तहजीब का तमाशा / भाग 2 / पंकज प्रसून

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किस्म किस्म के कलाकार

लखनऊ संस्कृति और कला प्रमुख केंद्र है। इस शहर ने रंगमंच को तमाम नामी कलाकार दिए हैं जिन्होंने पूरे भारत वर्ष में कला का परचम लहराया है। इस शहर में कुछ ऐसे भी कलाकार हैं, जिनकी नाटक कला आपको सरे बाजार लूट लेती है। ख़ास बात यह कि इन्होने कोई ट्रेनिंग नहीं ली। किसी इप्टा या दर्पण के सदस्य नहीं रहे। एक ऐसे ही कलाकार मेरे ऑफिस आ गए और यह कहकर कि उनका बेटा ट्रामा सेंटर में एडमिट है, मुझे पैसों की सख्त ज़रुरत है। थोड़ी ही देर में कई हज़ार इकट्ठा कर लिए। मेरे पास भी आये पर पैसे मिलते न देखकर ओवरएक्टिंग करने लगे। प्रमाण देने के लिए बैग से अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट निकाल के दिखा दी। और यहीं फंस गए। मैंने भी एक्टिंग की। फोन का चोंगा उठाकर मैंने ‘हेल्लो ट्रॉमा सेंटर’ बोला ही था कि वह उस कलाकार के अन्दर का मिल्खा सिंह जाग उठा। और पलक झपकते ही वह नौ दो ग्यारह हो गया। असल में ब्रेन ट्यूमर होने की बात कर रहा था और वह अल्ट्रासाउंड किडनी का। वह भी किसी सुनीता देवी का।

ऐसे ही कुछ हष्ट पुष्ट कलाकार आपको बस स्टेशन, रेलवे स्टेशन पर पैसे मांगते हुए मिल जायेंगे। यह खुद को यात्री बताते हैं। यह कहकर कि उनकी जेब कट गयी है, आपकी जेब काट लेते हैं। ये सुसंस्कारित जेबकतरे होते हैं। इनकी भावाभिव्यक्ति इतनी प्रबल होती है कि आप बेचारे को घर तक पहुँचने के लिए पैसे दे देते हैं। मैंने एक ऐसे ही कलाकार को पैसे दिए और थोड़ी देर तक उसके क्रिया कलाप देखता रहा। मालूम चला कि ये कलाकार महोदय बस स्टेशन के पिछवाड़े पान की गुमटी पर सट्टा लगा रहे थे। ऐसे कलाकारों की जेबें साल के बारह महीने कटती रहती हैं। कभी आलमबाग बस अड्डे पर तो कभी कैसरबाग बस अड्डे पर।

एक किस्म और है कलाकारों की जिनकी कलाकृतियाँ कत्थे और चूने के संयोग से निर्मित होती हैं। जिसमें मुख के मूवमेंट का अहम् योगदान रहता है। इस आर्ट को पीक-आर्ट कहा जाता है। इस पीक आर्ट की पिकासो ने कल्पना भी नहीं ही होगी। इस आर्ट के माहिर कलाकार मुख में प्रायः पान या गुटखे की पीक सुरक्षित रखते हैं और खाली दीवार देखते ही अद्भुत कलाकृति उस पर छाप देते हैं। ऐसे कलाकार इतिहास में दर्ज होने के लिए पीक को प्रायः ऐतिहासिक इमारतों पर सजाते हैं।

नगर निगम ट्रक का ड्राइवर भी कुछ कम कलाकार नहीं होता। वह कूड़े से भरा ट्रक कुछ इस अंदाज़ में चलाता है कि आगे आगे ट्रक चलता है और कूड़ा पीछे पीछे। कूड़ा सड़क पर अपने पगचिन्ह छोड़ते हुए अनोखी बदबूदार कलाकृति निर्मित करता है। ऐसे कलाकारों को सलाम।

एक ट्रैफिक हवलदार का दर्द

शहर में ट्रैफिक हवलदारों की हालत कमोबेश यहाँ के सड़कों की तरह ही है। ऊपर से रंग रोगन और अन्दर से जर्जर। बेचारा ट्रैफिक हवलदार अपनी आधी से ज्यादा ज़िंदगी सड़क के किनारे ही बिता देता है। जाड़ा, गर्मी, बरसात झेलने के साथ साथ आये दिन साहबों की फटकार भी झेलता है। ऐसे ही एक ट्रैफिक हवलदार की पीड़ा उबल पड़ी जब मैंने उससे यह पूछा कि सुना है, आप चालान बहुत कम काटते हैं। वह कातर स्वर में बोला-“चालान कटवाता कौन है यहाँ ?अभी अभी एक महानुभाव को पकड़ा था बिना हेलमेट। मैंने ड्राइविंग लाइसेंस और इंश्योरेंस के कागजात मांगे तो उसने अपना आई कार्ड दिखा दिया। जिस पर प्रेस लिखा था। शैतानी दुनिया नामक पत्रिका का वरिष्ठ संवाददाता था वह। इससे पहले की मैं कुछ बोलता उलटे मुझे ही धौंस दिखाने लगा। “जब आपने गाडी के सामने प्रेस लिखा देखा तो रोका ही क्यों ? आपको मालूम नहीं मेरे सम्बन्ध कहाँ कहाँ तक हैं ?ऐसा कह वह गाडी स्टार्ट करके फुल स्पीड में भगाता हुआ चला गया। क्या बताऊँ, रोज ही ऐसे भीषण पत्रकारों का सामना करना पड़ता है जो नंबर प्लेट पर लिखे ‘प्रेस’ को हेलमेट और पत्रिका के कार्ड को ही ड्राइविंग लाइसेंस मानते हैं। ऐसे समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के नाम सुनने को मिलते हैं कि जिनके एक साथ मिलाकर बोल दूं तो हास्य की कविता तैयार हो जायेगी।

मैंने फिर पूछा-“और भी लोग हैं शहर में। यानी आम आदमी जिनका चालान काटा जाना चाहिए” हवलदार बोला –“इस शहर में आज तक कोइ आम आदमी मिला ही नहीं। कोइ गाडी पर सचिवालय लिखवा कर चलता है कोई विधान सभा, कोई हाई कोर्ट, कोई राज्य सरकार तो कोई केंद्र सरकार” जो गाड़ी में कुछ नहीं लिखवाते वो भी आम आदमी नहीं होते। यदि कोइ आम मिल भी गया तो किसी ख़ास से उनके प्रगाढ़ सम्बन्ध होते हैं। किसी का जीजा कहीं का एसपी होता है तो किसी का चाचा कहीं का विधायक। एक इसे ही आम आदमी को पकड़ा तो उसने नंबर मिला कर विधायक जी से बात करा दी। उलटे मुझे ही सलाम ठोंकना पड़ा। और बिना कागजात वाला मुस्कुराते हुए आगे निकल गया। ”

मैंने पूछा- “आप क्या चारपहिया वाहन वालों का भी चालान काटते हैं? बोला –हाँ, पर बड़े साहब की उपस्थिति में। सच कहूँ तो दो पहिये वालों का रसूख देख कर चार पहिये वालों का चालान काटने काटने की तो हिम्मत ही नहीं होती। रेड लाईट पार करते पकड़ लूँ तो लाल कलम चलने का ख़तरा पैदा हो जाता है। ये लोग तो सीधा वर्दी उतरवाने की बातें करने लगते हैं। काले शीशे हटाने के लिए कहूँ तो मुझे ही हटाने की धमकी देते हैं। ऐसे विशेष लोगों का अक्सर ट्रैफिक पुलिस के विशेष अभियान के तहत ही चालान काटा जाता है।”

मरीजों की लाइन बनाम बिजली की लाइन

शहर में बिजली की हालत कुछ कुछ यहाँ के सरकारी डाक्टरों की तरह हो गयी है। दोनों ही हड़ताल पर चले जाते हैं और बिजली उपभोक्ता की हालत तो मरीज के माफिक है। दोनों बिलबिला रहे हैं एक घर में तो दूसरा जनरल वार्ड में। बिजली विभाग के अभियंता और सरकारी अस्पताल के डाक्टर दोनों इस अव्यवस्था पर दी जा रही अदभुत ‘सफाई’ तो देखिये। डाक्टर का कहना है मरीजों की संख्या बेतरतीब ढंग से बढ़ रही है और लेसा का कहना है कि अवैध कनेक्शनों की संख्या बढ़ती जा रही है। यानी मरीज और बिजली मरीजों दोनों की लाइनें बढ़ती जा रही हैं। बिजली विभाग इन अवैध कटियों की काट भले ना खोज पा रहा हो पर लगता है चिकित्सा विभाग ने इसकी काट खोज ही ली है। वरना सिविल अस्पताल की ओपीडी में फर्जी डाक्टर बैठने की जुर्रत न कर पाता।

गर इनके निजी कनेक्शनों की बात करें बिजली विभाग का कनेक्शन उसके मातहतों के घर तक और सरकारी डाक्टरों के कनेक्शन प्राइवेट पैथोलाजी से मजबूती के साथ जुड़े रहते हैं। अब लगातार बिलजी और डॉक्टर के आने से होनी वाली समस्याओं पर जरा गौर करें। अगर निर्बाध रूप से बिजली आती रही तो हाई टेंशन लाइन जल सकती है, यदि डाक्टर लगातार आपका बाहरी पैथालाजी से चेक अप कराता रहा तो आपका टेंशन हाइपर हो सकता है, जेब जल सकती है। घंटों बाद मरीज का नंबर आता है तो डाक्टर उठ जाता है और घंटों बाद बिलजी आती है तो ट्रांसफार्मर फट जाता है। अब तो आंधियां का मौसम भी शुरू हेने वाला है। यानी कि बिजली के खम्भों के गिरने का प्राकृतिक इंतजाम। सोचिये यदि खम्भा किसी के ऊपर गिरा तो करंट से जान जा सकती है यदि खम्भे के भार से बचा तो। ठीक इसी तरह यदि आप सरकारी अस्पताल के जनरल वार्ड में एडमिट हो गए तो बीमारी से जान जाए न जाए पर इन्फेक्शन से आपकी जान ज़रूर जा सकती है। बार बार जुड़ते रहने से पतला बिजली का तार एकदम से टूट जाता है ठीक उसी तरह डॉक्टर और पैथोलॉजी के गठजोड़ में पड़कर मरीज की हालत पतली हो जाती है और उसका धैर्य टूट जाता है। और पत्नी या प्रेयसी कह ही देगी- “तार बिजली से पतले हमारे पिया”

बहरहाल हमारी आँखें तो उस दिन का इंतज़ार कर रही हैं जब बिजली हमारे साथ आँख मिचौली का खेल नहीं खेलेगी और तथाकथित डॉक्टर हमारी आँखों में धूल नहीं झोकेंगे। मरीजों की लाइनें ख़त्म हों और बिजली की लाइनें जुड़ जाए तो बात बने।