तकनीकी माध्यमों में हिंदी अनुप्रयोग की संभावनाएँ / संतलाल करुण

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वैसे तो स्वतंत्रता-प्राप्ति के 65 वर्षों के उपरान्त आज के अत्याधुनिक तकनीकी माध्यमों में “हिंदी अनुप्रयोग की सामयिक आवश्यकता” की जगह संभावनाओं की तलाश राष्ट्रभाषा के प्रति हमारे दृष्टिकोण का हल्कापन ही प्रकट करता है, पर है यह विषय इतना प्रासंगिक कि राष्ट्रभाषा की घटती व्यावहारिक महत्ता और अंग्रेजी की दिन-पर-दिन बढ़ती सत्ता के तथ्यों को काफी कुछ उजागर करने में हमारी मदद करता है। विभिन्न तकनीकी माध्यमों में हिंदी-अनुप्रयोग की संभावनाओं पर विचार करते समय पहले हमें यह देखना होगा कि इन माध्यमों में कैसी भाषिक चेतना वाले लोगों की (भारतीय अथवा अंग्रेजीदाँ) पूँजी लगती है, कैसी भाषिक चेतना वाले लोगों द्वारा ये संचालित होते हैं और कैसी भाषिक चेतना वाले लोगों के लिए ये माध्यम कार्य करते हैं। दूसरे यह कि भारतीय अर्थ-व्यवस्था, बाजार, शासन-प्रशासन, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, कृषि, चिकित्सा, वाणिज्य आदि के क्षेत्रों में दिनोंदिन अंग्रेजी के बढ़ते दबदबे और परिणाम स्वरूप भारतीय जनमानस पर पड़ते उसके मनोवैज्ञानिक प्रभाव के विभिन्न पहलुओं को समझे बिना तकनीकी माध्यमों में हिंदी अनुप्रयोग की संभावनाओं को ठीक-ठीक नहीं समझा जा सकता है।

तकनीकी माध्यमों से जुड़े जिस वर्ग-त्रयी का उल्लेख किया गया, उसमें पहला वर्ग पूँजीपतियों का है, जिसका झुकाव अंग्रेजों के शासन-काल से ही अंग्रेजी की ओर है। अपवाद रूप में इस वर्ग के कुछ सच्चे राष्ट्रभक्तों और हिंदी प्रेमियों को छोड़कर बाकियों की अंग्रेजी-मानसिकता के कारण (अन्य अनेक कारण भी हैं) हिन्दी आज तक राष्ट्रभाषा का वास्तविक स्थान नहीं पा सकी। यह वर्ग बोलचाल में हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं का प्रयोग तो करता है, किन्तु लिखने-पढ़ने में इसकी भाषिक क्षमता अंग्रेजी में पाई जाती है, हिंदी में प्राय: नहीं। इस वर्ग की भावी पीढ़ियाँ माँग-पूर्ति के इस व्यावसायिक जगत में हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषा-भाषी जनता की क्रय-शक्ति के चलते बोलचाल में “हिंग्लिस” का प्रयोग तो अभी कुछ दशकों तक करती रहेगीं, किन्तु लिखने-पढ़ने में उनके द्वारा हिंदी के तिरस्कार की प्रबल संभावना है।

दूसरा वर्ग, मध्यस्थों का है, जो सीधे तकनीकों से जुड़े होते हैं। इस वर्ग में मीडिया-कर्मी, ज्ञान-विज्ञान, प्रौद्योगिकी, शिक्षा, चिकित्सा, कृषि, सिनेमा आदिक्षेत्रों के तकनीशियन, विशेषज्ञ, भाषाविद, कलाकार, चित्रकार आदि आतें हैं। इनकी वृत्ति ‘सेवा और अर्जन’ पर टिकी होती है। इस वर्ग के अधिकांश लोग मन से न सही, किन्तु रोजी-रोटी के गहराते संकट और बढ़ती आवश्यकताओं के कारण अंग्रेजी से प्रभावित हैं। भारतीयता में अपने पाँव टिकाये रखने के लिए ये लोग द्विभाषिता-बहुभाषिता की क्षमता अपनाकर सक्रिय हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक हमारे देश के अधिकांश क्षेत्रों में अंग्रेजी छठीं कक्षा से पढ़ाई जाती थी, किन्तु आज इनके बच्चे नर्सरी से ही अंग्रेजी माध्यम के पाठ्यक्रमों से शिक्षा पा रहे हैं। ऐसे में इनकी आगामी पीढ़ी से अपवादों को छोड़कर हिंदी अथवा भारतीय भाषाओँ के प्रति आत्मीयता की आशा करना व्यर्थ है।

रहा तीसरा वर्ग, जो आम नागरिकों का वर्ग है और जिसमें तरह-तरह के लोग आते हैं – शिक्षित-अशिक्षित, सरकारी-अर्धसरकारी-गैर सरकारी वेतनभोगी, किसान-मजदूर, भिन्न-भिन्न काम-धंधों से जुड़े गाँव और शहर के लोग, उच्च-मध्य-निम्न वर्गीय इत्यादि। यह भाँति-भाँति लोगों का भाँति-भाँति के वातावरण और ज़मीन से जुड़ा वर्ग है और मोबाइल फोन, लैपटॉप, पामटॉप आदि उन की भी पहुँच के दायरे में हैं। सामान्यतया अभी तक यह वर्ग हिंदी अनुप्रयोग के लिए अपने मन-मस्तिष्क का द्वार खोले हुए है, किन्तु इसकी दृष्टि उन्हीं पूँजीपतियों, राजनेताओं, नौकरशाहों, फ़िल्म और खेल जगत के सितारों आदि पर लगी हुई है, जिनकी जीवन-शैली प्राय: पाश्चात्य चकाचौंध और अंग्रेजियत से प्रभावित है। गौर करने लायक तो यह है कि पूर्णतया भारतीय भाषा-भाषी मानस रखते हुए इस वर्ग के लोग भी अपनी संतानों को लेकर अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की ओर रुख किए हुए हैं और जो किन्हीं कारणों से नहीं किए हुए हैं, वे भी ऐसे स्कूलों के पक्ष में उत्साहित हैं। ग्रामीण क्षेत्र के कृषक-मजदूर या तो उस तरह का विद्यालयीय वातावरण नहीं पाते या फिर उनकी आय अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूलों का खर्च वहन करने में असमर्थ है। किन्तु उनकी समझ में भी यह तथ्य घर करता जा रहा है कि यदि हमें अपने बच्चों का भविष्य सुनहरा बनाना है तो हिंदी माध्यम से काम नहीं चलेगा।

इसी प्रकार यदि शासन के आधार पर देखा जाए तो 2 वर्ग सामने आते हैं-– शासक वर्ग और शासित वर्ग। प्राय: शासक वर्ग वरिष्ठ और आदर्श माना जाता है। यही कारण है कि शासित वर्ग शासक वर्ग के पहनावे, रहन-सहन, खान-पान, बोली-भाषा आदि का अनुकरण करना चाहता है। दुर्भाग्य से स्वतंत्रता प्राप्ति के 65 वर्षों के उपरान्त भी शासक वर्ग की भाषिक क्षमता पर अंग्रेजी का नशा (कुछ राज्य सरकारों और अधिकतर उनके निम्न श्रेणी लिपिकीय काम-काज को छोड़कर) चढ़ा हुआ है, जिसे शासित वर्ग ललक भरी निगाह से देखता है और शासक वर्ग की तरह वह भी चाहता है कि अंग्रेजी उसके सर चढ़ कर बोले। यही कारण है कि देश भर में अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूलों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्रों में ही नहीं, बड़े-बड़े शहरों में भी हिन्दी माध्यम के प्राथमिक-माध्यमिक विद्यालयों (अधिकतर सरकारी) की देख-रेख, शिक्षा-व्यवस्था, अध्यापकों की उपस्थिति आदि इस तरह अव्यवस्थित होती है कि कोई भी सजग नागरिक अपने बच्चों को या तो वहाँ भेजना नहीं चाहता या विवशता में भेजता है। जहाँ तक उच्च स्तर पर विज्ञान, प्रोद्योगिकी, कृषि, चिकित्सा, वाणिज्य आदि विषयों के माध्यम की बात है, तो अभी तक अंग्रेजी माध्यम में ही श्रेष्ठतर मानी जाती है। साधारण परिवार के हिन्दी भाषी छात्रों की बेहद माँग पर उच्च शिक्षा में हिन्दी माध्यम का क्रियान्वयन अन्तर-राष्ट्रीयता व आधुनिकता के छठें दशक से चालू कृत्रिम-राजनीतिक मिथक के कारण प्रभावशाली नहीं हो पा रहा है।

इस देश में जर्मन, फ़्रांसीसी, अरबी जैसी भाषाओँ के अनुप्रयोग की संभावनाओं की तलाश की जाए तो बात समझ आती है, किन्तु 98 प्रतिशत भारतीय भाषा-भाषियों (जिनकी कि एक अत्यन्त लोकप्रिय, सशक्त सम्पर्क भाषा है और वह भाषा हिन्दी ही है) के बीच हिन्दी के अनुप्रयोग की संभावनाएँ तलाशना एक ओछे मज़ाक की तरह हृदय को बेध जाता है, पर इस विडम्बना का सच यहाँ कार्यालयों, संस्थानों, हाट-बाजारों आदि में पूरी तरह व्याप्त है। एक छोटी-सी बानगी एवं बड़ा स्पष्ट उदाहरण कि जब लखनऊ, पटना, जयपुर, दिल्ली-जैसे बड़े शहरों में ही नहीं छोटे-छोटे कसबों में भी हिन्दी में टाइपिंग के लिए भटकना पड़ता है, जबकि अंग्रेजी के टाइपिस्ट आसानी से मिल जाते हैं और इतना ही नहीं, हिन्दी की टाइपिंग अंग्रेजी के मुकाबले काफी मँहगी भी पड़ती है, तब लगता है कि हम हिन्दुस्तान में नहीं, इंग्लैण्ड में जी रहे हैं। याद आतें हैं ऐतिहासिक मानव-रीढ़ के धनी व्यक्तित्व तुर्की के राष्ट्रपति कमालपाशा, जिन्होंने सारे तर्क-वितर्क और राष्ट्रीय बहस के बाद यह निर्णय देने में देर नहीं लगाई कि हमारे देश की राष्ट्रभाषा तुर्की होगी और उसे आज ही आधी रात से लागू किया जाता है, किन्तु हमारे यहाँ पहले तो सदियों से जातीय वर्गवाद के आधार पर निस्सहाय जनता का शोषण किया जाता रहा और अब स्वतंत्रता के बाद से भाषाई वर्गवाद के सहारे बमुश्किल 2 प्रतिशत अंग्रेजीदाँ लोग 98 प्रतिशत भारतीय भाषा-भाषी जनता का शोषण करने पर उतारू हैं।

इसलिए सच्चे मन से महात्मा कबीर की इस वाणी पर कान देने की ज़रूरत है कि “मोको कहाँ ढूढे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।” वस्तुतः हिन्दी अनुप्रयोग की सारी संभावनाओं का केन्द्रक भारतीय संविधान में निहित है, जहाँ राष्ट्रभाषा-राजभाषा–सम्बन्धी अनुच्छेदों में इस संशोधन की अपेक्षा है कि अब से भारत संघ की राष्ट्रभाषा-राजभाषा हिन्दी होगी (अंग्रेजी को आज से जर्मन, फ्रांसीसी, अरबी आदि की अंतर-राष्ट्रीय विज़न की विदेशी भाषा श्रेणी में रखा जाता है)। राज्यों में उनकी अपनी भाषा जैसे कि तमिलनाडु में तमिल राजभाषा होगी तथा संघ व राज्यों की सम्पर्क भाषा हिन्दी होगी। फिर तकनीकी माध्यम ही नहीं देश भर में रोजी-रोटी से लेकर चोटी तक के सारे-के-सारे माध्यम-अमाध्यम रातोंरात हिन्दी का स्वर अलापने लगेंगे। रही अंतर-राष्ट्रीय सम्पर्क की बात, तो विश्व के अनेक महत्त्वशाली राष्ट्र हैं, उनकी भाषाएँ हैं, हमें उन सब को महत्त्व देना होगा और इसके लिए विद्यालय-विश्वविद्यालय स्तर पर हमारे यहाँ व्यवस्था है और अगर कम है, तो व्यवस्था बढ़ाई जा सकती है। हमारे यहाँ जागरूक शिक्षार्थियों की कमी नहीं है और अगर कमी है, तो जागरूकता भी बढ़ाई जा सकती है। अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर रोजी-रोटी कमाने की इच्छा, अधिक अर्जन का दबाव, अनेक भाषाओँ में दिलचस्पी आदि ऐसे तमाम कारण हैं कि हमारे यहाँ अंतर-राष्ट्रीय सम्पर्क के लिए विदेशी भाषाओँ के जानकर नागरिकों की कमी कभी नहीं पड़ेगी। ऐसा होने से इस देश का नागरिक उस भाषा में काम कर सकेगा, जिसमें वह पैदा होता है, पलता-बढ़ता है और मृत्युपर्यंत सचेत-सक्रिय जीना चाहता है। फिर एक अरब से अधिक जनसंख्या वाला यह देश ज्ञान-विज्ञान-परिज्ञान के क्षेत्र में निश्चित ही बड़ी-बड़ी मिसालें कायम करने में सक्षम होगा। और फिर भविष्य में नवीन आविष्कारों-उपलब्धियों के भारतीय भाषाओँ में भी रखे गए तमाम नाम सुनाई देने लगेंगे। किन्तु इस तथ्य को हमारे अंग्रेजीदाँ कूटनीतज्ञ निहित स्वार्थों के कारण समझना नहीं चाहते। वे तो हमारे देश की अधिसंख्य जनता की भाषिक चेतना मारकर उसे निश्चेत और निष्क्रिय जीने को बाध्य करते हैं।

जहाँ तक हिन्दी मान्यता की बात है तो वह 10 वीं शताब्दी से लेकर आज तक सर्वाधिक लचीली-सुलभ तथा चतुर्मुखी भाषा है। वह हर दृष्टि से राष्ट्रीय मंच के उपयुक्त है। यहाँ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका सहित दुनिया के सभी विकसित देश अपनी चेतना को अपनी ही वाणी में रूपाकार देकर उन्नति के शिखर पर पहुँचे हैं। साथ ही यह भी कि चीन, जापान, फ़्रांस, जर्मनी-जैसे विकसित देशों की भाषा कभी भी अंग्रेजी नहीं रही और न ही वे अंग्रेजी के वर्चस्व से भयभीत हुए। उनकी भाषाओँ की अपेक्षा वैज्ञानिक तथा तकनीकी माध्यमों में हिन्दी अनुप्रयोग की तो और अधिक संभावनाएँ हैं।

अंतत: वर्तमान और भविष्य दोनों दृष्टियों से “तकनीकी माध्यमों में हिन्दी अनुप्रयोग की संभावनाएँ” एक ऐसा मर्म है, जिसे हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओँ के पद, प्रतिष्ठा, व्यावहारिकता आदि के सन्दर्भ में कुरेदा जाना जितना सामयिक है, उतना ही समय रहते सावधान करने जैसा है। प्राचीन काल में संचार-तंत्र और तकनीकी माध्यम जब इतने सशक्त नहीं थे, तब भाषा की मान्यता का मापदण्ड बोल-चाल, लोकाभिव्यक्ति, साहित्य, शिलालेख, पाण्डुलिपियाँ आदि होती थीं, किन्तु आज आधुनिक संचार-तंत्र एवं तकनीकी माध्यम इतने सशक्त हैं कि उनमें अधिकाधिक अनुप्रयुक्त हुए बिना कोई भाषा मान्यता, लोकाप्रियता तथा राष्ट्रीयता के शिखर पर प्रतिष्ठापित नहीं हो सकती। अन्यथा इस देश की अभिव्यक्ति की क्षमताओं के समानान्तर रूप में द्विमार्गी होने का अभिशप्त खतरा और बढ़ता जाएगा— बोल-चाल में भारतीय भाषाएँ और राज-काज, काम-काज, लेख-बाँच आदि में अंग्रेजी।जिससे राष्ट्र अधभाषी, अधचेता, अर्ध-साक्षर और अर्धांग-अपंग होता जाएगा। दुर्भाग्य ! कि जिस पर मुक़दमा चलेगा या चलाया जाएगा, वह समझ नहीं पायेगा कि हमारे बारे में क्या कहा जा रहा है या क्या बहस हो रही है और जो बहस करेगा या निर्णय सुनाएगा, वह फरियादी के लिए नहीं, अपनी स्वार्थी अंग्रेजीदाँ हठधर्मिता के लिए, एक विकृत राष्ट्रीय कूटनीति के लिए। और इसलिए जब हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषा-भाषी उपभोक्ता चाहे-अनचाहे अंग्रेजी के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं, उलटे हमारी अभिव्यक्तियाँ अब अंग्रेजी मिश्रित भाषा (हिंगलिश आदि) के अगले पायदानों पर कदम बढ़ा चुकी हैं, तो निश्चित ही तकनीकी माध्यमों में हिन्दी अनुप्रयोग की सारी संभावनाएँ भविष्य में कहीं भ्रूण, कहीं शैशव, कहीं बाल, कहीं यौवन की अवस्था में मृत्यु की घड़ियाँ गिनने को अभिशप्त हैं। इस शताब्दी की शतायु तथा अगली शताब्दियों की दीर्घायु तक कौन कितना बच पाएँगी कहना कठिन है।