टेम्स की सरगम / भाग 9 / संतोष श्रीवास्तव

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रागिनी कलकत्ते लौटी तो मुनमुन को बीमार पाया।

“यही सिलसिला चल रहा है तीन चार सालों से। जाड़ों में इनकी तकलीफ बढ़ जाती है।” सत्यजित मुनमुन के सिरहाने बैठा उसे चम्मच से काढ़ा पिला रहा था।

“फोन पर मुझे बताया तक नहीं बुआ आपने, मैं थोड़ा जल्दी आ जाती।”

“क्या करतीं आकर? अरे सत्य, बताओ इसे... ये तो हर जाड़ों की बीमारी है।”

“आखिर है कौन-सी बीमारी?”

“वही सीने की जकड़न ब्रोंकाइटिस... फेफड़े वीक हैं इनके।”

“सत्य... ..फेफड़े भर न, दिल तो नहीं?” मुनमुन ने बात काटी।

“दिल है तुम्हारे पास मुनमुन?” सत्यतिज तपाक से बोला तो तीनों हँस पड़े। खिड़की, किवाड़ सब बंद थे फिर भी सरसराती, कंटीली, जिद्दी हवा किसी रंध्र से घुस खड़खड़ का राग अलाप जाती।

“परसों पूजा है बुआ और आप... ।”

“मैं ठीक हो जाऊँगी रे बाबा... । इंतजाम भी सारा हो गया है... पूजा के दूसरे दिन तो तुम मथुरा जा रही हो न रागिनी?”

“हाँ बुआ।”

“कैसा लगा कुंभनगर?”

“अरे बुआ... अद्भुत... । मेरे पास शब्द नहीं हैं बताने को। हर दिन, हर घड़ी का एहसास ऐसा समा गया है मन में कि बस अब तो मथुरा पुकार रही है।” रागिनी की आवाज में बीते लम्हों का आह्नलाद था। कुंभनगर उसके लिए जिंदगी का एक ऐसा अहसास था जिसकी मीठी अनुभूति शायद कभी न मिटे उसके दिल से।

नौकरानी चाय ले आई और यह खबर भी कि पंडितजी आ गए हैं और पूजा की तैयारी के लिए कुछ बताना चाहते हैं सत्यजित को।

“अंकल, पूजा धूमधाम से होगी बल्कि मेरी इच्छा है कुछ होर्डिंग्ज मेन जगहों पर टाँग दिए जाएँ जिससे पूरा कलकत्ता इस अकादमी के खुलने की खबर पढ़-सुन ले।”

कड़वे काढ़े से बुरा मुँह बनाए... होठ आँख सिकोड़ती मुनमुन बड़ी रुआबदार आवाज में बोली-”ठीक कहती है लड़की... हम खूब हंगामा करेंगे... । हम उन दिनों को फिर से जिएँगे जब दादा अपनी अकादमी के लिए कड़ी मेहनत करते थे और दीदी तानपूरे पर सुरों को साधती थीं।”

मुहूर्त पूजा क्या थी उन दिनों की पुनर्वापसी थी जो मुनमुन और सत्यजित ने चंडीदास और डायना के संग-संग जिए थे। पूजा के श्लोकों के साथ मुनमुन के आँसू अनवरत बह रहे थे। वह उन दिनों को याद कर खुद को काबू में नहीं रख पा रही थी। चंडीदास के अधिकतर दोस्त तो अब इस दुनिया में नहीं रहे थे। एक दो बचे थे जिन्होंने जैसे तैसे शामिल होकर अपनी खुशी प्रगट की थी। रागिनी की तारीफों के पुल बाँधे थे-”बेटी हो तो ऐसी माँ बाप का नाम अमर कर दिया।”

हॉल में लगी चंडीदास और डायना की बेहद कलात्मक एकदम जीवंत पेंटिंग के सामने नतमस्तक थी रागिनी... । चंदन की मालाएँ आई थीं पर मुनमुन ने पहनाने नहीं दी-”हम उनके नाम को अमर कर रहे हैं तो ये मुर्दामाला क्यों पहनाएँ उनकी तस्वीरों पर।” वे दिवंगत हुए लोगों की तस्वीर पर पहनाई गई माला को मुर्दामाला कहती थीं।

शाम घिरने लगी थी। अकादमी के लॉन पर इमारत की छाया के संग किनारे लगे पेड़ों की छायाएँ थरथरा रही थीं। अभी थोड़ी ही देर में अंधेरा हो जाएगा। जाड़े का दिन वैसे भी लुप्प से गायब हो जाता है। ठंडी हवाओं की दस्तक से पेड़ उतावले हो झूमने लगे। इन्हीं हवाओं से तो मुनमुन को बचाना है। सत्यजित ने स्वेटर, कोट, शॉल से तोप-सा दिया मुनमुन को। सहारा देकर कार तक ले आया... रागिनी ने बड़ी शिद्दत से इस जोड़े को देखा, उसकी आँखें सजदे में झुक गई।

अकादमी के खुल जाने से एक बड़ा बोझ दिल पर से उतर गया जो बरसों से रागिनी को बेचैन किए हुए था। उसे लगा आज उसने अपनी ममा, पापा को सच्ची श्रद्धांजलि दी है। मुनमुन और सत्यजित इस बात की भी कोशिश करेंगे कि अकादमी को सरकारी मान्यता मिल जाए ताकि महाविद्यालय स्तर पर परीक्षाएँ हो सकें।

रागिनी को कल मथुरा चल देना है। एक लंबी खाँसी के बाद आँखों में तैर आए आँसुओं को दुपट्टे से पोंछती मुनमुन ने खरखराती आवाज में कहा था-”मेरे लिए खुरचन और पेड़े जरूर लाना।”

सुनकर सत्यतिज हो-हो कर हँस पड़ा था।

वृंदावन और मथुरा घूमने की ललक कुछ इस कदर मन में समा गई थी कि रागिनी चाहकर भी शांतिनिकेतन नहीं जा पाई। उसे शांतिनिकेतन के साथ-साथ जयदेव का गाँव भी घूमना था। गाँव में घूमते हुए वह महसूस करना चाहती थी कि कैसे होंगे जयदेव, जिनकी झोपड़ी का छप्पर खुद कृष्ण ने अपने हाथों से छाया था। कितनी अद्भुत बात थी कि छप्पर टूटा-फूटा था और सुबह जब वह साबुत मिला तो जिस मूँज की रस्सी से छप्पर दुरुस्त किया गया था उसका एक रेशा जयदेव के घर के मंदिर में विराजमान कृष्ण की मूर्ति के हाथों में पाया गया। कृष्ण जयदेव से प्रेम करते थे। अपने इस गरीब भोले भक्त का वे बहुत खयाल रखते थे। जब जयदेव गीतगोविंद की रचना कर रहे थे तब लिखते-लिखते एक जगह वे अटक गए। आगे लिखना असंभव हो गया। कविता रुक गई, कल्पना के आकाश में कोई शब्द नहीं बचा। बस शून्य... चारों ओर शून्य... । कई दिन बीत गए, कई सप्ताह बीत गए, कई मास बीत गए। जयदेव बेचैन... यह उनको क्या हो गया? क्या गीतगोविंद अधूरा रह जाएगा? क्या उनके कृष्ण उनसे रूठ गए? आकाश बादलों से घिरा था। बादलों के बीच बिजली उनके मन के समान ही तड़प रही थी। टप-टप बूँदों ने अपना इकतारा छेड़ा, जयदेव अपनी पांडुलिपि के पन्ने पलटते हुए उस पृष्ठ पर आए जहाँ उनकी लेखनी रुकी थी... । उन्होंने देखा कि अधूरी कविता के आगे एक अनगढ़... अनपहचानी लेखनी में आगे का पद लिखा हुआ है। जयदेव की आँखें उस पद पर अनझिप टिकी रहीं। ओह, यही पद था जो वे खोज नहीं पा रहे थे और जब वे उस पद को रटते हुए कृष्ण की मूर्ति के सामने शीश नवाने पहुँचे तो देखा कि मूर्ति के दाहिने हाथ की ऊँगली में स्याही लगी थी। जयदेव मुस्कुराए-”ओह, तो ये पद तुमने लिखा था गोपाल।” और वे भावविभोर हो रोने लगे थे और रोने लगी थी रागिनी... । उस रात उसे नींद नहीं आई थी। लंदन की सड़कों की तरह भरपूर सन्नाटे भरी रात में जाने कहाँ से एक लहर रुनझुन करती आई थी और रागिनी को भिगो कर चली गई थी।

मथुरा की धरती पर कदम रखते ही रागिनी के कानों में बाँसुरी गूँजने लगी थी। हर जगह घूमती-विचरती गौएँ, उन्हें हरी-हरी घास खिलाते और उनके माथे को छूकर हाथ को अपने सीने और माथे से छुआते मथुरावासी... । शांत, पगुराती गौओं को देख रागिनी विचलित हो गई। कितनी जीवन्त हैं ये गौएँ और कितनी करुणा से भरी हैं इनकी आँखें। डबडबाई हुई-सी जैसे बर्फ ढके पर्वत पर गहरे जल से भरे दो कुंड... । रागिनी ने द्वारकाधीश मंदिर के सामने खड़ी गौओं को अपने बछड़ों को दूध पिलाते देखा। उनके थनों से दूध की धारा और आँखों से वात्सल्य के अश्रु साथ-साथ बहे जा रहे थे। बछड़ों का रँभाना सुन वे अपने दोने जैसे कानों को खड़ा कर लेतीं और प्रेम, वात्सल्य की मूर्ति-सी जान पड़तीं। इतने जीवन्त पशु के माँस को रागिनी कितने चाव से खाती है। गाय का मांस खाना पाप है और यह पाप वह बरसों से करती आ रही है। रागिनी पीड़ा से भर उठी। वह गाय के पास गई। उसकी पीठ को जब उसने छुआ तो स्पर्श की लहरियाँ गाय की चितकबरी चमड़ी पर साफ देखी उसने। उसके हाथ अपने आप जुड़ गए और उसने गाय को प्रणाम कर ठीक उसी तरह उसे छुआ जैसे हिंदू छूते हैं। फिर पास खड़े लड़के से घास का गट्ठर खरीदकर वह गाय को खिलाने लगी। गाय मजे से रागिनी के हाथ से घास खाने लगी। उसका गेरू रंग का बछड़ा उसके थनों को उचक-उचक कर मुँह में भरे ले रहा था। घास वाला लड़का अपने छोटे भाई के साथ रागिनी के पास ही खड़ा था।

“इसका नाम कबरी है।”

“गाय का?”

“हाँ... ये चितकबरी है न, तो सब इसे कबरी बुलाते हैं और ये बछड़ा मटरू है... खूब शरारत करता है। आप रबड़ी खाएँगी... वो सामने गुलाबजल डालकर रबड़ी बनाते हैं, खूब स्वाद देती है।”

रागिनी लड़के की बातें सुन हँस पड़ी। उसने पचास का नोट लड़के की ओर बढ़ाया-”लो, आज तुम हमारी तरफ से रबड़ी खा लो।”

लड़के की आँखें चमकने लगीं। रोज ही विदेशी आते हैं यहाँ पर कोई-कोई ही रागिनी जैसे दिलदार होते हैं। उसने रागिनी को सेल्यूट किया और छोटे भाई के साथ रबड़ी की दुकान की ओर दौड़ गया।

रागिनी आत्मविभोर-सी उन गलियों में घूमने लगी जहाँ कभी कृष्ण घूमते होंगे। दूध, दही, रबड़ी, खुरचन और पेड़ों की दुकानों से पटी पड़ी है मथुरा की गलियाँ। बड़े-बड़े कड़ाहों में उबलता दूध... । कुल्हड़ और दोने के ढेर... । मीठी-मीठी-सी तैरती खुशबू... । हवा चलती है मानो बाँसुरी की तान हो... । पेड़, पौधे, पत्ते, फूल सिहर-सिहर जाते हैं। कैसी अद्भुत है ये नगरी। हर जगह त्रिपुंडधारी, पीतांबर पहने स्त्री-पुरुष कृष्ण-कृष्ण जपते चले जाते हैं। तो ये है जयदेव के कृष्ण की नगरी। इसी नगरी की खोज चैतन्य महाप्रभु ने की थी। बंगाल से बही कृष्ण रसधारा ने पूरे भारत को भिगो डाला था।

रागिनी के ठहरने का इंतजाम इस्कॉन में किया गया था। मथुरा में उसने कोई सुरक्षा नहीं ली थी। वह नहीं चाहती थी कि कोई भी व्यक्ति उसकी देखभाल के लिए उसके साथ हो। वह पूरी आजादी से चप्पे-चप्पे को घूमना चाहती थी। विश्वस्तर पर इस्कॉन की मान्यता को लेकर उसके मन में उठे प्रश्नों का समाधान यहीं मिल सकता था। उसके बाजू वाले कमरे में जम्मू से आई यशोधरा ठहरी थी। यशोधरा के पति कारगिल युद्ध में शहीद हो गए थे और वह मन की शांति के लिए यहाँ आई थी। रात होटल में डिनर के दौरान दोनों में परिचय हुआ और आवश्यक मालूमात भी। अपनत्व के धागे की डोर सहसा ही खुलने लगी थी।

“कितने दिन का कार्यक्रम है तुम्हारा यशोधरा?”

“अच्छे से वृंदावन, मथुरा घूम लूँ... मन में उठे अँधड़ को थम जाने दूँ तब लौटूँगी। और तुम?

रागिनी मुस्कुरा भर दी। फोन की घंटी बज उठी थी। रति थी... फोन कान से लगाए हुए ही कमरे में लौटी रागिनी। रति फोन पर लढ़िया रही थी-”कब लौटोगी मॉम... तुम तो वहीं की होकर रह गईं।”

यहीं की तो हूँ... .कहना चाहा रागिनी ने।

बहुत कोशिशें के बाद कनाडा से आए पंडित दामोदर रागिनी को इस्कॉन की जानकारी देने को तैयार हुए। वे कृष्ण के आकर्षण में बंधे बारह साल पहले मथुरा आए थे। और फिर यहीं के होकर रह गए। संगमरमर के शतरंज की बिसात जैसे फर्श वाले कमरे में पूरा भारतीय माहौल था। ऊँचे गद्दे पर गाव तकिए के सहारे तीनों बैठ गए। दामोदर पंडित, यशोधरा और रागिनी..। रागिनी ने गौर से दामोदर के चेहरे को देखा। अमेरिकन होने का अब आभास तक न था।

“क्या मैं आपका अमेरिकन नाम जान सकती हूँ।” रागिनी ने अंग्रेजी में पूछा। पंडित दामोदर ने जवाब हिंदी में दिया-

“वो भूल जाइए आप। मैं भी भूल गया हूँ। अब मैं कृष्ण भक्त दामोदार हूँ। हमारी पहचान कृष्ण भक्ति से है।”

यशोधरा एक विदेशी के मुख से इतनी शुद्ध, स्पष्ट हिंदी सुन चकित रह गई। पंडित दामोदर इस्कॉन के बारे में बता रहे थे जिसमें से बहुत कुछ तो अपनी थीसिस के दौरान रागिनी को लंदन में ही पता चल गया था। रागिनी ने इतनी देर से थीसिस वर्क शुरू किया था कि तब तक तो इस संस्था की स्थापना हो चुकी थी।

“सन् 1972 में इस संस्था की स्थापना हुई। हमारे गुरु आचार्य भक्ति वेदांत स्वामी प्रभुपादजी ने 14 नवंबर, 1977 को वृंदावन में अपना शरीर त्यागा था और गोलोक गमन किया था। मुम्बई, लॉसएंजेल्स, न्यूयॉर्क, लन्दन और अन्य सभी स्थानों पर पूरी दुनिया में हमारे 250 मंदिर और 200 केंद्र हैं। वेस्ट वर्जिनिया में एक पूरी की पूरी वृंदावन नगरी है। वहाँ भगवान कृष्ण के सोने से बने मंदिर में बत्तीस प्रकार के संगमरमर का उपयोग किया गया है। खूबसूरत पहाड़ियों और हरे-भरे खेतों से घिरे इस मंदिर के मुख्य द्वार पर हाथी के सिर की मूर्ति बनी है और चारों तरफ मोर की शक्ल की खिड़कियाँ हैं। इस मंदिर की विशेषता इसकी इटैलियन संगमरमर से बनी दीवारें और छत है। लाखों भक्त हर साल मोक्ष और भक्ति की कामना से यहाँ आते हैं। आपके लंदन के स्वामी नारायण मंदिर के विषय में तो आप जानती ही होंगी लेकिन वह मंदिर इस्कॉन ने नहीं, स्वामी नारायण ट्रस्ट ने बनवाया है। फिर भी है तो वह श्रीकृष्ण का ही मंदिर। उस मंदिर का निर्माण भारत में ही किया गया था।”

“भारत में? यानी कि भारत में मंदिर बना और लंदन में स्थापित किया गया, मिरेकिल... “ यशोधरा तपाक से बोली।

“नहीं देवी... कृष्ण की शक्ति, कृपा हर भक्त को मिलती है। भारत में राजस्थान के पन्द्रह सौ कारीगरों ने मंदिर के छब्बीस सौ टुकड़ों पर बेहतरीन कला का नमूना उकेरा। ये टुकड़े इटैलियन करारा मार्बल के थे। फिर शिप से टुकड़ों समेत वे कारीगर लंदन गए और उन टुकड़ों को जोड़कर वास्तु शिल्प के आधार पर यूके का सबसे बड़ा मंदिर बनाया।”

रागिनी की आँखों के आगे स्वामी नारायण मंदिर साकार होने लगा। जब वह पहली बार उस मंदिर को देखने गई थी तो उसकी भव्यता मंदिर की गैलरी, सीढ़ियों पर बिछा नीला गलीचा उसके मन में बस गया था। ऊपर राधाकृष्ण, गौरा-शिव और हनुमानजी की मूर्ति के आगे वह देर तक आँखें मूँदे खड़ी रही थी। दुबारा मुनमुन के साथ गई थी वह। मुनमुन कालीन पर बैठकर ध्यानमग्न हो गई थी। लेकिन रागिनी मँदिर की भव्य सीलिंग पर रँगीन पच्चीकारी में प्रदर्शित श्रीकृष्ण की लीलाओं में खो गई थी। पाँच मेहराबों से घिरे मंदिर में समय आंकना मुश्किल था। मन ही नहीं होता था कि हटे वहाँ से। मुनमुन जब ध्यान से जागी तो उसने रागिनी को विस्मय से खड़े पाया।

“पल भर को मैं भूल गई थी कि मैं लंदन में हूँ। देखो कृष्ण मेरे संग-संग लंदन तक आ गए।”

“आप तो कहती हैं बुआ कि वे कण-कण वासी हैं?”

“हाँ... हैं न, पर मन ऐसा सोचता है तो अच्छा लगता है।”

सीढ़ियाँ उतरकर बाहर लॉन से गुजरते हुए मुनमुन और रागिनी हल्कापन महसूस कर रही थीं। मंदिर के बाहर कॉफी शॉप, समोसे, भजिए के स्टॉल थे पर उन दोनों की हथेलियों में तो कृष्ण प्रसाद था जिसे पाने के बाद फिर किसी व्यंजन की चाह नहीं रह जाती। रागिनी को कहीं और खोया देख यशोधरा ने उसका हाथ हौले से दबाया। रागिनी ने चौंककर यशोधरा को देखा। दामोदर कहे जा रहे थे-

“इस्कॉन का मकसद एकता और भाईचारे की भावना को जन-जन तक पहुँचाना है। कलियुग में मोक्ष का रास्ता नाम संकीर्तन और कृष्ण प्रसाद पाना है। यही महामंत्र है।”

“पंडितजी, एक प्रश्न पूछना चाहती हूँ। इस्कॉन ने राम, अल्लाह, ईसा मसीह में से कृष्ण को ही क्यों चुना?” यशोधरा ने पूछा तो दामोदर परमानंद में डूब गए।

“आहा... कृष्ण तो पूर्णपुरुष हैं। वे सबसे ज्यादा शक्ति-सम्पन्न, खूबसूरत, विद्वान, दार्शनिक, योद्धा और एक अच्छे राजा और एक महान प्रेमी थे। वे चौंसठ कलाओं से पूर्णपुरुष थे, फिर भी संसार से विरक्त थे। इसलिए हम कृष्ण नाम को ही मोक्ष का मार्ग मानते हैं। कृष्ण मंत्र अच्छा... कृष्ण नाम अच्छा... जाति-पाँति का भेदभाव त्यागकर हम सब प्रभु के सेवक हैं।”

“यानी इस्कॉन में हर कोई प्रवेश कर सकता है... चाहे वो ब्राह्मण हो, शूद्र हो, क्षत्रिय हो या वैश्य... ।” यशोधरा की जिज्ञासा पूर्ववत थी। रागिनी के मन की जिज्ञासाओं का शमन, खुद-ब-खुद होता चला जा रहा था। यशोधरा के प्रश्न पर पंडित दामोदर हँस पड़े-”आज कल शुद्ध ब्राह्मण हैं कहाँ? शुद्ध घी तक तो मिलता नहीं जिससे हवन किया जाता है... । घी तो क्या वनस्पति तेल तक शुद्ध नहीं।”

“हाँ... सो तो है।”

“यह युग तो डिस्को, फास्टफूड, हुल्लड़बाजी, हंगामेदार पार्टियों और फिल्मों का है। अगर हम कृष्ण प्रसाद के रूप में टोकरी भर आम घर-घर बाँटते हैं तो लोग शंका करते हैं कि इतने महँगे आम मुफ्त में क्यों बांटे जा रहे हैं? कहीं इसमें जहर तो नहीं? यहाँ तक कि हमारी संस्था को लेकर भी लोगों में अफवाह उड़ चुकी है कि हम भटके हुए हैं, हिप्पी हैं या फिर स्मगलर्स। पर यह तो उनका दुर्भाग्य है जो वे ऐसा सोचते हैं। हम तो भारतीय पुरातन संस्कृति को पूरी दुनिया में फैलाना चाहते हैं। यही एकमात्र संस्कृति है जो हमें सुख-शांति, प्रसन्नता और मोक्ष का मार्ग दिखाती है।” “इस्कॉन में आपका रूटीन, दिनचर्या क्या रहती है। मैंने देखा कि पुरुष, स्त्री और बच्चे जो आपकी संस्था से जुड़े हुए हैं सभी भारतीय रहन-सहन अपनाए हुए हैं।”

“हाँ... हम भारतीय कृष्ण भक्त ही तो हैं। ब्रह्ममुहूर्त में हम उठ जाते हैं। स्नान करके साढ़े चार बजे मंगल आरती करते हैं। ये हमारे दिन भर के कार्यक्रम, दिनचर्या का कार्ड है।”

पंडित दामोदर ने दोनों को एक-एक कार्ड दिया-”नौ बजे हम कृष्ण प्रसाद लेते हैं।”

“कृष्ण प्रसाद?”

“हाँ... हरे कृष्ण फूड फॉर लाइफ इंटरनेशनल से संबंधित हमारी एक अलग संस्था है जहाँ से करोड़ों व्यक्तियों को पौष्टिक भोजन “हरे कृष्ण प्रसाद' के रूप में पूरे विश्व में वितरित किया जाता है। यह पूर्ण शाकाहारी भोजन है जो पौष्टिक सब्जियों, अनाज, घी और मक्खन से तैयार किया जाता है।”

दामोदर पंडित ने पल भर रुक कर आसन बदला फिर रागिनी के चेहरे को गौर से देखते हुए कहा-”यह तो आप भी समझती हैं कि भूख वह हाथी है जिसे काबू में करने के लिए हम कृष्ण प्रसाद रूपी हथिनी की सुगंध उस तक पहुँचाते हैं तब हम भक्ति के योग्य हो पाते हैं। भक्ति के साथ कुछ नियमों का भी पालन होता है यहाँ। शाम सात बजे भगवान की आरती होती है। दोपहर एक से चार बजे तक भगवान की निद्रा का समय होता है, तब मंदिर के द्वार बंद रहते हैं। मंदिर के पीछे हमारा आश्रम है, जहाँ कमरों में गृहस्थ रहते हैं।”

“गृहस्थ? हम तो आपको संन्यासी समझ रहे थे।” यशोधरा ने पूछा।

“हम संन्यासी ही तो हैं। आश्रम के चार रूपों में एक रूप गृहस्थ भी होता है। विद्या प्राप्ति के बाद कोई भी गृहस्थाश्रम ग्रहण कर सकता है। लेकिन इस आश्रम के गृहस्थों के लिए इस्कॉन के नियम पालन करना अनिवार्य है। टीवी, फ्रिज या कोई भी सुख-ऐश्वर्य की चीजों से परे रहकर भक्ति-भावना सहित उन्हें गृहस्थ धर्म का पालन करना पड़ता है। पत्नी के साथ उनके शारीरिक संबंध भी केवल संतान प्राप्ति के उद्देश्य से होते हैं ताकि छोटे-छोटे हरिभक्तों से यह संसार हरिमय हो जाए। पत्नी तो आत्मा है, वासना पूर्ति की मशीन नहीं। प्रभुनाम में ही कितना सुख, कितनी संतुष्टि है।”

रागिनी ने देखा दामोदर केशरी धोती-कुरता पहने हैं। माथे पर त्रिपुण्ड... घुटे हुए सिर पर उगे छोटे-छोटे बाल... लंबी चुटिया में पड़ी गांठ, गले में रूद्राक्ष की माला और केशरी दुशाला। इस्कॉन में कइयों के गले में दुशाला नहीं था, कइयों के में था।

“ऐसा क्यों?” पूछा रागिनी ने।

“इसे यक्री कहते हैं। बंगाली नाम है यह और इसे केवल संन्यासी ही ओढ़ते हैं। गृहस्थ, ब्रह्मचारी या वानप्रस्थी नहीं।”

“पंडितजी, मंदिर का नाम इस्कॉन क्यों है? कुछ विदेशीपन का आभास होता है। है न रागिनी?”

“नहीं... मुझे नहीं होता। दामोदारजी... जहाँ तक मुझे पता है इस्कॉन, शॉर्ट फॉर्म है “इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्ण कांशसनेस' का।

'आपको जानकारी है रागिनी देवी, तब तो आप रथयात्रा के बारे में भी जानती होंगी?”

“जानती हूँ... लंदन में खूब धूमधाम से रथयात्रा निकलती है। बड़ा ही आनंद आता है रथयात्रा में। सबसे आगे श्रीकृष्ण का रथ, उनके पीछे सुभद्रा जी का, फिर बलरामजी का रथ होता है।” रागिनी आनंदविभोर हो बोली तो दामोदर पंडित उसका चेहरा मुग्ध हो निहारने गले-

“आप तो कृष्णमय हो गईं देवी... आप पर कृष्ण की कृपा हो गई। हरे कृष्ण... हरे कृष्ण... । जानती हैं आज से पाँच हजार साल पहले भगवान श्रीकृष्ण जब गोपियों से मिलने गए थे तो तीनों रथों में गए थे। उसी की झाँकी रथयात्रा में निकाली जाती है। आहा... आनंद ही आनंद। भगवान का हर कार्य आनंददायक। चलिए, आरती का समय हो गया। कृष्ण प्रसाद लेकर जाइएगा।”

कहते हुए दामोदर पंडित ने लगातार बोलने के कारण शुष्क हुए गले को तांबे के लोटे में रखे जल से तर किया और मंदिर की ओर बढ़ गए। आरती के लिए जनसमूह उमड़ा पड़ रहा था। ढोल, मंजीरा बज रहा था और उसकी लय पर कृष्ण भक्त थिरक रहे थे... “गोविंद बोलो हरि गोपाल बोलो... राधारमण हरि गोविंद बोलो...।" कोई माइक पर कमेंट्री-सी कह रहा था-”हरे-हरे बाँस से बनी बाँसुरी पर हरि की कोमल उँगलियाँ मर्म को छू लेती हैं। गोपी, ग्वाल सब बेसुध हैं... । सारा संसार बाँसुरी की लय में डूब चुका है -

बाजे रे मुरलिया बाजे रे

अधर धरे मुरली

पहन मोतियन माल रे

बाजे रे मुरलिया

मधुर संगीत, भव्य आरती और भावविभोर रागिनी यशोधरा के साथ जब कृष्ण प्रसाद स्वरूप मगद के लड्डू लेकर कमरे में लौटी तो देर तक नींद नहीं आई। बुआ का फोन था... आवाज डूबी-सी... ।

“तबीयत कैसी है बुआ?” रागिनी ने चिंता प्रगट की।

“लो सत्य... सुनो इसकी... अरे बाबा... ठंड में तबीयत ढीली रहती ही है। मुझे तो तुम्हारी चिंता सता रही थी। वहाँ कहाँ रहोगी, कैसे घूमोगी? सो आशुतोष बाबू को बता दिया है सब। वो वृंदावन में कत्थे के व्यापारी हैं। कोठी है उनकी वहाँ। कल सुबह गाड़ी लेकर आएँगे तुम्हें लिवाने। ना-नुकुर मत करना। कोठी में आराम से रहना... ।”

“अरे बुआ... मैं यहाँ आजादी से रहना घूमना चाहती हूँ।”

“तो हम कौन-सी कैद दे रहे हैं तुम्हें... । अकेली ही घूमना न! उधर कोठी में भी बस आशुतोष बाबू ही रहते हैं। उनकी फेमिली तो यूरोप में गई है।”

रागिनी मुनमुन की इस चिंता से परेशान हो चुकी है। मेले में चौमाल जी पीछे लगा दिए, इधर आशुतोष जी... । लगता है जैसे साए की गिरफ्त में हो।

सुबह आरती के बाद वह आशुतोष बाबू की भेजी हुई गाड़ी में यशोधरा के साथ मथुरा घूम रही थी। गनीमत थी वृंदावन से वे खुद नहीं आए थे, ड्राइवर भेजा था। फोन पर बात हो गई थी। दिन भर मथुरा घूम कर रात को आएगी वह वृंदावन। मथुरा की गली-गली, चप्पा-चप्पा घूमते हुए कई बार उसने कृष्ण को अपने करीब महसूस किया था। सदियों के दायरे सिमट गए थे जैसे... । लगा ज्यों कृष्ण अभी-अभी पैदा हुए, अभी-अभी ही कारागार के कपाट खुले, साँकलें टूटीं और अभी-अभी ही वासुदेव उन्हें लेकर वृंदावन की ओर कूच कर गए। रागिनी बेचैन हो उठी-”तुम भी चलोगी न यशोधरा वृंदावन... कृष्ण का बुलावा आ गया है।”

“कृष्ण का बुलावा?” यशोधरा चकित हो रागिनी को निहारने लगी। कैसी है ये अंग्रेज लड़की? रहस्यों से भरी। भारतीय संस्कृति और आध्यात्म पर जी-जान से फिदा। और तो और इसके अनुसंधान का विषय भी श्रीकृष्ण हैं। इतने दिनों के साथ ने हर घड़ी यशोधरा को उलझाया है। अपनी समझ से परे जान पड़ता है रागिनी का व्यक्तित्व। यह तो तय है कि यह आम मनुष्यों जैसी नहीं है। अंग्रेज होकर भी इतनी साफ हिंदी, संस्कृत और ब्रजभाषा बोलती है। असंभव-सा है सब कुछ... फिर भी संभव कर दिखाया है रागिनी ने।

वृंदावन में एक रात यशोधरा सहित आशुतोष बाबू का अतिथ्य ग्रहण उनसे क्षमा माँग रागिनी गीता आश्रम में रहने के लिए आ गई। कोठी में दम घुट रहा था। गीता आश्रम परिसर में प्रवेश करते ही मन हुआ यहाँ की मिट्टी को माथे से लगा लें... । वृंदावन की पवित्र मिट्टी... जहाँ कृष्ण की बाल लीलाएँ हुईं, प्रणय लीलाएँ हुईं, रास रचाया गया उस भूमि की मिट्टी क्या मामूली मिट्टी है? वह गाड़ी से उतर ही रही थी कि पंडित गिरिराज दौड़े हुए आए-”रागिनी... रागिनी रोज ब्लेयर... ब्रजभूमि में आपका स्वागत है।”

“हे भगवान... .अब बुआ ने कौन-सा करिश्मा कर दिया जो पंडित गिरिराज पहले से ही उसे जानते हैं। उसे दुविधा में देख पंडित गिरिराज बोले... “आशुतोष बाबू सब बता दिए हैं हमें पहले से ही। बहुत बड़े डोनर हैं वो हमारी ट्रस्ट के... बड़े भले आदमी... आओ कल्याणी यशोधरा... ।”

“प्रणाम पंडितजी।” कहते हुए यशोधरा ने उनके पैर छुए। रागिनी ने भी यशोधरा का अनुकरण किया।

आश्रम के छोटे-छोटे बाल गोपाल... घुटा सिर, केसरिया बाना... लंदन से पधारी विशेष मेहमान का सामान उठाने में होड़-सी लग गई उनमें। सभी सुबह से रागिनी का इंतजार कर रहे थे। आते-आते दोपहर हो गई थी उसे। आशुतोष बाबू ने प्रबंधक को सब बता दिया था। उनके आराध्य कृष्णमुरारी पर रिसर्च करने वाली इस अंग्रेज महिला को देखने के सभी इच्छुक थे। आश्रम के प्रांगण से ऊपर जाती सीढ़ियों को पार कर पहली मंजिल पर ही रागिनी को कमरा दिया गया था, यशोधरा को उसी की बगल का कमरा मिला था।

नहा-धोकर रागिनी ने सलवार कुरता पहना और कमरे के बाहर बालकनी में आ खड़ी हुई। यशोधरा का कमरा अंदर से बंद था। आश्रम में अद्भुत शांति थी... । इतने सारे कृष्ण भक्त, कोई भी कोना ऐसा न था जहाँ कोई भक्त बैठा जाप न कर रहा हो। इन भक्तों में नेपाल, बर्मा, इंडोनेशिया आदि देशों से आए युवक भी थे जो पृर्णतया कृष्णभक्ति में डूबे अपने जीवन का सार खोज रहे थे। जहाँ तक वह जानती है विश्व का लगभग एक तिहाई हिस्सा कृष्ण जीवन से प्रभावित है। रूस, अमेरिका, यूरोप सभी जगह कृष्ण के मतवाले भक्त कृष्ण नाम संकीर्तन जपते घूम रहे हैं। वह भी तो इसी नाम से जुड़ी सागर, पर्वत, नदियाँ पार कर यहाँ तक चली आई है।

सीढ़ियों पर खड़ाऊँ की आहट हुई-”जय श्रीकृष्ण... बुलाया है आपको ऑफिस में।”

रागिनी ने भी आगंतुक को उत्तर में जय श्रीकृष्ण कहा और सीढ़ियाँ उतर गई। ऑफिस में तख्त पर बिछे गद्दे पर गाव तकिए का सहारा लिए पालथी मारे आश्रम के ट्रस्टी बैठे थे। रागिनी को भी बैठने का इशारा कर पंडित गिरिराज ने सबका परिचय कराया। उनमें से बीचों-बीच बैठे मोटे से आचार्य ने रागिनी को आश्रम के नियम समझाए।

“आश्रम में खाने, नाश्ते, प्रार्थना और प्रवचन का समय निश्चित है। यदि आप समय पर उपस्थित नहीं रहीं तो वंचित रह जाएँगी। वृंदावन के मंदिरों की, वन-उपवन की संपूर्ण जानकारी आपको पंडित गिरिराज देंगे। पुस्तकों की जानकारी आपको आचार्य अखंडानंद देंगे। वे संस्कृत के महापंडित हैं और डॉक्टरेट की उपाधि के पश्चात् कई वर्षों तक वे काशी विद्यापीठ में पढ़ाते भी रहे हैं। अब श्रीकृष्ण की शरण में हैं। आप यहाँ जितना चाहें रुकें। कोई असुविधा हो तो सीधे यहीं आकर संपर्क करें “जय श्रीकृष्ण'।”

रागिनी मूक बनी सुनती रही। अब कोई प्रश्न उसके पास न था। उसने अभिवादन किया और उठ गई।

दोपहर के भोजन का समय हो चला था। यशोधरा सीढ़ियों से उतरती दिखी। फिर न जाने कहाँ ओझल हो गई। साफ-सुथरा भव्य आश्रम, हरियाली से घिरा... । जामुन और खजूर के वृक्ष सुकून देते से लगे। गुच्छे में खिला चंपा का पेड़ महक रहा था। सबसे ऊपर डालियों पर तोते बैठे थे। हवा में धूप की गुलाबी गरमाहट समाती जा रही थी।

“चलो... खाना खा लें, फिर वृंदावन दर्शन को निकलेंगे।”

कंधों के पास यशोधरा की साँसों का गर्म स्पर्श पा रागिनी मुड़ी। पूछना चाहा, इतनी देर कहाँ थी पर उसका मुस्कुराता चेहरा देख रुक गई। आज यशोधरा ने सफेद साड़ी, सफेद ब्लाउज ओर गले में तुलसी की माला पहन रखी थी। माथे पर चंदन की बिंदी मानो कह रही हो - अब मैं पूर्णतया शांत हूँ। मुझे जीने का मार्ग मिल गया है।

खाने का हॉल बहुत बड़ा था। वहाँ जूट से बनी पतली दरियाँ पट्टीनुमा आकार की बिछी थीं। हॉल खचाखच भरा था। उन दोनों को खड़ा देख महिलाएँ थोड़ा-थोड़ा सरककर उनके लिए जगह बनाने लगीं। उन्होंने मुस्कुराकर धन्यवाद कहा और बैठ गईं। उनके आगे पत्तलें बिछ गईं। पत्तलों में गरमागरम भोजन परोसा जाने लगा। परोसने वाले युवक केशरिया वस्त्र पहने, माथे पर तिलक लगाए राधेकृष्ण का श्लोक बुदबुदाते खाना परोस रहे थे। उनके हाथों में भोजन से भरे बड़े-बडे बर्तन थे। क्या मजाल कि परोसते हुए भोजन इधर-उधर बिखर जाए। सारा काम सधा हुआ। खाना खाकर अपनी पत्तल समेट कर उठाते हुए रागिनी ने इधर-उधर देखा। एक युवक ने दरवाजे के बाहर रखे लकड़ी के बक्से की ओर इशारा किया-”वहाँ फेंक दीजिए।”

भोजन कक्ष से जब दोनों बाहर निकलीं तो भक्तों के समूह अपनी व्यस्तता में डूबे नजर आए। इतनी व्यस्तता और इतनी शांति... चकित करती-सी, कुछ ऐसा भास कराती-सी कि अब तक की जिंदगी व्यर्थ गंवा दी.. जिंदगी का सार तो बस यहीं है। खासकर शाम को स्वामीजी के प्रवचन सुनकर तो ऐसा ही लगा, अतीत की व्यर्थता का तेजी से आभास होता रहा।

प्रवचन दो घंटे चला। स्वामीजी ने रागिनी को अपने पास बुलाकर बैठाया। सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया। वह गद्गद थी। प्रेम और अपनत्व से ओतप्रोत था आश्रम... । आश्रम का हर भक्त, स्वामीजी, आचार्य जी, पंडितजी।

रागिनी पंडित गिरिराज से बाँकेबिहारी मंदिर की जानकारी ले ही रही थी कि सूचना मिली... आशुतोष बाबू ने रागिनी के लिए वृंदावन दर्शनार्थ गाड़ी भेजी है। मना न करें अब इतनी सेवा तो स्वीकार करें कम से कम। बाँधकर रख लिया है रागिनी को इन छोटी-छोटी प्रेमभरी घटनाओं ने। अभी तक वह महज जिंदगी जी रही थी अब उसमें प्रेम आ समाया है तो जैसे उसकी उम्र बरसों पीछे खिसक आई है। यशोधरा भी तो हर पल उसके साथ है, छाया की तरह।

बाँकेबिहारी मंदिर में दर्शनों के पश्चात वे दोनों मंदिर की सीढ़ियाँ उतरकर गेट की ओर वाली सीढ़ियों पर बैठ गईं। सीढ़ियों के नीचे दाहिनी ओर लगे पेड़ के चबूतरे पर एक चनेवाला चने का टोकरा लिए बैठा था। ग्वाला-सा दिखता, कोलतार-सा काला रंग, सिर पर पगड़ी और कानों में मोटी-मोटी चाँदी की बालियाँ। दो पुड़ियों में चने बांधते हुए उसके हाथ का कड़ा रागिनी की आँखों में बस गया-”चने वाले भाई, ये कड़ा कहाँ से खरीदा?”

वह जल्दी-जल्दी पलकें झपकाने लगा-”यह खरीदा नहीं है, बाँके बिहारी दे गए हैं।”

“बाँके बिहारी? यानी कृष्ण?”

“हाँ... पिछले हफ्ते रात के कोई दस बजे हम घर लौटने की तैयारी में थे कि पीतांबर पहने एक आदमी ने हमसे चने खरीदे और पैसे मांगने पर यह कड़ा दे दिया। हमने जब कड़े को हाथ में लेकर उनकी ओर देखा तो वहाँ कोई न था लेकिन ये कनेर के फूलों का पेड़ है न... ये बिना हवा के भी हिल रहा था। इसी को छूते हुए गए होंगे बाँकेबिहारी। उनकी कमर में बांसुरी और हाथों में मोर का पंख था।”

चनेवाले के हाथ से कड़ा लेकर उलट-पलट कर देखते हुए रागिनी मानो काठ की हो गई। कड़े पर कंस के राज्य की सील लगी थी। वह एकदम से चीख-सी पड़ी-”यशोधरा देखो।”

“ओह माई गॉड! मैं कहती हूँ न रागिनी, वृंदावन रहस्यों से भरी नगरी है।”

रागिनी की आँखों में अश्रुजल उमड़ आया। सारे संदेह सारी शंकाएँ, सारी पीड़ा आँखों की तलैया में बह गई। मन निर्मल हो आया।

“जो खग हौं तो बसेरो करौं नित कालिंदी कूल कदंब की डारन। “कालिंदी तट के वृक्षों में... कदम्ब के वृक्षों में कृष्ण ही कृष्ण। कृष्णमय ब्रज... इसी ब्रजभूमि में जन्म लेने की कवि की चाह। पर अगला जन्म किसने देखा? क्या पता पक्षी ही बन जाऊँ। हे प्रभो। मुझे कालिंदी के तट पर लगे कदम्ब के वृक्ष का ही पक्षी बनाना मैं वहीं अपना घोंसला बना कर रहूँगा। कदम्ब का वृक्ष कृष्ण का प्रिय वृक्ष था। वे उस पर बैठकर बाँसुरी बजाते थे... ओह! प्रेम का इतना विशाल स्वरूप कि उसे समाने के लिए पूरा ब्रह्मांड, तीनों लोक भी छोटे, अगर इस प्रेम का एक अणु भी रागिनी को मिल पाता जबकि उसने तो डूबकर प्रेम किया था। पर डूब में वह ऐसी डूबी कि जिंदगी की राह में दूजे के लिए जगह ही नहीं बची। पूरी उम्र उसने एकाकी रहकर गुजार दी। सैम ने प्रेम तो क्या खाक किया पर अपनी वासना की कीचड़ तपकर, बुझकर राख बन चुकी है। क्या उस राख से फिर कोई फिनिक्स पैदा होगा? क्या प्रेम के आकाश में पंख पसारेगी रागिनी? प्रेम की ऐसी अवशता में वह सन्नाटों में समाने लगी।”

पंडित गिरिराज गोवर्धन परिक्रमा में स्वयं साथ हैं रागिनी के। रागिनी को जींस, टी-शर्ट और स्पोर्ट्सशूज पहनते देख यशोधरा ने वैसा ही लिबास खुद भी पहन लिया। बिल्कुल कॉलेज की छात्रा लग रही है वह। चेहरे पर कांति और फीकी-सी मुस्कान। कैसे पहाड़-सी उम्र पति के बिना काटेगी यशोधरा... । अभी तो उम्र ही क्या हुई है। रागिनी ने सोचा और लगातार यशोधरा के चेहरे को देखते रहने की यशोधरा द्वारा ही चोरी पकड़ी जाने पर शरमा गई-”अच्छी लग रही हो सखी।”

इस नए संबोधन से यशोधरा खिलखिलाकर हँस पड़ी। “देखो... कितना सुख मिला न तुम्हें सखी सम्बोधन से। कृष्ण भी तो गोपियों को सखी बुलाते थे। सखी में प्यार गहराई से महसूस होता है।”

“इतना प्यार मत करो रागिनी। हफ्ते दस दिन में मैं जम्मू लौट जाऊँगी... फिर न जाने कब मिलना हो।”

रागिनी मुस्कुराई-”प्यार क्या समय सीमाएँ देखकर किया जाता है? कृष्ण ने राधा से, गोपियों से, ग्वालों से असीमित प्यार किया। बहुत जल्दी वे बिछुड़ भी गए सबसे और जिंदगी में फिर कभी नहीं मिले, तो क्या प्यार में कमी आ गई? बल्कि गोपियों को समझाने जब कृष्ण ने ऊधव को वृंदावन भेजा और ऊधव ने उन्हें समझाया कि गोपियों... कृष्ण के विरह में तड़पने से अच्छा है अपना मन कहीं और लगाओ तो गोपियाँ हँसकर उल्टे ऊधव से ही पूछने लगीं... ऊधव, मन न होय दस बीस... कौन-सा मन लगाएँ हम? मन क्या दस बीस होते हैं। एक ही था जो कृष्ण को दे दिया हमने, अब मन है कहाँ हमारे पास?”

यशोधरा अवाक थी... कितना कम जानती है वह अपने धर्मग्रंथों को... । जीवन यूँ ही व्यर्थ बीता जा रहा है मृत्यु का शोक मनाते जबकि जन्मते ही मनुष्य की मृत्यु का दिन निश्चित हो जाता है।

रास्ते में पंडित गिरिराज ने बताया-”मेरा जन्म उसी नक्षत्र में हुआ था था जिसमें भगवान कृष्ण ने गिरिराज गोवर्धन धारण किया था।”

"इसीलिये आपका नाम गिरिराज है।"

“गिरिराजजी की परिक्रमा का अपना अलग महत्व है और परिक्रमा करते हुए रास्ते में पड़ने वाले हर एक स्थल का भी।” रास्ते धूप-छाँव से चित्रित थे। परिक्रमा सुबह शुरू हुई थी। ठंड में वैसे भी पैदल चलना अच्छा लगता है। जैसे-जैसे कोहरे को भेदकर धूप सड़क पर बिखरने लगी किनारे पर लगे वृक्षों की हलकी-हलकी छाया भी पड़नी शुरू हो गई। हवाओं में ठंड की ऋतु में खिले फूलों की सुगंध समाई हुई थी। रास्ते में कई श्रद्धालु झुंड के झुंड हरे कृष्ण का जाप करते परिक्रमा कर रहे थे। रागिनी ने कई जगहों की तस्वीरें खींचीं। हरीतिमा में डूबा वृंदावन अद्भुत लग रहा था।

जैसे-जैसे तीनों आगे बढ़ रहे थे... सड़क पर लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। अब हरे कृष्ण के साथ गिरिराज महाराज की जय-जयकार भी गुंजायमान हो रही थी। बावजूद ठंड के मानसी गंगा में लोग स्नान भी कर रहे थे। पंडित गिरिराज ने डुबकी लगाई और भीगे कपड़ों में ही आकर गंगा मंदिर में जल ढार कर स्तुति की। इच्छा के बावजूद रागिनी और यशोधरा डुबकी नहीं लगा पाईं। दोनों जींस टीशर्ट में थीं और स्नान संभव न था। मंदिर में गंगामैया की काले पत्थर से बनी मूर्ति थी। बड़ी-बड़ी आँखें, सौम्य मुख। मूर्ति के सामने बैठ पंडित ने तीनों को आचमन का जल दिया।

यात्रा फिर आरंभ हुई। पंडित गिरिराज बताने लगे-”मानसी गंगा को भगवान कृष्ण ने अपने मस्तिष्क की शक्ति से प्रगट किया था इसीलिए यह मानसी गंगा कहलाई। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सनातन गोस्वामी प्रतिदिन गोवर्धन की परिक्रमा किया करते थे। लेकिन वृद्धावस्था में परिक्रमा न कर पाने से वे दुखी रहने लगे। एक दिन स्वयं श्रीकृष्ण उनके सामने प्रकट हुए और उन्होंने अपने हाथों से उन्हें गोवर्धन पर्वत की एक शिला दी। शिला पर बाँसुरी, लकुटिया, गाय के खुर और स्वयं श्रीकृष्ण के चरण चिहन अंकित थे। भगवान ने कहा “आप दुखी न हों, इस शिला की प्रतिदिन चार बार परिक्रमा कर लेने भर से गोवर्धन परिक्रमा का पुण्य मिल जाएगा।' वह शिला आज भी वृंदावन के प्राचीनतम राधा दामोदार मंदिर के गर्भगृह में रखी है और पूजन का अंग हो चुकी है। गिरिराज गोवर्धन तो स्वयं साक्षात श्रीकृष्ण हैं और अपने भक्तों के लिए सब कुछ करने को तत्पर हैं। वृंदावन में यह धारणा प्रचलित है कि गोवर्धन परिक्रमा से सारी समस्याएँ हल होकर मार्ग का हर काँटा फूल बन जाता है। इसी भावना के साथ देश के कोने-कोने से लाखों तीर्थ यात्री हर महीने गोवर्धन की परिक्रमा करने आते हैं। आपके मन में कोई समस्या हो तो उसे मन ही मन प्रभु चरणों में अर्पित कर दें। फिर देखिए चमत्कार।”

हाँ है... समस्या है। प्रेमविहीन, एकाकी, नीरस जीवन जीने की मजबूरी ही तो सबसे बड़ी समस्या है। करोड़ों की दौलत, ऐशोआराम के बावजूद मन शांत नहीं। तो यह तय हुआ कि धन-दौलत सब कुछ नहीं। सब कुछ है मन की शांति जो किसी भी दौलत से नहीं खरीदी जा सकती... हे श्रीकृष्ण... यह समस्या तुम्हें अर्पित... क्या छुटकारा दोगे प्रभु, रागिनी ने सोचा और धड़कते दिल को हथेली से दबा लिया। यशोधरा ने मुस्कुराकर उसकी ओर देखा-”रागिनी, मेरी समस्या जगजाहिर है... मैं मन ही मन कैसे सोचूँ?”

पंडित गिरिराज ने यशोधरा के कहे वाक्य सुन लिए-”मन तो पूरा एक संसार है देवी यशोधरा... वहाँ जो कुछ घटित होता है सब चेहरे पर अक्स होता जाता है। तभी तो भगवान भी मन को काबू में रखने का ही उपदेश देते हैं।”

कई पलों तक दोनों शांति से चलती रहीं। मुखारविंद आ चुका था। मुखारविंद आकर ही गोवर्धन परिक्रमा पूर्ण होती है। यहीं पर भगवान ने गोवर्धन पर्व धारण किया था और इन्द्र के कोप से ब्रजवासियों की रक्षा की थी। आज भी राधाजी की कृपा और गोवर्धन के वरदान से ब्रज धनधान्य से, गौओं से पूर्ण है। कृष्ण भक्ति का हर क्षण एक उत्सव के समान है इसलिए हमारे लिए हर दिन एक जैसा है क्योंकि हमारा हर क्षण भक्ति में ही बीतता है। हम उदासी, शोक, बेचैनी आदि विकारों से परे हैं।” कहते हुए गिरिराजजी ने उन्हें बहुत अनुरोध करके एक दुकान से जलपान कराया, स्वयं कुछ नहीं लिया। रागिनी आग्रह करती रही।

पंडित गिरिराज आश्रम लौट गए। आशुतोष बाबू की गाड़ी भी लौटा दी रागिनी ने। वह यशोधरा के संग रिक्शे पर घूमती रही।

“कल कुसुम सरोवर चलोगी सखी? राधा-कृष्ण की प्रणय स्थली।”

“वो कैसी रागिनी?”

“वहाँ सरोवर के तट पर कृष्ण राधाजी को पुष्प भेंट किया करते थे। कभी मन होता तो तट पर बैठकर पुष्पों से उनका श्रृंगार भी करते थे।”

“अच्छा? कितनी भाग्यवान थीं राधिकाजी और मैं कितनी अभागिन। जवानी में ही पति खो बैठी।”

रागिनी ने यशोधरा के कंधे पर हाथ रखा-”नहीं सखी, तुमने पति खोया कहाँ है? वे तो अमर हैं। बलिदानी कभी मरता नहीं... । वो भी ऐसा बलिदानी जो देश के लिए शहीद हुआ हो?”

यशोधरा की आँखें छलक आईं। पर स्वयं को संयत कर उसने आँसू पोंछ डाले-”तुम्हारे सामने मैं परम अज्ञानी हूँ रागिनी, तुम कितना कुछ जानती हो।”

“कुछ भी तो नहीं... अधकचरा ज्ञान है मेरा। मन करता है यहीं बस जाऊँ तो कुछ सीख सकूँ। स्वामीजी के प्रवचन तो ज्ञान का भंडार हैं।”

“मगर मुझे लौटना होगा। वहाँ जम्मू में मेरे पति का परिवार है। माँ, बहन, भाई... पति के बाद मेरा भी तो फर्ज बनता है न रागिनी, उनकी देखभाल का।”

रागिनी का दिल मानो थम-सा गया। संबंधों के इतने प्रगाढ़ बंधन। उसके देश में जो जीते जी कोई किसी को नहीं पूछता, यहाँ मरने के बाद भी? पैसों की चमक और लिप्सा में डूबे अपने देश की समृद्धि पर गर्व होना चाहिए था रागिनी को। साम्राज्य विस्तार इतना तो पूरे विश्व में किसी ने नहीं किया होगा... लेकिन कमी रह गई। प्रेम और साधना के अमूल्य धन की कमी रह गई रागिनी के देश में... । आज सब कुछ होते हुए भी भारत के सामने निर्धन हो गया उसका देश और प्रेमधन कुपात्र पर लुटाकर कंगाल हो गई रागिनी... कौन है उसका वहाँ... कोई भी तो नहीं सिवाय असीमित धन के? क्या दिया उसके देश ने उसे... कुछ भी तो नहीं... .और विडंबना तो देखो कि उसे पाल-पोसकर बड़ा करने वाले जॉर्ज और दीना भी भारतीय ही थे, वरना उसने न तो टॉम ब्लेयर का परिवार जाना न डायना का... और इस न मिलने वाले अपनत्व और प्यार की ऊष्मा की ढाल ही उसका अभेद्य कवच बन गई है। अब वह जिंदगी के हर मोड़ का, हर सदमे का वार झेल सकती है। अकेले, बिना किसी भावुक सहारे के... सब कुछ कृष्णार्पण।

यमुना किनारे कदंब के वृक्ष से टिकी बैठी है रागिनी। यशोधरा आश्रम में ही है, कह रही थी कि आराम करेगी। स्वामीजी जगन्नाथपुरी गए हैं। जब से वह वृंदावन आई है स्वामीजी के प्रवचनों से उसके मन को अपूर्व शांति मिली है। राधाकृष्ण के नित नए रहस्य खोलते हैं स्वामीजी... मन आनंद की गंगा में डूब-डूब जाता है। ऐसा अनुभव तो कभी नहीं किया रागिनी ने। अब एकाकीपन खलता नहीं बल्कि चिंतन के द्वार खोलता है। यमुना तट पर बैठे हुए यमुना की लहरों को गिनती हुई रागिनी उसी चिंतन में डूबी है। बरसाने गाँव से आती थीं राधारानी अपने कृष्ण से मिलने। कैसे आती होंगी वे? रागिनी ने हरियाली के महासमुद्र में खपरैल के छप्पर वाले मकान देखे... तट के उस पार... तब तो कोई पुल भी न रहा होगा। यमुना का अथाह जल क्या स्वंय मार्ग देता था उन्हें या वे तैरकर आती थीं? यमुना के कपूर से चमकते बालू तट पर तमाल ओर कदम्ब के वृक्षों की घनी छाँव में प्रेमातुर कृष्ण की बाहों में समा गई राधा... कृष्ण के रस भरे होठों के ऊपर राधा की नथ का मोती थरथरा गया। तमाल वृक्ष हवा के झौंके में लहरा उठे-”रस रंग भिरै अभिरै हैं तमाल दोऊ रस ख्याल चहै लहरैं... “ कि तभी बाँसुरी राधा की क्षीण कटि में चुभ गई... राधा ने बाँसुरी छुपा ली। कृष्ण मनुहार करने लगे-”दे दो न बाँसुरी... राधे... ।”

हवा में लहराती तमाल वृक्ष की टहनियो में कृष्ण का फहराता पीतांबर और राधा की चुनरी एकमेक हो गई। चोटी में गुँथी कुंद की कलियाँ बिखर गईं। कृष्ण राधा के चरण कमल को गोद में रखकर सहलाने लगे... राधा ने सिहर कर आँखें मूँद लीं।

“अब तो दे दो प्रिय... ।”

राधा मान से भर उठीं-”तय कर लो कन्हैया, तुम्हारे होठों पर बाँसुरी सजेगी या मेरे आतुर होठ।”

हार गए कृष्ण... हार गया बालू तट... तमाल वृक्ष... सारा का सार प्रेम ही हार गया। प्रेम का हर कतरा पुकार उठा... राधे... राधे।

“रागिनी, तुम यहाँ बैठी हो?”

रागिनी चौंक पड़ी... प्रेम सागर में गोते लगाता उसका मन ज्यों तट पर छिटक गया हो... ।

“मिस किया तुमने। आचार्य अखंडानंद के साथ छिड़ी लंबी बहस को। जड़ को चेतन बना देने की शक्ति है उनके शब्दों में।”

यशोधरा पास ही बैठ गई। उसके हाथों में खुरचन का दोना और आरती का महाप्रसाद था। उसने दोना रागिनी को दे दिया-”लो खाओ, बहुत सौंधी है खुरचन।”

“यशोधरा, क्या तुम भी देख रही हो बरसाने से आती राधा को, कृष्णमय राधा को? ब्रज की गोपियों को... जो कृष्ण की बेसुध कर देने वाली बाँसुरी की धुन पर दौड़ी आ रही हैं? क्या तुम भी उन लताओं को देख रही हो जो अपने प्रियतम वृक्ष के आलिंगन में तो हैं लेकिन थरथरा इसलिए रही हैं क्योंकि उनके पत्तों, डालियों को कृष्ण के नखों ने छुआ है। देखो यशोधरा... देखती हो न तुम?”

यशोधरा चकित हो रागिनी को निहारने लगी-"क्या हो गया है रागिनी को... कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही है।"

“यशोधरा... क्या तुमने रसखान को पढ़ा है? अपनी थीसिस के दौरान जब मैं उन्हें पढ़ रही थी तो सच कहती हूँ मेरा मन वृंदावन की गलियों में भटक रहा था। वह बाँसुरी की धुनि कानि परे कुलकानि हियो तजि भाजति है। कृष्ण की बाँसुरी की ध्वनि कानों में पड़ते ही गोपियाँ कुल की मर्यादा का त्याग कर कृष्ण की ओर दौड़ती थीं। देखो, मैं भी तो दौड़ी आई हूँ लंदन से यहाँ तक।”

यशोधरा समझ नही पाई रागिनी के मन को। उसने उसके हाथ थाम लिए-”चलो रागिनी, चलते हैं... नहीं तो रिक्शा नहीं मिलेगा।”

कहते हुए यशोधरा रागिनी को बलपूर्वक सड़क तक खींच लाई। पास ही एक रिक्शा खड़ा था जिस पर बैठा रिक्शेवाला आराम से बीड़ी फूँक रहा था।

“गीता आश्रम चलोगे?”

वह रिक्शे को दोनों के नजदीक ले आया। पहले रागिनी बैठी फिर यशोधरा। रागिनी को रिक्शे पर बैठना किसी थ्रिल से कम न लगता था। रिक्शा धीरे-धीरे तेजी पकड़ने लगा। रिक्शे के हैंडल पर लगे रुनझुनाते घुँघरुओं में मानो गोपियों के पैर आन बसे।