डॉ. नरेंद्र दाभोलकर को प्रणाम... / जयप्रकाश चौकसे

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डॉ. नरेंद्र दाभोलकर को प्रणाम...
प्रकाशन तिथि : 23 अगस्त 2013


रवींद्रनाथ टैगोर की एक कथा में एक कंजूस और लालची व्यक्ति का नाम इतना बदनाम है कि उसका युवा बेटा अपनी पत्नी के साथ अन्य किसी गांव में छद्म नाम से जीवन बिताता है। कंजूस सेठ अपने धन को घर के एक तलघर में रखता है। उसे कोई व्यक्ति बताता है कि अगर वह तलघर में किसी बच्चे को बंद कर दे तो मरकर वह बालक सर्प बनकर खजाने की रक्षा करेगा और उसके अपने किसी वारिस को ही खजाने को हाथ लगाने देगा। इस अंधविश्वास का मारा कंजूस एक दिन नदी के किनारे अजनबी से बालक को तलघर में बंद कर देता है। उसने बालक का नाम पूछ लिया था। कुछ समय बाद उसका अपना बेटा जो कहीं और सरनेम बदलकर रह रहा था, अपने गुमशुदा बच्चे की तलाश में वहां आता है। कंजूस ने अंधविश्वास के कारण अपने ही पोते की बलि चढ़ा दी। इस तरह की अनेक सत्य घटनाएं समय-समय पर जाहिर होती रही हैं।

सत्यजीत रॉय ने 'देवी' नामक फिल्म बनाई थी, जिसमें एक जमींदार सपने में अपनी बहू को देवी के अवतार के रूप में देखता है और अगले ही दिन से उस बेचारी बहू को देवी समझकर पूजा जाने लगता है। उस साधारण, सरल स्त्री को उसके पति से अलग रहना पड़ता है। उसके प्रिय नन्हे भतीजे के बीमार पडऩे पर वैद्य को बुलाने के बदले उसे 'देवी' की कृपा पर छोड़ दिया जाता है और भयावह त्रासदी होती है। यह सत्यजीत रॉय का जीनियस है कि जमींदार साहब अपने स्वप्न में बहू के माथे पर लगे लाल टीके को तीसरी आंख की तरह देखते हैं। गोया कि रॉय महोदय अंधविश्वास को रेखांकित करने वाली फिल्मों में भी तर्क का सम्मान बनाए रखते हैं। सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करने वाली अनेक कथाएं शरतचंद्र चटर्जी ने लिखीं और उन पर फिल्में भी बनी हैं। स्वयं शरतचंद्र ने अपने बचपन में गांव से दूर बहिष्कृत जीवन जीने वाली बेगुनाह स्त्री को चोरी-छिपे नियमित रूप से भोजन पहुंचाया है। पश्चिम में भी अनेक स्त्रियों को चुड़ैल घोषित करके जिंदा जलाया गया है। अंधविश्वास और कुरीतियों पर किसी एक देश या धर्म का एकाधिकार नहीं है। सभी प्रकरणों में निशाने पर नारी ही रही है।

गिरीश कर्नाड की कन्नड़ फिल्म 'संस्कार' में बचपन से साथ पढ़े दो युवा ब्राह्मणों में एक का प्रेम दलित स्त्री से होता है और उसे समाज से निकाल दिया जाता है। अनेक वर्ष पश्चात दलित टोले में उसकी मृत्यु होती है तो उसकी पत्नी उसके मुखिया बने मित्र से पूछती है कि उसके जन्म से ब्राह्मण पति का दाह संस्कार किस संस्कार के तहत होगा।

सत्यजीत रॉय ने मुंशी प्रेमचंद की 'सद्गति' को फिल्माया था, जिसमें एक ब्राह्मण मुहूर्त पूछने आए हरिजन से चिलचिलाती धूप में लकडिय़ां कटवाता है। भूखा-प्यासा हरिजन मर जाता है तो ब्राह्मण दंपती को उसके मरने का दुख नहीं होता, उन्हें चिंता है कि कैसे हाथ लगाकर मृत देह को अपने अहाते से बाहर फेेंकें। कुरीतियों और अंधविश्वास पर सभी भाषाओं में अनगिनत फिल्में बनी हैं। आजकल टेलीविजन पर जादू-टोना और कुरीतियों को जमकर दिखाया जा रहा है। आश्चर्य यह है कि राजस्थान की पृष्ठभूमि पर रचे लंबे सीरियल 'बालिका वधू' के प्रदर्शन के पहले वर्ष में राजस्थान में कम उम्र की बच्चियों के विवाह सबसे अधिक संख्या में हुए। हम लोग परदे पर कुरीतियों पर आक्रमण का दृश्य देखकर तालियां बजाते हुए यथार्थ जीवन में कुरीतियों का पालन करते हैं। हम अनंतकाल से अच्छे तमाशबीन रहे हैं। पढि़ए धर्मवीर भारती की प्रमथ्यु गाथा या शैली की 'प्रोमिथियस अनबाउंड'।

हाल ही में डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या कर दी गई। महान डॉक्टर ने ताउम्र कुरीतियों और अंधविश्वास का विरोध किया और उनके प्राण लेने के प्रयास अनेक बार हुए। धर्मों के महलों के नीचे बने तलघरों में कुरीतियां और अंधविश्वास निवास करते हैं और इनका प्रचार-प्रसार एक बहुत बड़ा व्यापार है। ये व्यापार माफिया की तरह चलाया जाता है और इसी ने डॉ. नरेंद्र का कत्ल कराया होगा, ऐसी प्रबल संभावना है। कुछ माह पूर्व ही उन पर केरोसिन छिड़का गया था, परंतु एक सजग नागरिक ने उनकी रक्षा की। कुछ विशेषज्ञों की राय है कि कुरीतियों का पालन नशे की लत की तरह है। पूरे देश में इस जघन्य हतया से क्षोभ की लहर चल पड़ी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अवश्य उदासीन रहा है, क्योंकि इसमें उन्हें सनसनी नजर नहीं आती। छोटी-छोटी नगण्य बातों पर घंटों बहस का प्रहसन मंचित करने वाले लोगों ने साहसी, महान डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की मृत्यु पर कुरीतियों के खिलाफ कोई सार्थक बहस नहीं की। जापान में डेढ़ सौ साल पहले यह महसूस किया गया कि शिक्षा गरीबों, मजदूरों और किसानों को मुहैया कराना चाहिए। हमने तो शिक्षा का तिलक भी माथा देखकर लगाया। अशिक्षा ही असल कारण है।