ठीक आदम कद: भवानी प्रसाद मिश्र / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'

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राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी ने कहा था-'मेरे लिए यह कहना कठिन है कि उनका (मिश्रजी) का कवित्व ऊँचा है या व्यक्तित्व।' कवित्व और जीवन को एक जैसे जीने वाले भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म 29 मार्च 1913 को होशंगाबाद जिले के टिगरिया नामक ग्राम में हुआ था। एक पाठशाला खोलकर उन्होंने कर्मक्षेत्र में प्रवेश किया। गांधीजी से प्रभावित हुए तो 'भारत छोड़ो' आन्दोलन में भाग लिया जिसके कारण दो साल आठ महीने का कारावास भोगना पड़ा। 1946-50 तक महिलाश्रम, वर्धा में शिक्षक रहे। 1950-51 में बर्ध राष्ट्रभाषा प्रचार समिति में कार्य किया। 52-55 तक हैदराबाद की मासिक पत्रिका 'कल्पना' का सम्पादन किया। 56-58 तक दिल्ली एवं बम्बई आकाशवाणी में हिन्दी कार्यक्रमों का संचालन किया। 1958-72 तक सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय का सम्पादन किया। 'बनी हुई रस्सी' पर इन्हें 1972 का साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया।

कठिन से कठिन बात को सहजता से कहा जाना, भारी कष्ट को मुस्कुराकर सहज रूप से सह लेना भवानी जी की विशेषता रही। संभवत: इसी सहजता के कारण भवानी बाबू को उतनी स्वीकृति नहीं मिली जितनी इनके समकालीन दुर्बोध कवियों को मिली। इन्होंने कविता को अनुभव की अभिव्यक्ति मात्र नहीं माना। इनके विचार में कविता-"अनुभव की अभिव्यक्ति का प्रयत्न न होकर अनुभव करने की प्रक्रिया है।" मिश्रजी की यह अनुभव करने की प्रक्रिया भी सहज एवं सरल है। जीवन के खट्ठे-मीठे, उतार-चढ़ाव वाले सभी अनुभवों को इन्होंने अपने काव्य में मूर्तरूप दिया है। इनकी यह काव्य-यात्रा 'दूसरा सप्तक' से लेकर गीत फरोश, चकित है दुख, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, व्यक्तिगत, इंद न मम, गांधी पंचशती, त्रिकालसंध्या, अँधेरी कविताएँ आदि पड़ावों से होती हुई 'विभिन्न दृष्टियों में बात करती, कभी चिन्तनशील तो कभी भाव-विभोर होती हुई आगे बढ़ती रही है। वे अन्य कवियों से ही नहीं वरन् अलग-अलग कृतियों में स्वयं की रचनाओं से भी अन्तर बनाकर चले हैं इनकी सहजता में इनसे जो अभिव्यक्त कराया वही इनका काव्य और व्यक्तित्व बन गया।' बनी हुई रस्सी'के प्राक्कथन' अपनी ओर से' में इन्होंने कहा-"में कविता नहीं लिखता, कविता मुझको लिखती है।" इस प्रकार कवि का समूचा व्यक्तित्व शब्दों में ध्वनित होने लगता है। मन: स्थिति विशेष कवि के लिये कभी बाधक नहीं रही समय का अभाव भले ही रहा हो। वे हर समय स्वयं को कविता लिखने के लिये तैयार पाते थे। "जितना छू जाता है। उतना कर देता हूं" कि ईमानदारी एवं साफगोई उन्हें आधुनिक कबीर के रूप में प्रस्तुत कर देती है।

कोई अलौकिक बात कहने की सनक उन्हें कभी नहीं रही; क्योंकि इस अलौकिक से लोक का कौन-सा हित साधन हो सकेगा? गूढ़ बात कहने वाले लोग अपनी उलझी हुई अभिव्यक्ति के जाल में लोगों को उलझाकर दिग्भ्रमित कर सकते हैं, अपनी बात उनको सम्प्रेषित नहीं कर पाते। जो लोकोपयोगी रचना नहीं कर पाते, वे भटकाव की स्थिति में कुछ अलौकिक ज़रूर रचते हैं-

" मगर न इस तरह

न लोक बचता है।

न वे बचते है। "

वास्तविक कला वही है जो सत्य के अनुरूप हो और जीवन को उठाने वाली हो। कविता को जीवन से अलग नहीं किया जा सकता। इस विश्वास को मिश्रजी ने अपनी कविता में व्यक्त किया है-

" कविता को धका दिया मेंने

जिन्दगी के रेले में। " (व्यक्तिगत)

भवानी बाबू सामान्य होकर भी विशेष थे। साधारण होकर भी असाधारण थे। जीवन में कुछ और कविता में कुछ इस तरह के आचरण का उन्होंने समर्थन नहीं किया। कविता को ज़िन्दगी के रेले में धकेल देने के पीछे उनका ही जीवन-दर्शन है। काव्य उनके व्यक्तित्व का अविभाज्य अंग है। चालाकी न उनके जीवन में रही और न काव्य में:-

" चतुर मुझे कुछ भी कभी नहीं भाया

न औरत, न आदमी, न कविता

सामान्य को सदा

असामान्य मानकर छाती से लगाया

और उसी के बल पर

बड़े से बड़े दु:ख को

त्योहार की तरह मनाया। "

(अँधेरी कविताएँ)

कवि ने सुख का जश्न नहीं मनाया, दर्द का रोना नहीं रोया। जीवन की एकरसता कवि को कभी भाई ही नहीं है। दु: ख को त्यौहार की तरह मनाने वाले को एकरसता भाती भी तो कैसे?

" तुम जाओ

या भेजो कोई बड़ा दर्द

ऐसा निरानन्द सुख, दु: ख से अछूता जीवन

नहीं चाहिए. " (चकित है दु:ख)

अपने जीवन के सुख-दु:ख को भी उन्होंने सहजता से लिया-

" जिन्दगी में कोई बड़ा सुख नहीं है

इस बात का मुझे बड़ा दु:ख नहीं है

क्योंकि मैं छोटा आदमी हूँ,

बड़े सुख आ जाएँ घर में।

तो कोई ऐसा कमरा नहीं।

जिसमें उन्हें टिका सकूँ। "

अभिव्यक्ति की सरलता के लिए मिश्रजी ने भाषा बोलचाल के करीब रखी। अपनी 'कवि से' नामक कविता में इस सहजता की पुष्टि भी कर दी है। बोलचाल की भाषा भी जनसाधारण तक पहुँच सकती है-"जिस तरह हम बोलते हैं / उस तरह तू लिख / और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख॥"

बोधगम्यता एवं सामाजिक सामीप्य बनाए रखने के लिए कभी दूर की कौड़ी लाने का प्रयास नहीं किया। जो विषय या भाव ठीक से पकड़ में नहीं आया, उसकी ओर कवि ने दृष्टिपात भी नहीं किया। सोची हुई अभिव्यक्ति से कवि ने कभी अपने को अभिव्यक्त नहीं किया-

" सोचकर नहीं रोया मेरा लड़का

और रोने से उसे अभिव्यक्त किया

तौलकर नहीं हँसी मेरी लड़की

और हँसने ने उसे अभिव्यक्त किया। "

(चकित है दु:ख)

रोना और हँसना भावोद्रेक का परिणाम है, आयासहीन है। यह आयासहीनता की अनायास अभिव्यक्ति इनके काव्य में प्राण बनकर शरीर और आत्मा के साथ एक आध्यात्मिक संयोजन है। वह कवि के भीतर से उपज कर बाहर से भेंटती है और बाहर से भेंटकर उसको अन्तरात्मा में समेटती है; इसलिए वह व्यक्तिगत न होकर समष्टिगत हो जाती है। कवि ने अन्तरंगता से दु: ख का स्वागत किया, निर्लिप्त भाव से सुख के साथ मार्ग तय किया और जिगरी दोस्त के रूप में मरण का भी स्वागत किया। 'तीर्थयात्री' कविता में कवि ने पल्ला झाड़कर संसार से चल देने में ही प्रसन्नता महसूस की-

" जब मृत्यु-दिवस का सूर्य

छुए आकर मुझको

मैं हाथ हिलाकर

किसी विदाई के क्षण में

दो मित्र विदा होते हैं ज्यों

ऐसे चल दूँ

मैं हर पीछे आने वाले को

यों बल दूँ। "

हिन्दी को भवानी प्रसाद मिश्र ने नए भाषायी संस्कार प्रदान किए है। व्यक्तिगत अनुभवों को सामाजिक दायित्वों से जोड़ा है; इसलिए वे किसी प्रयोगधर्मी रचनाकार से पीछे नहीं रहे। कवि को न तो जीवन में बिखराव अच्छा लगा और न कविता में। अत: छन्दहीनता को मिश्र जी पूर्ण स्वीकृति नहीं दे पाए. उन्होंने अपने दुख को रोकर नहीं; बल्कि हँसकर प्रकट किया। हँसकर प्रकट किया गया दुख, अपने साथ-साथ उस व्यक्ति को भी शान्ति प्रदान करता है, जिसके सामने उसे प्रकट किया गया है। 'गीतफरोश' जैसी कविताओं में कवि के मन की तिक्तता और अवसाद प्रकट हुए हैं; तो 'सन्नाटा' जैसी कविताओं में जनसामान्य का दर्द पिरो दिया है। इतने पर भी सामाजिकता से सान्निध्य बनाए रखा-

इसी दु:खी संसार में

जितना बने हम सुख लुटा दें।

दर्शन में अद्वैत बाद में गांधी और तकनीक में सहज लक्ष्य संधान करने वाले आधुनिक काव्य के कबीर ने फक्कड़पन से हाथ हिलाकर 20 फरवरी, 85 को 'तीर्थयात्री' की तरह सबको विदा कर दिया। अब गीत फरोश, चकित है दु: ख, अँधेरी कविताएँ, गांधी पंचशती बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, व्यक्तिगत, इंद न मम, त्रिकाल संध्या आदि से एक सहज एवं सरल व्यक्तित्व उभर रहा है जिसके सामने-"ठीक आदमकद कोई नहीं है।"

काव्य और जीवन को ईमानदारी से जीने वाले इस युग में विरले ही हैं। भवानी जी अपनी रचनाधर्मिता से शिलालेख की खुशबू बन गए हैं।

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