तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा / भाग 22 / सपना सिंह

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अप्पी के सीने पर बोझ-सा था... कुछ छुपाना मतलब कुछ गलत... उसने तो यही ... जाना था तभी तो अब तक का उसका जीवन पानी जैसा पारदर्शी था । पर अब सब खदबदा गया-सा ... कोई मिलावट-सी ...कुछ रंग से घुले हुए ... ऐसे में साफ कैसे दिखाई दे कुछ ... अब जीवन के इस मोड़ पर? जिस उम्र में लोग बातें छुपाते हैं... खास तौर पर प्रेम की बातें... उस उम्र में अप्पी ने ऐसी कोई तरतीब नहीं की। लोग प्रेम को छुपाते हैं... खासतौर पर उसके जैसी मध्यवर्गीय लड़कियों के लिए प्रेम सेम फिजूल की बकवास से ज़्यादा माने नहीं रखती। प्रेम करती हुई लड़कियों को अच्छी लड़की नहीं समझा जाता था ... पकड़े जाने पर कुटम्मस होने की भी गुजांईश होती। लड़कियाँ तो सिर झुकाये झुंड में काॅलेज के लिए निकलती थी ... शायद ही कोई लड़क्ी अकेले जाती हो कहीं। सिर झुकाये इंतजार करती कि कब माता-पिता उनका हाथ किसी के हाथों में दे दे। जिससे ब्याह होता ज़िन्दगी भर सिर झुकायें उसकी ताबेदारी करते रहना उनकी नियति होती थी और यह नियति ही उनकी सहुलियत। प्रेम जैसे एक्सीडेंट कभी-कभी घटते थे और अक्सर परवान नहीं चढ़ते थे। कुछेक ही लव मैरिज होती थी। वैसे प्रेम जैसे एहसास का स्वाद लेने को लड़कियों में ललक तब भी होती थी... पर यह सारी ललक सिर्फ़ विवाह होने तक ही जोर मारती थी। एक पुरानी कहावत ... भारतीय शादीयों के लिए बिल्कुल सटीक बैठती थी कि औरत के शरीर पर कब्जा करने वाला ही उसके दिल पर राज करता है... और ये भी बात उतनी ही सच थी कि औरत शारीरिक रूप से कंफर्टेबल उसी पुरूष के साथ होती है, जिसकी बाहों में उसकी सुबह हो। इसीलिए गहरे प्रेम के बावजूद स्त्रीयाँ शरीरिकता से हिचकती हैं हमेशा। प्रेम उनके लिए हमेशा एक अलग चीज रही है और विवाह एक अलग चीज। रही किसी के प्यार में गहरे मुब्बितला होने के बावजूद, विवाह के बाद वह फौरन पति के प्रति लायल हो जाती हैं... पूरी तरह उसके हित का सोचने लगती है ... उसके वीर्य को अपने भीतर ग्रहण कर उसके बच्चों को पालने पोसने अपनी ज़िन्दगी की सार्थकता मानती हैं।

अप्पी भी तो उन लड़कियों जैसी ही थी ... बस थोड़ी-सी ईमानदार थी अपने प्रति। अपने आपसे झूठ बोलना उसे नहीं आता था... और जो बाद बात खुद मान ली ... उसे किसी से छुपाने बताने के मसले में पड़ना ही नहीं। सुविज्ञ के प्रति अपने जज्बे को उसने अपने भीतर आत्म सात कर लिया था। वह कोई ऐसा एहसास नहीं था वक्त के साथ बदल जाता। अप्पी मन ही मन जानती थी कि वक्त चाहे कोई करवट ले... महीने साल आये जायें इस प्रश्न का कि क्या वह सुविज्ञ से प्यार करती है ... हमेशा एक ही जवाब होगा-हाँ! मन की पूरी निर्मलता के साथ बिना किसी रिग्रेट के वह इस सच को अपने पिता और पुत्र दोनों के सामने स्वीकार कर सकती है। पर अभिनव ने अपने एटीट्यूड से उसकी सारी सुकुमार भावनाओं को भद्दा बना दिया था। उसकी समझ में प्रेम-व्रेम माने शुद्ध चरित्रहीनता। उसकी मानसिकता पूरी तरह से सामन्तवादी थी। घर उसके लिए उसका राज्य था ... जहाँ का लाॅ एंड आर्डर उसके हिसाब से चलना चाहिए और पत्नी की हौसियत मात्र लौंडिया-सी जिसे वह जब चाहे अपनी मर्जी और मूड के अनुसार बरत सकता था। अप्पी सोचती अक्सर हम स्त्रियाँ अपने जज्बातों को ऐसे व्यक्ति के लिए गर्क करती हंै... जिन्हें हमारे होने न होने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता ... उन्हें फर्क तब पड़ता है ... जब एहसासों की नदी सूख जाती है ... या अपना रास्ता बदल लेती है ... फिर भी, किसी को तो बताना होगा ... कोई तो... जिससे वह अपने को बांट सके... सबकुछ कह देने की कैसी तो तीव्र इच्छा जोर मार रही है। यूँ भी थक-सी गई है ... सोचते-सोचते ... ये अचानक जो घटा है ... बहुत नाजुक, बारीक-सा ... क्या ये ऐसा सुन्दर बना रहा पायेंगा ... अपने आपसे ... घबड़ाकर ही उसने मिनाक्षी को फोन किया था। '

अकेली हॅूँ ... आ जाओं...' मिनाक्षी ने कहा था,

क्यो ... वह कहाँ है ।

गाँव गया है। "

मिनाक्षी बड़ी रिलेक्स दीख रही थी जबकि उसके गाँव गये हुए होने पर लाख चेष्टा करने पर भी उसके मन की उद्विग्नता सामने आ ही जाती थी।

"आज की न्यूज पढ़ी ...?"

"क्यों... न्यूज में क्या खास है ...?" अप्पी समझ नहीं पाई...

"अरे भाई, लिव इन पार्टनर को भी सुप्रीम कोर्ट ने पत्नी के समान ही गुजारे भत्ते का अधिकारी माना है... ऐसे रिश्ते से उत्पन्न संतानों को भी सारे हक मिलेंगे।"

"ये तो बहुत बुरा हुआ ..." अप्पी स्पष्टतः इस निर्णय के खिलाफ थी। " बुरा क्यों ... अच्छा ही है पुरूषों की जवाबदारी तो बनेगी।

अप्पी उखड़-सी गई, " हर तरह की जवाबदारी से बचने के लिए ही तो ये लिव इन का कांसेप्ट ईजाद किया था इसके पैरोकारों ने ... फिर अब जवाबदारी की बातें क्यों ...?

... साफ-साफ कहो तुम हो किधर...? "

"देखो, इस फैसले ने पत्नी पने की डिग्निटी पर सवाल खड़े कर दिये हैं..." मिनाक्षी जैसे आसमान से गिरी। अप्पी से उसे ये उम्मीदं नहीं थी।

"... और जो ... महानगरों में सैकड़ों जोड़े लिव-इन में रह रहे हैं ...?"

"रहें ... ये उनकी अपनी च्वायस है... आखिर विवाह संस्था से ... विवाह से जुड़े बंधन, दायित्व, इन सबसे बचने के लिए ही तो उन्होंने लिव-इन को चुना... अब गर किसी कारण वश सम्बंध खत्म हुआ तो मेंटीनेस क्लेम करना ... व्हाई... ? ये सब करना है तो विवाह करने में क्या बुराई है..."

"मतलब मर्द को यूँ ही जाने दो ... वह छुट्टा घूमें ..." मिनाक्षी को गुस्सा आ गया ... अप्पी ऐसा कैसे सोच सकती है।

"देख यार ये लिव-इन का कांसेप्ट मर्दो को ज़्यादा सूट करता है... बिना किसी जवाबदारी के उन्हें सबकुछ चाहिए... पर औरत बंधन चाहती है, कमिटमेन्ट चाहती है... अपना सरपरस्त चाहती है... इसलिए ऐसे सम्बंधों में ब्रेक-अप के बाद औरतें अपने को ठगा-सा महसूस करती ... अपने पार्टनर को ब्लेम करती हैं... रो-रोकर उनकी लानत-मलानत करती हैं... पर क्यों ये सब...? जब सम्बंध की शुरूआत ही इस सोच के साथ होती है कि चला तो चला... नहीं तो रास्ता अलग..."

" अप्पी... । तुम तो अमृता प्रीतम की फैन हो... उनहोंने तो ऐसी ही ज़िन्दगी जी थी... बिना विवाह किये इमरोज़ के साथ रही थीं...'

"वैसा सम्बंध जीने के लिए जो प्रखर चेतना, जो बैलौस प्रेम ... और जो आत्मा कि निर्मलता चाहिए... सच कहना उसका एक अंश भी आजकल के सो काॅल्ड इन लिव इन सम्बंधों में नज़र आता है? ... मैं तुम्हें भी इसमें शामिल कर रही हॅूँ..."

क्या मतलब ...? क्या मैं तिवारी जी से प्रेम नहीं करती ...?

" बेशक करती हो...पर, क्या वह तुम्हें सचमुच प्यार करते हैं...? ये सवाल तुम्हें निरन्तर परेशान करता है... तुम्हें अगर उन पर भरोसा होता तो ... कोई कानूनी फैसला ... कोई नई धारा... इस सबसे बेपरवाह होकर सिर्फ़ प्यार में अपने होने के एहसास को जीती ... पर तुम हर रोज इस त्रास से गुजरती हो... तुम डरी हुई होती हो... जब-जब वह तुम्हें छोड़कर गाँव अपने परिवार के पास जाते ... हैं, तुम नरक जैसी यातना से गुजरती हो, संशय में रहती हो। प्रेम में ये यातनाएँ नहीं होतीं... गहरा सूकून होता है... और ये सूकून समझ और भरोसे से जनमती है।

"लेकिन अप्पी, ये तो देखो, सुप्रिम कोर्ट के इस फैसले से कितनी ऐसी औरतों को राहत होगी जो ऐसे सम्बन्धों में एक्सप्लॅायेट होती हंै..."

"ठीक है... तो फिर विवाह से परहेज क्यों...? ये भी तो एक जिम्मेदारी होती है। खासतौर पर बच्चों के आ जाने पर तो अपने निजी हित अहित पीछे रखकर विवाह को बनाये रखना एक सामाजिक जिम्मेदारी है। रही बात लिव इन में औरतों के एक्सप्लाॅटेशन की तो यार बिना प्रेम के तो हर सम्बंध एक निरन्तर चलने वाली एक्सप्लाॅयटेशन ही है। अब देखो, कानून तो ये भी बन गया है कि वृद्ध माता-पिता कि अवहेलना करने वाले पुत्र भी कानूनी रूप से दण्डित किये जायेंगे ... तो क्या सारे पुत्र कानून के डर से माता-पिता कि सेवा कर रहे हैं...? जहाँ डर होता है... वहाँ प्रेम कभी नहीं ठहरता और लिव-इन रिलेशन में रहना तो आदमी-औरत की अपनी निजी पसंद होती है... सामाजिक, कानूनी बंधनों से आजादी की चाह ही तो इन सम्बंधों का आधार है। फिर, सामाजिक, मान्यता और ... कानूनी सहारे की आवश्यकता क्यों। अगर यही चाहिए तो विवाह क्यों बुरा है...? मुक्त होने की सहूलियत तलाक के रूप में यहाँ भी तो है... न।" अप्पी ने कहा ... निकल जाने, मुक्त हो जाने की च्वायस तो हर सम्बंध में होती है ... कभी-कभी यें निकल जाना इतना बारीक घटता है कि सिर्फ़ महसूस होता है ... दिखता नहीं... अप्पी ने सोचा था... कहा नहीं था। अप्पी जानती है उसके सारे तर्क मिनाक्षी के जेहन में नहीं पहुँचते रिवर्स हो जाते हैं। प्रेम में डूबा व्यक्ति या कहो प्रेम की गफलत में बेहोश व्यक्ति हर तर्क वितर्क से परे होता है। अप्पी को मिनाक्षी का प्रेम, उसका लिव-इन में रहना पडले दर्जे की बेवकूफी लगती। और मिनाक्षी अप्पी के प्रेम पर हंसती है... ये कैसा प्रेम ... बिना देखे जाने शुरू हुआ ... लगातार बना भी रहा ... बिना कुछ लिए दिये ... कोई आशा, कोई अपेक्षा नहीं ... स्टूपिडिआई की हद... मोहब्बत करता दूसरा व्यक्ति हमें बेवकूफ ही नजर आता है... अपना प्रेम... प्रेम में होना हमें अलग अनुभूति एक अलौकिकता के धरातल पर पहुँचा देता है और दूसरों का प्रेम हमें कमतर लगता है... यँू ही-सा ... बेवकूफी भरा।

अप्पी को समझ में नहीं आता इतनी जहीन... इतनी खूबसूरत और तेज तर्रार... मिनाक्षी राय कैसे अपने से लगभग दूगूने उम्र के प्रोफेसर तिवारी के प्रति आकर्षित हो... गई? पिता कि आकस्मिक मृत्यु के बाद मिनाक्षी ने घर संभाला था। बड़ा भाई इंजीनियरिंग अन्तिम वर्ष में था ... वह स्वयं बी.एस.सी. द्वितीय वर्ष में थी ... छोटा भाई और बहन भी थे। पिता जी जमा पूंजी भाई की बाकी पढ़ाई पर लगी। पेंशन से घर का खर्च पूरा नहीं पड़ता था। उसने एक प्रायवेट स्कूल ज्वाइन किया और अपनी पढ़ाई जारी रक्खी... छोटे भाई-बहन एक तरह से उसी पर निर्भर थे। बड़ा भाई 'टफेल' क्वालिफाई करके अमरीका चला गया था ... और वहीं शादी कर ली थी। पैसा वह भेजता था ... पर सौ खर्चे माँ को सूझते। भाई को अपनी बाइक, बहन को स्कूटी और माँ को अपनी पतली टूटी चेन को और भारी मजबूत बनवाने की फिक्र हो आती। कभी बैठक के पुराने पड़ गये पर्दे बदलवाने ज़रूरी लगते... तो कभी नये सोफे खरीदने । जब मिनाक्षी एतराज करती इन खर्चो पर तो कहा जाता ... अब क्या दिक्कत है ... तुम भी तो लेक्चरर हो गई हो ... घर के खर्चे आराम से चल ही रहे हैं, यानी घर की ज़रूरते पूरी करने के लिए मिनाक्षी ही थी। भाई बहनों की पढ़ाई, उनकी कोचिंगश् उनके बाइक, स्कूटी के तेल, मोबाइल रिचार्ज जैसे खर्चो की पूर्ती उसे ही... करनी होती। किचन, दूध वाला, पेपर वाला, बिजली का बिल सब उसके जिम्मे! और तो और भाई के भेजो पैसों पर जो काम नाध लिया जाता-उसमें कमी बेसी होने पर फिर मिनाक्षी को ही अपना एकाउंट खाली करना पड़ता। कहा जाता अगली बार जब भाई भेजेगा तुम अपना हिसाब कर पैसे ले लेना... पर, क्या और कितना लेती वह ... हर बार तो नये-नये खर्चे निकलते जाते।

मम्मी अब छोटी के लिए चिन्तित रहती... कहीं इसकी भी विवाह की उम्र न निकल जाये। मिनाक्षी सोचती क्या 32 की उम्र विवाह की नहीं होती? यानी अब वह मैरिज मटीरीयल नहीं रही। उस दिन तो वह हक रह गई... काॅलेज से आई तो देखा उसका सारा समान पीछे वाले कमरे में बेतरतीब ठुंसा हुआ है... उसके कमरे में मजदूर लगे हैं... पता चला आगे के दोनों कमरे रेनोवेट किये जायेंगे दोनों भाइयों के लिए ... मीनाक्षी पीछे वाले कमरे को अपना कमरा बना ले। मीनाक्षी का तो पारा ही हाई हो गया... वह सीलन भरा अँधेरा कमरा जिसे अब तक स्टोर जैसा प्रयोग किया जाता था... उसने तुरंत अपने लिए घर खोजना शुरू किया ... और ये फ्लैट अपने ... नाम से बुक कर लिया। घर में सबने बवेला मचाया पर रिश्तों का ऐसा मकड़जाल जहाँ सबको उसके फर्ज तो याद रहे पर उसके प्रति उनका भी कोई फर्ज़ होता है इसे याद रखना ज़रूरी नहीं समझा जाता ... से निकल जाना अच्छा था।

प्रोफेसर तिवारी के साथ सामान्य-सी हाय हलो कब गहरी मित्रता में बदली उसे नहीं पता चला... और कब उन्होंने अपना किराये का घर छोड़ मय समान मीनाक्षी के घर को अपना स्थायी पता बना लिया ये भी किसी को नहीं पता चला। दोनांे पति पत्नी की तरह ही रहते थे... पर पति पत्नी थे नहीं। बहुत से लोगों को ये बात पता भी नहीं थी ... अप्पी को पता थी क्योंकि मीनाक्षी ने उसे बताया था। मीनाक्षी जानती थी अप्पी उसके इस अनिश्चित सम्बंध को पंसद नहीं करती ... और प्रोफेसर तिवारी से उसे चिढ़ है। मीनाक्षी को अप्पी का अतीत वर्तमान सब पता है... उसे अपनी ये सखी बुढू लगती है... दुश्वारियों भरे दांपत्य को ढ़ोती हुई एक असंभव से प्रेम में गाफिल। ऐसी सुकुमार है और जाने कैसे इतने दर्द भरे रिश्तों को निभाये जा रही है। अपने बारे में कभी वह सोचती है तो समझ में आता है... वह तो जोड़ घटाव, नफा-नुकसान सोच के प्रेम ... कर रही थी। पैंतीस की उम्र पार कर गई थी वो... ऐसे में पारम्परिक विवाह में उसे या तो बाल बच्चेदार बिधुर जुटता या तलाक शुदा ... वह भी उस पर एहसान करता हुआ। भारतीय समाज में पैंतीस साला अविवाहित लड़की बेचारी होती है या मनबढ़। हाँ मनबढ़ तो वह हो ही गई थी। प्रोफेसर तिवारी के साथ उसका शुरूआती जुड़ाव प्रेम जैसा ही या प्रेम आस-पास जैसा ही कुछ था। पुरूष साहचर्य की शिधत उसे महसूस हुई थी ... पर इसके लिए बंधन स्वीकारने वाला मिजाज अब उसका बचा नहीं था। यह सहजीवन कोरा भावना पर आधारित नहीं था। मिनाक्षी ने अपनी निजता बचाये रखी थी। घरेलू ज़रूरतें जो दोनों की साझा थीं उनका वहन प्रोफेसर तिवारी ही करते थे। सिलेंडर भरवाने से लेकर सब्जी, फल, किराना भी... बिजली और टेलीफोन के बिल भी। अपने निजी खर्च मिनाक्षी स्वयं वहन करती अपनी कार में पेट्रोल डलवाना हो, मोबाइल रिचार्ज, ब्यूटी पार्लर, इनर वेयर, घर के पर्दे, कुशन कवर भी। ऐसा कुछ बैठकर तय नहीं किया गया... अपने आप ये अनुबंध इस सम्बंध से जुड़ गया था। मिनाक्षी जानती है कि ये एक दिमाग से किया गया प्रेम है और अब तक उसकी सहुलियत के साथ उसे सुख पहुँचा रहा है। हाँ, कुछ रोड़े, पत्थर... उसे भी चुभे हैं... कुछ छिली उधड़ी वह भी है। उसे याद है वर्षों पूर्व की वह घटना ... उसने अबार्शन कराया था... केस क्रिटकिल हो गया था! वह कई दिन अस्पताल में रही थी! अप्पी आई थी चेहरे पर...'मैने कहा था न' जैसा भाव चिपकाए... चिल्लाई भी थी उस पर "क्यो अपना जीवन तबाह कर रही हो...अब भी समझ नहीं आया वह आदमी सिर्फ़ तुम्हारा यूज कर रहा है...कोई इतना गैर जिम्मेदार कैसे हो सकता है...?"

"अप्पी शांत हो जाओ, बेवजह हायपर हो रही हो..." मिनाक्षी ने कमजोर आवाज में कहा

"बेवजह...?" अप्पी को आश्चर्य हुआ था

"और क्या...? तुम तो ऐसे रिएक्ट कर रही हो जैसे विवाहित स्त्रियों के तो अबाॅर्शन होते ही नही...! मेरी एक कजिन है...सुनोगी तो रोयें खडे हो, जायेंगे...उसने दस बार अबाॅर्शन कराया है। ...ना ... यहाँ लड़का-लड़की का चक्कर नहीं था ... प्रीकाॅशन लेने में बरती लापरवाही थी ... और ये लापरवाही हर बार उसके पतिदेव ही करते थे..."

"पढ़ी लिखी होगी ... खुद कोई इतंजाम नहीं कर सकती..."

"क्यों नहीं कर सकती ... पर वह थोड़ी बौद्धिक टाइप की बुद्धु थी ... हर वक्त किताबी जानकारी से लैस... दिमाग में घुसा था बर्थ कंट्रोल के सारे साधन जो स्त्रियों के लिए है... वह उनकी हेल्थ के लिए खतरा होते हैं लिहाजा मोहतरमा पति के भरोसे रही ... पतिवदेव को प्रीकाॅशन लेना झंझटिया लगता। पत्नी है कोई गर्लफ्रन्ड थोड़ी कि इतना अवेयर रहा जाये... सारे मूड का सत्यानाश हो जाता है। जब दो-तीन बार फंसी तो होश में आई और फिर खुद प्रीकाॅशन लेना शुरू किया ... पिछले बाईस साल के वैवाहिक जीवन में उसके दस अबार्शन का तो मुझे पता है ... क्या पता और ।" "रिडिक्यूलस..." अप्पी का मन वितृष्णा से गया।

"औरत के जीवन में बहुत कुछ रिडिक्यूलस होता है।" मीनाक्षी ने थकी आवाज़ में कहा था।