डॉ.सुरंगमा यादव के हाइकु का काव्य-वैभव: (गाएगी सदी) / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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रघुवंशम् के प्रथम सर्ग का पहला श्लोक है-

वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ।

जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥ 1.1

पहले दो पदों ‘वागर्थाविव संपृक्तौ’ में वाणी/ शब्द और अर्थ को परस्पर ‘एकीकृत/ सम्बद्ध/ घनिष्ट’ बताया गया है । काव्य केवल शब्द नहीं, अर्थ भी उसमें समाया हुआ है । शब्द अपने आप में तब तक सार्थक नहीं होता, जब तक उसमें अर्थ की प्राण- प्रतिष्ठा नहीं होती। तुलसी भी मानस में कह चुके हैं-

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।

- शब्द और अर्थ- जल और उसकी लहर के समान एकाकार हैं, भिन्न नहीं हैं। वाणी और अर्थ की यह अभिन्नता ही भावों और विचारों के सम्प्रेषण का वाहक है। अगर हाइकु के सम्बन्ध में कहूँ, तो यह केवल 5+7+5=17 का वर्ण -विधान नहीं , उससे अधिक यह अनुभूतिपरक सम्प्रेषण है। इतनी संयमित शब्दावली में अर्थ का सन्धान कठिन है। दरिद्र भाषा, सपाट और उथला चिन्तन, उलझी अनुभूतियाँ एवं मृतप्राय कल्पनाएँ किसी भी काव्य-विधा के लिए संजीवनी नहीं बन सकतीं। सीमित शब्दावली में अनुभूतियों के प्रवाह को बाँधना, उसे सही अभिव्यक्ति देना दुष्कर है।

https://hindihaiku.wordpress.com/ हिन्दी हाइकु 04 जुलाई 2010 से निरन्तर एक सुदृढ़ मंच के रूप में विश्वभर में हिन्दी हाइकु- साहित्य का प्रसार कर रहा है। डॉ. सुरंगमा यादव जुलाई 27, 2017 से इस अन्तर्जाल से जुड़ी हैं। यह हाइकु -जगत् के लिए गर्व की बात है कि डॉ. सुरंगमा यादव को उनके हाइकु-संग्रह भावप्रकोष्ठ पर उत्तर प्रदेश सरकार ने 2021-22 का एक लाख रुपये का रामधारी सिंह ‘दिनकर’ पुरष्कार भी दिया है।

इनका नया हाइकु- संग्रह गाएगी सदी सार्थक सृजन की आश्वस्ति जैसा है। यह संग्रह इन 5 उपशीर्षकों में विभाजित है -ढाई आखर, वक़्त की धूप, हरित कथा, जग की लीला, सुधियों की सुरभि।

जीवन इन्द्रध्नुषी रंगों से सज्जित है, जिसमें प्रतिपल कुछ न कुछ घटता रहता है। कभी वह प्रियकर होता है, तो कभी अप्रिय भी। सुख के पल बहुत कम होते हैं, तो ऐसे व्यक्ति भी कम ही होते हैं, जो हमारी मनोभूमि से परिचित हों। दुख देने वाले अधिक होते हैं, अपने भी और पराए भी। जो निर्दय हों, व्यथित करने वाले हों, उनसे आशा ही क्या की जा सकती है-

चलाके तीर/ फिर पूछा तुमने-/ कहाँ है पीर।

ऐसी स्थिति में क्या किया जाए, सिर्फ़ धैर्य ही वह साथी है, जो सम्बल देता है-

जब भी रोया/ धीरज के धागों में/ मन पिरोया।

सभी जानते हैं कि जीवन क्षण-भंगुर है। यह तो रेत पर लिखे नाम की तरह है, जिसे आने वाली लहर कब बहा ले जाएगी, कुछ पता नहीं। इसे जीभर जी लेना चाहिए। यही इसकी सार्थकता है। हमारी कामनाएँ छलना की तरह हैं, जो हाथ में न हो या हाथ ही न आए, उसे ही पाने की जिद करती हैं- रुक लहर/ रेत पे लिखा नाम/ देखूँ जीभर।

झील में चाँद/ पकड़ने की ज़िद/ हठीला मन।

प्रिय को पाने की, पाकर उसे स्पर्श करने की अनुभूति हमें अपूर्व शान्ति से अभिभूत कर देती है, रोम-रोम पुलकित हो जाता है। प्रेम, जीवन की प्राणवायु है, जो जीवन के लिए ज़रूरी है। इसके बिना पूरा जीवन, तपती मरुभूमि की तरह है। मरुस्थल जैसे जीवन में मन इसी प्रेम -जल के लिए व्याकुल रहता है। कवयित्री उसी मरुथल में जीवन की नमी तलाशती रही है, जिसको पाने से ही जीवन में स्थिरता आ सकती है -

तुम्हें जो पाया/ झील-सा ठहराव / मन में आया।

स्पर्श तुम्हारा/ रोम -रोम में फूटी/ नेह की धारा।

प्रेम का जल/ जीवन- मरुथल/ ढूँढता मन।

ढूँढती रही/ मन की मरुभूमि/ नेह की नमी।

जैसा हम बनाना चाहते हैं, जीवन वैसा नहीं बन पाता। पत्थरों को सींचने से कभी बगीचे हरे-भरे नहीं होते-

कितना सींचे/ पत्थरों पर कब/ उगे बगीचे।

प्रेम का इन्द्रजाल भी अद्भुत है। प्रेम में डूबकर नयनों में नए-नए स्वप्न अंकुरित हो जाते हैं। जिस प्रिय पर भरोसा नहीं होता, उसका हर वादा क्षण भंगुर होता है

जादू तुम्हारा/ नयन स्वप्नशाला/ बने हमारे।

वादे तुम्हारे/ कमल पात पर/ बूँद बसेरे।

मानव -मन और पूरी प्रकृति- जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, पंचतत्त्व आदि मिलकर पूरा जड़-चेतन जगत् है। हाइकु के व्यापक विस्तार में ये सभी समाहित हो जाते हैं। इनका सौन्दर्य रसज्ञ को अभिभूत करता है। सुरंगमा यादव ने ‘क्लोज़अप’ शब्द के प्रयोग से ‘फोटोज़ेनिक फ़ेस’ वाले चाँद का मानवीकरण नए ढंग से किया है-

पूनो को देख/ दे रहा क्लोजअप/ चाँद सलोना।

‘प्रिय’ और ‘मनके-मन के’ शब्द के प्रयोग में यमक की छटा देखिए-

सुन ओ प्रिय!/सर्दी की धूप-सी /तुम हो प्रिय।

प्रेम- मनके/ मीत मेरे मन के/ तुमने दिए।

भाव तो सबके हृदय में होते हैं; लेकिन शब्दों के अभाव में अभिव्यक्त नहीं हो पाते। सघन भावों की अभिव्यक्ति के लिए सहज, प्रवाहमयी भाषा का होना भी अनिवार्य है, तभी भावों का प्रभावशाली सम्प्रेषण सम्भव है-

कितने भाव/ कह न पाए हम/ शब्द अभाव।

लहरों की मृदुलता में इतनी शक्ति है कि वह शिलाओं पर भी अपने मन की बात उकेर देगी-

लहरें आईं/ शिलाओं पे लिख गईं/ आत्मकथाएँ।

समय के साथ सब कुछ बदल जाता है। जीवन की साँझ का अपना महत्त्व है। यह साँझ चाहे दिवसान्त की हो या जीवन के ढल जाने की। परिन्दे या मनुष्य, सबकी गति एक जैसी होती है, विश्राम या अकेलापन एक को अच्छा लगता है, दूसरे को भीतर तक अकेला कर देता है; क्योंकि सब छोड़कर जा चुके होते हैं। अब जीवन का सारांश लिखने के लिए बुढ़ापे से काँपते हाथ बचे हैं-

धुँधली शाम/ थके परिंदे लौटे/ चाहें विश्राम।

साँझ की बेला/ नीड़ निहारे पंछी/ बैठ अकेला।

जीवन- संध्या/ लिखते समाहार/ काँपते हाथ।

जीवन की क्षणभंगुरता, हमें प्रतिपल स्मरण दिलाती है कि शाश्वत कुछ नहीं है, मनुष्य तो बिल्कुल भी नहीं। बस ओस की बूँद- सा क्षणिक जीवन है, जो न जाने कब विलीन हो जाए-

ओस की बूँद-/ पल में खुशियों ने/ आँखें लीं मूँद।

उम्र बढ़ जाने से व्यक्ति की प्रवृत्ति नहीं बदलती। ईर्ष्या-द्वेष आदि दुर्भाव उसके मन में बद्धमूल रहते हैं-

उजले केश/ मन से अब तक/ मिटा न द्वेष।

एक स्थिति होती है, मन का सामंजस्य न मिलना। उस स्थिति में व्यक्ति और भी अकेला हो जाता है। एक ही छत के नीचे अबोला, संवादहीनता आज की सबसे बड़ी विडम्बना है। जीवन से माधुर्य का लोप होना दुःखद है, इसका कारण है-वाणी की कटुता, जिससे वह शब्दों की फाँस बनकर करकती रहती है-

एक ही घर/ छत और फर्श- सी/ दूरी हममें।

धीमा ज़हर-/ है संवादहीनता/ घुटते रिश्ते।

शब्दों की फाँस/ बरसों तक देती/ मन को त्रास।

प्रकृति के मनमोहक सौन्दर्य पर कवयित्री ने अपनी लेखनी चलाकर उसे शृंगारित कर दिया है। ‘हवा का मेघ-दुशाला’ को उड़ाने के साथ उसका रूपक सौन्दर्य नूतनता लिये हुए है, तो सर्दी की धूप का एक कामचोर कर्मचारी की तरह उपस्थिति लगाकर गायब हो जाना, बहुत सहज चित्रण है। इस तरह के हाइकु तभी लिखे जा सकते हैं, जब रचनाकार इस संसार को खुली आँखों से देखे, सूक्ष्म सर्वेक्षण करे-

मेघ- दुशाला/ उड़ा ले चली हवा/ चमका चाँद।

सर्दी की धूप/ उपस्थिति लगाके/ चली झट से।

सर्द हवाओं का मंजीरा बजाना, मेघमालाओं का रीते घट लेकर दौड़ते हुए जाने का मानवीकरण सहज एवं चित्ताकर्षक है-

सर्द हवाएँ/ मंजीरा बजाकर/ दाँत बजाएँ।

मेघ मालाएँ/ रीता घट लेकर/ दौड़ती जाएँ।

सुनहरी धूप का लहरों पर बिखरना तो है ही, एक- दूसरे के रूप को आत्मसात् करके दोनों के निखरने की कल्पना अनोखा सौन्दर्यबोध लिये हुए है। झील के अंक में लगता है चाँद -तारे भरे हैं, लेकिन उसके हाथ फिर भी रीते हैं। कल्पना का यह सौन्दर्य हाइकु को और अधिक सम्प्रेष्य बना देता है-

स्वर्णिम धूप/ लहरों पे बिखरी/ दोनों निखरीं।

झील निहारे/ अंक में चाँद- तारे/ हाथ हैं रीते।

सुरंगमा ने वृक्ष को जुझारू व्यक्ति के प्रतीक- रूप में भी प्रस्तुत किया है-

वृक्ष हैं वही/ जो तूफान से लड़े/ आज हैं खड़े।

पर्यावरण का असन्तुलन विश्व स्तर पर चुनौती बन गया है। विकास के नाम पर हम मानव की सहचरी प्रकृति का विनाश करने पर तुले हैं। जंगल कटकर रेगिस्तान बनते जा रहे हैं। तालाब पाटकर कंक्रीट के भवन खड़े कर दिए गए। पृथ्वी, जल, वायु ,आकाश सभी प्रदूषित होते जा रहे हैं। पंछी व्याकुल कि नीड़ कहाँ बनाएँ? दरख़्त सूख गए, वन के द्वार पर भी कंक्रीट आ जंगल आ पहुँचा। हाँफते हुए पंछी तक को छाँव नहीं। खम्भे से छाँव का पता पूछना नितान्त नूतन उद्भावना है, जिसमें उच्च कोटि के साहित्य की सारी विशेषताएँ समाई हुई हैं। हाइकु के क्षेत्र में पदार्पण करने वाले, पहले ऐसे रचनाकारों को पढ़ें और गुनें, तब लेखनी उठाएँ-

लेकर तृण/ कंक्रीट के वन में/ भटकें पंछी।

खंभे से पूछे-/ हाँफता हुआ पंछी/ छाँव का पता ।

सूखा दरख़्त/ कोई संगी न साथी / पंछी न पाती।

पाँव पसारे/ कंक्रीट आ पहुँचा / वन के द्वारे।

सदानीरा नदियों को भी रेत माफ़ियाओं ने अपने लोभ के कारण निष्प्राण कर दिया है। प्रतिबन्ध होने पर भी सत्ता की छाया में प्रकृति का दोहन करने वाले इन लुटेरों को रोकना आवश्यक है-

रेत माफिया/ छलनी कर रहे/ नदी का जिया।

कवयित्री ने सामाजिक सरोकारों की अनदेखी नहीं की है। उनके अनुसार धरा के प्राण बचाने का एक ही उपाय है कटान रोकना-

रोको कटान/ वृक्षों में बसते हैं/ धरा के प्राण।

युद्ध का अभिशाप उसे तिल-तिल मारता है, जो बच रहता है, जिसके स्वप्न सदा-सदा के लिए दम तोड़ देते हैं। दूसरा युद्ध वह नारी ही लड़ती है, जिसे पहाड़-सी जिन्दगी अकेले बितानी है-

नई दुल्हन/ सीमा पर सो गए/ स्वप्न नवल।

जहाँ जाने से हवा भी भयाक्रान्त होती है, वहाँ हमारे सैनिक मोर्चे पर डटे हैं, इसकी चिन्ता भी कवयित्री ने की है। दुःखद तब हो जाता है, जब वातानुकूलित भवन में बैठे देशद्रोही सेना के ही विरुद्ध विष-विमन करते है, उन पर पत्थर चलाने वालों के साथ खड़े हो जाते हैं।

हवा भी डरे/ सियाचिन जाने से/ जवान डटे।

आदमी भले ही चाँद पर पहुँच गया हो, लेकिन नारी का संघर्ष आज भी कम नहीं हुआ। वासना में लिप्त पुरुष-वर्ग, उसे आज भी शोषण का शिकार बनाता है। कवयित्री की यह चिन्ता हाइकु में अभिव्यक्त हुई है-

चाँद को छुआ/ भू पे नारी संघर्ष/ कम न हुआ।

नन्ही-सी कली/ वासना की सेज पे/ गई मसली।

परिवर्तन की आँधी ऐसी चली है कि गाँव से युवाओं का पलायन निरन्तर जारी है। कहकहे लगाती चौपाल अब गुमसुम है; क्योंकि जो वहाँ रह गए हैं, वे नितान्त अकेले हैं। चौपाल के मानवीकरण से यह हाइकु मार्मिक बन गया है-

गुम चौपाल/ किसे सुनाएँ हाल/ मन बेहाल।

जो बेहतर की तलाश में शहर की ओर दौड़े थे , वे सारे खण्डित स्वप्न आज हमें फुटपाथों पर नज़र आएँगे-

गाँव से आए/ फुटपाथ पे पड़े/स्वप्न कितने।

भाव, भाषा और विषय- वैविध्य, इस तरह एकाकार हो गए हैं कि पाठक को इन हाइकु की ऊर्जा का प्रभाव रसमग्न एवं कल्पना-रंजित कर देता है।

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

12 अप्रैल, 2024 , ब्रम्प्टन, कनाडा