तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा / भाग 4 / सपना सिंह

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...उन्हे आज भी याद है वह दिन, वह तारीख। इलहाबाद मेडिकल काॅलेज में वह हाउस जाब कर रहे थे... रात दिन की ड्यूटी। ऐसे में पोस्टमैन जब वह पत्र देकर गया तो उन्होंने बिना खोले ही उसे टेबल पर रख दिया था। इतनी व्यस्तता रहती थी कि दिमाग ने ये सोचने की जहमत भी नहीं उठाई... कि लिफाफे में लिखा नाम 'अपराजिता राव' कौन है भला। अजनबी नाम ने भी उत्सुकता कि कोई तीली नहीं सुलगाई थी। नाइट ड्यूटी के बाद थका हुआ वह कमरे में लौटा था... पत्र पर नजर भी पड़ी थी पर नींद से बोझल आँखों और थकान से चूर शरीर, जिस पर तीन जवान मौतों से साक्षात्कार... उसनें शरीर को बेड पर ढहा दिया था और गहरी नींद में खो गया था! दोपहर में जागने के बाद फिर टेबल पर पडे पत्र पर नजर पडी थी। किसका हो सकता है...? सोचते हुए उसने पत्र खोल लिया था। सीधे उसे ही सम्बोधित किया गया था।

सुविज्ञ जी

...

ये जगह खाली इस करके छोड़ी गई है... क्योंकि यहाँ जो कुछ लिखने का मेरा मन कर रहा है उसे आप स्वीकारेंगे नहीं... सो वह जगह खाली ही ठीक है। बहरहाल यह पत्र मैने आपको उलझाने के लिये नहीं लिखा अब बहुत देर तक आपको आश्चर्य चकित नहीं करुँगी! बहुत बचपन में हम कभी मिले हैं... पर उसकी याद मुझे नहीं है-आपको तो और भी नहीं होगी! आपके लिये मेरा परिचय यही है कि मैं आपकी कजिन नीरु की मौसी की बेटी हूँ... हा...हा... ये कोई बजह नहीं है आपको पत्र लिखने की... बेशक! हो सकता है मैं जो कहने जा रही हूँ पढ़कर आपको अच्छा न लगे... आप मुझे ऐसी वैसी टाइप समझ लें... या फिर इन सबर्में मेरा कोई स्वार्थ देखें! खैर... उससे भी कुछ फर्क नहीं पड़ जाना कि आप मुझे क्या समझें... और न ही उस बात पर पड़ना जो मुझे कहनी है... और जो शायद दुनिया कि सबसे खूबसूरत बात भी है! और ये खूबसूरत बात है... " मै आपको प्यार करती हूँ... आपसे ये कहने का आशय आपसे किसी भी तरह की अपेक्षा नहीं है... सिर्फ़ इतनी ही बजह है कि ये कितना बेतूका है... कि मैं आपको प्यार करती रहूँ और आपको पता भी न हो कि कोई आपको प्यार करता है। ...

शााद ये सब आपको अटपटा लगे... कोई बात नहीं आप आसानी से इस पत्र को कचरे के डब्बे में डाल सकते हैं... और फिर भूल भी सकते हैं कि ऐसा कोई पत्र आपको मिला भी था।

पत्र का उत्तर आप नहीं देंगें... लेकिन अगर मेरी किस्मत मेहरबान हुई और आपका पत्र मुझे मिला तो यकीनन मैं बहुत ज़्यादा खुश होऊँगी और आपकी वजह से कोई खुश हो... ये तो आप चाहोगे ही।

सुविज्ञ को पत्र लिखने के बाद आप्पी फिर उसे पढ़ने की जहमत नहीं उठाई! उसे पता है ऐसा करने पर वह फिर असंतुष्ट होकर उसे फाड़ डालती... और सारी ज़िन्दगी वह पत्र लिखा जाना बांकी रहता! अप्पी ने पहला काम किया था उसे पोस्ट करना! आगे बहुत सारे दिन अप्पी ने भयंकर व्यग्रता में बिताये! रह-रह कर उसे रोमांच होता... भय और निराशा घेर लेती... हाय! ये मैने क्या किया... ऐसे कोई करता है क्या...! पता नहीं सुविज्ञ क्या सोचेंगे उसके बारे में... क्या पता अपने दोस्तों के साथ बैठकर उसके पत्र को जोर-जोर से साथ पढ़ा जा रहा हो... उसका मजाक उड़ाया जा रहा हो! लड़के तो सब होते ही है मजा लेने वाले...! कितनी स्टूपिड है वो... आखिर वह उस आदमी को जानती ही कितना है... सिर्फ़ सुना ही है... कभी मिली भी नहीं... क्या उसे नहीं पता लोग कैसे तो दो व्यक्तित्व लिये घूमते हैं। भले उसका सामना ऐसे दोहरे लोगों से नहीं पड़ा... पर दुनियाँ भरी पड़ी है ऐसे लोगों से।

समान्य मध्यवर्गीय परिवार है उसका... ये ठीक है, उसके यहाँ लडका लडकी में फर्क नहीं किया जाता... अपने लड़की होने को लेकर कोई बेचारगी उसने नहीं महसूस की! मम्मी ज़रूर उसकी लदभेसरई से तंग आकर भुनभुनाती थीं! दूसरे के घर जाना है गून शउर सीख ले! वह तो जिस कन्या विद्यालय में पढ़ती थी... वहाँ उसकी क्लास की लड़कियाँ पूरा खाना बना लेती थीं। उससे तो बुरादे की अंगेठी नहीं जलती थी, स्टोव में हवा नहीं भरता था... कुकर का ढक्कन नहीं बन्द होता था... नींबू काटते नहीं आता था! मम्मी ने उन्हें कभी चूल्हे चैके में नहीं झोंका... उनका कहना था समय आने पर सब सीख जायेगी! ये क्या कि खुद के आराम के लिये लडकियों को अपनी गृहस्थी में लगा दो।

घर का वातावरण लिबरल था... किताबें, फ़िल्में, बागबानी... अप्पी को पेंटिंग में खास दिलचस्पी! बी.ए. में को।ऐड। में पढ़ाई फिर भी लड़कों से एक दूरी थी या कहो कस्बे के उस कालेज के लड़के तवज्जो देने लायक लगे ही नहीं! 50-60 लडकों पर 10-15 लड़कियाँ जो ब्लैकबोर्ड की साइड वाली दो रो में बैठती थीं। सर के पीछे-पीछे क्लास में जाना और क्लास खत्म होने पर पहले लड़कियाँ बाहर निकलती फिर सर! लड़कों से बातें करना, उनके साथ बैठना ये सब तो सीधे-सीधे चरित्रहीनता मान लिया जाता था।

पर युनिवर्सिटी में माहौल अलग था... लड़के लड़कियों का मिला जुला ग्रुप था फिर भी लड़को से एक खास दूरी बनी हुई थी। लड़कों को प्रेम पत्र तो गंदी लड़कियाँ लिखती थीं! ... अच्छी लड़कियाँ तो इन सबसे दूर होती हैं... अप्पी को भी अपनी क्लास की ऐसी गंदी लड़कियों की जानकारी थीं! ...

ऐसी लड़कियों से अच्छी लड़कियाँ दूर तो रहती थीं कुछ कौतूहल भी रहता था उनके भीतर... ऐसे में अप्पी ने ये गजब कर डाला... और उसके बाद भी अपने को शरीफ लड़की समझे जाना ये तो और भी गजब था और खत लिखा भी तो किसे ...? सुविज्ञ और अप्पी में कुछ भी कांॅमन नहीं... एक साउथ पोल तो दूासरा नार्थ पोल। अप्पी हिन्दी मीडियम के सरकारी स्कूल में पढ़ी ...और सुविज्ञ बचपन से बोर्डिग स्कूल में! तब आज की तरह गली-गली पब्लिक स्कूल नहीं होते थे। इंगलिश मीडियम स्कूलों में पढ़ना... इंग्लिश बोलना अभिजाज्य की निशानी मानी जाती थी, वह इंग्लिश हिन्दी मीडियम वाली अंग्रेज़ी से अलग होती थी। सुविज्ञ तो बचपन से अभिजात्य संस्कारो में पले बढ़े थे पर अब क्या हो सकता था...अप्पी ने अपनी करनी तो कर गुजरी थी... अब भले अपनी इस अहमकाना हरकत पर खुद को कोसती बैठी रहे! ठीक है... वह मन ही मन उस अनदेखे व्यक्ति को चाहती है... तो चाहो न भाई... पर अपनी इस चाहत को उस बेचारे पर पहाड़ की तरह गिराने की भला क्या तुक! वह तो कहो उस जमाने में फोन-ओन की सुविधा नहीं थी वरना क्या पता वह महाशय फोन कर उसे अच्छा खासा सुना डालते। इन मोहतरमा के लिये ये अच्छा भी होता... इनका दिमाग ठिकाने आ जाता... पर हुआ कुछ ऐसा कि अप्पी की दुनिया ही बदल गई। दिन तो वह भी सब दिनो जैसा ही था... पर उस दिन कि डाॅक में अप्पी के नाम जो पत्र था उसने उसकी किस्मत में उसका भविष्य लिख दिया था।

सुविज्ञ अश्चर्य में था... इस तरह का पत्र कभी किसी ने नहीं लिखा था... इस तरह पत्र लिखा जा सकता है, उसे तो ये भी नहीं पता था... ज़रूर ये लड़की फ़िल्में उल्में बहुत देखती होगी। फ़िल्में तो वह भी देखता है पर ऐसी कोई फ़िल्म उसने अब तक नहीं देखी थी जिसमें कोई किसी को देखे मिले बिना ही उसके प्यार में पड़ गया हो (कई वर्षो बाद सुपर स्टार माधुरी दीक्षित की फ़िल्म, साजन आई थी... जिसमें नायिका बिना मिले ही नायक के प्यार में पड़ जाती है।)

एक बार मन हुआ दोस्तों को बताया जाय... पर पता नहीं क्यों...दिल नें डपट-सा दिया। पता नहीं कौन है ये लड़की... लगता तो नहीं कि ये पत्र क्षणिक आवेग में लिखा गया है... अथवा कोई मजाक किया गया है। सुरेखा कि किसी सहेली ने तो ये मजाक नहीं किया... नहीं... पता तो कहीं और का है... और पत्र के अनुसार तो ये बड़ी अम्मा कि किसी बहन की लड़की है। उसे याद नहीं आ रहा है...छुट्ठियो में बोर्डिग से आने पर वह बडे़ बाबूजी अम्मा के पास गाँॅव भी जाते थे... नीरू की मौसी के बच्चे भी आते थे... पर अब उसे बिल्कुल याद नहीं कि उन बच्चों में कौन-सी लड़की थी ये, अपराजिता राव,

सुविज्ञ ने सोचा था... जवाब दँूगा पर, ये पत्र लिखना, उसे बहुत बड़ा काम लगता था क्या लिखेगा ये भी नहीं पता था उस पर ये व्यस्तता इतनी कि दम मारने को फुरसत नहीं... कभी-कभी नाइट ड्यूटी करके आता तो फिर शाम ढले तक सोता ही रहता... एक बेहोशी का आलम... फिर इन सब के बीच वह तकरीबन रोज ही उस पत्र पर सरसरी नजर दौड़ा लेता।

करीब दो हप्तों बाद उस इतवार उसे कुछ राहत मिली थी... आज तो लिख ही डालूं... सोच कर वह अप्पी को पत्र लिखने बैठ गया था। कितना सोच-सोच कर पत्र लिखना पड़ा। ऐसा पत्र जिससे वह लड़की आहत भी न हो और उसके एहसासोेें को हवा भी न मिले।

पापा का भी पत्र आया था... बनारस जाकर लड़की देख आने को कहा था। सुविज्ञ नें अपने विवाह से सम्बन्धित सारे फैसले अपने घर वालों पर छोडे़ थे। हाॅँ लड़की ज़रूर उसे देखनी थी। लड़की बनारस में हाॅस्टल में रहती है... अपने किसी रिश्तेदार के साथ तयशुदा दिन मंन्दिर में आ जायेगी... सुविज्ञ को देख कर अपना निर्णय देना था। फोटो... और बायोडाटा सुविज्ञ ने देख रखा था। उसे पसंद थी सुरेखा... एजुकेशन भी अच्छी थी। हाँलाकि उसकी पहली च्वायस डाॅक्टर लड़की है। पर पापा को सुरेखा का परिवार पसंद आ गया था। बिहार के प्रतिष्ठित राजनीतिक परिवार की बेटी थी वो... अब वह चाहते थे... सुविज्ञ जल्द से जल्द उसे देख कर अपना निर्णय बताये सुविज्ञ को देखने की औपचारिकता भर निभानी थी जिन्हानें देख रखा था उन सबने ओ. के. कर दिया था... लिहाजा इस संडे सुविज्ञ को बनारस जाना था।