तस्लीमा नसरीन: एक विवादास्पद लेखिका / तनवीर जाफ़री

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बंगलादेशी मूल की 45 वर्षीया तस्लीमा नसरीन गत् डेढ़ दशक से एक विवादास्पद लेखिका के रूप में निरंतर प्रसिद्धि प्राप्त करती जा रही हैं। मैं कई वर्षों से तस्लीमा के विषय में कुछ लिखना चाह रहा था परन्तु इसी द्विविधा में था कि तस्लीमा के व्यक्तित्व अथवा उनके लेखन के विषय में यदि लिखूँ तो आखिर क्या लिखूँ! क्योंकि उनके विषय में मेरा मत भी लगभग वही है जो उनके कुछ करीबी मित्रों का है। अर्थात् या तो तस्लीमा वास्तव में बहुत बहादुर महिला हैं या फिर अत्यधिक मूर्ख। एक प्रतिष्ठित मुस्लिम परिवार में जन्मी तस्लीमा के पिता बंगलादेश के एक मेडिकल कॉलेज में फिजिशियन प्रोंफेसर थे जबकि माता एक शुद्ध धार्मिक विचारों वाली साधारण गृहिणी। तस्लीमा के पिता भले ही रूढ़ीवादी इस्लामी विचारधारा के तो नहीं थे परन्तु तस्लीमा की तरह धार्मिक आलोचनाओं पर भी विश्वास नहीं करते थे। प्रश्न यह है कि आखिर ऐसे में तस्लीमा नसरीन ने इस्लाम धर्म, इस्लामी शिक्षाओं तथा महिलाओं की स्थिति विशेषकर इस्लाम धर्म में, आदि के प्रति इतने बागी तेवर क्योंकर बना लिए। यह जानने के लिए तस्लीमा की ज़िंदगी के शुरुआती दौर में झाँकना ज़रूरी है।


जैसा कि तस्लीमा नसरीन ने स्वयं कई जगह इस बात का खुलासा किया है कि बचपन में ही उनके अपने पारिवारिक रिश्तेदारों द्वारा कई बार उनका शारीरिक शोषण किया गया। भले ही अपने बचपन में उन्हें इस विषय की गंभीरता का ज्ञान न रहा हो परन्तु बाद में उन्हें जब इस बात एहसास हुआ कि उनके साथ जो कुछ भी हुआ वह पूरी तरह असामाजिक, अनैतिक व अधार्मिक था तो उन्हें अपने साथ दुष्कर्म करने वाले विशेष लोगों से नफ़रत होने के बजाए सीधे तौर पर उन दुष्कर्मियों के धर्म, उनकी धार्मिक शिक्षा से ही नफ़रत होने लगी। तस्लीमा को लगा कि वैश्विक स्तर पर महिलाओं का इसी प्रकार दैहिक शोषण किया जा रहा है। एक मुस्लिम महिला होने के नाते उन्हें यह भी महसूस होने लगा कि वैश्विक स्तर पर महिलाओं में भी मुस्लिम महिलाएं सबसे अधिक शोषण का शिकार हैं। हालांकि उनके साथ शारीरिक संबंध स्थापित किए जाने का सिलसिला बंगलादेश में उनके बचपन के साथ ही समाप्त नहीं हो गया। अभी कुछ वर्ष पूर्व भी तस्लीमा ने कोलकाता के एक प्रतिष्ठित लेखक पर भी यही आरोप लगा दिया था कि उसने उनसे शारीरिक संबंध स्थापित किया है। तस्लीमा की निजी ज़िंदगी में घटने वाली इस प्रकार की अति व्यक्तिगत घटनाओं का उनके जीवन में घटित होना तथा स्वयं तस्लीमा द्वारा इन घटनाओं का पटाक्षेप करना तथा इन्हें किसी न किसी बहाने अपने लेखों या पुस्तकों के माध्यम से प्रकाशित करवाना तथा व्यक्तिगत घटनाओं को सीधे तौर से किसी धर्म विशेष से जोड़कर उस धर्म को ही अपने निशाने पर ले लेना एवं इसी राह पर चलते हुए स्वयं को धार्मिक आलोचनाओं हेतु पारंगत साबित करना ही यह सोचने को मजबूर करता है कि वास्तव में तस्लीमा एक अत्यन्त बहादुर लेखिका हैं या महा बेवकूफ महिला।


एशियाई देशों में महिलाओं को यूरोप व अमेरिका देशों की तुलना में अलग तरह का स्थान प्राप्त है। एशिया में विशेषकर मध्य एशिया व दक्षिण एशियाई देशों में महिला को परिवार की इज्जत-आबरु के रूप में देखा गया है। शर्म, हया, पर्दा जैसी बातों को महिलाओं से सीधी तरह से जोड़ दिया गया है। यही वजह है कि सैक्स अथवा शारीरिक संबंध स्थापित करने जैसे विषयों पर यहाँ खुलकर चर्चा नहीं की जाती। ऐसे में तस्लीमा नसरीन द्वारा उनके जीवन में घटी घटनाओं का खुले शब्दों में वर्णन किया जाना उनकी निजी कुंठा को तो अवश्य ज़ाहिर करता है परन्तु निश्चित रूप से हमारी पारम्परिक मान्यताओं को भी आहत करता है। तस्लीमा के निजी जीवन में जो घटनाएँ घटीं वह अकेली इन्हीं के साथ घटित हादसे नहीं हैं। विश्व में प्रतिदिन हजारों महिलाएँ तस्लीमा नसरीन की ही तरह या उससे भी शर्मनाक तरीकों से शारीरिक शोषण का शिकार होती हैं। यहाँ तक कि दुष्कर्म के बाद दुष्ट प्रवृत्ति के कई लोग महिलाओं की हत्या तक कर देते हैं। आजकल तो छोटी-छोटी मासूम बच्चियाँ तक ऐसे वहशी दरिंदों का शिकार होती सुनी जा रही हैं। इस प्रकार की मानसिक विषमताओं का जिम्मेदार किसी भी धर्म विशेष को या उसकी शिक्षाओं को हरगिज नहीं ठहराया जा सकता। इस प्रकार के मानसिक रूप से विक्षिप्त एवं मनोरोगी व्यक्ति किसी भी धर्म, देश, वर्ग या समुदाय में मिल सकते हैं। फिर इन अति व्यक्तिगत बातों को लेकर किसी धर्म या धार्मिक शिक्षाओं को ही आलोचना का निशाना बना लेने का आखिर क्या औचित्य है?


अपनी बेबाक लेखनी के लिए तस्लीमा को भारत व बंगलादेश सहित स्वीडन, नॉर्वे, अमेरिका, बेल्जियम, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, यूरोपीय संसद आदि देशों द्वारा तथा इन देशों की कई सरकारी व निजी संस्थाओं द्वारा अनेकों सम्मानों व उपाधियों से अलंकृत किया जा चुका है। दुनिया के कई विश्वविद्यालय भी तस्लीमा को डॉक्टरेट की उपाधि से नवाज़ चुके हैं। यूरोप व अमेरिका के कई देशों में वैसे भी उन एशियाई लेखकों की बड़ी कद्र की जाती है जो अपने ही धर्म व समाज के विरुद्ध जहर उगलने या उसकी गहन आलोचना करने का साहस रखते हों। अनेकों उपाधियाँ, सम्मान, अलंकरण तथा पुरस्कार व फेलोशिप आदि ऐसे लेखकों के चरणों में डाल दिए जाते हैं। ऐसे आलोचनाकारों व लेखकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हीरो के रूप में पेश किया जाता है। सलमान रुश्दी व तस्लीमा नसरीन ऐसे ही तथाकथित बहादुर लेखकों में से हैं।

गत् 9 अगस्त को तस्लीमा नसरीन पर भारत के आन्ध्र प्रदेश राज्य की राजधानी हैदराबाद में उस समय जानलेवा हमला किया गया जबकि वह अपनी 'शोध' नामक पुस्तक के तेलगू भाषा में अनुवादित प्रकाशन के मुहुर्त के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में भाग लेने के लिए हैदराबाद के प्रेस क्लब पहुँची थीं। इस हमले में दु:खद पहलू यह था कि अन्य हमलावारों के अतिरिक्त इनमें एक क्षेत्रीय राजनैतिक संगठन ऑल इंडिया मजलिसे इत्तहादुल मुसलमीन के तीन विधानसभा सदस्य भी स्वयं शामिल थे। इन हमलावरों द्वारा तसलीमा नसरीन पर गमले, फूलदान, मोटी एवं वज़नी किताबें तथा कुर्सियाँ आदि फेंक कर हमला किया गया। जब तस्लीमा को बचाने के लिए मीडिया कर्मियों ने उन्हें एक कमरे में बंद कर दिया तो आक्रोश में डूबे इन हमलावरों ने उस कमरे का एक दरवाज़ा भी तोड़ डाला। तस्लीमा के अनुसार उस समय मौत उनके सामने खड़ी थी तथा वह यहाँ तक सोचने लगी थीं कि अब यह हमलावर उन्हें गोलियों से छलनी करेंगे या किसी धारदार हथियार से सिर क़लम किया जाएगा? परन्तु दहशत के इस माहौल में मीडिया कर्मियों ने अपने जिस मानवीय कर्त्तव्य का निर्वहन किया उसकी जितना भी तारीफ की जाए वह कम है। घटनास्थल पर पुलिस तुरन्त मौजूद न होने की वजह से पत्रकारों को ही हमलावरों से इस कद्र संघर्ष करना पड़ा कि तस्लीमा को तो खरोंच तक नहीं आई जबकि कई पत्रकार बुरी तरह जख्मी व लहूलुहान हो गए।

जहाँ तस्लीमा नसरीन की इस्लाम धर्म के प्रति की जाने वाली आलोचनाओं को सही नहीं ठहराया जा सकता वहीं इस्लाम के इन स्वयंभू झण्डाबरदारों के ऐसे शरारतपूर्ण कारनामों को भी हरगिज़ सही न कहा जा सकता। एक महिला पर इस प्रकार सैकड़ों पुरुषों द्वारा आक्रमण कर देना तथा उसे जान से मारने का प्रयास करना यहाँ तक कि उसकी हत्या करने जैसे अपने इस क्रूर लक्ष्य तक न पहुँच पाने के लिए इन आक्रमणकारियों द्वारा अफ़सोस जाहिर करना तथा भविष्य में भी तस्लीमा को निशाना बनाने की चेतावनी देना, जान से मारने की धमकी देना, उसका सिर क़लम किए जाने या उस महिला का मुँह काला करने जैसे अमानवीयतापूर्ण फ़तवे जारी करना यह सब न सिर्फ गैर इस्लामी हैं बल्कि गैर इन्सानी भी। इसी प्रकार की क्रूरतापूर्ण घटनाओं ने तस्लीमा नसरीन को एक विद्रोही लेखक के रूप में स्थापित कर दिया है और ऐसी ही घटनाएँ उसकी सोच पर और पक्की मोहर साबित होती जा रही हैं।


लिहाजा जहाँ तस्लीमा नसरीन को किसी भी धर्म या उसके महापुरुषों की आलोचना नहीं करनी चाहिए, वहीं किसी धर्मान्ध व्यक्ति को अथवा संगठन को भी यह अधिकार नहीं हो सकता कि वह एक महिला को जान से मारने का फ़तवा जारी करे या इसकी कोशिश करे। इस प्रकार की हिंसात्मक घटनाओं का भारत जैसे धर्म निरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक देश में घटित होना अत्यन्त चिंता का विषय है। लेखन या आलोचना का जवाब उसी अन्दांज़ में ही दिया जाना चाहिए हिंसा के रूप में तो हरगिज नहीं। ऐसे आक्रमणकारियों के विरुद्ध तो सख्त कार्रवाई करनी ही चाहिए साथ-साथ तस्लीमा नसरीन को भी इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में वे ऐसी अभिव्यक्ति की कतई हकदार नहीं जो कि किसी वर्ग विशेष की भावनाओं को आहत करने वाली हो। ठीक उसी प्रकार जैसे कि एम.एफ.हुसैन भले ही दुनिया के जानेमाने पेंटर क्यों न सही परन्तु उन्हें यह हक कतई हासिल नहीं है कि वे अपनी पेंटिंग में किसी धर्म विशेष के देवी देवताओं के नग्न चित्र बनाकर उनकी भावनाओं को आहत करें।