ठेठ हिंदी का ठाट / पहला ठाट / हरिऔध

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ललकि ललकि लोयनन तेहि, लखि लखि होहु निहाल।

लाली इत उत की लहत, लहे जीव जेहि लाल।

एक ग्यारह बरस की लड़की अपने घर के पास की फुलवारी में खड़ी हुई किसी की बाट देख रही है। सूरज डूबने पर है, बादल में लाली छाई हुई है, बयार जी को ठण्डा करती हुई धीरे-धीरे चल रही है। थोड़ी बेर में सूरज डूबा, कुछ झुट पुटा सा हो गया, फुलवारी के एक ओर से कोई उसी ओर आता दीख पड़ा, जिस ओर वह लड़की खड़ी थी। कुछ बेर में वह आकर उस लड़की के पास खड़ा हो गया, लड़की ने देखकर कहा,देवनंदन अब तक कहाँ थे? मैं बहुत बेर से यहाँ खड़ी तुम को अगोर रही हँ।

देवनंदन चौदह-पन्द्रह बरस का लड़का है, उस के सुडौल गोरे मुखड़े, अच्छे हाथ पाँव, छरहरी डील, ऊँचे और चौड़े माथे, लम्बी बाँहें, और जी लुभानेवाली बड़ी-बड़ी आँखों के देखने से जान पड़ता है जयंत सरग छोड़ कर धरती पर उतरा है। यह लड़का उसी गाँव में रहता है जहाँ वह लड़की रहती है, छोटेपन से ही दोनों, दोनों को चाहते आये हैं। देवनंदन तीसरे-चौथे जब छुट्टी पाता, इस लड़की से आकर मिलता। यह लड़की भी बड़े चाव से उससे मिलती और अपनी मीठी-मीठी बातों से उसके जी को लुभाती। लड़की जानती थी, आज देवनंदन आवेगा, इसी से पहले से उसकी बाट देख रही थी, वह आया भी, पर कुछ अबेर कर के, इसीलिए लड़की ने उससे पूछा, देवनंदन अब तक कहाँ थे?

उसकी बातों को सुनकर देवनंदन ने पहले प्यासी आँखों से उसको देखा,पीछे कहा-

“देवबाला! क्या मैं तुमको भूल सकता हूँ, पर क्या करूँ आज गुरु जी ने छुट्टी सूरज डूबने पर की, इसी से यहाँ आने में कुछ अबेर हो गयी,क्या मैं जो थोड़ी बेर और न आता, तो तू यहाँ से चली जाती?”

“हाँ भाई! क्या करती, अंधेरा होने पर यहाँ ठहर तो नहीं सकती, माँ जो कुढ़ने लगती हैं।”

देवनंदन-तो फिर हम से-तुमसे आज भेंट कैसे होती?

देवबाला-कैसे होती, इसी से तो कहती हूँ, तुम जैसे पहले मेरे घर आया करते थे, उसी भाँति अब भी आया करो। माँ भी एक दिन कहती थीं,बहुत दिन हुआ देवनंदन को मैंने नहीं देखा।

देवनंदन-तुमारे घर आने में मुझे कौन अटक है, पर देखो यही दिन पढ़ने-लिखने के हैं, जो इधर-उधर घूम फिर कर इन को बिता दूँगा, तो फिर पढ़ना-लिखना कैसे आवेगा?

देवबाला ने रूठ कर कहा, क्या हमारे घर आना इधर-उधर घूमना है। हमारे घर घड़ी आध घड़ी के लिए आओगे, तो क्या इसी में तुम्हारा पढ़ना-लिखना न हो सकेगा।

देवनंदन ने हँस कर कहा, अच्छा अब मैं फिर तुमारे घर कभी-कभी आया करूँगा। आँचल के नीचे क्या छिपाये हो देवबाला?

देवबाला-क्या देखोगे?

देवनंदन-हाँ देखूँ, क्या है।

देवबाला ने आँचल हटा कर दिखलाया। देवनंदन ने देखा फूलों से बनी हुई एक बहुत ही अच्छी माला है।

देवनंदन ने पूछा-”यह माला तुम ने क्यों बनाई है देवबाला?”

देवबाला-बतलाओ, देखें।

देवनंदन-हम कैसे बतलावें, हम तुमारे जी की बात कैसे जान सकेंगे।

देवबाला-क्या तुम हमारे जी की बात नहीं जानते, जो नहीं जानते तो हम से मिलने के लिए यहाँ कैसे आया करते हो।

देवनंदन ने देखा इन बातों के कहते-कहते लाज से उस की आँखें नीची हो गयीं। गाल की लाली कुछ और गहरी हो गयी। जिससे उसका आप ही सुहावना मुखड़ा और भला दिखलाई देने लगा।

देवनंदन ने कहा-हाँ यह तो जानते हैं, तुम हम को प्यार करती हो, हम को देखकर फूली नहीं समाती हो, और इसीलिए हम तुम से मिलने के लिए बड़े चाव से आते हैं। पर माला की बात तो निपट नई है, हम इस को भला कैसे बता सकते हैं।

देवबाला ने कहा-क्या जिस को कोई प्यार करता है, कुछ अच्छा मिलने पर वह उस को उसे देना नहीं चाहता।

देवनंदन-क्या यह माला तुम को यहीं मिली है?

देवबाला-नहीं माला नहीं, फूल मिला है, माला मैंने बनाई है।

देवनंदन-तुम ने मेरे लिए इतना कुछ किया है, अच्छा लाओ देखें?

देवबाला-क्या मेरे हाथ में तुम नहीं देख सकते हो, पहनो तो दूँ।

देवनंदन-अच्छा दो, पहनूँगा।

देवबाला ने धीरे-धीरे अपने बड़ के नए पत्ते से हाथों को बढ़ा कर वह फूल की माला देवनंदन के हाथों में दी। देवनंदन ने प्यार के साथ अपने हाथों से उस माला को लेकर गले में पहन लिया।

देवबाला ने देख कर कहा-देवनंदन! तुमारे गले में यह माला बहुत ही भली लगती है, अब जब जब तुम आओगे, मैं तुम को एक माला बना कर दिया करूँगी।

देवनंदन ने बहुत ही प्यार के साथ उस की इन बातों को सुना। इसी बीच अंधेरा होने लगा। देवबाला ने कहा, अब अंधेरा हुआ जाता है, मैं यहाँ ठहर नहीं सकती।

देवनंदन ने कहा-तो अच्छा तुम जाओ, अब मैं भी जाता हूँ।

यह सुन कर फुलवारी की ओर से धीरे-धीरे देवबाला घर चली गयी। पीछे देवनंदन भी कुछ सोचते-सोचते फुलवारी से बाहर हुआ।