तमाशा खत्म नहीं हुआ खेल अभी जारी है... / जयप्रकाश चौकसे

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तमाशा खत्म नहीं हुआ खेल अभी जारी है...
प्रकाशन तिथि : 16 मई 2020


सितारों का मेहनताना कम करना और किफायत से फिल्म बनाने पर बातचीत हो रही है। बाजार की मांग और खपत के नियम के आधार पर फिल्म निर्माण और प्रदर्शन के दावे को बदलने की बात की जा रही है। बड़े सितारे के साथ उसका व्यक्तिगत मैकअप मैन, स्पॉट बॉय, मालिशिया और चमचों की भीड़ आती है। अब सितारों को अपना असबाब कम करना होगा। सितारे के सचिव के नाज-नखरे भी निर्माता उठाता है। सितारे के साथ दो वैन आती है। एक वैन उसके उपयोग के लिए और दूसरी उसके साथ आई बारात के लिए। शूटिंग के लिए उस स्टूडियो को उपयुक्त माना जाता है, जिसमें गाड़ियां पार्क करने की जगह अधिक हो। स्टूडियो के उपकरण कैसे हैं, इस पर विचार नहीं किया जाता। क्या किफायत और मेहनताना कम करने से फिल्म उद्योग संकट से मुक्त हो जाएगा? क्या समय और साधन की बचत से समस्याएं सुलझ जाएंगी, क्या दर्शक की कमी से तमाशा बंद करना होगा? अनेक सवाल उठ खड़े हुए हैं और जवाब देने वाले, अंधों द्वारा हाथी का विवरण दिए जाने की तरह व्यवहार कर रहे हैं। मतदान के समय गाड़ियों में लादकर लोगों को लाया जाता है, परंतु दर्शक को सिनेमाघर में नहीं लाया जा सकता। फिल्म वही जो दर्शक मन भाए। जब दर्शक को लगता है कि फलां फिल्म को नहीं देखा तो उसका जीवन अपना अर्थ खो देगा- तब वह बरबस सिनेमाघर की ओर आता है।

सितारे, फिल्म निर्माण की पूंजी और तकनीशियन की कमी नहीं है, परंतु लेखन क्षेत्र में प्रतिभा का अकाल है। विगत दशक में बनी वेडनेसडे, विकी डोनर, सांड की आंख, कहानी, सीक्रेट सुपर स्टार, पंगा इत्यादि सभी फिल्मों में ताजगी है। मानवीय भावनाओं में कोई नया आविष्कार नहीं किया जा सकता, परंतुु उनके वेग और प्रस्तुतिकरण में ताजगी लाई जा सकती है। हमने पटकथा लेखन का हव्वा खड़ा कर दिया है। वाल्मीकि और वेद व्यास ने परतदार कहानी और उलझे हुए रिश्तों की सपाट बयानी की है। इसी सादगी के कारण वे सदियों से अपना आकर्षण बनाए हुए हैं। भावना की गहराई मन को छूती है। पटकथा लेखन को उसके हव्वे से मुक्त कराकर सीधे से कथा कहना चाहिए कि एक थे राजा दशरथ और उनके पुत्र थे चार। किसी भी कथा को उसके अंत या मध्य से प्रस्तुत किया जा सकता है, परंतुु पहले उसे सीधे, सरल घटनाक्रम के साथ लिखना आवश्यक है।

टेलीविजन पर मनोहर श्याम जोशी के लिखे दो लोकप्रिय सीरियलों के नाम में ही लेखन के सारे सवालों के जवाब छिपे हुए हैं- ‘हमलोग’ और ‘बुनियाद’। अवाम का जीवन ही सृजन की आधारशिला है। आम आदमी निहत्था होते हुए भी सदियों से जीवन समर में अपराजेय बना हुआ है। उसकी जीजिविषा उसे मिट्‌टीपकड़ पहलवान बनाती है। आम आदमी के रोजमर्रा का जीवन महाकाव्य लिखने की प्रेरणा नहीं देता। उस पर तो सूर्यवंशी, चंद्रवंशी लोगों का अधिकार है, परंतु वह बिहारी के छोटे लगने वाले दोहों में अभिव्यक्त है। दोहे देखने में भले ही छोटे लगें, घाव करे गंभीर। आम आदमी के जीवन की साधारण बातों पर गौर करें। मसलन मध्यम आयवर्ग की खाने की मेज पर दाल-रोटी के साथ एक व्यंजन भी परोसा गया है। व्यंजन का बर्तन सभी सदस्यों की ओर बारी-बारी से बढ़ाया जाता है। अंत में सेवानिवृत्त बुजुर्ग देखता है कि सबसे छोटा हिस्सा ही उसके लिए बचा है। महिला तो बर्तन से खुरचन निकालकर पेट भरती है। मध्यम वर्ग के शयन कक्ष में कुछ बातें कान में कही जाती हैं। कुछ शिकवा-शिकायत है। अगली सुबह कान में कही बात सुनने वाले के व्यवहार के एम्प्लीफायर पर सुनी जा सकती है। इस तरह फुसफुसाहट हुंकार बन जाती है। एक विदेशी फिल्म के शयन कक्ष में एक पलंग दिखाया गया है, जिसमें ऊंची सलाखें मच्छरदानी के लिए लगी हैं। फिल्मकार ने इस तरह फिल्माया मानो महिला जेलखाने में बंद है। पलंग की सलाखों को उसने जेल का रूप दे दिया। तानसेन के सामने बावरा बनकर बैजू राग दरबारी गाता रहा। वह दसों दिशाओं में अभिव्यक्त हुआ। गौरतलब है कि संजय लीला भंसाली बैजू बावरा लिख रहे हैं।