डाक्टर साहनी / मुकेश मानस

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1

पता नहीं उससे मेरी दोस्ती कैसे हो गई। मैंने कभी सोचा ही नहीं था कि ऐसे अजीब से शख्स से मेरी दोस्ती हो जाएगी। हाँ, अजीब ही था वह। जब मैं पहली बार उससे मिला तो उस झल्लू से, ढीले-ढाले कपड़े पहने और शर्मीले लड़के पर मुझे दया-सी आ गई। कई सीनियर तो उसका मज़ाक भी उड़ाने लगे थे। मैं भी उसका सीनियर था। मुझे इस मेडिकल कालेज में आये एक वर्ष हो चुका था और वह नया-नया आया था।

वैसे उसका पूरा नाम करमजीत सिंह साहनी था। उसकी क्लास के लड़के उसे साहनी कहकर पुकारते थे। कहते हैं कि बारहवीं पास करते वक्त तक वह बिल्कुल ठीक-ठाक था। गली के सड़कों के साथ घूमना, फिल्मी गीत गाना, हर इतवार को ट्रक में बैठकर अल्लसुबह बंगला साहिब गुरुद्वारे जाना, घंटों दिन में टी.वी. देखना और पढ़ना यही उसके कुछ काम थे जिन्हें वो करता रहता था। एक दिन उसके घर गया तो उसके पिता ने मुझे बताया था कि कभी-कभी उन्हें ‘साहनी’ असामान्य सा लगता है। उनकी यह बात मेरे मन में बैठ गई थी।

साहनी, एक बार नहीं सैकड़ों बार मुझे झक्की और जिद्दी लगा था। कई बार बिल्कुल सामान्य सी बातों के लिए आडियल टट्टू की तरह अड़ जाता था। उसके अपने ही नियम और सिद्धांत थे जिन पर वो चलता था। बहुत बार मुझे उसके ये सिद्धांत बहुत अव्यवहारिक लगते थे। वैसे साहनी ने अपने दाखिले के लिए दिन रात एक कर दिया था और दो बार नाकामयाब होने के बाद ही उसे दाखिला मिला। उसके पिता का कहना था कि मेडिकल कालेज में दाखिले के बाद तो वह कुछ ज्यादा ही ‘असहज’ हो गया है। वह कोई एक घंटे या एक दिन में नहीं बदला था। वह धीरे-धीरे बदल रहा था, उसके बातचीत करने के ढंग में, सोचने-विचारने और व्यवहार करने की शैली में बहुत फ़रक आ रहा था।

मुझे जब पता चला कि उसके क्लास के लड़कों ने उसका नाम ‘आइडलिस्ट’ रखा हुआ है तो एकबारगी मैं गुब्बारे की तरह फट पड़ा अपनी हंसी को रोक नहीं पाया। उनके ख्याल से वह जिस तरह की बातें करता था, इस तरह की बातें शहर का कोई भी डाक्टरी पढ़ने वाला लड़का नहीं करता था।


2

“अगर मेरे बाप की तरक्की न होती, और वह रोज अपनी जेबें गरम करके ना लौटता तो शायद मुझे इस मेडिकल काWलेज में कभी दाखिला नहीं मिलता।”

एक दिन कैंटीन में साहनी और मैं चाय पी रहे थे। यह उसकी खास अदा थी कि अपने से जुड़ी कोई गंभीर बात कहते हुए वह मुस्कुराने लगता था।

साहनी के बारे में मैं ज्यादा कुछ नहीं जानता था। जो जानता था, वह यही कि वह एक ऐसे खानदान से ताल्लुक रखता था जो कि दो-तीन साल पहले गाँव में अपनी थोड़ी बहुत जमीन को बेचकर दिल्ली शहर की एक निम्न वर्गीय कालोनी में आकर बस गया था। मेडिकल कालेज में दाखिला मिलने से एक साल पहले ही उसका पिता अपने दफ़्तर में बड़े बाबू की सीट पर पहुँच गया था।

“तुम्हें डाक्टर बनने का ख्याल कैसे आया?” साहनी ने पूछा।

“मुझे नहीं मेरे माँ-बाप को आया था। पहले लगा कि उन्होंने यह मुझ पर थोपा है लेकिन अब नहीं लगता। वह एकदम ठीक थे डाक्टरी के पेशे में जितना सम्मान और जितनी खुली कमाई है उतनी किसी और दूसरे पेशे में नहीं। पापा का प्लान है कि डाक्टरी पास करते ही वे मेरा क्लीनिक खुलवा देंगे।”

“क्लीनिक या नर्सिंग होम?”

“ओ यस, नर्सिंग होम ही। क्लीनिक से ज्यादा नर्सिंग होम में ही कमाई है?” मैंने उसके सवाल का बड़ी स्पष्टता से खुलासा कर दिया।

“तो तुम पैसा कमाने के लिए डाक्टरी पढ़ रहे हो?” साहनी मुस्कुराते हुए आँखें चमकाने लगा।

“कोई शक। हर कोई यही कर रहा है यहाँ। कौन है जो बिना पैसे कमाये डाक्टरी करने निकलेगा। पैसा तो कमाना ही पड़ेगा। जिस दुनिया में हम रहते हैं उसमें जीने की कुछ शर्तें भी हैं। हम अगर यह शर्तें न मानें तो पागल करार दे दिए जायेंगे। हाँ सारी नहीं तो, कुछ शर्तें तो अवश्य ही माननी पड़ेगी। आखिर हम इंसान हैं और इंसानों की कुछ भौतिक जरूरतें भी होती हैं जिन्हें उन्हें पूरा करना ही पड़ता है। पैसा पैसे को खींचता है और आदमी को बुलंदियों पर ले जाता है। सोचो मेरे पापा के पास अगर इतना पैसा नहीं होता कि वे ‘डोनेशन’ दे सकें तो क्या मुझे यहाँ दाखिला मिलता।”

मुझे लगा कि मैं कुछ ज्यादा ही बोल रहा हूँ। पता नहीं साहनी क्या सोच रहा होगा। मगर साहनी बड़ी ध्ीरता के साथ मेरी बातें सुन रहा था।

“मैंने किसी कवि की कविता अखबार में पढ़ी थी। पैसे के लिए लोग दूसरों का गला काटते-फिरते हैं। प्रेम, भाईचारा, इंसानियत सब भुलाकर हिंसा, शोषण और कत्लो-ग़ारत पर उतर आते हैं। पैसे के लिए लोग इंसानी वजूद से दूर भागकर खूंखार भेड़ियों में तब्दील होते चले जाते हैं। इन भेड़ियों को केवल-पैसे की आवाज सुनाई देती है। वे केवल पैसों की खुशबू सूंघ सकते हैं। इन्हें केवल पैसों के अलावा और कुछ दिखाई नहीं देता है। पैसे के हुकुम के गुलाम होते हैं ये भेड़िये।... ये कविता मुझे अच्छी लगी। इसमें आज के ज़माने की एक कड़वी सच्चाई का वरका खोला गया है मगर मैं इससे सहमत नहीं क्योंकि मुझे लगता है कि भेड़ियों की जिस दुनिया में हम जीने को अभिशप्त हैं, उसमें जीने के लिए हमें भेड़िया और उनसे भी खूंखार भेड़िया बनना ही पड़ेगा।”

“शायद”

“शायद नहीं, सच है ये”

“यह एक क्लास का सच हो सकता है, सबका नहीं”

“यह हर क्लास के पार का सच है।” मैं भी अड़ गया था और साहनी भी। इसलिए मैंने इस पर आगे बात को जारी रखना उचित नहीं समझा।

“तेरी चाय ठंडी हो गई, पी ले।” साहनी अक्सर चाय अपने सामने रखकर उसे पीना भूल जाता था।

“ठंडी चाय पीने का मजा ही कुछ और है” साहनी मुस्कुराया।

मुझे साहनी की मुस्कुराने की अदा से कई बार कोफ़्त होने लगी थी। कई बार मैं भीतर ही भीतर झुंझला उठता था और कई बार मेरी झुंझलाहट साफ झलक जाती थी लेकिन वह मुस्कुराता रहता था।

साहनी का कमरा मेरे ही कमरे के पास था। इसलिए रात को अक्सर हम देर तक बातें खंड करते रहते थे। कई बार मैं कुछ पढ़ता होता था तो वह मेरे पलंग के सिरहाने के नीचे रखी भड़कीली पत्रिकाओं के पन्ने पलटता रहता था। कई बार पूछता – “तुम इतनी गंदी मैगज़ीनें अपने सिरहाने के नीचे क्यों रखते हो?”

अनेकों बार मैं उसे दालान में खड़े होकर नीचे लान में टेनिस खेल रही लड़कियों को ताकता पाता था। एक दिन मैं उसे सीनीयर छात्रों द्वारा बुलाई गई एक पार्टी में ले गया। एक बड़े हाल में पार्टी थी। दीवारों के आस-पास कुर्सियाँ पड़ी थीं। ‘रिकार्ड प्लेयर’ पर वेस्टर्न म्युजिक तेज आवाज में बज रहा था। अनेक लड़के-लड़कियाँ उसकी धुन पर थिरक रहे थे। ज्यादातर लड़कियों ने ऐसे कपड़े पहन रखे थे जिनमें उनके शरीर के ज्यादा हिस्से दीख रहे थे। एक लड़की के साथ सटकर नाचते हुए मैंने देखा साहनी की नजरें इधर-उधर घूम रहीं थी। एक अधनंगी सीनियर लड़की उसके पास जा बैठी। साहनी पंजाबी था और वह लड़की भी शायद इसलिए। मैं नाचते हुए देखता रहा साहनी ने उससे ज्यादा बातचीत नहीं की मगर उसकी नजरें कुछ बातें कर रही थीं।

“ये सब डाक्टर बनने वाले हैं” जैसे ही मैं उसके पास वाली कुर्सी पर बैठा। वह गुस्से में लगा। मुझे ऐसा लगा कि मानो वह अभी वहीं हाल में पड़े कारपेट पर थूकने वाला है।

“हाँ, ये सब लोग शर्तिया डाक्टर बनेंगे।” मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा। जाने साहनी को क्या हुआ वह एक झटके से उठा और पार्टी हाल से बाहर चला गया।

3

कई दिनों तक मैं उससे मुलाकात नहीं कर सका। वह सुबह जल्दी उठकर लाइब्रेरी चला जाता था, क्लास करता और देर रात तक अपने कमरे में लौटता। एक दिन मैंने उसे पकड़ लिया और उसे समझा-बुझाकर मना लिया।

“यार साहनी, एक बात पूछना चाहता हूँ तुझसे, कई दिनों से मेरे भीतर कांटे जैसी चुभ रही है, पूछूँ? वह मेरे कमरे में बैठा था और सिरहाने रखी पत्रिकाएँ देख रहा था। मेरी बात सुनकर उसने अपनी नज़रें मेरी तरफ उठाईं तो उसके चेहरे पर मुस्कान खिल उठी।

“पूछिए”। उसकी आवाज गहरी थी।

“ये बताओ कि तुम डाक्टर बनकर क्या करोगे?” “क्यों”

“मतलब तुम डाक्टर क्यों बनना चाहते हो?”

“ये मैं अभी ठीक से बता नहीं सकता मगर वो सुना सकता हूँ जिनके कारण मेरे मन में डाक्टर बनने का ख्याल आया।”

उसने पत्रिकाओं के पन्ने उलटना बंदकर वापिस सिरहाने के नीचे रख दीं और मेरी तरफ मुखातिब होकर बोला।

“यह मेरे बचपन की बात है। मेरी दादी अक्सर बीमार रहती थी पर बीमारी में भी घर के सारे काम करती थी और मुस्कुराती रहती थी। घर के सब लोग जानते थे कि उसे कोई ऐसी बीमारी है जिसमें वो ज्यादा दिनों तक जी नहीं पायेगी। जहाँ तक दादाजी और पिताजी की औकात थी उन्होंने दादी को सैकड़ों बार डाक्टरों को दिखाया था मगर डाक्टर लोग उनकी बीमारी नहीं पकड़ पाते थे। कोई कहता कि उन्हें एक खतरनाक जानलेवा बीमारी तो है मगर वो बीमारी क्या है यह वो नहीं जानता। कोई कहता कि उन्हें कोई ऐसी बीमारी है जिसके बारे में उनकी डाक्टरी की किताबों में कुछ नहीं लिखा हुआ है। दादी रोज रात को एक कहानी सुनाती थी जिसका नायक अधिकतर बहुत भुक्कड़ किस्म का होता था जिसके सामने जितना भी रख दो सब ‘गप्प’। एक दिन कहानी सुनाते-सुनाते दादी मर गई। उस दिन सुबह से उसने उपवास रखा हुआ था और कहानी सुनाने के चक्कर में हम रात का खाना भूल गए थे और कहानी सुनते-सुनते सो गए थे।

इसी बीच दादाजी की नौकरी छूट गई और पिताजी की लग गई। दादी की बीमारी दादा पर सवार हो गई और मेरे बारह साल का होते-होते वे भी चले गए। पिताजी का तबादला शहर में हो गया। गाँव में सब जायदाद बेच दी गई लेकिन बावजूद इसके दादाजी की बीमारी माँ को लग गई और मेरे मेडिकल कालेज में दाखिला लेने के एक साल पहले वो भी चल बसी। पिताजी बच गए। बच गए क्योंकि जिस दिन माँ मरी, उसी दिन उनका प्रोमोशन करके उन्हें बड़े बाबू की सीट दे दी गई। अब वो हर रोज अपनी जेबें गरम करके लाने लगे। उनके जेबों की गरमाई ने उनको और मुझको बचा लिया।

जिस दिन दादी मरी थी उस दिन कई सवालों के बीज मेरे भीतर पड़ चुके थे आखिर दादी की बीमारी क्या थी? क्या ऐसी बीमारी भारत के और लोगों को ही होती है? अगर इसकी दवाई नहीं है तो लोग लाइलाज ही मर जाते हैं? क्यों? साहनी ने रुककर मुझे कोहनी मारी तो मैं उसकी बातों की गहराई के जाल से बाहर आ गया। “क्या सर, मैं बोर तो नहीं कर रहा हूँ” “नहीं” “कुछ समझ आया” “हाँ” फ्क्या?” “यही कि ये सवालों के बीज ही तुम्हें डाक्टर बना रहे हैं। मगर प्यारे सिर्पफ सवालों से दुनिया नहीं चलती है। सवालों में भावुकता भी होती है और तुम्हारे सवाल वाजिब हैं, तार्किक हैं मगर रीयल नहीं। सवाल-सवाल हैं, जिन्दगी नहीं। वैसे भी सवालों के उत्तर का रास्ता जिन्दगी की कड़वाहट के दलदल से होकर जाता है और इस दलदल को तभी पार किया जा सकता है जब आपके पास नाव हो, चप्पू हो, पतवार हो और हवा की रफ़्तार हो।” मूझे मालूम नहीं मैं क्या-क्या बोल गया। मगर साहनी मेरी काट नहीं दे सका। वह लगातार मेरे चेहरे को देखे रहा था। मैंने मेज पर रखे सिगरेट के पैकेट से सिगरेट निकाली और कश लगाकर धुंए के गुब्बारे छोड़ने लगा।

“मेरा मतलब है” - मैंने सिगरेट का खाक हो चुका हिस्सा ऐश ट्रे में गिराया। “मेरा मतलब है कि यह आदर्शवादिता माना अच्छी चीज है। आज के आदर्शहीन दलदली समाज में आदर्शवादिता ही प्रभावित करेगी लोगों को। मगर यह यथार्थ से कोसों दूर है। यथार्थ ये है कि तुम यथार्थवादी बनो।”

“मगर यह तो अंधी यथार्थवादिता है।” इसके बाद हम दोनों चुप रहे। कोई नहीं बोला, बोलते भी कैसे!! साहनी एक लाइन आज की खोखली दुनिया पर जैसे पूरा महाकाव्य बोल गया था।

4

साहनी मुझे अक्सर मिलता रहता था। हम प्रेक्टिस की बातें करते, कभी फिल्म देखने के लिए साथ जाते थे। अब उसने पार्टियों में आना जाना बंद कर दिया था। धीरे-धीरे वह लाइब्रेरी, क्लास और मेडिकल प्रेक्टिस में सिमट गया था। मेरा कोर्स पूरा हो गया। विदाई समारोह में साहनी मेरे साथ ही बैठा रहा। मैंने अपना प्राइवेट नर्सिंग होम शुरू कर दिया था। अब साहनी अक्सर मेरे यहाँ आ जाता था। मुझे कभी फुर्सत मिलती थी तो उसके यहाँ चला जाता था। हास्टल में ऐश परस्तीवाली जिंदगी की यादें ताजा हो जाती थी।

साहनी अब कापफी सादा रहने लगा था। एक-दो लेक्चरर, डाक्टर्स ने उसकी तारीफ भी की थी। खास तौर से वह दाढ़ी वाला सनकी प्रोपेफसर डा0 ओझा, मैं जब भी मिलता था, साहनी की बड़ी तारीफ करता था। इस ओझा से मुझे शुरू से चिढ़ थी ‘साला बिहारी, पता नहीं डाक्टर कैसे बन गया।’ एक यही था हमारे कालेज में जो नये लड़कों के दिमाग में समाज सेवा और दलित वर्ग के प्रति हमदर्दी जैसे विचार भरता था और जो लड़के भी थोड़ा बहुत ठीक भी होते उनका दिमाग खराब कर देता था। मेरा प्लान था कि साहनी की पढ़ाई पूरी होते ही मैं उसे अपने नर्सिंग होम में लगा लूँगा। फिर उसकी अच्छी कमाई हो जाया करेगी और उसकी और उसके घर की हालत भी सुधरेगी। सरकारी अस्पताल में क्या काम लेगा।

पाँचवे साल के हर विद्यार्थी को अपनी पढ़ाई के आखिरी छह महीने किसी झुग्गी-बस्ती में सरकारी क्लीनिक में प्रेक्टिस करनी होती थी। अमीर घराने के विद्यार्थी तो दस हजार की डोनेशन जमा कराते थे और इससे छुट्टी पाकर छह महीने अपने-अपने घरों में ऐश करते थे।

मैं अपने प्लान सरंजाम देने साहनी से मिलने गया। साहनी मुझे नीचे ही दिख गया। मैंने अपनी नई मारुति का होरन बजाया तो वह रुक गया। मैंने गाड़ी एक तरफ खड़ी की और हम दोनों हाथ मिलाकर केंटीन की तरफ बढ़ गए। “मारुति कब खरीदी।” “कल ही।” “कल ही?” “पैसे कहाँ से आये?” “कुछ मैंने कमाये और कुछ माँ-बाप ने दिए और कुछ नीतू के माँ-बाप ने” “नीतू!! ये नीतू कौन है?” साहनी मुस्कुरा उठा। “नीतू... नीतू आपकी होने वाली भाभी है।” “वाह! यह बड़ी अच्छी भाभी है जिसके आने से पहले ही कार घर में आ गई।” साहनी पहली बार इतना खुलकर बोला था। “अच्छा मेरा मखौल उड़ा रहे हो।” मैंने दस हजार रुपये जेब से निकालकर उसके हाथ में थमा दिए। “मुझे भी रिश्वत दे रहे हो?” साहनी धीमे से हँसा। “अरे नहीं, कालेज में जमा करा देना। झुग्गी बस्ती में नहीं जाना पड़ेगा। फिर मेरे नर्सिंग होम में काम करना और पैसे कमाना।” मैं निश्चित होकर सिगरेट जलाने लगा। “लेकिन मैंने तो झुग्गी बस्ती में जाना तय कर लिया है।” “व्हाट...!!” मैं आवाव~फ सा रह गया। “अबे यार क्यों अपने छह महीने खराब करने पर तुला है। कभी देखी है कोई झुग्गी बस्ती तुमने?” मैं उसकी मुस्कुराहट को पढ़ने लगा। “नहीं” “तो पहले देखता और फिर पैफसला करते। खैर फैसला तो अभी भी बदला जा सकता है। ...लेकिन छह महीने के लिए किसी झुग्गी बस्ती में जाना बिल्कुल फूहड़ बात है।... हर तरुफ बदबू, हर तरफ गंदगी। अरे यार ये बस्तियाँ नहीं हैं, नरक हैं... नरक। इन बस्तियों में चोर उच्चके, उठाईगीर, जेबतराश, चाकूबाज, हत्यारे और वेश्याएँ... इन्सानों की जगह ये मिलेंगे तुमको।” बोलते-बोलते मुझे ऐसा लगा मानो मैंने भीतर की कड़वाहट के गुबार का पूरा का पूरा गुबार सिगरेट के धुंए के साथ बाहर उगल दिया हो। मैं हैरान था कि मेरे भीतर इतनी कड़वाहट कहाँ से पैदा हो गई।

“ये भी तो बीमार पड़ते होंगे।” साहनी ने धीरे से कहा। मुझे लगा कि उसने मुझे अच्छी पटखनी दी। मैं पराजित सा महसूस करने लगा।

“मेरा मतलब है कि उनको भी बुखार आता होगा, सिरदर्द, सर्दी-जुकाम और तरह-तरह की बीमारियाँ तो होती होंगी। मैं उनकी बीमारियाँ समझूंगा और उन्हें दवाईयाँ देकर तजुर्बा हासिल करूँगा। कोई आदमी है या हत्यारा इससे मुझे क्या? डाक्टर का फर्ज़ है अच्छे और बुरे, दोनों इन्सानों को एक नज़र से देखे और बिना रत्ती भर भी घृणा या फ़र्क किए उनका इलाज करे।”

मुझे लगा कि अगर मैं थोड़ी देर और यूँ ही अगर किकर्तव्यविमूढ़ता से भरा रहा तो वास्तव में पराजित हो जाउफंगा।

“अरे छोड़ यार। ये सब आदर्श की बातें हैं। कहीं किसी ने चाकू-वाकू मार दिया तो बेकार में एक टेलेंट दुनिया से कम हो जायेगा।” मैंने आखिरी तीर चलाया।

मुझे लग रहा था कि मैं उसे समझाकर सही रास्ते पर ले आऊंगा, मगर साहनी नहीं माना। उसके अकाटय तर्कों से पराजित हो गया था मैं।


5

उसके बाद पूरे छह महीने तक मैं अपने नर्सिंग होम में ‘बिजी’ रहने के कारण साहनी से मिल नहीं सका, न ही साहनी मुझसे मिलने आया। एक दिन मैंने मंडी हाउस की तरफ जाते वक्त साहनी को ‘सबको रोटी, सबको काम। वरना होगी नींद हराम’ मार्का नारे लगाते जुलूस में जाते हुए देखा। मैं साहनी को देखता-देखता निकल आया। उसके चेहरे पर वही मुस्कुराहट थी। न जाने क्यों कार कहीं खड़ी करके, साहनी से हाथ मिलाने के लिए भी मैं खुद को तैयार नहीं कर सका। जाने कहाँ सुनी एक कहावत मुझे याद आ गई कि ‘आये थे राम भजन को, ओटन लगे कपास।’

पूरे छह महीने बाद साहनी मेरे नर्सिंग होम में आया। उसे डा0 ओझा की अनुशंसा पर गोल्ड मेडल मिला था।

“अब क्या करोगे?” मैं उससे तंग आ चुका था। इसलिए मैंने उससे सीधे ही पूछ लिया।

“उसी बस्ती में बने सरकारी क्लीनिक में काम करूँगा।”

“लगता है उस झुग्गी-बस्ती में कोई जादू या चुम्बक है जिससे तुम बुरी तरह चिपक रहे हो।” मैं अब शायद साहनी, नहीं डा0 साहनी का मखौल उड़ाने के मूड में आ गया था।

“आखिर, ऐसा क्या है इन बस्तियों में?” मैंने पूछा।

“यह बस्तियाँ आज की दुनिया का असली कोना है जिसमें दुनिया का एक बड़ा हिस्सा रहता है। किसी को अगर ये बस्तियाँ बुरी लगती हैं, कुरूप महसूस होती हैं या जिनको ये बस्तियाँ ना-काबिले बादाश्त है उनसे मेरा इतना ही कहना है कि सच्चाई ये है कि लूट और शोषण कर खड़ी ये दुनिया ही नाकाबिले बरदाश्त है। और इन बस्तियों में इस दुनिया की कड़वी सच्चाई वास करती है। यहाँ जिन्दगी और मौत एक साथ गाती, हँसती और रोती हैं। इन बस्तियों में इन्सान नाम के वजूद की आखिरी हद बसती है। यहाँ हर चीज, हर घटना, हर बात इंसान से शुरू होकर इंसान पर ही खत्म होती है। इंसानों की बस्ती में और निखर गया मैं, मेरा हृदय जीवन की महक से भर उठा है। इन बस्तियों ने मुझे बदल डाला है।”

“वो कैसे?” पहली बार उसकी बातों से मेरा मन लगा। मुझे उसकी बातों में दम लग रहा था। “आज एक सपने की मानिंद वो दृश्य मेरे आगे सजीव होकर घूम रहे हैं जिनमें मैंने छह महीने गुजारे। गंदी नालियाँ, हर चीज पर, हर जगह भिनभिनाती सैकड़ों मक्खियाँ, छोटी-छोटी और तंग गलियाँ, गलियों में लाज-शर्म छोड़कर नहाती औरतें, घर के नाम पर बदबूदार प्लास्टिक और चरमराते बाँसों की खप्पचियों से बनी झौंपड़ियाँ, हर तरफ कांटों भरे शरीर। कूड़े के ढ़ेर और इन ढ़ेरों के बीचों-बीच खाट बिछाकर सोते और ताश खेलते अनगिनत चेहरे, अजनबी, प्यारे, हंस-मुख, दु:खी, कुचले हुए चेहरे, बच्चों की निष्कंटक किलकारियाँ और रोना... सबकुछ कितना सच। यह दलदल है तो इसी दलदल से गुजरकर ही दुनिया की असली तस्वीर समझ आयेगी।”

मेरे मुँह से कोई बोल नहीं फूट रहा था। मेरा मन कर रहा था कि उसकी एक-एक बात पर अपना कुछ कुर्बान करता जाऊं।

“ये है दिल्ली की झुग्गी बस्तियाँ। वास्तव में ये झुग्गी बस्तियाँ नहीं दिल्ली के देश के पहिये हैं। ये पहिये न हों तो दिल्ली की गाड़ी कभी ठप्प हो जाये। दिल्ली इन झुग्गियों को अपने फायदे के लिए बसाती है और उजाड़ती है। मंत्राी और अपफसर कहते हैं कि ये बस्तियाँ शहर का नापाक हिस्सा हैं। और सच्चाई ये है कि वे इसी नापाक हिस्से के पसीने की कमाई खाते हैं और देश चलाते हैं।”

“जब मैं इस बस्ती में पहुँचा तो मुझे चारों तरफ आदमी ही आदमी दिखाई दिए पर थे सबके सब बीमार, मार तमाम लोग।... सैकड़ों की तादात में लोग मेरे पास आते, मैं उन्हें दवाई देता मगर वे ठीक ही नहीं होते थे। मैंने जब गौर करना शुरू किया तो मुझे लगा कि उनकी बीमारी को मैं पकड़ नहीं पा रहा था।”

“ऐसी कौन सी बीमारी थी उन्हें?” मुझे पूछना जरूरी ही लगा।

“मैं नहीं जानता था मगर जितनी बीमारियों के बारे में हमने पढ़ा है, यह बीमारी उन सबसे जुदा है। मैं उनके घरों में गया, उनके बच्चों के साथ खेला, कूड़े के ढ़ेर पर ताश खेलते लोगों के पास बैठा तब मुझे उनकी बीमारी का थोड़ा-थोड़ा पता चला।”

“क्या बीमारी है?”

“नाम नहीं जानता, ना मैंने उसका कोई नाम ही रखा है। मगर एक बात का मुझे पूरा विश्वास हो गया है कि मेरी दादी की बीमारी भी इन्हीं लोगों जैसी थी और इन बीमारियों का इलाज हमारी डाक्टरी की किताबों में नहीं मिलेगा।” साहनी की आंखों में चमक थी। “तो कहाँ मिलेगा?”

“मैं नहीं जानता। मगर इतना जरूर जानता हूँ कि इस बीमारी का इलाज खोजने के लिए किसी को डाक्टर होने की जरूरत नहीं है। इसे हर वो इंसान खोज सकता है जो इस बीमारी से अपने लिए, अपने वर्तमान के लिए और अपनी आगे आने वाली नस्लों के लिए लड़ने का माद्दा रखता हो।”

लेकिन मुझमें शायद लड़ने का वो माद्दा नहीं था... साहनी में था। वास्तव में कुरूप दुनिया को सुन्दर दुनिया में बदलने को जंग में एक डाक्टर की जरूरत थी और इस जंग में असली डाWक्टर साहनी ही था, मैं नहीं। 1998