डेढ़ आदमी / सुजान सिंह / गुरचरण सिंह

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जब उसे पागलखाने के मनोचिकित्सक के पास लाया गया तब वह बिलकुल शान्त थी। उसका शरीर चुस्त था और उसके कंघी किये हुए लम्बे बाल बंगाली जूड़े में बँधे हुए थे। उसके माथे के ऊपर के बाल बेतरतीब से कुछ ऊपर उठे हुए थे जैसे वह उनमें उँगलियाँ चलाती रही हो। वह एक निश्छल, घर-गृहस्थी वाली औरत लग रही थी।

डॉक्टर ने उसे सिर से पैर तक देखा। पैरों से उसकी नज़र फिर ऊपर की तरफ उठनी शुरू हुई। कमर से गले तक उसकी आँखें जाँच करती गयीं और आँखों पर पहुँचकर एकदम टिक गयीं। कुछ देर बाद उसकी आँखों-में-आँखें डाले डॉक्टर बोला-

“तुम...पागल...नहीं...हो।”

“हाँ, यही तो मैं कहती हूँ कि मैं पागल नहीं हूँ, पर यह भीड़ मुझे पागल बनाकर छोड़ेगी।”

उसे साथ लाने वाले लोगों से डॉक्टर ने कहा-”बाहर निकल जाओ, मूर्खो! यह पागल नहीं है।”

उनमें से एक औरत हाथ में पकड़े हुए कागजों को डॉक्टर की मेज पर रखने के लिए आगे बढ़ी। फिर बाहर निकल गयी। लकड़ी का स्प्रिंगदार दरवा$जा कुछ देर झूलता रहा।

डॉक्टर ने अदब से मुस्कराते हुए कहा-”श्रीमती जी, बैठ जाओ।”

वह चार साल से अदब से बोलने और बेअदबी से भरे शब्दों को सुनने की आदी हो चुकी थी। डॉक्टर के शब्दों ने जैसे जली जगह पर मरहम लगायी हो। उसने जल्दी-जल्दी पलकें झपकाते हुए डॉक्टर की ओर देखते हुए कहा-”आप तो आदमी हैं।”

“क्या इसमें आपको शक़ है?” डॉक्टर ने पूछा।

उसने बड़े गम्भीर लहजे में कहा-”आदमी तब ही आदमी होता है जब अन्त तक आदमी रहे।”

डॉक्टर कुछ क्षण चुप रहा। फिर उसने सामने पड़े हुए काग़ज़ की तरफ देखा और वहाँ से नज़रें हटाते हुए पूछा-”क्या आप पढ़ी-लिखी हैं?”

“हाँ, आठ कक्षाएँ।”

डॉक्टर के काग़जों में शिक्षा का स्थान अभी रिक्त था, उसने कलम उठाकर कुछ लिखा। फिर होल्डर का पिछला हिस्सा दाँतों में दबाकर वह सोचता रहा कि इसकी बोलचाल का स्तर आठ कक्षाओं से कहीं अधिक ऊँचा है। उसे शायद पता नहीं था कि विचार जीवन के अनुभवों की उपज होते हैं!

डॉक्टर ने फिर पूछा-”क्या आपका नाम पार्वती देवी है?”

औरत ने अजीब तरह से उत्तर दिया-”पार्वती देवी! नहीं, पार्वती...नहीं-नहीं, पारू।”

“हाँ...हाँ, पारू। पार्वती देवी, तुम पागल नहीं हो। पर एक बात समझ में आ रही है कि तुम कोई बात करना चाहती हो...।”

“जिसे कोई सुनता नहीं!” पारू ने वाक्य पूरा करते हुए कहा।

“वह बात मैं सुनूँगा।”

“वह बात नहीं, वह एक कहानी है, एक सवाल है। उसका उत्तर यदि नहीं मिला तो मैं पागल हो जाऊँगी।”

“मैं उसका उत्तर देने की कोशिश करूँगा।”

पारू कुर्सी पर टिककर बैठ गयी। वह डॉक्टर की आँखों में देखते हुए बोली-”मेरा जन्म ढाका में हुआ। मेरा पिता मकान-मालिक था और मकान बड़ा होने के कारण उसके कई हिस्से किराये पर उठाये हुए थे। सारी उम्र उसने कोई काम नहीं किया था। हम दो बहनें और दो भाई थे। मेरा विवाह एक जनरल स्टोर के सेल्समैन के साथ हुआ, जिसका बस्तियों में छोटा-सा अपना मकान था। मैं अपने पति के घर बहुत सुखी थी। जब ढाका में गड़बड़ी शुरू हुई, उस समय मेरी गोद में दो साल का बच्चा था। हमारा घर मुसलमानी इलाके में था। इसलिए हम सब-कुछ वहीं छोडक़र पिता के घर चले आये। जब बा$जारों में छुरेबाजी और घरों में सतीत्व लूटा जाने लगा तो हमने अपने देश को छोड़ दिया। मेरी बड़ी बहन का विवाह एक गाँव में हुआ था। उनका आज तक कोई अता-पता नहीं लगा। रास्ते में बहुत कठिनाइयाँ आयी, पर जैसे-तैसे हम स्यालदा स्टेशन पर पहुँच गये और साँस-में-साँस आयी।

हमारा परिवार कई दिनों तक फुटपाथों पर धक्के खाता रहा। हमारा सब-कुछ रास्ते में लुट गया था। माँगने के सिवाय और कोई काम नज़र नहीं आ रहा था। पेट की भूख से तंग आकर माँगना शुरू किया। मेरा पति परिवार में सबसे अधिक स्वस्थ था। वह कई दिन काम ढूँढऩे जाता रहा, पर काम कहीं नहीं मिल रहा था, भीख से प्राप्त चीजों को वह खाता नहीं था। पानी पीकर कोई कब तक जी सकता है? थोड़े दिनों में ही वह सबसे अधिक कमज़ोर हो गया। आखिर अपने बच्चे की कसम देकर मैंने उसे भिक्षा से प्राप्त अन्न खिला ही दिया। पर मुझे क्या पता था कि वह अन्न ही उसकी मौत का कारण बन जाएगा और मेरी दुनिया अँधेरी हो जाएगी।

कुछ दिनों बाद मेरे बड़े भाई को एक होटल में प्लेटें धोने की नौकरी मिल गयी। बस्ती में खपरैल की छत वाला एक कमरा हमें दस रुपये किराये पर मिल गया। दादा की तनख्वाह में से जो बीस रुपये बचते थे, उसके साथ भाभी और उसके बच्चों का गुजारा भी नहीं होता था। दादा भी कमज़ोर होते जा रहे थे। भाभी मुझसे नाराज़ थी क्योंकि मैं उसी के बच्चों का भात छीन रही थी। बूढ़े बाप ने कभी कुछ किया नहीं था। वह एक कोने में बैठा मुझे गालियाँ निकालता रहता। मैं तंग आकर बाहर चली जाती और भीख माँगने लगती। लंगड़े-लूलों और अन्धों-बूढ़ों को भीख तो मिल जाती थी, पर मुझे सारे दिन में दो-चार पैसे भी नसीब न होते। वह पैसे भी परिवार पर खर्च हो जाते और मेरा बच्चा दिनों-दिन कमजोर होता जा रहा था। एक दिन मैं फुटपाथ पर जब भीख माँग रही थी एक सूटिड-बूटिड अधेड़ साहब मेरे पास से गुज़रा। कुछ प्राप्त होने की आशा से मैंने अपना हाथ आगे बढ़ाकर आशीष दी। “हूँ...” उसने एक तरफ की मूँछ को ताव देते हुए कहा-”हट्टी-कट्टी जवान हो, माँगते हुए शर्म नहीं आती।”

“शर्म तो आती है, पर क्या करूँ?” मैंने पूछा।

“कोई काम करो, कोई काम?” उसने खड़े होते हुए कहा।

“काम तो मेरे पति को भी नहीं मिला और वह बेमौत ही मर गया।”

साहब ने हमदर्दी जतलाते हुए कहा-”तुझे तो काम मिल सकता है, यदि करना हो तो।”

“यदि काम मिल जाए तो और क्या चाहिए?” मैंने कहा।

“चल मेरे साथ, मैं तुझे घर दिखा दूँ। वहाँ घर का कामकाज करना पड़ेगा और गुजारे के लिए पैसे मिल जाएँगे।” उसने मुझे सिर से पैर तक देखते हुए कहा और फिर चल पड़ा।

मैं उसके पीछे-पीछे चल पड़ी। चौक पर पहुँचकर वह ट्राम की प्रतीक्षा करने लग पड़ा। हम ट्राम में बैठ गये। उसने मुझे पिछली सीट पर बैठाकर दो टिकटें लीं। एक जगह पहुँचकर उसने ट्राम रोकने के लिए रस्सी खींचकर घंटी बजायी। और मुझे भी उतरने के लिए इशारा किया। कंडक्टर ने ड्राइवर को कहा-”जनाना उतरेगा, बाँधकर,” कहकर ट्राम पूरी तरह रोकने के लिए चेतावनी दी। मैं उसके पीछे ही उतर गयी। एक बाड़ी के एकान्त कोने में एक घर था। उसने दरवाजा खटखटाया। एक नौकर ने अन्दर से दरवा$जा खोला और मालिक के मुँह की तरफ देखता हुआ बाहर चला गया। मुझे पिछले कमरे का दरवा$जा दिखाकर साहब ने बाहर का दरवा$जा बन्द कर दिया। दरवा$जा बन्द होने की आवाज़ से मुझे एक झटका लगा। वह साहब मेरे कमरे में आ चुका था। उसने वह दरवा$जा भी बन्द कर दिया और साँकल लगा दी। इस कमरे में एक पलँग बिछा हुआ था। एक मेज और कुर्सी के अतिरिक्त किताबों से भरी हुई एक अलमारी भी थी। साहब ने मुझे पलँग पर बैठ जाने के लिए कहा। जब बाहर निकली, मेरे हाथ में पाँच रुपये का नोट था। बाड़ी के बाहर सिगरेट के कश लगाता हुआ मुझे वही नौकर दिखा जो मेरी ओर देखकर बहुत बेरहमी से हँसा।

ट्राम पर बैठकर मैं अपने घर जाने वाले रास्ते पर उतर गयी। पाँच रुपये मैंने तुड़वा लिये थे। घर जाकर जब पन्द्रह आने पिता के हाथ पर रखे तो वे प्रसन्न होने के बजाय हैरान अधिक हुए। घर में किसी ने नहीं पूछा कि मैं पैसे कहाँ से लायी हूँ?”

अब तक डॉक्टर ने कोई हामी नहीं भरी थी। अबतक वह पत्थर की मूर्ति की तरह अचल सुन रहा था। अब वह थोड़ा-सा हिला और उसने एक गहरी साँस ली। वह हिलकर फिर अचल हो गया जैसे कि आगे सुनने के लिए तैयार हो गया हो।

“अब मैं शाम को ज़रा तैयार होकर माँगने जाती। जाती भी क्यों न? इसी तरह तो मेरे पिता और बेटे को भात मिलता था। उस बाबू की तरह काम देने वाले मुझे अक्सर मिल जाते थे। वे मेरी शर्मीली, निर्लज्ज आँखों से मेरी रजामंदी समझ जाते थे और काम देने का बहाना करके ले जाते थे। वे हर सम्प्रदाय और धर्म के लोग होते थे, पर होते सब सूटिड-बूटिड।

एक दिन जब मैं घर आयी तो हमारे पड़ोसी गणपति मुखोपाध्याय मेरे पिता के साथ बड़े जोश से बात कर रहे थे-”राम! राम!! कभी पहले भी ऐसा अनर्थ सुना था? ब्राह्मण ऐसी बातें करे। ब्राह्मण तो धर्म का आधार है। विधवा विवाह अधर्म है। हमारे बीच कुछ ऐसे लोग पैदा हो गये हैं जो कान्फ्रेंसों में बड़ी बेशर्मी से विधवा विवाह का प्रचार और समर्थन करते हैं। मैंने सुख का साँस लिया जब इस कान्फ्रेंस में विधवा विवाह का प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। पर फिर भी अधर्मियों की गिनती बढ़ती जा रही है। पता नहीं भगवान क्या करने वाला है?”

मैं यह काम काफी समय करती रही और इस काम में निपुण हो गयी। जवान विधवाओं को जिस बात का डर होता है, उसकी रोकथाम मैंने अपने जैसी काम करने वाली और औरतों से सीख ली थी।

आखिर एक दिन वह भी आया जब मैं अनैतिक काम करने के अपराध में पकड़ ली गयी। मेरे साथ अनैतिक कार्य करने वाला पता नहीं कैसे बच निकला। मेरे विरुद्ध गवाहों में शहर का एक सम्मानित व्यक्ति भी था जो उस शानदार कोठी में रहता था, जिसके पास से मैं पकड़ी गयी थी। मैंने उसे और पुलिस को अपनी मुसीबतों की कहानी बतानी चाही-”मुझे कोई काम नहीं देता, मेरा बच्चा भूख मर जाएगा।” पर कानून के सामने यह सब बहाने थे। मेरा पता लेकर मेरे भाई और पिता को ख़बर कर दी गयी। ऐसे अवसर पर उन्होंने भी मुझे अपनाने से इनकार कर दिया। मुकदमा चला और मुझे सजा हो गयी, पर पहला जुर्म होने के कारण मजिस्ट्रेट ने कुछ नरमी दिखायी।

जेल काटकर मैं घर गयी। पिताजी सूखकर काँटा हो गये थे। मेरा बच्चा मरने वाला था। दादा और उसके बच्चों का बुरा हाल था। मैं वापस लौट आयी और सबसे पहले परिचित व्यक्ति की सहायता से गैर कानूनी कामों को कानूनी बनाने में सफल हो गयी। मुझे खुले तौर पर बैठक में बैठकर काम करने का लाइसेंस मिल गया। सोनागाछी में एक छोटी-सी कोठरी में मैंने काम शुरू किया। नई-नई होने के कारण कई आदमी आते और अच्छे पैसे मिल जाते। मेरे भाई और पिता को इस बात का पता नहीं था। एक दिन मैं अपने बच्चे को भी वहाँ से उठा लायी। लगभग दो महीने के बाद मैंने एक अच्छी बाड़ी में दो कमरे ले लिये। मालदार आदमी आने लगे। मैंने बिजली, पंखा, रेडियो-सेट तथा और सजावट की चीजें भी खरीद लीं। अब मैं अपने ग्राहक को पैसों से परखती थी और मर्जी का ग्राहक ही रखती थी।

एक दिन मेरी पड़ोसिन मेरे कमरे में आयीं। पूछने से पता चला कि मेरी बिरादरी की ही हैं।

“अरे, तू अच्छी दुजाति है?” उसने कहा-”तेरे घर तो ठाकुर ही नहीं हैं। क्या तू रोज ठाकुर-पूजा नहीं करती?”

मैं हैरान थी। पूछने से पता चला कि हमारी बिरादरी की हर वेश्या के घर में शिवजी होते हैं और शिवपूजकों में वेश्याओं की ही तादाद ज्यादा है। पंडित आते हैं और फूल चढ़ाते हैं। दो मिनट पूजा भी करते हैं और पाँच रुपया महीना लेते हैं। मैंने उसे पण्डित लगा देने के लिए कहा। उसी दिन मैं एक ठाकुर की तस्वीर खरीद लायी। दूसरे दिन पण्डितजी आये। वे गणपति मुखोपाध्याय ही थे। पर मैंने यह प्रकट नहीं होने दिया कि मैं उन्हें पहचानती हूँ। पूजा की माहवारी रकम मैंने उन्हें पेशगी ही दे दी।

मेरे पास ऊँचे तबके के ग्राहकों के अतिरिक्त दरोगा और मजिस्ट्रेट भी आते थे। क्या आपको यह जानकार आश्चर्य नहीं होगा अगर मैं यह कहूँ कि एक दिन वह मजिस्ट्रेट भी आया जिसने मुझे सजा दी थी?”

डॉक्टर यह सुनकर कुछ इस तरह से हिला जैसे किसी ने उसे झकझोर दिया हो। पारू ने कहानी जारी रखी-

“दूसरे ही महीने बाड़ी के दरबान ने मुझसे औरों से अधिक किराया माँगा। उसने अपनी मजबूरी जतलाते हुए कहा-”मेरे बस में कुछ भी नहीं है। मैं तो मालिक के हुक्म पर चलता हूँ। आप खुद मालिक को उनके द$फ्तर में मिल लें।”

मैंने उससे मालिक के दफ्तर का पता ले लिया। जब मैं वहाँ पहुँची तो आप हैरान न हों, बाड़ी के एक सौ कमरों की वेश्याओं से लगभग डेढ़ सौ रुपया माहवारी किराये के हिसाब से 15000 रुपये वसूल करने वाला सेठ वही आदमी था जिसने मेरे विरुद्ध अनैतिक और $गैर$कानूनी काम करने की गवाही दी थी। वह मुझे मनाना चाहता था। पर मैं उसे इतनी नफ़रत करती थी कि मैंने उसकी कोई बात नहीं मानी और उसने भी किराये के मामले में मेरी एक न सुनी। मैं वापस लौट आयी और घर आकर पता चला कि सोनागाछी के इला$के में उसकी ऐसी और भी बाडिय़ाँ हैं।

पता नहीं मेरी अमीरी का मेरे पिता और भाई को कैसे पता चल गया, शायद पुजारी से। वे मेरे पास पहुँच ही गये। उनका बुरा हाल देखकर मुझसे रहा नहीं गया। मैं उन्हें अक्सर कुछ-न-कुछ दे देती।

मैं अक्सर बाजार जाती। फुटपाथों पर माँग रही लड़कियों को दिल खोलकर दान देती। कितनी मूर्ख थी मैं! क्या मैं इस तरह उन्हें सोनागाछी पहुँचाने से रोक सकती थी?

एक रात मेरे पास मनपसन्द पंजाबी ग्राहक आये। उनके साथ एक अजीब आदमी अजीब-से लिबास में आया। चौड़ा पाजामा, खुला कुर्ता, पैरों में चप्पल, औरतों की तरह लम्बे बाल जो पीछे की ओर फेंके हुए थे। उसने कमरे के बीच खड़े होकर चारों तरफ घूमकर देखा। कोने में ठाकुर को देखकर उसने अपनी भाषा में मेरे ग्राहकों से पूछा-”ठाकुर की पूजा कौन करता है?” मेरे उत्तर को उसके साथियों ने अनूदित करके सुनाया जिसे सुनकर उसने कहा-”तो वह पुजारी कभी भी वेश्यावृत्ति के विरुद्ध और विधवा विवाह के पक्ष में नहीं हो सकता।” मेरे कहने पर जो भी बात यह अजीब आदमी कहता उसके साथी तुरन्त उसका अनुवाद करके मुझे सुना देते, चाहे वह बात मेरे लिए होती या न होती।

दीवार पर लगी लीडरों की तस्वीरें देखकर उसने पूछा-”क्या ये आपको बहुत अच्छे लगते हैं?” मेरे हाँ कहने पर उसने फिर पूछा-”क्या ये आपको बहुत अच्छे लगते हैं?” मेरे हाँ कहने पर उसने फिर पूछा-”क्यों?”

“क्योंकि इन्होंने भारत को आजाद करवाने में हिस्सा लिया,” मैंने उत्तर दिया।

उसने गहरा साँस खींचकर अपने साथी से कहा-”जब तक सभी को काम अच्छा खाना, जरूरी कपड़े, स्वास्थ्यवर्धक नहीं घर मिलते, वेश्यावृत्ति कभी नहीं हट सकती। चाहे तोपों, बन्दूकों से कोई देश कितना भी महान् हो, जब तक वेश्यावृत्ति किसी भी रूप में है वह देश असल में गुलाम है।”

बात को जारी रखते हुए उसने कहा-

“ये मजदूरी करें, यदि नहीं रह सकतीं तो अपना भार हल्का करने के लिए अपने जैसे मजदूरों से शादी करें, मिलकर बच्चों को पालें, अनुभव से ज्ञान प्राप्त करें, काम न मिले तो उनसे इकट्ठा होकर लड़ें जो उन्हें काम दे सकते हैं पर अपने लाभ के लिए और ऐश्वर्य का सामान कायम रखने के लिए काम नहीं देते यह है काम...असली काम। जो यह काम करता गोली खाकर मर जाता है, वह महान् है-वह असली लीडर है।”

अचानक उसकी नज़र गद्दी के ऊपर लटक रही शिवजी की तस्वीर पर पड़ी।

“क्या भगवान् सभी कुछ देखता है?”

“हाँ,” मैंने कहा।

“क्या वह गद्दी पर हो रहे कुकर्म को भी देखता है?”

मुझे चक्कर आ गया। मैं पैरों के बल ही ज़मीन पर बैठ गयी। कुछ होश आने पर न जाने क्यों मैंने उसकी बेइज्जती करके बाहर निकाल दिया। उसने बाहर निकलते हुए अपने साथियों को, साधु की तरह कहा-”अभी इसकी बुद्धि मलिन है। हम एक बार इसके पास फिर आयेंगे।”

फिर वे चले गये। मुझे अपने ग्राहक के घर का पता था। बाद में मैंने एक दिन छोडक़र कई खत डाले। प्राय: पहली चि_ी के जवाब में ही वह रात को आ जाएा करता था। पर इस बार कोई उत्तर नहीं आया। मैंने खुद खोज की। वह घर छोडक़र चला गया था।

अख़बारों में ख़बरें छप रही थीं कि नगर सभा वेश्याओं को सोनागाछी से निकाल शहर से पन्द्रह मील दूर बसाने की योजना पर विचार कर रही है। वेश्याएँ इसके विरुद्ध थीं। हमने चन्दा इक_ा करके एक-दो अखबारों के सम्पादकों को अपने साथ मिला लिया। नगर सभा के विशाल हॉल में इस बात पर विचार होना था। मैं भी प्रसिद्ध वेश्याओं में से एक गिनी जाती थी। इसलिए मैं भी और साथियों के साथ वहाँ पहुँची। बाड़ी का मालिक सेठ भी नगर सभा का प्रतिनिधि था। उसने वेश्याओं के शहर में रखे जाने के पक्ष में धुआँधार भाषण दिया-”वेश्याओं के शहर से बाहर जाने पर शरीफ आदमियों की बेटियों-बहनों के लिए शहर में रहना, घूमना-फिरना कठिन हो जाएगा। वेश्याएँ समाज का वह अंग हैं जो बदमाशों की कामवासना के जोश को खुद पर सहन कर शरीफजादियों की इज्जत को बचाती हैं।” आज तो वह वेश्याओं के अनैतिक कार्यों को मानो सदाचार बना रहा था। मेरी और वेश्या-बहनों को उसकी तकरीर बहुत अच्छी लगी। तकरीर उनके हक में थी। और मेरे भी। पर उस अजीब आदमी की बातें मुझे तकरीर के समय बार-बार याद आ रही थी। मैं इस भले मानस सेठ की असली मंशा को उनके सहारे समझने के योग्य हो गयी थी।

हमें शहर से बाहर निकालने की योजना रद्द हो गयी। मेरी साथिनें खुश थीं, पर मैं गम्भीर होती जा रही थी। मैं उनके साथ बाहर आ रही थी। सेठ को उसकी तकरीर पर बधाइयाँ मिल रही थीं, फोटो खींची जा रही थीं। मुझे पता नहीं क्यों बहुत गुस्सा आ गया। मैंने झुककर सैंडल उतार ली और खींचकर उसके मुँह पर दे मारी।

चारों तरफ हाहाकार मच गया। मुझे गिरफ्तार कर लिया गया। मेरी साथिनों ने मुझे बुरा-भला कहा। मुझ पर मुकदमा चला। मेरे बयान को मक्कारी कहा गया। सेठ की मेरे विरुद्ध गवाही का सहारा लेकर मेरी उससे दुश्मनी प्रमाणित की गयी। मुझे सजा दी गयी।

मैं अपनी कहानी जेल की दीवारों को सुनाती थी और कोई सुनता ही नहीं था। दिन में वे मेरा मुँह बन्द कर देते थे। मैं रात को सपनों में इकट्ठे हुए लोगों को सुनाती थी। आपके सिवा किसी ने भी मेरी बात नहीं सुनी। यही है मेरी कहानी, यही है मेरा सवाल, यही है मेरी समस्या। इसका उत्तर इसका हल?”

“मैं पूरा आदमी नहीं हूँ, बहन!” डाक्टर ने कहा-”आधे आदमी के पास हमदर्दी होती है, समझ होती है, मैं आधा आदमी हूँ। पूरे आदमी को तो तुमने निकाल दिया, हल को तुमने ठुकरा दिया, पर वह तुम्हारे पास फिर ज़रूर आएगा। यदि जल्दी है तो तुझे खुद ढूँढऩा पड़ेगा। वह किसी-न-किसी रूप में, कोई-न-कोई भाषा बोलता, किसी कारखाने में या किसी खेत में मिल जाएगा। पर मैं आधा आदमी हूँ। मैं सरकार का वेतनभोगी डॉक्टर हूँ। मेरे पास हल कहाँ? तुम पागल नहीं हो। तुम कभी पागल थीं, पर अब नहीं। तेरी स$जा ख़त्म होने वाली है और अब तुम कोई 'काम' करना।”

'काम' शब्द पर डॉक्टर ने ज़ोर दिया। पारू ने उसे आँखें पोंछते हुए देखा।