डेविड हार्वे द्वारा 'पूँजी' का अध्ययन / वर्तमान सदी में मार्क्सवाद / गोपाल प्रधान

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2010 में वर्सो द्वारा प्रकाशित डेविड हार्वे की किताब 'ए कंपेनियन टु मार्क्स' कैपिटल' का जिक्र किए बगैर यह लेख अधूरा ही रहेगा। डेविड हार्वे मूलत: भूगोलवेत्ता हैं और शहरों पर अपने अध्ययन के क्रम में वे सामाजिक विषयों की ओर आए और फिर मार्क्सवाद का व्यवस्थित अध्ययन किया। रुचिपूर्वक वे हरेक साल मार्क्स की 'पूँजी' पर अनौपचारिक व्याख्यान देते रहे। यह किताब विद्यार्थियों के लिए 'पूँजी' पर दिए गए उनके व्याख्यानों का सुसंपादित संकलन है। किताब में 'पूँजी' के सिर्फ पहले खंड का सांगोपांग अध्ययन किया गया है। शायद इसके पीछे यह आग्रह भी रहा हो कि मार्क्स चूँकि पहला खंड ही अपने जीवन में पूरा कर सके थे इसलिए उसी में उनकी अंतर्दृष्टि सबसे प्रामाणिक रूप से व्यक्त हुई होगी। अपनी किताब को वे महज कंपेनियन इसलिए भी कहते हैं क्योंकि उनका मकसद विद्यार्थियों की रुचि मूल पुस्तक पढ़ने में जगाना था। लेखक की कोशिश अति सरलीकरण से बचते हुए पुस्तक को सुबोध बनाना है इसीलिए लेखक ने व्याख्या संबंधी विवादों को छोड़ दिया है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि यह कोई निस्संग व्याख्या है बल्कि विभिन्न तरह के लोगों को लगभग चालीस बरस तक समझाने के क्रम में उपजी है। लेखक शुरुआत माल और विनिमय संबंधी पहले अध्याय से करता है। लेखक हमारा ध्यान सबसे पहले प्रथम वाक्य की ओर खींचता है और बताता है कि इस वाक्य में दो बार 'प्रकट' आता है। एक बार यह कि 'जिन समाजों में पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली व्याप्त है वहाँ सामाजिक संपदा 'माल के विशाल संचय के रूप में प्रकट होती है' और दूसरी बार यह कि 'एक माल उसके प्राथमिक रूप के बतौर प्रकट होता है।' लेखक इस बात पर जोर देता है कि 'प्रकट' होना और 'होना' एक ही नहीं है। यह शब्द मार्क्स की पूरी किताब में अनेक बार आया है जिसका मतलब है कि उनके मुताबिक जो ऊपर से दिखाई दे रहा है उसके नीचे कुछ चल रहा है जो असली है। दूसरी बात यह कि मार्क्स सिर्फ पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली पर विचार करना चाहते हैं। ये दोनों बातें आगे की बातों को समझने के लिए ध्यान में रखना जरूरी है। माल से बात शुरू करने का लाभ यह है कि सब लोग उसके संपर्क में रोज आते हैं।

मrर्क्स की 'पूँजी' ऐसी किताब है जिसमें दार्शनिकों, अर्थशास्त्रियों, नृतत्वशास्त्रियों, पत्रकारों और राजनीति वैज्ञानिकों के साथ ही तमाम साहित्यकार, परीकथाएँ और मिथक आते रहते हैं। किताब के रूप में इसे पढ़ना अलग तरह का अनुभव है क्योंकि खंडित उद्धरणों से वृहत्तर तर्क के भीतर उनकी अवस्थिति समझ में नहीं आती। सभी तरह के अनुशासनों में दीक्षित लोग इसमें भिन्न अर्थ निकालते हैं क्योंकि यह इतने भिन्न किस्म के स्रोतों की ओर आपका ध्यान ले जाती है। इन स्रोतों को मार्क्स आलोचनात्मक विश्लेषण की धारा से जोड़ते हैं। आलोचनात्मक विश्लेषण का अर्थ पहले के सोच विचार को एकत्र कर उसे नए ज्ञान में बदल देना है। इस किताब में जो धाराएँ मौजूद हैं वे हैं सत्रहवीं से उन्नीसवीं सदी तक मुख्य रूप से इंग्लैंड में विकसित राजनीतिक अर्थशास्त्र की धारा, दार्शनिक गवेषणा की धारा जो ग्रीक दार्शनिकों से शुरू हो कर हेगेल तक आती है और इन्हीं के साथ तीसरी धारा काल्पनिक समाजवादियों की धारा है।

मार्क्स अपनी किताब की समस्याओं के प्रति सचेत थे और भूमिकाओं में उन्होंने इनकी चर्चा की। फ्रांलीसी संस्करण की भूमिका में उन्होंने स्वीकार किया कि अगर इसे धारावाहिक रूप से छापा जाए तो मजदूर वर्ग के लिए अच्छा होगा लेकिन उन्होंने सावधान भी किया कि इससे पुस्तक की समग्रता को एकबारगी ग्रहण करने में असुविधा होगी। इस किताब में मार्क्स का मकसद राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना के जरिए पूँजीवाद की कार्यपद्धति को उद्घाटित करना था। इस लिहाज से उन्होंने दूसरे संस्करण की भूमिका में लिखा कि 'प्रस्तुति का रूप गवेषणा की पद्धति से अलग होना ही चाहिए। गवेषणा के दौरान विस्तार से सामग्री एकत्र कर के उसके विकास के अलग अलग रूपों का विश्लेषण किया जाता है, उनके आपसी संबंधों की छानबीन की जाती है। इस काम के खत्म होने के बाद ही उस विकास की प्रस्तुति संभव होती है।' मार्क्स की गवेषणा में यथार्थ की अनुभूति तथा उस अनुभूति का राजनीतिक अर्थशास्त्रियों, दार्शनिकों और उपन्यासकारों द्वारा वर्णन आता है। इसके बाद वे समस्त सामग्री की गहन आलोचना करते हैं ताकि उस यथार्थ की कार्यपद्धति को स्पष्ट करनेवाले कुछ सरल किंतु जोरदार धारणाओं को खोज सकें। आम तौर पर मार्क्स किसी परिघटना को समझने के लिए गहरी धारणाओं के निर्माण के लिए उनके सतही आभास के विश्लेषण से शुरुआत करते हैं। इसके बाद सतह के नीचे उतर कर असल में कार्यरत शक्तियों को उद्घाटित करते हैं।

मार्क्स की इस किताब को पढ़ते हुए उनकी धारणाओं को ले कर पहले उलझन होती है कि आखिर ये धारणाएँ आ कहाँ से रही हैं लेकिन धीरे धीरे आप मूल्य और वस्तु पूजा जैसी धारणाओं को समझना शुरू कर देते हैं। दिक्कत यह है कि किताब के खत्म होने पर पूरा तर्क समझ में आता है इसीलिए लेखक का सुझाव है कि एक बार आद्यंत खत्म कर लेने के बाद दोबारा पढ़ने से यह किताब मजा देती है। खासकर शुरू के तीन अध्याय तो बिना कुछ समझ में आए ही बीत जाते हैं। इसके बाद के अध्यायों में ही पता चलता है कि उनके द्वारा निर्मित धारणाओं का उपयोग क्या है।

मार्क्स माल की धारणा से शुरू करते हैं। उनके लेखन को देखते हुए उम्मीद बनती है कि बात वर्ग संघर्ष से शुरू होनी चाहिए थी लेकिन तीन सौ पन्नों से पहले इस तरह की कोई बात ही नहीं शुरू होती। या फिर मुद्रा से ही शुरू करते। खुद मार्क्स पहले मुद्रा से ही शुरू करना चाहते थे लेकिन अध्ययन के बाद उन्हें लगा कि पहले मुद्रा की व्याख्या करना जरूरी है। श्रम से भी तो शुरू कर सकते थे? कुछ कागजों से पता चलता है कि बीस तीस सालों तक वे इस समस्या से जूझते रहे थे कि शुरू कहाँ से करें। अंत में उन्होंने माल से शुरू किया और इसकी कोई वजह भी नहीं बताई है। मार्क्स ने जिस धारणात्मक औजार का निर्माण किया है वह सिर्फ 'पूँजी' के पहले खंड के लिए नहीं बल्कि अपने समूचे विश्लेषण के लिए बनाया है।

अगर आप पूँजीवादी उत्पादन पद्धति को समझना चाहते हैं तो तीनों खंड देखने होंगे और फिर भी एक बात ध्यान में रखना होगा कि जितनी बातें उनके दिमाग में थीं उनका महज आठवाँ हिस्सा ही वे लिख सके थे। अपनी किताब की पूरी योजना उन्होंने कुछ इस तरह बनाई थी -(1) सामान्य, अमूर्त निर्धारक जो कमोबेश सभी सामाजिक रूपों में लागू होते हैं, (2) वे कोटियाँ जो बुर्जुआ समाज की आंतरिक संरचना की बनावट हैं और जिन पर बुनियादी वर्ग आधारित हैं। पूँजी, पगारजीवी श्रम, भू संपदा। उनका अंतस्संबंध। शहर और देहात। तीन बड़े सामाजिक वर्ग। उनके बीच लेन देन। वितरण। उधारी व्यवस्था (निजी)। राज्य के रूप में बुर्जुआ समाज का संकेंद्रण। उसका अपने साथ संबंध। 'अनुत्पादक' वर्ग। कराधान। सरकारी कर्ज। सार्वजनिक उधारी। जनसंख्या। उपनिवेश। उत्प्रवास। (4) उत्पादन का अंतरराष्ट्रीय संबंध। अंतरराष्ट्रीय श्रम विभाजन। अंतरराष्ट्रीय विनिमय। निर्यात और आयात। विनिमय की दर। (5) विश्व बाजार और संकट। मार्क्स अपनी इस परियोजना को पूरा नहीं कर सके। इनमें से ज्यादातर की समझदारी पूँजीवादी उत्पादन को समझने के लिए बेहद जरूरी है। आप देख सकते हैं कि किताब के पहले खंड में मार्क्स पूँजीवादी उत्पादन पद्धति को सिर्फ उत्पादन के नजरिए से समझते हैं। दूसरे खंड (अपूर्ण) में विनिमय संबंधों का परिप्रेक्ष्य अपनाया गया है। तीसरे खंड (अपूर्ण) में पूँजीवाद के बुनियादी अंतर्विरोधों के उत्पाद के बतौर प्रथमत: संकट-निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया गया है। उसके बाद ब्याज, वित्त पूँजी पर मुनाफा, जमीन का किराया, व्यापारिक पूँजी पर मुनाफा, कराधान आदि के रूप में अधिशेष का वितरण पर विचार किया गया है।

मार्क्स की पद्धति द्वंद्ववादी थी जिसे उनके मुताबिक आर्थिक मुद्दों पर पहले लागू नहीं किया गया था। अब दिक्कत यह है कि अगर आप किसी खास अनुशासन में गहरे धँसे हुए हैं तो संभावना ज्यादा इस बात की है कि द्वंद्ववादी पद्धति का इस्तेमाल आपके लिए मुश्किल होगा। द्वंद्ववाद के मुताबिक प्रत्येक वस्तु गति में होती है। मार्क्स भी महज श्रम की नहीं बल्कि श्रम की प्रक्रिया की बात करते हैं। पूँजी भी कोई स्थिर वस्तु नहीं बल्कि गतिमान प्रक्रिया है। जब वितरण रुक जाता है तो मूल्य गायब हो जाता है और पूरी व्यवस्था भहरा जाती है। उनकी किताब में अक्सर वस्तुओं के बजाय उनके आपसी संबंधों का जिक्र दिखाई पड़ता है। आज की तारीख में 'पूँजी' के अध्ययन की एक और समस्या है। पिछले तीस सालों से जो नव- उदारवादी प्रतिक्रांतिकारी धारा विश्व पूँजीवाद के क्षेत्र में प्रबल रही है उसने उन स्थितियों को और मजबूत किया है जिन्हें मार्क्स ने 1850-60 के दशक में इंग्लैंड में विखंडित किया था।

बात दोबारा माल से ही शुरू करते हैं। माल का व्यापार बाजार में होता है। सवाल खड़ा होता है कि आखिर यह आर्थिक लेन देन कैसा है। माल मनुष्य के किसी न किसी अभाव, जरूरत या इच्छा को पूरा करता है। यह हम से बाहर मौजूद कोई वस्तु होती है जिसे हम अधिग्रहीत करते और अपनाते हैं। मार्क्स तुरंत ही घोषित करते हैं कि उन्हें उन जरूरतों की प्रकृति से कोई लेना देना नहीं, उन्हें इससे भी कोई मतलब नहीं कि ये पेट से उपजती हैं या दिमाग से। उन्हें सिर्फ इससे मतलब है कि लोग उन्हें खरीदते हैं और इस काम का रिश्ता इस बात से है कि लोग जिंदा कैसे रहते हैं। अब माल तो लाखों हैं जिन्हें मात्रा या गुण के हिसाब से हजारों तरह से वर्गीकृत किया जा सकता है। लेकिन वे इस विविधता को एक किनारे धकेल कर उनको उनके सामान्य गुण में बदलते हैं जिसे वे उपयोगिता के बतौर व्याख्यायित करते हैं। वस्तु का यह 'उपयोग मूल्य' उनके समूचे चिंतन में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मार्क्स ने कहा था कि सामाजिक विज्ञानों में प्रयोगशाला की सुविधा न होने से हमें अमूर्तन का सहारा लेना पड़ता है। आप देख सकते हैं कि कैसे भिन्न भिन्न वस्तुओं के भीतर से उन्होंने अमूर्तन के जरिए 'उपयोग मूल्य' प्राप्त किया। लेकिन जिस तरह के समाज का वर्णन मार्क्स कर रहे थे यानी पूँजीवादी समाज उसमें माल, विनिमय मूल्य के भी भौतिक वाहक होते हैं। हार्वे हम से वाहक शब्द पर गौर करने को कहते हैं क्योंकि किसी चीज का वाहक होना और वही चीज होने में फर्क है। अब मार्क्स एक नई धारणा से हमारा परिचय कराना चाहते हैं।

जब हम बाजार में विनिमय की प्रक्रिया को देखते हैं तो नाना वस्तुओं के बीच विनिमय की नाना दरें और देश काल की भिन्नता होने से एक ही वस्तु की अलग अलग विनिमय दरें दिखाई पड़ती हैं। इसलिए पहली नजर में लगता है कि विनिमय दरें 'कुछ कुछ सांयोगिक और शुद्ध रूप से सापेक्षिक' हैं। इससे प्रकट होता है कि 'अंतर्निहित मूल्य, यानी ऐसा विनिमय मूल्य जो वस्तु के साथ अभेद्य रूप से जुड़ा हुआ, उसमें अंतर्निहित है, का विचार आत्म-विरोधी प्रतीत' होता है। यहाँ आ कर वे कहते हैं कि भिन्न भिन्न वस्तुओं में आपसी विनिमय के लिए जरूरी है कि वे किसी अन्य वस्तु से तुलनीय हों। 'उपयोग मूल्य के रूप में वस्तुएँ एक दूसरे से गुणात्मक तौर पर अलग होती हैं जबकि विनिमय मूल्य के रूप में उनमें सिर्फ मात्रा का भेद हो सकता है और उपयोग मूल्य का एक कण भी बचा नहीं रहता।' वस्तुओं की विनिमेयता उनके उपयोग मूल्य पर निर्भर नहीं होती। अब उस तीसरे तत्व का प्रवेश होता है जो इन वस्तुओं के बीच साझा है और वह है कि ये सभी 'श्रम का उत्पाद' हैं। मतलब सभी वस्तुएँ अपने उत्पादन में लगे मानव श्रम का वाहक होती हैं। इसके बाद वे पूछते हैं कि आखिर किस तरह का श्रम उनमें साकार हुआ है। यह ठोस-श्रम यानी श्रम-काल तो हो नहीं सकता क्योंकि तब वही वस्तु अधिक कीमती होगी जिसके उत्पादन में ज्यादा समय लगेगा। लोग फिर उस वस्तु को खरीदेंगे जिसे कम समय में बनाया गया होगा। इस समस्या को हल करने के लिए वे मानव श्रम का भी अमूर्तन करते हैं। मूल्य फिर क्या हुआ ? माल में 'साकार-या-वस्तुकृत-अमूर्त मानव श्रम।' तो यह अमूर्त मानव श्रम है श्रम-शक्ति अर्थात समाज की 'समूची श्रम-शक्ति जो मालों की दुनिया में साकार' होती है।

इस धारणा में वैश्विक पूँजीवाद की धारणा शामिल है जिसको उन्होंने 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र' में पूरी तरह से उद्घाटित किया था। आज का वैश्वीकरण तो उनके समय नहीं था लेकिन वे पूँजीवादी उत्पादन पद्धति की विश्वव्यापी उपस्थिति को भविष्य में साकार होता देख रहे थे। इसी के आधार पर उन्होंने मूल्य को 'सामाजिक रूप से अनिवार्य श्रम-काल' के बतौर परिभाषित किया। जिन्होंने रिकार्डो का लेखन देखा है वे समझेंगे कि मार्क्स 'सामाजिक रूप से अनिवार्य श्रम-काल' की धारणा के अलावा ज्यादातर उन्हीं का अनुसरण कर रहे थे लेकिन यह छोटी-सी बात बहुत बड़ा फर्क पैदा कर देती है क्योंकि तुरंत ही सवाल पैदा होता है कि समाजिक रूप से अनिवार्य क्या है और उसे तय कौन करता है। मार्क्स इसका कोई जवाब तो नहीं देते लेकिन पूरी किताब में यह विषय समाया हुआ है। पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में आखिर कौन-सी सामाजिक अनिवार्यताएँ नत्थी हैं? यह हार्वे को बड़ा सवाल लगता है और अनिवार्यताओं के विकल्प खोजने के लिए प्रेरित करता है। मूल्य स्थिर नहीं होता बल्कि तकनीक और उत्पादकता में क्रांति होने पर वे बदलते रहते हैं।

तकनीक और उत्पादकता के साथ ही वे अन्य कारकों की चर्चा भी करते हैं। इसमें शामिल हैं 'मजदूरों के कौशल का औसत स्तर, विज्ञान के विकास और उसके तकनीकी प्रयोग का स्तर, उत्पादन प्रक्रिया का सामाजिक संगठन, उत्पादन के साधनों का विस्तार और प्रभाव और प्राकृतिक पर्यावरण की स्थितियाँ।' इनकी गणना करना मार्क्स का मकसद नहीं है बल्कि वे महज इस तथ्य पर जोर देना चाहते हैं कि वस्तु का मूल्य स्थिर नहीं होता वरन अनेक कारकों से प्रभावित होता रहता है।

यहाँ आ कर मार्क्स के तर्क में एक पेंच पैदा होता है। वे उपयोग मूल्य की ओर दोबारा लौटते हैं और कहते हैं कि 'मूल्य बने बगैर भी कोई वस्तु उपयोग मूल्य हो सकती है।' हम साँस लेते हैं लेकिन हवा को बोतल में बंद कर अब तक उसे खरीद-बेच नहीं सके हैं। वे यह भी जोड़ते हैं कि 'माल बने बगैर भी मानव श्रम का कोई उत्पाद उपयोगी हो सकता है।' घरेलू अर्थतंत्र में बहुत कुछ माल उत्पादन से बाहर उत्पादित किया जाता है। इसलिए पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में सिर्फ उपयोग मूल्य नहीं बल्कि दूसरों के लिए उपयोग मूल्य का उत्पादित होना जरूरी है जिसे बाजार की मार्फत दूसरों तक पहुँचना होता है। मतलब कि माल में उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य होते हैं लेकिन विनिमय मूल्य में निहित 'मूल्य' के साकार होने के लिए उसमें उपयोग मूल्य का होना जरूरी है।

इसके बाद हार्वे अनुभाग 2 की व्याख्या शुरू करते हैं और बताते हैं कि इसमें मार्क्स अनेक जटिल सूत्रों को उठाते हैं और उन्हें महत्वपूर्ण कह कर आपको समझने के लिए आमंत्रित करते हैं। मार्क्स लिखते हैं, 'उपयोग मूल्य दो तत्वों का संश्रय होता है, प्रकृति द्वारा प्रदत्त सामग्री और श्रम।' इसलिए मनुष्य जब उत्पादनरत होता है तो प्रकृति के नियमों के अनुसार ही आगे बढ़ सकता है। हार्वे का यह अध्ययन एक हद तक 'पूँजी' के प्रति उस आकर्षण का प्रमाण है जो अनेक आर्थिक और अर्थेतर कारणों से पैदा हुआ है। तकरीबन 348 पृष्ठों की इस किताब के कुछेक शुरुआती अंशों का सार हमने महज बानगी के लिए पेश किया है। कुछ हद तक इस व्याख्या में फ्रांसिस ह्वीन की जीवनी में संकेतित पद्धति का उपयोग किया गया है और कुछ विनिमय मूल्य की प्रभुता की मार्क्स द्वारा की गई पहचान और उससे पैदा होने वाले संकट के आभास के बारे में मार्क्स के विश्लेषण पर जोर के बढ़ने का संकेत है। स्थान की कमी के कारण हम इस विवेचन को आगे विस्तार देने में असमर्थ हैं।