डॉलर सिनेमा और डॉलर उपनिवेशवाद / जयप्रकाश चौकसे

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डॉलर सिनेमा और डॉलर उपनिवेशवाद
प्रकाशन तिथि : 16 अक्तूबर 2012


भारतीय सिनेमा में आर्थिक उदारवाद के बाद मल्टीप्लैक्स का आगमन हुआ तथा बड़े औद्योगिक घरानों ने भी इस क्षेत्र में प्रवेश किया। मल्टीप्लैक्स के आगमन से पूर्व सूरज बडज़ात्या की सलमान खान, माधुरी दीक्षित अभिनीत 'हम आपके हैं कौन' ने कम कीमत वाले टिकट के दौर में सौ करोड़ से ज्यादा आय अर्जित की, जिस कारण औद्योगिक घरानों ने इस क्षेत्र में प्रवेश करने का निर्णय लिया, क्योंकि भारी लाभ का कोई क्षेत्र उनसे अनदेखा कैसे रह सकता था। बहरहाल उसी दौर में आप्रवासी भारतीय लोगों ने दस डॉलर के महंगे टिकट खरीदकर हिंदुस्तानी फिल्में देखना शुरू किया और उस समय तक उनकी संख्या काफी बढ़ चुकी थी, जिससे 'डॉलर सिनेमा' का उदय हुआ। कुछ भारतीय फिल्मकारों ने डॉलर सिनेमा और आप्रवासी एशियाई लोगों के सिनेमा प्रेम के कारण यह घोषणा की कि अब वे उनकी पसंद की फिल्में ही बनाएंगे और उन्हें पिछड़े मध्यप्रदेश, बिहार और उत्तरप्रदेश के दर्शक की कोई चिंता नहीं है। कुछ लोगों ने अहंकारी भाव से कहा कि उनकी फिल्में भारतीय महानगरों और विदेश में बसे भारतीय लोगों की रुचियों के अनुसार ही बनाई जाएंगी।

गौरतलब यह भी है कि आप्रवासी दर्शक और ठेठ भारतीय दर्शक की रुचियों में क्या अंतर है? उन्हें मैनहट्टन, स्विट्जरलैंड और लंदन के दृश्य चाहिए, शिफॉन पहनीं या लगभग कुछ न पहनीं नायिकाएं पसंद हैं। वहीं हमारा दर्शक श्रीनगर, ऊटी और वासेपुर देखकर भी खुश होता है। बहरहाल, अमेरिका और लंदन में बसे भारतीय आम हिंदुस्तानी को उजड्ड, गंवार, गिरमिटिया समझते हैं, काले दर्शक मानते हैं और स्वयं को गोरा मानते हैं, जबकि तथ्य यह है कि गिरमिटिया वंशज हैं। ज्ञातव्य है कि अनेक वर्ष पूर्व काम की तलाश में विदेश गए लोगों को 'गिरमिटिया' कहते थे। मैंने अपनी किताब 'महात्मा गांधी और सिनेमा' में इस पर विस्तार से लिखा है। किताब इसी माह के अंत तक बाजार में होगी।

बहरहाल, हमारे फिल्मकार दो-तीन वर्ष में ही 'डॉलर सिनेमा' के भ्रम से मुक्त हो गए, क्योंकि इस बीच आम भारतीय दर्शक की बॉक्स ऑफिस ताकत से वे परिचित हो गए थे। भारतीय लोग विदेश में अपने क्षेत्र, जाति और भाषा के क्लब बना लेते हैं। गोयाकि वे अपनी अलगाववादी प्रवृत्तियों से पश्चिम की स्वतंत्र हवा में भी मुक्त नहीं होते तथा विदेश में खंड-खंड भारत रचते हैं। वे लोग रोजी-रोटी देने वाले देश के लोगों से सामाजिक व्यवहार नहीं करते, केवल काम-काजी संबंध रखते हैं। पारसी समुदाय जिस तरह भारतीय समाज में घुला, ऐसा कुछ वहां ये डॉलरवादी लोग नहीं करते। शायद यह भी एक कारण हो सकता है कि विदेशों में समय-समय पर उन पर आक्रमण होते हैं। ये आक्रमणकारी कुछ वैसी मनोवृत्ति रखते हैं, जैसे महाराष्ट्र के कुछ नेता बिहार के आदमी को मुंबई में फलते-फूलते नहीं देख पाते।

आप्रवासी भारतीय को भारत से केवल आज्ञाकारी पत्नियां चाहिए, क्योंकि विदेशी स्त्री समानता चाहती है और उनके जींस उन्हें पत्नी के रूप में दासी देखने के अभ्यस्त हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि संसार की सारी प्रवृत्तियां एक-दूसरे से जुड़ी हैं। भारत में काटे गए वृक्ष की कातर ध्वनि सुनकर अफ्रीका के दरख्त झुक जाते हैं और यह भी संभव है कि किसी और ग्रह पर अगर दरख्त हैं तो वे भी पृथ्वी के दरख्तों के कटने का शोक मनाते हों। बहरहाल, इंग्लैंड में बसे 6 लाख भारतीय गुजरातियों ने अपनी वोट और नोट शक्ति से नरेंद्र मोदी पर लगा प्रतिबंध हटवा लिया और ऐसी ही कोशिश अमेरिका में भी जारी है। सभी देशों में वोट बैंक के मिथक काम करते हैं। गुजरात के दंगों में तीन ब्रिटिश नागरिक जला दिए गए थे और उनके परिवार वाले वहां आंदोलन करते रहे हैं। वे तीनों ब्रिटिश नागरिक एक खास धर्म से संबंधित थे।

बहरहाल, इस तरह के प्रयास आप्रवासी भारतीय कर रहे हैं कि वे देश केवल उनके जन्म वाले प्रांत और केवल उनकी भाषा बोलने वाले प्रांतों से व्यापारिक समझौते करें, अर्थात देश में विदेशी पूंजी भी भारत की भाषा के आधार पर बनाए प्रांतों की संरचना के अनुसार हो। इसका अर्थ यह है कि बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान के अनेक लोग जब तक डॉलर शक्ति के रूप में नहीं उभरेंगे, तब तक उनके प्रांतों में डॉलरी कारखाने नहीं लगेंगे। स्वदेशी आंदोलन चलाने वाले गांधीजी अब पूरी तरह विस्मृत कर दिए गए हैं और शायद पोरबंदर भी गूगल के नक्शे पर नहीं है। इसका यह अर्थ भी है कि केंद्रीय सरकार को हाशिये में डालकर भारतीय संविधान के संघीय स्वरूप को तोड़ दिया जाए। आज ारत में अनेक समस्याएं हैं, परंतु देश का अखंड बना रहना राष्ट्रीय अस्मिता का मुद्दा है। जिन प्रवृत्तियों ने कुछ समय के लिए सिनेमा में खलल पहुंचाया, अब वे राजनीति में दखलंदाजी कर रही हैं।