डर्टी पिक्चर / प्रियंका गुप्ता

Gadya Kosh से
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रामप्रसाद जी जब से 'डर्टी पिक्चर' देख कर लौटे थे, तब से उनका मन अजीब-अजीब-सा हो रहा था। घर पर विभा को उन्होंने ऑफ़िस में ढेर सारा पेंडिंग काम बता कर देर तक रुकने की बात कही थी, जबकि सच्चाई तो यह थी कि एक दिन पहले ही उनका अपने ऑफ़िस के कुछ लोगों के साथ पिक्चर देखने का प्रोग्राम बन गया था। ऐसा नहीं था कि वे विभा के साथ पिक्चर देखने नहीं जाते थे, पर जानते थे, संस्कारों की दुहाई देने वाली विभा उनके साथ यह फ़िल्म देखने चलने से तो रही। जब भी कोई ऐसी एडल्ट टाइप की फ़िल्म आती और उनका देखने का मन करता, विभा हमेशा अपना रोना चालू कर देती...ये भी कोई उमर है ऐसी गन्दी-सन्दी फ़िल्म देखने की...अरे तुम पचपन के हो गए और मैं पचास की। रश्मि जानेगी तो क्या कहेगी...? यही न कि मम्मी वैसे तो संस्कार-संस्कार की रट लगाए रहती हैं और खुद...छिः, तुम ऐसा सोचते भी कैसे हो...? नाम रामप्रसाद और काम रावणप्रसाद वाले।

रामप्रसाद अपने लिए रावण की उपाधि पाने के बाद से इस विषय पर चुप ही लगा गए थे। सब से अच्छा तरीका था या तो अकेले या फिर अपने जैसे दो-चार तथाकथित 'बुढ़ऊ' लोगों के साथ ही ऑफ़िस में ओवरटाइम का बहाना बना कर पिक्चर देख आना।

रामप्रसाद जी रह-रह कर विद्या बालन के बोले गए द्विअर्थी संवादों को याद कर के मुस्करा उठते थे। बड़ी गुदगुदी मचती थी उनको। विभा ने एक-दो बार पूछा भी, क्या बात है...किस बात पर इतनी हँसी आ रही है...? पर रामप्रसाद जी महज 'कुछ खास नहीं, बस ऑफ़िस की किसी बात पर...' कह कर टाल गए थे। विभा ने भी फिर आगे कुछ नहीं पूछा था। रात को भी उनके सपने में कई बार विद्या आई और वे खुद को नसीर की जगह देख कर पुलकित होते रहे। आखिर नसीर भी तो लगभग उनकी ही उमर का है...जब वह स्क्रीन पर रंगरेलियाँ मना सकता है तो फिर वे सपने में क्यों नहीं...?

दूसरे दिन इतवार था। उनकी नींद भी देर से खुली। विभा वैसे भी छुट्टी वाले दिन उन्हें जल्दी नहीं उठाती और फिर कल रात तो नींद भी बड़ी टूटी-टूटी-सी आई। फिर भी वे फ़्रेश ही महसूस कर रहे थे। एक मादक अँगड़ाई ले रामप्रसाद जी जब कमरे से बाहर आए तो विभा और रश्मि नाश्ता कर रही थी। हमेशा कि तरह वे अखबार खोल कर बैठ गए और विभा उनके नाश्ते की प्लेट उनके आगे सरका रश्मि की बातें सुनने लगी।

इधर-उधर की बातों से हट जैसे ही उन्होंने रश्मि के मुँह से डर्टी पिक्चर का नाम सुना, उनके कान खड़े हो गए। हाथों में अखबार खुला था, पर दिमाग और कान पूरी सतर्कता से रश्मि की ओर थे।

रश्मि कह रही थी...पता है मम्मी, अपनी क्लास की कई लड़कियाँ पेरेण्ट्स से छुप कर ये फ़िल्म देखने गई थी। घर में कह दिया कि एक्स्ट्रा क्लासेज हैं और पूरा ग्रुप का ग्रुप सिनेमाहॉल में था। कुछ के तो बॉयफ़्रेण्ड भी थे साथ में। अगर इस फ़िल्म के डॉयलाग और कुछ सीन्स वल्गर न होते न, तो सच्ची में हम भी चलते। अच्छा मम्मी, सोचो तो ज़रा, उस बेचारी लड़की की ज़िन्दगी पर फ़िल्म बनाते समय या देखते वक़्त किसी ने भी उसके जीवन के दुःखों के बारे में गहराई से सोचा होगा...? ऐसा क्या महसूस किया होगा उसने या उस पर क्या बीती होगी कि उसे आत्महत्या जैसा कदम उठाना पड़ा होगा...? मैं तो सही में आप ही की तरह हूँ...मुझे तो किसी के दुःख में गन्दगी देखने वालों पर घिन आती है। बाप रे...!

रामप्रसाद जी को पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था कि उनके पैरों तले की ज़मीन फटे और वे उसमें समा जाएँ।