तपस / महेश राही / समीक्षा

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संग्रह: उपन्यास समीक्षा
शीर्षक ‘तपस’ क्यों रखा गया
समीक्षा:ऋषि कुमार चतुर्वेदी

अब तक मुख्यतः कहानी के क्षेत्र मंे स्थापित राही जी ने प्रस्तुत कृति ‘तपस’ के रूप में पहली बार उपन्यास पर हाथ आजमाया है। इस उपन्यास की मुख्य पात्र पूनम बचपन में ही मातृ-पितृ-विहीन होकर चाचा के परिवार में रहती और सबकी प्रतारणा-प्रताड़ना झेलती हुई पल-पल बढ़ रही है। उसे थोड़ी सहानुभूति चाचा तथा छोटी चचेरी बहन कंचन से अवश्य मिलती है किंतु दादी मां और चाची से मिलने वाली घृणा और अवमानना ही उस पर हावी रहती है। कक्षा मंे प्रथम आते रहने के कारण वह अपने गुरुजनों और साथियों के सम्मान की पात्र है तो अपनी चचेरी बहन चंचल की ईष्र्या और उपहास की पात्र भी बनती है। उसके चाचा के पड़ोस में बाबू दीनदयाल आकर रहने लगते हैं। उनका इकलौता बेटा है रवि। पूनम और रवि के बीच आकर्षण बढ़कर प्यार बन जाता है। किंतु भिन्न जातियों के होने के कारण वे एक दूसरे के नहीं हो पाते और पूनम का विवाह एक अध़ेड़ सेठ चारूमल से कर दिया जाता है। बीमार सेठ जी क्तदयाघात के चलते सुहागरात को ही चल बसते हैं। और इस प्रकार पैदा होते ही मां बाप को चट जाने वाली पूनम पर आते ही पति को निगलने का इलजाम भी लग जाता है। एक रात पूनम अपने देवर जीवन की वासना का शिकार बनने से बचने के लिए मकान की खिड़की से कूदकर वर्षा में भीगती हुई लड़कियों के छात्रावास में पहुंचती है और संयोग से रामी का दरवाजा खटखटाती है। रामी जीवन की बड़ी बहन है और घर से विद्रोह करके स्वतंत्र रूप से यहां रह रही है। वह पढ़ाई के साथ-साथ सामाजिक कार्यो में भी सÚिय है।पूनम को उसका संरक्षण मिलता है और वह भी समाज सुधार के संगठनों से जुड़ती है। अनेक बाधाओं को पार करती हुई पूनम अतंतः रवि को प्राप्त करने में सफल होती है। साथ ही उसके घर-परिवार के प्रायः सभी सदस्यों का क्तदयपरिवर्तन भी होता है और वे भी उन दोनों के विवाह का अनुमोदन करते हैं। रामी के अतिरिक्त सामाजिक संगठनों से जुड़े अनेक लोग हैं जो एक परिवार की तरह हो गये हैं। रहीम चाचा इन सबके केन्द्र में हैं जो ‘रंगभूमि ’के सूरदास की याद दिलाते हैं। उनके क्तदय में प्रेम और सहानुभूति का अथाह सागर लहराता है। ये सभी पात्र अपने समय की गतिविधियों पर नजर रखते हैं। दिल्ली के बहुचर्चित सामूहिक बलात्कार की घटना हो, घरेलू-हिंसा हो, नारी पर होने वाले अनाचार -अत्याचार हों, जाति -पांति और छूआछूत की रूढि़यां हों, सीमापार से होने वाली आतंकी हमले हों, बदरीनाथ की भीषण दुर्घटना हो, ये सदस्य सब पर जम कर चर्चा ही नहीं करते, पीडितों की सहायता के लिए तन-मन-धन से जुटते भी हैं। प्रेम और सहानुभूति की यही संवेदना प्रस्तुत उपन्यास की मूल भावना है और आज के संवेदन हीन स्वार्थी युग में यही सबसे बड़ी बात है। इसी संवेदना के चलते उपन्यास का अंत होते-होते रवि-पूनम के जोड़ े के अतिरिक्त दो जोड़े और विवाह-बंधन में बंध जाते है-रामी-नरेश और आनन्द-नगमा। सभी प्रसन्न हैं। रहीम चाचा तो बहुत खुश हैं और अपने बैजो पर नया राग छेड़ते हैं। समस्त वातावरण उस राग से रंजित हो उठता है। लेखक बड़ी आसानी से इस उपन्यास को यहीं समाप्त कर उसे सुखान्त बना सकता था। किंतु तब उस पर स्वप्नजीवी होने का आरोप लग सकता था। कहा जा सकता था कि कुछ मु¨ी भर लोगों द्वारा समाज सेवी संस्थाएं बना कर समाज में सुख-शान्ति की स्थापना नहीं की जा सकती और लेखक यदि ऐसा समझता है तो वह यथार्थ से दूर भागता है किंतु लेखक स्वप्नदर्शी नहीं है और न यथार्थ को नजरअंदाज कर रहा है। इसीलिए रहीम चाचा की खुशी बहुत देर तक नहीं रहती। अचानक दंगा भड़क उठता है और रहीम चाचा, दीना और इंदु की मां गोलियों का शिकार बनते हैं। तब लेखक इस प्रश्न से स्वयं ही रूबरू नहीं होता बल्कि पाठक को भी अपने साथ खड़ा करके पूछता है- ‘मौत का यह खेल कब तक चलता रहेगा?‘इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं है फिर भी ‘संवेदना ’जैसी संस्थाएं मौत के खेल पर विराम लगाने के लिए निरंतर यत्नशील बनी रहेंगीं। लेखक ने कथावस्तु का संयोजन बड़ी सावधानी से किया है और वह कथा साहित्य के मूल्य तन्त्र औत्सुक्य को अंत तक बनाये रखने में सफल हुआ है। इस उपन्यास के संक्षिप्त कलेवर को देखते हुए पात्रों की संख्या अधिक प्रतीत होती है किंतु उपन्यास के उड्ढेश्य की पूर्ति के लिए सबकी अपनी उपयोगिता है, सबका अपना-अपना व्यक्तित्व है। भावात्मक स्थलों के चित्रण में भी लेखक सफल हुआ है। उदाहरण के लिए जिस घर में पूनम को कभी कोई सुख नहीं मिला ससुराल के लिए विदा होते समय उसे छोड़ते हुए भी वह भावुक हो उठती है। उस समय घर का संम्पूर्ण वातावरण-जड़ और चेतन-विरह की वेदना से अभिभूत हो जाता है। कन्या की विदाई की इस साधारणी-कृत अनुभूति को लेखक ने डूब कर लिखा है। रचनात्मक जीवन के इस पड़ाव पर लेखक से भाषा शिल्प के परिमार्जन और प्रौढ़ता की अपेक्षा की थी। किंतु इस दृष्टि से थोड़ी निराशा होती है। उसने शब्दों के प्रयोग मे ं प्रायः असावट्टाानी बरती है। पग-पग पर वर्तनी की अशुòियां मिलती हैं। नहीं कह जा सकता कि इनमें से कितनी लेखक की अपनी हैं और कितनी प्रूफरीडर की लापरवाही के चलते हुई हैं। यह भी समझ में नहीं आता कि उपन्यास का शीर्षक ‘तपस’ क्यों रखा गया। उपन्यास के नारी पात्र अनेक विषम परिस्थितियों का सामना करते हुए जीवन पथ पर अग्रसर हो रहे हैं ऐसे में मुख पृष्ठ पर छाया एक बेबस दुःखार्त स्त्री का चित्र भी उपयुक्त प्रतीत नहीं होता ।यह सब होते हुए भी प्रस्तुत कृति के साथ राही जी साहित्यिक क्षेत्र में निश्चय ही एक सफल उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित होने में समर्थ हैं। हम आशा करते हैं कि वे आगे और भी अच्छी रचनाएं देंगे।

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