डूंगरपुर का भूगोल और शिवेंद्र का संग्रहालय / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
डूंगरपुर का भूगोल और शिवेंद्र का संग्रहालय
प्रकाशन तिथि : 15 जुलाई 2019


फिल्म 'प्यासा' में शायर की नज़्में उसके जाहिल भाई कबाड़ी को रद्दी के भाव बेच देते हैं। बेचारा शायर कबाड़ी की दुकान पर अपने कलाम खोजता है तो कबाड़ी उसे बताता है कि एक महिला उसकी नज़्मों की कॉपी खरीद चुकी है। शायर और तवायफ की मुलाकात और अनभिव्यक्त प्रेम की कथा प्रारंभ होती है। ज्ञातव्य है कि 'प्यासा' के गीत साहिर लुधियानवी ने लिखे थे और संगीत सचिन देव बर्मन ने रचा था। बर्मन दादा ने नज़्मों की नजाकत को समझकर किसी भी गीत को ऑर्केस्ट्रा से लादा नहीं वरन् गीतों को जमकर ध्वनित होने दिया। 'प्यासा' एकमात्र फिल्म है, जिसकी सफलता में अधिकतम योगदान साहिर लुधियानवी के गीतों का है। बहरहाल, मात्र तीन दिन पूर्व फिल्म विरासत की रखवाली को समर्पित शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने एक कबाड़ी से साहिल की नज़्में खरीदी हैं। इस खजाने में उनके लिखे हुए कुछ पत्र भी हैं और कुछ खत उनके अपनों ने उन्हें लिखे हैं। यथार्थ और कल्पना एक-दूसरे के पूरक हैं। काल्पनिक 'प्यासा' का दृश्य यथार्थ में इस तरह घटित हुआ। इस तरह की घटनाएं पहले भी घटी हैं। मसलन, मॉर्गन रॉबर्टसन का उपन्यास 1898 में प्रकाशित हुआ। जिसमें एक जहाज दुर्घटना का विवरण दिया गया था। 1912 में टाइटैनिक दुर्घटना घटी। उपन्यास और यथार्थ घटना में काफी समानताएं हैं। इस अजीबोगरीब बात को ऐसे समझा जा सकता है कि सृजनशील व्यक्ति वर्तमान, भूत और भविष्य की उत्तुंग लहर को समय के समुद्र में एक साथ देख पाता है।

साम्यवादी शायर साहिर का जन्म एक सामंतवादी परिवार में हुआ था। उनकी मां उन्हें गोद में लिए उस दुष्ट परिवार से दूर ले आईं। माता और पुत्र के रिश्ते में अम्बिलिकल कॉर्ड जन्म के समय काट दी जाती है परंतु साहिर और उनकी मां के बीच की अम्बिलिकल कॉर्ड जीवन भर नहीं कटी। दोनों की मृत्यु भी कुछ ही दिनों के अंतराल में हुई। सलीम-जावेद की लिखी पटकथाओं में मां की धुरी पर ही पुत्र का जीवन चक्र घूमता है। अपने यथार्थ जीवन में जावेद अख्तर अपनी मां के निकट अधिक रहे। उनकी मां महान शायर मजाज की सगी बहन थीं। सलीम साहब अपने पिता पुलिस अफसर रशीद खान के बहुत नजदीक रहे। 'जंजीर' फिल्म का पुलिस अफसर पात्र रचने की प्रेरणा सलीम साहब को अपने पिता रशीद खान साहब के जीवन से ही मिली थी। साहिर लुधियानवी और अमृता प्रीतम प्रेम करते थे। अमृता प्रीतम अपने पारिवारिक बंधनों को लांघकर मुंबई आई थीं परंतु वहां उन्होंने एक अखबार में साहिर व पार्श्व गायिका सुधा मल्होत्रा के प्रेम की फेक न्यूज पढ़कर उस पर यकीन कर लिया तथा वापस लौट गईं। फेक न्यूज कोई वर्तमान में जन्मा शिगूफा नहीं है। वह हमेशा से मौजूद रहा है। ज्ञातव्य है कि साहिर लुधियानवी फिल्म गीत लेखन क्षेत्र में अपने आने के पूर्व ही साहित्य जगत में सितारा हैसियत अर्जित कर चुके थे। युवा वर्ग उनके कलाम को अपने तकिए के नीचे रखकर सोता था। उन्होंने गीत लेखन में इस शर्त के साथ प्रवेश किया था कि फिल्मकार से सिचुएशन सुनकर वे गीत लिखेंगे और संगीतकार बाद में धुन बनाएगा। प्राय: संगीतकार पहले धुन रच लेता है और गीतकार उस बंदिश पर गीत लिखता है। फिल्म जगत में आने के पहले शैलेन्द्र की कविताएं उपदेशात्मक थीं और कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो को ही प्रचारित करती थीं, परंतु फिल्म गीत लेखन में उन्होंने लालित्य खोजा और अपना विकास किया। साहिल और शैलेन्द्र दोनों ही वामपंथी रहे। राजनीति के राइट विंग ने कभी किसी कवि को प्रेरित नहीं किया। वे प्रचार को साहित्य समझते रहे हैं। साहिर बायोपिक आज भी एक महान संभावना है। रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण के लिए यह आदर्श फिल्म विषय है। अनुराग बसु का ध्यान इस ओर आकर्षित किया जाना चाहिए। यादों के गलियारे में अनुराग बसु को अपनी फिल्म 'बर्फी' का पुनरावलोकन करना चाहिए। जितनें विषयों पर फिल्में बनी हैं उनसे कहीं अधिक फिल्में किसी साधनहीन व्यक्ति के मस्तिष्क में बनकर अवाम द्वारा अनदेखी ही रह जाती हैं।

सामंतवादी परिवार ने बालक का नाम अब्दुल हई रखा, परंतु उनकी मां ने उन्हें साहिर के नाम से ही पुकारा और दुनिया उसे ही दोहराती है। वह समय की घाटी की अनुगूंज बन गया है और ध्वनि ही एकमात्र अजर अमर हकीकत है। शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर फिल्म विरासत को संजोने का काम करते हैं। उन्होंने अपना सारा जीवन इसी काम को समर्पित किया है। शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर का संग्रहालय मुंबई के तारा देव क्षेत्र में स्थित है। उसे अन्य शहरों में प्रदर्शन के लिए जाना चाहिए। सरकार को शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर की सहायता करनी चाहिए। कम से कम इस नाते ही सरकार यह कर ले कि उसे अरबों रुपए इसी फिल्म उद्योग से भांति-भांति के जजिया कर द्वारा प्राप्त होता है तो कुछ लौटा भी दें।

क्रिकेट खिलाड़ी राजसिंह के कारण डूंगरपुर का नाम सुर्खियों में आया। आज दुनियाभर के फिल्मकार शिवेंद्र के कारण डूंगरपुर से परिचित हो गए। क्या डूंगरपुर का निगम अपने धरती पुत्र की सहायता नहीं कर सकता? क्या डूंगरपुर के नागरिक प्रति व्यक्ति 10 रुपए भी उसे नहीं भेज सकते। फिल्म उद्योग में करोड़ों रुपए कमाने वाले सितारे भी उदासीन हैं। उन्हें तो यह भी ज्ञात नहीं कि उनकी मृत्यु के बाद उनकी कोई फिल्म या कोई स्मृति चिह्न शिवेंद्र डूंगरपुर के संग्रहालय में उनकी स्मृति बचाए रखेगा। साहिर लुधियानवी पर लिखा लेख उनकी एक गैर फिल्मी रचना के साथ किया जाना चाहिए। 'गुजश्ता जंग में तो घर बार ही जले, अजब नहीं इस बार जल जाएं तनहाइयां भी, गुजश्ता जंग में तो पैकर (शरीर) ही जले, अजब नहीं इस बार जल जाए परछाइयां भीं'।