तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा / भाग 10 / सपना सिंह

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बड़ा ... दिन लगा दी अप्पी बहनी ... सब लोग करीब-करीब आ गये हैं ... आप के मम्मी पापा भी। सुविज्ञ भैया का पूरा परिवार भी। अप्पी ने लक्ष्य किया सुविज्ञ का नाम सुनकर अभिनव के माथे पर बल पड़ गये थे। उसे एकदम से टूर की एक घटना याद हो आई। वह रीमा अभिनव और कुछऐक और लड़के लड़कियाँ सर के साथ मद्रास मंे शाॅपिग करने निकले थे। अभिनव अप्पी के बात व्यवहार से यह तो समझे बैठा था कि अपराजिता कि ये संजीदगी ... बातचीत की यह गहराई, यँू ही बैठे... बैठे कहीं खो जाना, आँखों से तिरती बेचैनी ... इन सबके पीछे कोई है। मुमकिन है इसने कोई चोट खाई हो । कई बार उसे उसने अखबारों में कुछ ढूढ़ते देखा था और कई बार खुशी से उछलते हुए अखबार खरीद कर बैग में रखते हुए भी देखा था। उस दिन भी उसे अखबार पलटते देखा तो पूछ ही लिया ... आखिर ये कौन जनाब हैं। ... जिन्हें तुम अखबारों में ढूढ़ती फिरती ... हो..."अप्पी व्यस्त भाव से बोली" है कोई। "

"क्यों हम नहीं जान सकते क्या?"

"सभी जानते हैं ... तुम क्यों नहीं जान सकते?" रीमा ने कहा।

"तो बताओं न कौन है।"

" डाॅ। सुविज्ञ गौड़ ... शूटिंग के राष्ट्रीय चैम्पियन।

"शूटिंग। ये कौन-सा गेम है ... मैंने तो कहीं नहीं सुना पढ़ा।"

" चलो... इस बार घर जाकर अखबारों में खोजूॅँगा ... शायद पिछले किसी अखबार में उनकी फोटो नजर आ ही जाये ।

"तुम्हें क्या करना है उनकी फोटो देखकर।"

अप्पी चिढ़ गई थी।

"अरे करना क्या है ... जिसकी हमारी अपराजिता जी इतनी पूजा करती हैं ... हम भी उनकी तस्वीर दीवार पर चिपका कर ... रोज दिया बाती लगाया करेंगे।"

"कोई ज़रूरत नहीं इस मेहरबानी की।" अप्पी ने दाँत पीस लिए थे। बाद में उसने रीमा से अप्पी और सुविज्ञ के सम्बन्ध में पूछताछ की थी। अप्पी ने उधर से कान बंद कर लिए थे। अच्छा ही है जान ले ... पीछा तो छोड़ेगा ... पर यहाॅँ तो मामला उल्टा हो गया था। अभिनव ने वह सबकुछ गम्भीरता से नहीं लिया था... तो महाशय शादी शुदा हैं ... वाकई हैं तो अनुकरणीय व्यक्तित्व ... जाहिर है, अपराजिता उनसे प्रभावित है ... आदर्श

... और प्रेरणा के अतिरिक्त और कुछ तो नहीं लगता ये मामला।

कुछ भी हो सुविज्ञ का नाम सुनकर अभिनव के माथे पर बल तो पड़ ही गये थे । ईष्र्या मंे भुने जा रहे हैं जनाब! अप्पी को मजा आ रहा था।

सिर्फ एक ही हफ्ते में घर इतना बदला-सा लग रहा था... हर तरफ हजहज थी, पापा बाहर बारामदे में ही मिल गये ... बीच वाले मौसाजी और दो तीन और लोगों के साथ बैठे हुए। अभिनव ने झुककर सबके पैर छूये ... अप्पी ने भी ...! अंदर जाते हुए गैलरी के दोनों तरफ के कमरे भी लोगों से भरे। दायें वाले कमरे में छोटे-छोटे बच्चे उधम मचा रहे थे। मम्मी मौसी, मामी लोग भी बैठी थी। अप्पी पहुँची तो पहले उस पर लाड़ जताया गया, मामी ने मजाक के दो-चार वाक्य भी कहे् भाई बहन भी आकर घेर लिए।

अपराजिता ... मेरे बैग से अपना सामान निकाल लो। कहता हुआ अभिनव वहीं मम्मी लोगों के पास बैठ गया। ऊपर अपने कमरे में जाती हुई अप्पी लौट आई... उसका बैग खोलकर दो-तीन पैकेट निकाल कर फिर सीढ़ियों की ओर चली गई...

" एई... अप्पी बहिनी ... आपके कमरे में तो आजकल सुविज्ञ भैया और बहूजी रहते हैं...आपका सामान कहाँ रक्खें?

अप्पी को झटका-सा लगा था लड़के की बात सुनकर ... अभी तो वही रख... बाद में मंै देखूंगी...' अप्पी ने लापरवाही से कहा और अपने कमरे में घुस गई! अजीब-सी भीनी-भीनी सुगंध कमरे में फैली थी। किसी विदेशी डियो की खुशबू अप्पी ने एक उचटती नज़र पूरे कमरे में दौडा़यी ... एक ओर उसके पढ़ने की मेज पर दो सूटकेस धरे थे, जूते मोजे सैंडिल, रूमाल अप्पी ने कमरे में फैली चीजों पर एक नज़र दौड़ायी और अलमारी खोलकर कपड़े निकाल बाथरूम में घुस गयी। यहाॅँ आ कर भी उसे झटका लगा। सुविज्ञ और उसकी पत्नी की राजसी छाप मौजूद थी। विदेशी साबुन, शैम्पू... और जाने क्या क्या। अप्पी शाॅवर खोलकर बैठ गयी... बदन पर पानी पड़ते ही मानों आँखे भी बाँध तोड़ बह पड़ी। नहा कर बाहर निकली तो देखा... सुविज्ञ जी बेड पर लेटे हुए कोई मैगज़ीन पलट रहे हैं। आहट से उसने अपने आँखों के सामने से मैगज़ीन हटाई ... सामने अप्पी थी भीगे बालों में तौलिया लपेटे। सफेद चिकन का ढीला-ढाला सलवार कुर्ता ... सिर से टपक रही पानी की बूँदे ... चेहरे, गर्दन और कंधों को भिगों रही थीं ... पानी से भीगकर कुर्ता जगह-जगह चिपक गया था।

"कैसी... हो...?" सुविज्ञ का मन उसे बाहों में भर लेने को हो रहा था।

"अच्छी हँू!" अप्पी अनायास मुस्कुरा दी, सुविज्ञ बड़े ध्यान से उसे देख रहा था... एकदम समान्य कहीं कोई गड़बड़ी नहीं ...

"अच्छा। ज़रा मैं नीरू दी से मिल लूँ..."

... कहकर वह कमरे से बाहर चली गयी ... सुविज्ञ अवाक्-सा देखता रह गया... उसे स्पष्ट रूप से निराशा हुई थी और उसने अपने आपको मन ही मन लताड़ा भी। अप्पी का बदला रूप उसे सशंकित कर रहा था... अप्पी जब रिक्शे से उतर रही थी... तभी उसने देखा लिया था। अप्पी के साथ बैठे लड़के को देखकर उसे जाने क्यों हल्की-सी ईष्र्या महसूस हो रही थी। यहाॅँ आने से पहले वह बेहद उत्तेजित था अप्पी के विषय में सोचकर। उसे अप्पी की स्मृति विहवल करे दे रही थी इस बीच दोनों में कोई पत्र व्यवहार भी तो नहीं हुआ था। व्यस्तता के बावजूद सुविज्ञ ने नीरू की शादी से दो रोज पहले ही वहाॅँ पहुँचने का वक्त निकाल लिया था। जब वह सुरेखा केे साथ कोठी के गेट पर उतरा तो दिल में सुगबुगाहट लिए उसकी आँखें अप्पी को ही ढूंढ़ रही थीं... लग रहा था अभी भागती हुई अप्पी आ जायेगी बरामदे में क्षण भर ठिठक कर उन दोनों को देखेगी और भरी-भरी आँखों से मुस्कुरा देगी। पर अन्दर से बड़ी अम्मा और दो-तीन औरतें ही आई थीं, सुरेखा को परछने। नई-नई बहू के पहली बार घर आने पर जो-जो रस्में की जातीं हैं ... सब किया गया। वह देर तक यही सोचता रहा कि अप्पी युनिवर्सिटी या कहीं बाज़ार वगैरा गई होगी... पर जब रात में नीरू ने बताया वह टूर पर गयी है तो उसका दिल बुझ गया था...!

... घर में शादी की तैयारियाँ जोर पर थीं ... पर बहुत भीड़ नहीं थी। सुविज्ञ के मम्मी-पापा तीन दिन पहले ही आ गये थे। सुरेखा तो नीरू, अम्मा लोगों के आकर्षण का केन्द्र बनी उन्हीं में मगन थी। सुविज्ञ फिलहाल कार लेकर अपने दोस्तों से मिलने चला गया था। गोरखपुर मेें ही कई पट्टिदार भी थे ... जिन्होंने अलग-अलग मोहल्लों में घर बनवा रक्खा था ... सुविज्ञ सुरेखा और-और सारा परिवार उनके यहाँ भी मिलने गया। सुविज्ञ सुरेखा गोरखनाथ मंदिर भी गये ... पहले भी कितनी बार वह गोरखपुर आ चुका था... कितनी बार यहाँ के सड़को से गुजरा था... पर, इस बार कितनी अजीब-सी अनुभूति हो रही है हर कहीं ... मंदिर में तो उसकी बेचैनी सुरेखा ने भी मार्क कर ली थी ।

अप्पी के कमरे में उसके और सुरेखा के रहने की व्यवस्था कि गई थी... अप्पी वहाॅँ नहीं थी पर जर्रे-जर्रे में उसका एहसास था। मेज पर पड़ी किताबें ... वार्डरोब में अगड़म शगड़म भरे कपड़े ... कमरे से लगी एक छोटी-सी बाॅलकनी जिसमें ... पौधे ... एक तरफ बेंत की दो कुर्सी ... छोटी टेबल ... पेटिंग का सामान ... जमीन पर गद्दी और कुशन की सहायता से बनी सेटी ... सुरेखा को खूब पसंद आई ...

रात में वह पलंग पर अधलेटा ... मैगजीन पढ़ रहा था... सुरेखा उसकी छाती पर सिर रख लेटी थी... उसके हाथ की उंगली उसके बालों में फंसी थी ... सुनो, ... ये अप्पी कौन है...? " एकाएक सुरेखा के इस प्रश्न का मतलब वह नहीं समझ पाया था ... सुरेखा के बालों में चलती उसकी उंगलियाँ थम गई थीं।

"नीरू की मौसी की लड़की है..."

आपका क्रश था...? "

किसने कहा ...? सुविज्ञ ने मैगजीन से नजर हटाये बिना कहा

"मैने सुना ..."

" बीवी मैं उससे सिर्फ़ एक बार मिला हॅूँ...

वो भी अपनी शादी से कुछ दिन पहले ..."

"कैसी... है ... बहुत सुदंर है क्या ..."

"अब ये तुम क्या टिपिकल बीवियों वाली नानसेंस टाॅक ले बैठी ..." सुविज्ञ ने त्योरी चढ़ाकर कहा था, "देख लेना... सुना कही बाहर गई है ... एक दो दिन में आ जायेगी।"

"ओ हो ... बड़ी खबर शबर रखने लगे हैं उसकी।" सुरेखा ने हसंकर छेड़ा था ... वह भी हंस पड़ा था और सुरेखा को बाहों में कस लिया था।

और ये अप्पी, देखो तो ज़रा ... कितनी न्यूट्रल होकर मिली है ... एकदम रूखी सी। कमरे से निकलते हुए अप्पी ने अपने व्यवहार पर गौर किया तो एक क्षण को उसे परेशानी महसूस हुई ... लेकिन अधिक दे तक वह इस पर ध्यान नहीं दे सकी ... सफर, थकान और कई दिनों का बिगड़ा हुआ रूटीन ... सब मिलकर उसे ठीक से सोचने नहीं दे रहे थे।

नीरू के पास पूरा जमघट मचा था। सुरेखा वही बैठी थी ... बिना किसी के बताये भी अप्पी ने जान लिया कि वह हीे ... सुरेखा है! अलग ही चमक थी उनकी... सबके आकर्षण का केन्द्र! अप्पी के दिल में एक टीस उभरी ... क्या ये ईष्र्या है? उसने सुरेखा को ध्यान से देखा ... पर ये ध्यान भी इस एहतियात के साथ कि किसी को पता न लगे! सुरेखा में एक संभ्रांत निश्चितंता थी साथ ही तटस्थ कोमलता भी। जो भी उससे मिलता ... बड़ी अच्छी हैं का भाव उसके दिल में उत्पन्न होता। 'बड़ी अच्छी' से न कुछ कम न ज्यादा। वह खूबसूरत थी और इसका उसे बखूबी एहसास था। बेहतरीन परिवेश ... ऊँची शिक्षा, अघायेपन की हद तक सम्पन्नता... सुविज्ञ से उसका विवाह उसके लिए एक ... समान्य-सी घटना थी ... सुविज्ञ से विवाह न होता ... तो उस जैसे ही किसी और व्यक्ति से होता। उसके पिता खास धनवान और प्रतिष्ठित राजनीतिक व्यक्ति थे। बड़ा दामाद आई.ए.एस. था। सुविज्ञ की हैसियत भी उनके अनुरूप ही थी। विवाह में उन्होंने हर नेग पर लाख रूपये नगद दिये थे। जिसका बखान अप्पी ने भी कई दिनों तक सुना था ... मौसी हर आने जाने वालों को सुविज्ञ के विवाह पर मिले 13-14 लाख रूपयों का ब्यौरा दिया करती थीं।