ट्रेन, बस और लड़की / रणविजय
“ट्रेन, बस और लड़की, एक जाती है तो दूसरी आती है, उसके लिए इतना टेंशन मत ले यार।” इस मजाकिये यथार्थ से प्रांजल ने माहौल को हल्का करने की कोशिश की। राजेश के चेहरे पर थोड़ी मुस्कान तो आयी परंतु विषाद कम न हुआ। घाव गहरा था परंतु ऊपर से दिखता न था। मैंने महसूस किया कि राजेश कहीं और अटका देख रहा था। हम लोग उसके साथ तो थे पर वह हमारे साथ न था। ऐसा दूसरी बार हो गया था। पहली बार तब हुआ, जब हम इंजीनियरिंग पढ़ रहे थे।
राजेश, मैं और प्रांजल बहुत अच्छे दोस्त थे। प्रांजल टशनी लड़का था। वह हमेशा मस्त रहता था। उसमें घूमने, टहलने आदि के लिए ज़रा भी आलस्य न था। कॉलेज के दिनों से ही प्रांजल पक्षियों की तरह उड़ता रहा है। इस उड़ान में उसने हमेशा राजेश को सहयोगी बना रखा है। राजेश भी प्रांजल के साथ चुम्बक के साउथ पोल, नॉर्थ पोल की तरह हो गया है। राजेश ग़म्भीर व्यक्तित्व का था। वह हम दोनों से उम्र में भी बड़ा था। घनी मूँछें, लम्बा शरीर और आँखों पर मोटा चश्मा लगा था। उसकी उपस्थिति से हमेशा एक मेच्योर कम्पनी का आभास रहता था। हम लोग बाज़ार में कपड़े वगैरह खरीदने जाते थे, तो दुकानदार हमेशा उसी से बात करते थे, जैसे वह हमारा गार्जियन हो। वह हमेशा शांत रहता था, जबकि हम लोग दुकानदार से ज़्यादा बहस किया करते थे। वह कोमल हृदय प्राणी था। वह हमारी हर बात मानता था, अलबत्ता हम लोग उसे कभी-कभी टाल दिया करते थे। जाड़ा, गर्मी, बरसात, दिन या रात, किसी भी वक़्त जब भी हमने जहाँ निकल चलने को कहा, राजेश ने ना नहीं किया।
थर्ड ईयर तक आते-आते हम लोग हमेशा एक साथ दिखने वाली तिकड़ी हो गये थे। प्रांजल स्वभाव से उन्मुक्त रहता था परंतु पढ़ाई में भी होशियार था। रागिनी शर्मा से उसकी अच्छी बन रही थी। प्रांजल के अनुसार रागिनी उससे चिपक रही थी, परंतु वह उसको उतना भाव नहीं देता था। यही शायद विधि का विधान है, जो बिन चाहे मिल जाये, वह तुच्छ है, जो मेहनत से मिले वह मूल्यवान है और जो मिल ही न सके वह अमूल्य है। रागिनी परी तो नहीं थी पर बुरी भी नहीं थी। हम लोग प्रांजल को इस विभाग में ईर्ष्या से देखते थे, परंतु हमको मालूम था कि हममें उतनी क़ाबिलियत और हिम्मत नहीं है। हम प्रांजल जितने स्मार्ट नहीं हैं।
राजेश के मन में क्या है कभी पता नहीं चलता था। क्योंकि आमतौर पर वह हमारे हर शगल में हमारा साथ निभा रहा होता था। उसकी अपनी इच्छा क्या है? इस बात को महत्त्वहीन जैसी श्रेणी में रखकर कभी जानने की कोशिश नहीं की गयी। न ही उसने अपनी तरफ़ से कभी कोई हिंट दिया। ये लगभग रोज़ का ही रूटीन था कि रात का खाना मेस में खाने के बाद राजेश के कमरे में ही बैठना होता था। हॉस्टल में सिंगल सीटेड कमरे थे। कमरा लगभग 10X10 फीट का था। एक तरफ़ एक चेयर, एक टेबल तथा एक लकड़ी की अलमारी- यही कुल सम्पदा थी हॉस्टल के कमरे की। बाहर एक छोटी बालकनी भी थी, क्योंकि यह कमरा पहली मंज़िल पर था।
ऐसे ही एक रात खाना कमरे पर मँगा लिया गया था। उस दिन शनिवार था। रविवार सेलिब्रेट हो रहा था। रात के 1 बजे जब टेप-रिकॉर्डर पर फ़िल्म ‘दीवाना’ के गाने सुने-सुनाये जा रहे थे, हाथों में सिगरेट का सहारा था, दो-दो पैग पिये जा चुके थे, तब राजेश को प्रांजल ने छेड़ना शुरू कर दिया। राजेश को कुरेदा गया कि उसके दिल में भी कोई भावना जगती है या नहीं? या हमेशा हम लोगों का चाचा ही बना रहेगा। कोई तो बैचमेट, सीनियर या जूनियर लड़की उसको भी तो पसंद होगी जिसका वह ‘दीवाना’ बनना चाहेगा। इस ललकार का जवाब राजेश ने वीरता से दिया। उसने नाम लिया, सुनिधि। ‘सुनिधि श्रीवास्तव’ नाम सुनकर हमें घनघोर आश्चर्य हुआ। पर यह हँसी उड़ाने का विषय नहीं था, इसलिए मुस्कराकर रह गये।
सुनिधि भी एक लड़की थी, जो हमारे ही बैच की थी। परंतु कम्प्यूटर साइंस में थी। साँवली-सी, दुबली-सी, मुँह उतरा सा, ढलते हुए दिन की तरह थी वह, जिसको कभी किसी ने नोटिस नहीं किया, परंतु राजेश ने उसमें क्या देखा?
अगले दिन मैं और प्रांजल लाइब्रेरी में जाकर सुनिधि के सामने बैठ गये। दोनों ने उसको ग़ौर से देखा... परखा। जब उठकर बाहर आये तो इस बात पर एकमत थे कि राजेश की पसंद बढ़िया है, उसकी नज़र बहुत पारखी है। वास्तविकता में सुनिधि की शक्ल-सूरत साँवली थी, पर गोल चेहरा, बड़ी आँखें, लम्बा, पतला, सुंदर, सुडौल शरीर था। बस वह हमेशा सिर झुकाये-सी रहती थी, बालों में तेल लगाये, जूड़ा बनाये रहती थी। उसका चेहरा हमेशा उतरा-सा रहता था। जैसे खिले हुए दिन में सूरज की अच्छी चमक होती है, शरारती हवाओं की अठखेलियाँ होती हैं, एक ख़ुशनुमा अहसास होता है, उसको देखकर लगता था जैसे कि यह सब उसकी ज़िन्दगी से ग़ायब हैं। परंतु इस सबके होने की सम्भावनाएँ थीं, आवश्यकता थी तो सोयी भावनाओं को जागृत करने की और दिन के खिलने का इंतज़ार करने की।
प्रांजल ने इस प्रोजेक्ट को अपने हाथों में लिया। उसने रागिनी को लिफ्ट देना शुरू किया और दो-तीन महीनों में रागिनी-प्रांजल के नाम की बयार पूरे इंजीनियरिंग कॉलेज में बह गयी। इधर कुछ दिनों से सुनिधि में भी सुन्दर बदलाव आ रहे थे। उसके बाल अब कभी-कभी हवा में लहराते भी दिखते थे। होठों पर कोई गीत चढ़ा-सा रहता था। रागिनी को प्रांजल ने इस काम पर लगाया था। रागिनी बातों-ही-बातों में प्रांजल के दोस्तों की चर्चा सुनिधि से करती थी। सुनिधि को भी प्यार की चुहलबाजियाँ सुनने में मज़ा आता था। बिना सीधा आक्रमण किये, रागिनी सेनापति के अन्य सहयोगियों की भी चर्चा करती थी। इस चर्चा में राजेश का नाम बड़े ही ज़िम्मेदार होनहार लड़के की तरह लिया जाता था और सच-झूठ मिलाकर कोई-न-कोई अच्छी बात उसके बारे में बताई जाती थी।
राजेश गर्ग की तारीफ़ों में लम्बे-लम्बे कसीदे सुनाये गये तथा यह अहसास कराया गया कि राजेश से जिम्मेदार, स्मार्ट लड़का दूसरा हो नहीं सकता। प्रांजल ने रागिनी को बताया कि प्यार उससे करना चाहिए जो आप पर मरता हो और राजेश तो सुनिधि पर न्योछावर है। यह बात रागिनी ने सुनिधि को ख़ुशबुओं के साथ परोस दिया जिससे असर गहरा रहे। इधर राजेश की भावनाओं को भी पंख लगने लगे। अब दिन-भर, मैं, राजेश के साथ सुनिधि के दर्शन के लिए सड़कों, बाज़ार ों, लाइब्रेरी, गर्ल्स हॉस्टल के चक्कर काटता रहता। अनायास ही गर्ल्स हॉस्टल के सामने से गुजरते, बिना पढ़ाई किये लाइब्रेरी में घंटों बैठे रहते। क्लास में ऐसी जगह बैठते जहाँ से बरामदे में सभी गुजरने वाले दिखाई देते। खाली पीरियड में उसके क्लास के सामने से बार-बार निकलते तथा उसको देखते हुए जाते। प्रांजल ने पक्का वादा जो किया था।
कुछ दिनों बाद पता चला कि समीर, सुनिधि के सुखद रूपांतर का कारण है। समीर पाठक ने सुनिधि को स्वयं प्रपोज किया है। यह बात रागिनी के काफ़ी कुरेदने के बाद सुनिधि ने बताया। समीर लम्बा, स्मार्ट-सा लड़का था। समीर और सुनिधि क्लासमेट थे, एक ही ब्रांच के थे। सुनिधि ने भी मूक सहमति दे दी है और अब दोनों कभी-कभी साथ देखे जा सकते हैं। उनका यह साथ दिखना किसी बैचमेट के साथ दिखने से ज़्यादा था।
इस तरह राजेश के प्रथम प्यार की बलि चढ़ी। राजेश को यह सदमा मैंने ही दिया। उसको आहिस्ता-आहिस्ता समझाया गया कि यदि थोड़ी देर न हुई होती तो बात बन सकती थी। क्योंकि अब सुनिधि-समीर की जोड़ी बन गयी है तो इसको छोड़ दूसरी को देखा जाये। राजेश हमेशा की तरह ही ग़म्भीर बना रहा। जिसका अर्थ निकालना दुरूह था। सम्भवतः जितनी मालूम हुई उससे ज़्यादा ही गहरी थी यह चोट।
दो वर्ष बाद, अब दुबारा दुर्घटना हो गयी। हम लोग इंजीनियरिंग करने के पश्चात् दिल्ली आ गये। दिल्ली में मुनिरका के पास एक-दो कमरे का किचन, अटैच्ड बाथरूम सेट लिया गया। यह पहली मंज़िल पर था। पीछे का दरवाज़ा एक बालकनी में खुलता था। पतली-सी बालकनी जिसके ठीक नीचे, बड़े शहरों की छोटी तंग गली गुजर रही थी। सुबह-शाम अक्सर हम लोग जब बोर होते थे, यहाँ खड़े होकर हर गुजरने वाले को निहारते थे। उनके क्रिया-कलापों से ही मनोरंजन हो जाया करता था। प्रांजल नौकरी करने लगा था। मैं, राजेश और अभिषेक सिविल सर्विसेज (आईएएस) की तैयारी करते थे। राजेश अक्सर बालकनी में कुर्सी लगाकर पढ़ता था, जबकि हम लोग कमरे में पढ़ते थे। कई महीनों बाद पता चला कि दो बिल्डिंग छोड़कर सामने की तरफ़ तीसरी बिल्डिंग के इसी फ्लोर पर एक लड़की भी अक्सर बालकनी में बैठी रहती है। शुरू में यह एक कोइंसीडेंस लगा, परन्तु धीरे-धीरे मामला गहराता चला गया। राजेश के कोमल दिल पर फ़िर से भावनाओं का हमला हो गया। दोनों किताबें खोलकर बैठे रहते और घंटों एक-दूसरे को देखते रहते। मैंने जब यह देखा तो राजेश को समझाया-
“बेटा, आशनाई के चक्कर में पड़कर समय न बर्बाद करो, कुछ बनोगे तो इन सबके लिए भी बड़ा समय मिलेगा।”
प्रांजल और अभिषेक ने भी अपने-अपने तरीके से समझाया। प्रांजल ने धमकी भी दी कि तू यही करेगा तो हम लोग दूसरा कमरा किराये पर ले लेंगे, इस कमरे को छोड़ देंगे। धमकी का असर यह हुआ कि राजेश ने बालकनी में बैठना छोड़ दिया। परंतु हर थोड़ी देर बाद पानी का गिलास उठाकर, चाय लेकर या यूँ ही ब्रेक के नाम पर वह बालकनी आता-जाता रहा। वह जब भी जाता तो वह लडकी उसको वहाँ बैठी मिलती, काफ़ी मासूम-सी, कुछ नाराज-सी। फ़िर वह बालकनी में काफ़ी देर खड़ा रहता मौन... दृष्टि बिद्ध। कुछ दिन के बाद हम लोगों की परवाह न कर उसने फ़िर बालकनी में बैठना शुरू कर दिया। पहले तो हम लोगों ने नजरअंदाज किया, लेकिन फ़िर महसूस हुआ कि प्रसंग कुछ सीरियस है। क्योंकि हमने लड़की को इशारे करते हुए देखा। राजेश की हरकतों पर उसको हँसते और मुस्कराते हुए देखा।
फिर भी अभी दूर-दूर की ही बात थी, जैसे लग्गी से पानी पिलाना। दोनों मिले तो थे नहीं। इसलिए ऐसा लगता था पता नहीं पास से एक-दूसरे को देखेंगे तो कैसी प्रतिक्रिया करेंगे? दोनों बिल्डिंग में लगभग 50 मीटर की दूरी तो ज़रूर रही होगी। प्रांजल अभी भी विरोध करता रहा। उसने कहा-
“यार पढ़ाई करने आया है, पढ़ाई कर। इन सब चीजों की उम्र लम्बी नहीं होती। देख न मुझे और रागिनी को, जगह बदली और प्यार बदल गया। अब तो शायद उसकी शादी भी हो गयी। वह लंदन में है आजकल। ऐसा ही तेरे साथ भी होगा, क्योंकि तेरी जगह भी बदलेगी तो ये छोटी-सी मुहब्बत भूल जायेगा।”
राजेश मोटे-मोटे चश्मे के शीशे के अंदर से उसे दृढ़ता से देखता रहा और उसकी बात ख़त्म होने पर अपने मूँछ भरे चेहरे से उसने हल्की मुस्कान दे दी। उसने मगर कुछ कहा नहीं। उसे इस बार प्रबल विश्वास था, आख़िर उसको संकेत जो कई सारे मिले थे।
मैंने और अभिषेक ने राजेश का साथ देने का निश्चय किया। अब समस्या थी कि बात कैसे हो? प्यार की स्वीकारोक्ति दोनों तरफ़ से कैसे हो? ये तय किया गया कि फ़ोन करके बातचीत की जाये। फ़ोन करने के लिए फ़ोन नम्बर तलाशना एक मुश्किल प्रोजेक्ट था। हमने एमटीएनएल में इन्क्वायरी में जुगत लगाकर ट्राई किया। मैंने और अभिषेक ने टेलीफोन इन्क्वायरी से बिल्डिंग का पता बताकर फ़ोन नम्बर पूछा। हमने बहाना बनाया कि हमारा दोस्त वहाँ रहता है, उसका फ़ोन नम्बर मिस हो गया है। इस तरह से एमटीएनएल से उसका फ़ोन नम्बर पता लगा लिया गया। उसकी मम्मी उसका नाम जोर-जोर से पुकारती थी इसलिए हमें उसका नाम भी पता था सोनल। नाम बड़ा सुंदर था, दूर से वह भी ठीक-ठीक दिखती थी।
राजेश की हिम्मत न हुई, फ़ोन पर बात करने की। यह काम भी अभिषेक ने अपने जिम्मे लिया। अभिषेक के साथ हम लोग 5 किलोमीटर दूर सरोजनी नगर गये। जिससे हमारे ऊपर कोई शक न कर सके। क्योंकि उसी मुहल्ले में रहकर वहाँ का पीसीओ इस्तेमाल करने में बड़ा ख़तरा था। तीनों व्यक्ति डरते-डरते आशा और उम्मीद से पीसीओ बूथ में घुसे। अभिषेक ने राजेश से कहा- “चलो, लगाओ फोन।” पर राजेश की साँसें अटकी थीं, गला सूख रहा था। उसने फ़ोन पर अभिषेक से ही बात करने को कहा। उसको अभी भी डर लग रहा था। अभिषेक ने फ़ोन मिलाया। तीनों लोग फ़ोन से चिपक गये। फ़ोन किसी महिला ने उठाया। अभिषेक ने कहा- “मैं सोनल का दोस्त बोल रहा हूँ, सरोजनी नगर से। उससे बात करनी है।” महिला ने बड़े कड़क स्वर में बताया कि यहाँ कोई सोनल नहीं रहती। इस पर अभिषेक ने कन्फर्म किया कि यह नम्बर 24437751 ही है और पी.के. शर्मा के घर ही फ़ोन लगा है। महिला ने बताया कि नम्बर तो सही है। पर यहाँ कोई पी.के. शर्मा नहीं रहते। अभिषेक ने जल्दी से सॉरी बोला और फ़ोन काट दिया।
सॉरी सुनकर हमारे मुँह लटक गये। सारा ब्योरा सुनकर हम लोग निराश हो वापस आ गये। रास्ते-भर यही विचार करते रहे कि अब हमारे पास क्या चारा है? अगर यह बात कहने हम उसके घर जायें तो कुछ ऊँच-नीच हो सकती है, क्योंकि हम वहाँ प्रवासी हैं, किरायेदार हैं, ऊँच-नीच होने पर मोहल्ले के लोग एकजुट होकर बहुत पीटेंगे। चिट्ठी लिखकर डालने में भी यही ख़तरा था तथा चिट फेंकने में भी यही ख़तरा था। कुछ बात सुलझती प्रतीत नहीं हो रही थी।
इन्हीं दिनों लड़की के घरवालों ने अड़ोसियों-पड़ोसियों के साथ रात के खाने के बाद पास के पार्क में टहलना शुरू किया। रात में, पार्क में पर्याप्त रोशनी रहती थी तथा ढेर सारे लोग उसमें टहलने जाया करते थे। पार्क लगभग एक किलोमीटर लम्बा था। इसलिए अच्छा-खासा समय निकल जाता था। आज हम लोग भी निश्चय के साथ उतर गये। मैं और राजेश डरते-डरते आगे बढ़े।
कई महिलाएँ एक साथ बातें करती हुई चल रही थीं। दो-दो, तीन-तीन कर समवयस्क लड़कियाँ इनके आगे-आगे इठलाते, चहचहाते हुए भाग रही थीं। ऐसे ही दो के एक ग्रुप में सोनल भी चल रही थी। हम लोग, हिम्मत का दामन पकड़कर, महिलाओं को क्रॉस करके इनके ठीक पीछे आ गये। सोनल ने नोटिस किया कि हम लोग उसके ठीक पीछे आ रहे हैं। उसकी चाल पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। मैंने राजेश को उकसाया कि आज तुझे दिल की बात कहनी है। राजेश घबराया हुआ था, उसका गला पुन: सूख रहा था और ऐसा लग रहा था कि वह पहला मौका मिलते ही भाग जाना चाहता है। बात तसल्ली से तथा बिना किसी ख़तरे के कहने का माहौल बनते दिख नहीं रहा था।
साथ में लाया हुआ काग़ज़ की चिट- जिस पर नाम के साथ ‘आई लव यू’ लिखा था, उसको भी देने का मौका नहीं मिल रहा था। अचानक सोनल के साथ चलने वाली लड़की रुक गयी और रुककर पीछे अपनी मम्मी को देखने लगी। सोनल ने उसको खींचा, पर वह रुकी रही। सोनल आगे बढ़ गयी। अब वह अकेली थी। हमारा दिल उछल-उछलकर गले में अटक जा रहा था। दिल की धड़कन बुलेट ट्रेन की तरह दौड़ रही थी। फेफड़ों में साँस रह-रहकर गहरी लेनी पड़ती थी जैसे आज उसकी क्षमता अचानक कम हो गयी हो। आवाज़ निकल नहीं रही थी। फ़िर भी आगे बढ़कर मैं और राजेश, उसके बराबर में आ गये। इस जगह पर एक विशाल पेड़ की छाया थी, इसलिए चाँदनी रात होते हुए भी यहाँ आगे-पीछे से थोड़ा कम दिखता था। पार्क में इस वक़्त इतनी जनता घूमती थी कि कोई ऐसी-वैसी वारदात होने की आशंका नहीं थी, इसलिए लोग बेफिक्र घूमते थे। मैंने राजेश को कोहनी मारी। आँखों-आँखों में इशारा किया, अब नहीं तो कभी नहीं, आज इस पार या उस पार। राजेश ने थोड़ा सहमते हुए बोला- “सोनल... आई लव यू।”
आवाज क्षीण थी, पर जिसके लिए थी, उसको सुनाई पड़ गयी थी। हमारे पैरों में जैसे किसी ने विमान लगा दिये हों, एकदम से भागने के लिए तत्पर। कहने के साथ राजेश ने अपने हाथ से उसके हाथ में चिट देने की कोशिश की। इस पर लड़की तीखे स्वर में धीमे से बोली-
“मैं तो आपको जानती नहीं, आप चले जाइये वरना... मैं अपनी मम्मी को बुला दूँगी।”
यह सुना तो ऐसा लगा जैसे बिजली गिर गयी हो। सोनल ने अपने आगे चलने वाली लड़कियों को आवाज़ लगायी-
“रुको...”
यह सुनते ही हमने अपनी चाल तेज कर दी और ख़ामोशी से तिरछा कटकर, जाकर पार्क के अंदर घास में घुसकर बैठ गये। न मैं कुछ बोला, न राजेश। थोड़ी देर तक तो यह देखते रहे कि कहीं कुछ तूफान न आ जाये। परंतु ऐसा कुछ न हुआ। एक घंटा यूँ ही शांत बैठने, आकाश निहारने और अनहोनी का इंतज़ार करने के बाद मैं और राजेश रात 10 बजे वापस कमरे पर आये। राजेश को ग्लानि हो रही थी। जिन दोस्तों की बात नहीं मानी, आज वे क्या कहेंगे? प्रांजल ने सहानुभूतिपूर्वक राजेश को गुदगुदाने की कोशिश की। परंतु राजेश कटा-कटा बैठा रहा। आज फ़िर बिना आवाज़ के दिल टूट गया और सीने में ज्वालामुखी फट गया।
इस बात को जब दो-चार महीने हो गये तो मालूम चला कि उसके घरवाले उसकी शादी नहीं कर पा रहे हैं। वह दिखने में छोटी लगती है परंतु है वह 28 साल की। उसको इस बात का मलाल रहता है कि वह इतनी आकर्षक है फ़िर भी क्यों उसके साथ ऐसा हो रहा है? इसी बात को परखने तथा अपने को दिलासा देने के लिए अपने घर की बालकनी से, छत से लड़कों को मोहजाल में फँसाती है। वह आत्ममुग्ध थी। इस सनक को बढ़ाने के लिए बालकनी से नए-नए लड़कों को चारा डालती थी।
प्रांजल की नयी गर्लफ्रेंड आ चुकी है। अभिषेक की भी बातचीत लायक कामचलाऊ दोस्त है। मैं हमेशा की तरह तटस्थ देख रहा हूँ। राजेश पूरी निष्ठा-मेहनत के साथ तथा बिना किसी भटकाव के अब पढ़ाई कर रहा है, परंतु यह मुझे भली-भाँति पता है, इसने जो दरवाज़ा बंद किया है, उस पर जैसे ही फ़िर कोमल दस्तक पड़ेगी, इसके जीवन में फ़िर तूफान आयेगा। अटल सत्य अपनी जगह बरकरार है- “ट्रेन, बस और लड़की... एक जाती है, दूसरी आती है।”
