डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा के दोहों की सुगन्ध / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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काव्य के बारे में प्राचीन आचार्यों से लेकर आधुनिक आलोचकों ने अपने विभिन्न विचार व्यक्त किए हैं। किसी वाद विशेष या विचारधारा विशेष से जुड़े होने के कारण कुछ अवधारणाएँ एकांगी सिद्ध हुई हैं। यदि कविता के विषय निर्धारित कर दिए जाएँ और उन विषयों से इतर अगर कुछ लिखा जाए, तो उसे खारिज़ कर दिया जाए, यह सब साहित्य में ग्राह्य नहीं । साहित्य इस तरह की फ़तवेबाजी को स्वीकार नहीं करता। यह भी सच है कि दिमाग़ी अय्याशी कविता नहीं। कविता तो वही है, जो दिल के तारों को दिल से जोड़े। छन्द काव्य के लिए शरीर मात्र है। निरन्तर अभ्यास से छन्द सायास से अनायास के स्तर तक पहुँचता है। पिछले कुछ वर्षों में उपेक्षा किए जाने और छान्दस् रचनाओं को कूड़ा-कचरा कहने के बाद भी दोहा आदि छन्द ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई है।इसका कारण है-जन संवाद । इस उपस्थिति से गद्य को मारपीट कर काव्य बताने वाले , जनमानस से कोसों दूर तथाकथित , आलोचक और हाय-तौबा मचाने लगे हैं। कबीर , सूर , तुलसी , मीरा , बिहारी ,घनानन्द आदि भी इनकी दृष्टि में कवि नहीं हैं। केवल अतुकान्त रचना को कविता मानने वाले यदि छन्द में लिखने के लिए आगे बढ़ें , तो उनकी अक्षमता ज़रूर उजागर हो जाएगी।

दोहे की सार्थक परम्परा में डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा का नाम इधर के वर्षों में उभर कर सामने आया है। इनके दोहों में प्रकृति से लेकर सामाजिक परिवेश का पूरा कैनवास है। आस्था से लेकर सद्भाव तक ,प्रेम से लेकर सामाजिक अवस्था के बदलते प्रतिमान तक दोहों का विषय बने हैं। आस्था भी संकुचित रूप में नहीं, वरन् व्यापकता के साथ ‘नमन तुम्हें शत बार’ में दृष्टिगत होती है, जिसमें वीणापाणि से वाणी का माधुर्य तो माँगा ही है साथ में गहन लालसा भी है उजाला करने की,लेखनी द्वारा विषम परिस्थिति में समय के दर्द को सोद्देश्यपूर्ण प्रस्तुत करने की-

हंस वाहिनी शारदे ! नमन तुम्हें शत बार ।वाणी को मधुमय करे,वीणा की झंकार ।।

मैं पथ का नन्हा दिया,भले घना अँधियार ।दो बूँदे दें नेह की ,जलूँ कि हो उजियार ।

इस बेमकसद शोर में ,कलम रही जो मौन ।तेरे–मेरे दर्द को ,कह पाएगा कौन ।।

माता-पिता और परिवार जीवनदाता ही नहीं होते, वे हमारे संस्कारों और सामाजिक उत्कर्ष के स्रोत भी हैं। हम चाहे जितने बड़े हो जाएँ,उनकी इस कृपा से उॠण नहीं हो सकते। जहाँ बचपन की उपेक्षा होती है , वहाँ सामाजिक जीवन की भी उपेक्षा हो जाती है । कवयित्री कहती हैं-

माँ तो शीतल छाँव -सी ,पिता मूल आधार ।सुन्दर सुखी समाज का,सम्बल है परिवार ।।

देना नन्हें हाथ में ,खुशियों का संसार। नींव न ऐसी हो ,बने ,नफ़रत की दीवार ।।

जीवन में सदा सुख ही नहीं मिलता , दु:ख भी मिलता है। जीवन है तो सब कुछ हँसकर सहने की आदत सीखना ज़रूरी है। कभी –कभी यह दु:ख जन्म-जन्म का साथी बनकर हाथ थाम लेता है। प्रेम भी दुर्लभ नहीं, मीठे बोल से उसे बिना मोल प्राप्त किया जा सकता है-

कल ही थामा था यहाँ,दुख ने दिल का हाथ।आकर ऐसे बस गया ज्यों जनमों का साथ

दुनिया के बाज़ार में , रही प्रीत अनमोल ।ले जाए जो दे सके , मन से मीठे बोल ॥

‘ये फागुन के रंग’ में सद्भभाव की पावन आकांक्षा है , तो दूसरी ओर सयानी बेटियों को देखकर आज के ‘दीन दयाल’ की चिन्ता बढ़ती जाती है-

पवन बहे सद्भाव की ,चढ़े प्रेम की भंग । खुशियों की वर्षा करें ,ये फागुन के रंग ।।

देख सयानी बेटियाँ ,किसका रंग गुलाल ।कैसे पीले हाथ हों ,सोचे दीन दयाल ।।

'ये राखी के तार’ में दोहे के माध्यम से मीठा उलाहना है , तो दूसरी ओर राखी बाँधने के लिए दो और भाई भी हैं, वृक्ष और सीमा पर तैनात जवान-

भाभी से कहियो ज़रा ,करें कभी तो याद।वरना उनके मायके,भेजूँगी फ़रियाद ।

छाया औ' फल-फूल दें,सबके हित देह-दान।वृक्ष-वीर को बाँधना,राखी का सम्मान ।

सीमा पर डटकर खड़े,बनकर जो चट्टान ।बँधना उनके हाथ पर,राखी का अरमान ।

‘दीपों का त्योहार’ केवल घर –द्वार के उजाले तक सीमित नहीं । यह उजाला तो तब पूरा होगा , जब गरीब की कुटिया भी जगमगाएगी, जब सिसकते दीप में ज़रा-सा नेह डाल देंगे। श्लेष के सुन्दर प्रयोग ने इस दोहे को महत्त्वपूर्ण बना दिया है-

जग-मग हुई अटारियाँ,कुटिया है बेहाल ।कभी सिसकते दीप में ,नेह ज़रा सा डाल।।

दीपावली हो या ईद, ये त्योहार सबके होते हैं ,सभी को प्यार का सन्देश देते हैं । सच्ची ईद कब होगी, कैसे होगी , इस दोहे में देखिए-

चाँद वही,सूरज वही,गगन,पवन वह नूर ।धरती किसने बाँट दी, दिल से दिल क्यों दूर ।।

मेहनत करते हाथ को,बाक़ी है उम्मीद ।रोज़-रोज़ रोज़ा रहा,अब आएगी ईद ।

जहाँ नारी को देवी मानकर पूजा जाता है, वहाँ भ्रूण हत्या तथा नारी का शोषण जैसी विकृतियाँ आम बात हो गई हैं। रोज़ कोई न कोई शर्मसार करने वाली घटना घटित होती रहती है। ये विकृतियाँ देश और समाज पर कलंक हैं।मर्यादा की रक्षा आज की सबसे बड़ी प्राथमिकता है-

आज अभागन कोख की, बेटी करे पुकार, जीने दे मुझको ज़रा, माँ ऐसे मत मार ।।

लाचारी का आँख ने ,देखा ऐसा दौर, बेबस मुनिया माँगती ,रही व्याध से ठौर ।।

समय बदला,सरलता और तरलता गई । पहले जैसा गाँव नहीं रहा , घर –परिवार अपनी आत्मीयता और ऊष्मा खो चुके हैं। घर ही नहीं बँटे , मन भी बँट गए-

देख लकीरें रो दिया,कल आँगन का नीम।बच्चों की तकरार में ,माँ होती तक़सीम ॥

किसान का दर्द भी इनके दोहों में उभर आया है। घोटालों के साथ विषमता की चिन्ता तो है ही , प्रशासन की हृदयहीनता भी इस लज्जाजनक स्थिति में पहुँच गई कि अनाज सड़ जाए , यह मन्जूर है ,पर वह किसी भूखे के निवाला न बन जाए-

देखा दर्द किसान का ,विवश धरा ग़मगीन । नहीं नयन में नीर है , नभ संवेदनहीन ।।

लीले जीवन भुखमरी ,सड़ता उधर अनाज ।भूख मरी भी कह रही ,कुछ तो करो इलाज ॥

जनतन्त्र की उपेक्षा करके केवल अधिकारों की बात करना त्याज्य है। कवयित्री की चेतावनी सोचने पर बाध्य करती है-

दीप नहीं,घर जल उठे ,छेड़ न ऐसा राग ।खेल न ऐसे खेल तू, लग जाए जो आग ।।

अधिकारों की माँग है , कर्त्तव्यों पर मौन ।अब ऐसे जनतंत्र को , हन्त ! सँभाले कौन ?

सार रूप में कहा जा सकता है कि डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा' ने जीवन के हर कोने का अवगाहन किया है । सरल ,सहज भाषा में दोहों में ताज़ा सुगन्ध भरी है। इनका संग्रह 'महकी कस्तूरी' पाठकों में अपना स्थान अवश्य बनाएगा।

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