाबा को सँभालो। काश मैं रुक पाती।” और ड्राइवर को फौरन ही गाड़ी चलाने का संकेत दिया।

मानो पटाक्षेप हुआ हो एक दुखांत नाटक का... हम सब नाटक के पात्र ही तो हैं... और जिंदगी एक रंगमंच है। नाटक होता रहता है, दृश्य बदलते रहते हैं, नए-नए पात्र आ मिलते हैं। डायना ने पीछे सीट पर सिर टिका दिया और सुकांत और गुनगुन के ख्यालों में खो गई।