डॉ. श्याम सुंदर दीप्ति की लघुकथाएँ / सुकेश साहनी

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लघुकथा के क्षेत्र में ऐसे हस्ताक्षरों की कमी नहीं हैं, जिन्होंने जानबूझ कर लघुकथा जैसी विधा में चुनौतीपूर्ण लेखन को अपनाया, जिसमें राष्ट्रीय स्तर पर साहित्यिक पहचान की गुजांइश भी अपेक्षाकृत कम है। ऐसे हस्ताक्षरों को तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है-

एक-ऐसे लघुकथा लेखक जो केवल लघुकथाएँ लिखते हैं। अपनी सशक्त लघुकथाओं से इस विधा को समृद्ध कर रहे हैं।

दो-लघुकथा लेखक जिन्होंने लघुकथा के अनेक महŸवपूर्ण संकलनों का सम्पादन कर इस विधा को प्रतिष्ठित किया है। जब तब लघुकथा सम्बंधी आयोजन कर इसके ' ाास्त्रीय पक्ष को पुष्ट करने में योगदान देते रहते हैं। ऐसे लेखकों को उनके लघुकथा लेखन की वजह से कम, उनके सम्पादन कार्य एवं लघुकथा विषयक आयोजनों के कारण अधिक जाना जाता है।

तीन-इस श्रेणी में उन लघुकथा लेखकों को रखा जा सकता है, जिन्होंने अपने सशक्त लेखन से लघुकथा जगत को रोशन कर रखा है। साथ ही विभिन्न लघुकथा संकलनों के सम्पादन, अनुवाद कार्य एवं अंतरर्राज्जीय लघुकथा सम्मेलनों के माध्यम से निरंतर इस विधा के विकास में लगे हुए हैं।

श्यामसुन्दर दीप्ति इस तीसरी श्रेणी में सक्रिय देश के गिने चुने लेखकों में से एक है। इन्होंने मिन्नी त्रैमासिक के संपादन, अंतरर्राज्जीय लघुकथा समागमों एंव जुगनुओं के अंग-संग जैसे कार्यक्रमों से इस विधा के विकास में अमूल्य योगदान दिया है। डॉ. दीप्ति वर्षों पहले लघुकथा लेखन की ओर आकृष्ट हुए थे और आज भी सक्रिय हैं। ऐसा भी देखने को मिलता है कि लघुकथा के क्षेत्र में स्थापित कई रचनाकार इसके 'शास्त्रीय पक्ष को लेकर खुद ही भ्रमित हैं। ऐसे लघुकथा लेखक अपने रचनाकर्म से आने वाले पीढ़ी को भ्रमित ही कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि डॉ.' यामसुन्दर दीप्ति की दृष्टि लघुकथा के कान्सेप्ट को लेकर बिल्कुल साफ है। लघुकथा सम्मेलनों में इसके ' शास्त्रीय पक्ष को लेकर जो बात वह करते हैं, उसे अपने लेखन से सिद्ध भी करते हैं। यही कारण है कि अपनी अगुवाई में डॉ. दीप्ति एवं अग्रवाल ने मिन्नी को उस मुकाम पर पहुँचा दिया है जहाँ से सभी प्रदेश उससे पिछड़े नजर आते हैं।

डॉ. दीप्ति की लघुकथाएँ अपनी सरलता के कारण अलग से पहचानी जा सकती हैं। उनकी सीधी सरल भाषा मुंशी प्रेमचन्द की प्रसिद्ध कहानियों की याद दिलाती है, पर वहीं प्रत्येक रचना लघुकथा की कसौटी पर खरी उतरती है। लघुकथा के 'शीर्षक, प्रारम्भ और समापन में स्वाभाविक प्रवाह लेखक की विशेषता है जो उसे अपने समकालीन लेखकों से अलग करती है। यहाँ खलील जिब्रान की' ऊँचाई' याद आ रही है-

अगर आप बादल पर बैठ सके तो एक देश से दूसरे देश को अलग करने वाली सीमा रेखा आपको कहीं दिखाई नहीं देगी और न ही एक खेत से दूसरे खेत को अलग करने वाला पत्थर ही नजर आएगा।

च्च...च...च... आप बादल पर बैठना ही नहीं जानते!

वर्तमान सन्दर्भों में 'यामसुन्दर दीप्ति द्वारा सृजित लघुकथा' सीमा 'में' ाीर्षक, प्रारम्भ और समापन के स्वाभाविक प्रवाह को देखा जा सकता है। इसे 'ऊँचाई' की अगली कड़ी के रूप में भी प्रस्तुत किया जा सकता है-

एक अदालत में मुकदमा आया, "यह पाकिस्तानी है, साहब। अपने देश की सीमा पार करता हुआ पकड़ा गया है।"

"तुम्हें इस आरोप के बारे में कुछ कहना है?" मजिस्ट्रेट ने पूछा।

"मुझे क्या कहना है जनबा? मैं खेत में पानी लगाकर बैठा था। मुझे किसी की सुरीली की आवाज में 'हीर' के बोल सुनाई दिए. मैं उस आवाज को सुनता चला गया। मुझे तो कोई सीमा नजर नहीं आई."

दूसरी विधाओं की तुलना में लघुकथा के 'ाीर्षक का महŸव बहुत अधिक है। सटीक' ाीर्षक लघुकथा को मायने देता है। डॉ. दीप्ति की सभी लघुकथाएँ 'ाीर्षक की दृष्टि से संतुलित है, पर यहाँ मैं' कानून-पसंद'को रेखांकित करना चाहूँगा-उसने लड़की की तरफ देखा और फिर चैक की तरफ। न ही ट्रैफिक था और न ही सिपाही। उस मन हुआ कि वह चैक पार कर जाए. फिर एकदम ख्याल आया कि साथ की कार में लड़की है। उसने अपना कानून तोड़ने का इरादा बदल दिया। उसने सोचा कि यह एक अच्छे नागरिक वाली बात नहीं है और उसने लड़की को देखना' शुरू कर दिया।

यहाँ 'कानून-पसंद' ' शीर्षक लघुकथा के सम्प्रेषण को दोगुना कर देता है।

लघुकथा का समापन धमाकेदार / धारदार / विस्फोटक होना चाहिए. आँख बंद कर इस टिप्पणी को आत्मसात् करने वाले लेखकों को डॉ. दीप्ति की लघुकथाओं से सीखने को मिल सकता है। यह सही है कि लघुकथा को चरमोत्कर्ष पर समाप्त होना चाहिए. चरमोत्कर्ष को लेखक की 'सोग की टयून एंव' संवाद' के माध्यम से समझा जा सकता है। अकसर लघुकथा लेखक रचना के अन्त में अपनी तरफ से या किसी पात्र के माध्यम से ऐसी टिप्पणी जड़ देते हैं जिससे उनके अनुसार लघुकथा का अंत धमाकेदार हो जाता है। साइलेंट मोड पर केवल संकेत द्वारा लघुकथा का समापन किस तरह चरमोत्कर्ष पर पहुँच सकता है-

डाकिया अगले दिन आकर रुका। मैं भी इंतजार में था। एक पत्रिका में रचना प्रकाशन का पचास रुपया आया था। डाकिए ने मनीआर्डर फार्म दो जगह पेन से निशान लगाकर मेरी ओर हस्ताक्षर करने को बढ़ा दिया और आप पैसे निकालने लगा। मैंने हस्ताक्षर के बाद फार्म लौटा दिया। डाकिए ने एक-एक करके दस-दस के चार नोट मेरी ओर बढ़ाए. फिर एक पाँच का, फिर दो नोट दो-दो के और अंत में एक रुपए का नोट। फिर मेरी ओर गौर से देखा (असंवाद)

पस बैठे राम स्वरूप ने अपनी जेब में से मोबाइल निकाला और उसका बटन दबाकर उसे बंद कर दिया (सोग की टयून)

लघुकथा में आज भी प्रायः दो परस्पर विरोधी स्थितियों को प्रस्तुत कर समाज में व्याप्त विसंगतियों को उजागर किया जाता रहा है। राजनीति, भ्रष्टाचार की नग्नता को प्रस्तुत करने वाली रचनाओं की भरमार दिखती है। लघुकथा जगत में सकारात्मक सोच वाली लघुकथाओं का अकाल जैसा है। इस संग्रह में अनेक ऐसी लघुकथाएँ है जो सामाजिक प्रदूषण के दमघोटू वातावरण में आक्सीजन का संचार करती है-बूढ़ा रिक्शेवाला, हमदर्द, सच-झूठ, सम्बंध, संघर्ष, रिश्ता आदि। 'उदास दिल' इस श्रेणी की ही नहीं संग्रह की अद्वितीय रचना है। डॉ. दीप्ति इस उच्चकोटि के सर्जन के लिए बधाई के पात्र है।

भू्रण हत्या को लेकर पंजाब सुर्खियों में रहा है। लड़कों की तुलना में घटती जा रही लड़कियाँ चिंता का विषय रही है। लिंग भेद को लेकर अनेक सशक्त लघुकथाओं का सर्जन डॉ. दीप्ति ने किया है। विषय कोई भी हो, डॉ. दीप्ति उसे अलग कोण से देखते हैं। यही कारण है कि पुराने विषयों पर उनकी अनेक सशक्त लघुकथाएँ देखने को मिलती है। 'दादी' लघुकथा में इसे देखा जा सकता है-मैंने चेहरे से अखबार हटा कर देखा। माँ कह रही थी, "निकलवाऊँ दांत! हंय? इसी तरह दांत निकालोगी तो अगले घर वालों ने रखना ही नहीं। लड़की है लड़की। दांत नहीं निकालते होते। समझी।" लिंग भेद से किस तरह मर्दवादी सोच विकसित होती है, इसे 'असली बात' में दर्शाया गया है। 'रिसेल वैल्यू' के माध्यम से लेखक ऐसी सोच को खारिज करता है।

खो रहे पल, प्रतिकर, पहला सबक, बदला, गुबारा और गुस्सा जैसी रचनाएँ हमें बाल मन की गहराईयों में ले जाती है और अनेक सवाल खड़े करती है और बहुत देर तक हमारे मस्तिष्क पर दस्तक देती रहती हैं और हमें अपने परिवेश की पड़ताल करने पर बाध्य करती हैं।

आंतकवाद के दौर ने पंजाब में साम्प्रदायिकता की आग को भी हवा दी थी। लेखक ने उस दौर को बहुत करीब से देखा है, जिया हैं। यही कारण है कि जहाँ लेखक कुछ रचनाओं में हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता के बीजों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है (बीज से बीज और दूसरा किनारा) वही पंजाब के उस काले दौर में साम्प्रदायिकता की विषबेल में जकड़े आम आदमी की व्यथा कथा की बारीक अभिव्यक्ति करने में सफल रहा है (घर, जिददी लड़की, मूर्ति, भूख का धर्म) यहाँ भी लेखक की सकारात्मक सोच 'खून का रंग' के रूप में सामने आती है, जहाँ डॉ. ऋषि जैसे लोग है जो अपना खून देकर कट्टरपंथी लियाकत अली को निरुŸार कर देते हैं।

स्त्री-पुरुष सम्बंधों का विश्लेषण नाइटी, वापसी, चिंता एवं माँ में हुआ है। 'स्वागत' में आधुनिक नारी की ' ाक्ति की अद्भुत प्रस्तुति हुई है।

घर परिवार में जटिल होते रिश्तों और अकेलेपन का दंश झेलते बुजुर्गों की पीड़ा को दिन रात का फर्क, 'मकान मालिक' में दर्शाया गया है। 'दीवारे' लघुकथा में डॉ. दीप्ति का रचना कौशल देखते ही बनता है।

भ्रष्टाचार पर लिखी जा रही सैकड़ों लघुकथाओं के बीच 'बीज' लघुकथा अलग ही दिखाई देती है। यह रचना लेखक की कलम की ताकत का एहसास कराती है। इसी प्रकार 'तुम्हारे लिए' में लघुकथा की बारीक बुनावट चमत्कृत करती है।

दोष, बाबा, कम्बल, सरस्वती एवं पाठ जैसी अनेक लघुकथाएँ विषय वैविध्य के कारण पाठक के मन पर गहरा प्रभाव छोड़ने की क्षमता रखती हैं। 'जोगे की बेटी' में बाजारवाद पर कटाक्ष किया गया है। सामाजिक मनोविज्ञान पर आधारित अनेक लघुकथाएँ संग्रह में शामिल हैं, जो शोधार्थियों के लिए शोध का विषय हो सकती हैं।

पहली बार किसी एकल संग्रह में एक साथ इतनी सशक्त लघुकथाओं की उपस्थिति देखने को मिली है। डॉ. ' यामसुन्दर दीप्ति की लघुकथाओं से गुजरना किसी सुखद साहित्यिक यात्रा से कम नहीं, इससे मेरे मस्तिष्क को भी खुराक मिली है जिसके लिए डॉ. दीप्ति को धन्यवाद एवं शुभकामनाएँ!

-0-ग़ैरहाज़िर रिश्ता ( 2014): डॉ श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’