तबादला / रूप सिंह चंदेल

Gadya Kosh से
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दरवाजा खोलते ही उसे फर्श पर लिफाफा पड़ा मिला। उसने लिफाफा उठा लिया और यह जानने की कोशिश करने लगा कि आया कहां से है। उसने अनुमान लगाया कि गांव से मां का होगा। दो ही के तो पत्र आते हैं उसके पास। कभी-कभी कानपुर से राजन का और गांव से मां का।

मां ने जरूर पैसे मांगे होतें---- लिफाफे को खेले बिना उलट-पुलटकर देखते हुए उसने सोचा। लेकिन कहां से लाए वह पैसा। उसे मां पर झुंझलाहट हुई। लिफाफे को मेज पर पटककर उसने कपड़े बदले। लुंगी-बनियान पहनकर फर्श पर पड़ी गन्दी -सी बोरी पर बैठकर वह स्टोव जलाने लगा। चाय पीने का मन कर रहा था उसका। स्टोव जला, लेकिन सूं-सा करके थोड़ी ही देर में बुझ गया। कमरे में बदबूदार-सा धुंआ फैल गया। उसने माथे से पसीना पोंछा, आंखें मलीं, और स्टोव को हिलाकर देखा, उसमें तेल नदारत था। उसने कनस्तर में बचा तेल स्टोव में डाला और तेल के लिए राशन की लाइन में खड़े होकर आपे दिन की छुट्टी जाया करने के विषय में बुदबुदाता हुआ दोबारा स्टोव जलाने लगा।

स्टोव पर चाय का पानी चढा़कर वह चारपाई पर निढाल-सा लेट गया। हाथ पीछे बढा़ टटोलकर मेज से उसने लिफाफा उठा लिया और उसे देखने लगा। उसने लिफाफा खोलना चाहा, लेकिन कुछ सोचकर बिना खोले ही उसे फिर मेज पर रख दिया। उसे मां पर फिर गुस्सा आ रहा था। बार-बार मां के पैसे की मांग ने उसे कर्जदार बना दिया था। यह बात क्यों नहीं सोचती वह। लेकिन मां भी क्या करे ? वह भी विवश होकर ही उसे लिखती है। कोई दूसरा तो है नहीं उनकी सहायता करने वाला। अशोक अभी छोटा है। उसे अपने छोटे भाई की याद हो आई।

अशोक से उसे बहुत अधिक आशाएं हैं। प्रतिभाशाली लड़का है वह। वह जरूर उसे ऊंची तालीम दिलाएगा। अपनी तरह क्लर्क नहीं बनने देगा वह अशोक को। यदि वह अशोक को इंजीनियरिंग पढा़ सका----। लेकिन क्या इंजीनियरंग का खर्च वह उथा सकेगा ? मां की बीमारी के कारण वह अशोक की कॉपी -किताबें तक तो ठीक से खरीद नहीं पाता। कितना जरूरी है अशोक को शहर लाना। गांव में वह बुद्धू ही बना रहेगा---बुद्धू। लेकिन कैसे लाए उसे, वह उदास हो उठा। उसे चाय की याद आयी। उठकर देखा, चाय का पानी खौल रहा था। उसमें दूध मिलाकर उसने स्टोव बुझा दिया और चाय लेकर कुर्सी परेअ आ बैठा।

वह चाय सिप करता रहा और सोचता रहा। मेज पर उसके बंयें हाथ की रेंगती उंगलियों से लिफाफा चु गया। उसने कप मेज पर रख दिया और लिफाफा उठाकर उसे खोल डाला। अत्यन्त छोटा-सा पत्र था। मां की हालत खराब थी। छुट्टी लेकर गांव आने के लेए लिखा था।

छुट्टी लेकर जाने से ही तो काम नहीं चल जाएगा। लेकिन वह जाए किसके पास। दफ्तर में लगभग सभी से वह पैसे म्धार ले चुका है। जो उस जैसे हैं उनसे मांगने का कॊई अर्थ नहीं । जल्दी-जल्दी चाय सुड़ककर उसने कपड़े पहने। उसेया द आया कि अरोड़ा से ही पैसे मिल सकने की उम्मीद की जा सकती है। पांच में अगर नहीं देगा तो वह दस रुपए सैकड़ा ब्याज में भी ले लेगा। क्योंकि रात-रात में ही उसे पैसों का प्रबन्ध कर लेना है। सुबह दफ्तर तो केवल छुत्ती ’सैंक्शन’ करवाने जाना होगा। कल समय ही कहां होगा पैसों का प्रबन्ध करने के लिए।

फिर दफ्तर में किसी से आशा भी तो नहीं कर सकता वह। एक बार मांगने पर जनेश्वर ने बड़े उपेक्षापूर्ण ढंग से कहा था-"इतना पाते हो, पता नहीं क्या करते हो ? मुझे तो आश्चर्य होता है। अभी तुम बैचलर हो। अभी से जब यह हाल है तब आगे तो-----।"

लेकिन उसने जनेशवर को अपना हाल बताने से बेहतर समझा थाकि वहां से खिसक ही जाए। उस दिन के बाद उसने मं के पत्रों के जवाब देने भी कम कर दिए थे। पैसे भी ठीक से नहीं भेज पाता था। और वह इस बात को समझ चुका था कि मां को जो भी थोड़ी-सी दवा मिल रही है, यदि उसमें वयतिक्रम हुआ तो निश्चित ही उनकी हालत खराब हो जाएगी और जिस बात की उसे आशंका थी वही हुआ।

उसने दरवाजा बन्द किया और चाबी के गुच्छे को जेब के हवाले करके अरोड़ा के घर की ओर चल पड़ा।

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बी.ए. करने के बाद निरन्तर तीन वर्ष तक बेकारी का नाम उसे डसता रहा था। बेकारी का बोझ धोते हुए न जाने उसकी कितनी चप्पलें शहर की सड़्कों में घिस गयी थीं। जब वह सब ओर से हताश होकर गांव में ही कुछ करने की सोच रहा था, उसी समय उसेइस विभाग में नियुक्ति प्रप्त हुई थी। उस दिन मां की प्रसन्नता का कोई अंत नहीं था। गांव में दौड़-दौड़ कर सबको शुभ समाचार कुछ देर में ही बता आयी थीं। फिर रात में भोजन के समय कुछ सकुचाते हुए उन्होंने कहा था -- "बेटा एक मुराद मेरी पूरी हो गयी, अब दूसरी भी-----।"

"वह क्या मां ?" उसने पूछा था।

"अब तू जल्दी से शादी कर ले। मेरा क्या ठिकाना। बीमारी कब ले जाए। जुझे शहर में खाने-पीने की परेशानी भी होती होगी न."

"लेकिन उससे भी जरूरी ई काम हैं मां। अशोक की पढ़ाई , तुम्हारी बीमारी औरइनस बसे ज्यादा अब तक का लिया गया कर्ज---- यह सब पहले जरूरी है, या शादी.... और फिर मैं क्या बूढ़ा हुआ जा रहा हूं ?" मां ने उसके तर्क के सामने हथियार डाल दिए थे। नौकरी की पहली तनख्वाह में उसने मां को मेडिकल कॉलेज के डॉ० एस। जैन को दिखाया था। डॉ जैन ने पेट में कैंसर होने की आशंका व्यक्त की थी और तुरन्त ऑपरेशन करवाने की सलाह दी थी। लेकिन पैसों के अभाव में वह उस समय ऑपरेशन करवाने में असमर्थ रहा था। उसकी परेशानी को समझकर ही डॉक्टर जैन ने दवाएं लिख दी थीं और पैसों का प्रबन्ध होते ही तुरन्त ऑपरेशन करवाने की सलह दी थी। लेकिन तबादले के आदेश से उसकी योजना उसके मस्तिष्क में ही दफ्न होकर रह गयी थी। उस दिन दफ्तर पहुंचते ही उसे ’ट्रासंफर ऑर्डर’ थमाते हुए बड़े बाबू ने कहा था--- "आज रात की ही गाड़ी से चले जाओ, कल सुबह आपको वहां ’रेपोर्ट’ करनी है।

ऑर्डर हाथ में थामे वह अत्यधिकव विचलित हो उठा था। वह नहीं सोच पा रहा था कि क्या करे, क्या न करे। आखिर उसकी किस गलती का पुरस्कार था यह। वह खड़ा यह सब सोच ही रहा थ कि बड़े बाबू ने कहा था---- "अगर रुकवाना चाहते हो तो डायरेक्टर साहब के पास जाकर माफी मांग लो।"

"किस बात के लिए ?" कुछ उत्तेजित स्वर में उसने बड़े बाबू से पुछा था।

"यह भी कोई बताने की बात है ? बरसों के घटना----।"

बड़े बाबू की बात सुनकर वह बौखला गया था। उसके दिमाग में विचार आया था कि वह इस हेड क्लर्क के बिना गिने तमाचे मारता चला जए। लेकिन वह ऎसा नहीं कर सका था। उसे मालूम था कि डायरेक्टर और यह बड़ा बाबू दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।

जिस परसों की घटनाका स्म्दर्भ बड़े बाबू ने दिया था, उसमें वह स्वयं डायरेक्टर के साथ उस कमीशन में भागीदार था, जो उन्हें कान्ट्रेक्टर से मिलने वाला था। लेकिन अच्छा-खासा कमीशन हाथ से निकल जाने के कारण वे दोनों बौखला उठे थे उस पर। पूरे दस हजार निकल गए थे डायरेक्टर के हाथ से।

बार-बार बड़े बाबू के संकेत केब ावजूद उसने उसके संकेतों को नजरन्दाज करते हुए चेक को रजिस्टर्ड डाक द्वारा भिजवा दिया था। यदि वह चेक डाक द्वारा न भेजता तो कांट्रेक्टर स्वयं चेक लेने आता। और कमीशन के दस हजार डायरेक्टर की जेब में होते। लेकिन उसने पहली बार उस सिलसिले को भंग क्या था। जब बड़े बाबू को यह पता चला था, वह बौखलाया हुआ उस पर सारे दिन खीझता रहा था और उसी का परिणाम था उसका यह तबादला।

उस दिन जब उसने बड़े बाबू को जवाब देते हुए कहा था --"मैने कोई अपराध नहीं किया बड़े बाबू जो माफी मांगने जाऊं। मैं आज ही रात की गाड़ी से दिल्ली चला जाऊंगा। नौकरी करनि है, जैसे यहां वैसे वहाम।’ और फिर उसने लापरवाही से हाथ हिलाते ह्हे कहा था --"कोई अंतर नहीं पड़ता बड़े बाबू" तब बड़ा बाबू उसका मुंह ताकताअ रह गया था। यह सब कहते समय वह स्वयं जानता था कि वह अपने स्वाभिमान का खोखला प्रदर्शन मात्र कर रहा था।

लेकिन क्या वास्तव में उसे कॊई अंतर नहीं पड़ा था ? कितना खोया है उसने तबादले में यहां आने के बाद। पानी की टंकी के पास पहुंचकर उसे याद आया कि उसे इस गली में नहीं पहले वाली गली में मुड़ना था। वह पीछे लौट पड़ा। भई मुकेश बाबू आपने तो बड़ी परेशानी में डाल दिया। इस समय कुल तीन सौ रुपए हैं मेरे पास। पां सौ तो हैं नहीं। वह भी कल सवेरे चटर्जी को देने के लिए रखे हैं। उसे भी परसों कलकता जाना है। कई दिनों से पीछे पड़ा था।"

"लेकिन अरोड़ा साहब मुझे तो....."

हां-हां मैं आपकी परेशानी समझ रहा हूं मुकेश बाबू। फिर भी आप ही बताइए मैं कल चटर्जी को क्या जवाब दूंगा?"

वह चुप था। नहीं शोच पा रहा था कि अरोड़ा को क्या जवाब दे।

कुछ रुककर अरोड़ा बोला, "भई चटर्जी पूरे दस परसेन्ट देने को तैयार है, आप तो...."

"आप जैसे भी हो मेरी मदद कीजिए । मैं भी दस परसेण्ट दे दूंगा।"

"अब आप नहीं मानते तो देना ही पड़ेगा। आप भी अपने ही आदमि हैम। बुरा न मानना मुकेश बाबू। यह साला धंधा ही ऎसा है।" कुटिल आंखों से देखते हुए कुल दो सौ सत्तर उसे थमाते हुए अरोड़ा ने काहा था। तीस रुपए उसने ब्याज के पहले ही काट लिए थे।

"ये लोग दूसरे का कितना शोषण करते हैं." अरोड़ा के घर सेद निकलते हुए वह सोच रहा था।

दरवाजा खोलकर उसने कमरे में प्रवेश किया था कि पड़ोसी नायर हद़्अबड़ाया - सा उसके पास आकर खड़ा हो गया। नायर के मुर्झए हुए चेहरे को देखकर उसने पूछा ---"क्या बात है नायर साहब ?"

"वेरी बैड न्यूज मिस्टर मुकेश।" कहते हुए नायर णॆट टेलीग्राम उसकी ओर बढा दिया । टेलीग्राम में लिखा था -"मदर एक्सपायर्ड"।

उसे लगा जैसे वह चक्कर खाकर वहीं किर जाएगा। उसने अत्यन्त निराश दृष्टि से नायर की ओर देखा और ताला खोलकर कमरे में चारपाई पर निठाल-सा लेट गया। उस समय वह यही सोच रहा था कि अब वह कौन-सी गाड़ी पकड़े, जिससे मां की अन्त्येष्टि में पहुंच सके।