तहजीब का तमाशा / भाग 4 / पंकज प्रसून

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फर्क क्या बतलाओ तेरे मेरे पानी में

एक हिम्मत-ए मर्दा गोमती की बैरीकेटिंग पर कुशल जिमनास्ट के माफिक चढ़ा जा रहा था। असल में भस्मीभूत हवन सामग्री और विसर्जन योग्य मूर्तियों से भरा उसका पालीबैग बैरीकेटिंग के ऊपर फंस गया था। मैंने उन्हें गोमा का वास्ता देते हुए कहा कि उतर आइये ज़नाब शायद आज गोमती की किस्मत में गंदा होना नहीं लिखा है। बोले मिशन पूरा होने से पहले नहीं उतरने वाला। "अरे भाई, इस पालीथिन में लेड आर्सेनिक क्रोमियम जैसी खतरनाक और विषाक्त भारी धातुएं हैं"। "पर ये हमारी आस्था से भारी नहीं, यह कहते हुए उन्होंने लांग जम्प लगा पालीथिन को गोमती में पैबस्त करा दिया। चेहरे पर धोनी जैसी विजयी मुस्कान ले कर बोले- जनाब ज्ञान के अलावा देश में बांटने की बहुत सी चीजें हैं।

गोमुख से निकलना किसी भी नदी के लिए सौभाग्य और शहर के बीच से गुजरना दुर्भाग्य की बात होती है। अब इसमें किसी का क्या दोष। अदब और तहजीब के नुमाइंदे अब विसर्जनधर्मी हो चले हैं। विसर्जन भक्ति की पराकाष्ठा ही तो है। वो तो हम गांधी और सुभाष की विधिसम्मत पूजा नहीं करते वरना कल को वो भी गोमती में पड़े किनारे की तलाश में तैर रहे होते। हम भ्रष्टाचार, बेईमानी और स्वार्थ छोड़कर बाकी सब विसर्जित करने की आदी हो चुके हैं।। मुझे याद है की जब एक बार मैंने गोमती में डुबकी लगाई थी तो अधजली मानव खोपड़ी सर से टकराई थी तब मैंने सोचा था काश की कोइ भागीरथ आ जाता और पहले से घोर तपस्या कर गंगा-गोमती को वापस शिव की जटाओं में पहुंचा देता। लखनऊ की रवायत और गोमती की रवानी दोनों एक दूजे के पूरक नहीं रहे। कभी गोमती की गुलज़ार लहरें बेजार सी लगती हैं। जरूर गोमा सज़ा में कोई कसर रह गयी होगी जो इसके किनारे धरना स्थल बनवा दिया। एक लखनौवा ने बताया की इसमें बेजा क्या है गोमती तो ताउम्र क्रांति की निगाह्बार रही है। प्रतीत होता है की गोमती की लहरों में विद्रोह के स्वर उठने अभी बाकी है। जिस दिन ऐसा हुआ यकीन मानिए इसके तट पर छठ मनाने वालों को भी छठी का दूध याद आ जाएगा। बहरहाल गौर फरमाइए-

गोमती को देखकर कुकरैल ने पूछा-
फर्क क्या बतलाओ तेरे मेरे पानी में।

भव सागर के पार

अरसे से मानसून की बाट जोह रहा जियरा काले मेघों को देख निहाल हुआ तो चार दिन की बारिश के बाद बेहाल। घर पर पड़े-पड़े भजिया और भुट्टा चबा-चबा कर मेरी हालत सावन के कैदी के माफिक हो चुकी थी। नीरज जी का शेर याद आया, 'अबके सावन में शरारत ये मेरे साथ हुयी, मेरा घर छोड़ पूरे शहर में बरसात हुयी"पर मौसम की ऐसी हसीन शरारत इस खाकसार को मयस्सर कहाँ। लगता है जैसे इन्द्रदेव ने सारी बरसात मेरे घर में ही उड़ेल दी हो। पर ऑफिस तो जाना ही था, आखिर कब तलक सीएल लेकर रेनी डे मनाता। मेरा घर टापू और बाहर वाली गली अरेबियन सागर का रूप ले चुकी थी। मैं सिंदबाद सरीखा ऑफिस यात्रा पर निकल पड़ा। इंजन डूब जाने के डर से मोटर साइकिल ले जाने की जहमत नहीं उठायी। अभी चार कदम चला ही था कि बीच गली के कीचड ने मुझे जमीन दिखा दी। वो तो फिसलन की रफ़्तार थोड़ी कम थी वरना मैं सशरीर मेन होल के रास्ते सीवर में समाहित हो गया होता। पर आज बन्दा सर पे कफ़न बाँध के निकला था। पैंट समेटी और हाई टेंशन पोल और ट्रांसफार्मर के बीच से होते हुए आगे बढ़ा। पानी कमर तक आ चुका था, कुछ फर्लांग बाद एक कांच के टुकड़े ने मेरे तलवों पर वार कर जूतों को उसकी औकात बता दी। मैं पानी पानी हो रहा था तभी एक रिक्शे वाले ने बगल से गुहार लगाई, "आइये सरकार, मात्र सौ रुपये में उतरिये पार"मेरे ही तरह के कुछ पस्त जवान रिक्शे की और दौड़े पड़े। पर मैं अव्वल रहा। लगा कि हॉट सीट मिल गयी।

सौ रुपये में सौ मीटर का सफ़र करते हुए मैं उस रिक्शे वाले के अदम्य साहस को प्रणाम कर रहा था जो उखड़े खडंजे, खतरनाक नालियों और इलेक्ट्रानिक कचरे के बीच से पहियों को बखूबी घुमा रहा था। पर हादसों की बारिश अभी ख़त्म नहीं हुयी थी, मैंने देखा कि सामने से आवारा साड़ों का झुण्ड हमारी और बेसाख्ता दौड़ा चला आ रहा था, मैंने आँखें मूँद ली और अगले ही पल मैं रिक्शा समेत पानी में डुबकी लगा रहा था। गंदा पानी सर के ऊपर से गुज़र चुका था। दो-चार धूंट उदरस्थ भी हो चुके थे। मैंने इन्फेक्शन की कोई परवाह नहीं की, यहाँ पूरे घर पानी से भरा है थोडा पेट में भर गया तो कौन सा मेरा पानी उतर जाएगा।

हाल -फिरहाल मैंने गली पार की तो लगा कि भाव-सागर पार कर लिया। मैं सड़क के किनारे खड़े होकर रिक्शे वाले को पैसे देने लगा तभी वी आई पी गाड़ियों का काफिला बगल से गुजरा और मेरा तरबतर शरीर कीचड़ की सुनामी झेल गया।

सिटी बस के उचक्के

लखनवी तहजीब का असल नुमाइंदा तो सिटी बस का कंडक्टर होता है। आइये ज़नाब वह तब तक बोलता रहता है जब तक कि बस की हर रिक्त स्थान भर नहीं जाता। लखनवी रवायत इस कदर उसके अन्दर भरी होती है की बन्दा अपनी सीट तक यात्रियों के हवाले कर देता है, शर्त इतनी है की वह यात्री महिला हो । सिटी बस के सफ़र का तो कहना ही क्या ?स्टॉप पर नीचे उतरती सवारियां और ऊपर चढती सवारियां एक दुसरे पर आक्रमण कर देटी हैं। शारीरिक रूप से स्वस्थ व चक्रव्यूह भेदन कला में पारंगत ही बस की सीमा में प्रवेश पा सकता है। इन्ही सबल यात्रियों के धक्कों के भरोसे हम जैसे निर्बल भी प्रवेश पा जाते हैं। यहीं पर कष्टों का अंत नहीं हो जाता। युद्ध तो अब शुरू होता है। युद्ध का सेनापति कंडक्टर अपने साजो सामान के साथ सवारियों को चीड़ता फाड़ता आगे बढ़ता है। उसका लक्ष्य होता है बस की आख़िरी सीट पर टेक लगाकर खडी आख़िरी यात्री का टिकट काटना। उसने इसका कारण बताते हुए कहा की हम आपकी सहूलियत का पूरा ख्याल रखते हैं। हमारी बस में घर्षण बल इतना अधिक होता है की अगर आप टिकट कटवाने के लिए हमारे पास आगे तक आयेंगे तो आप छिल सकते हैं। इसलिए हम खुद आपके पास आ जाते हैं। मैंने उससे पूछा की क्या इस घर्षण बल का आपके ऊपर प्रभाव नहीं पड़ता? वह बोला -'हम दर्द में सुख का अनुभव करना जानते हैं, और यह कला बड़ी साधना के बाद प्राप्त होती है। हमारा तो यही तकिया कलाम है-रगड़ खाइए कि आप लखनऊ में हैं'

लखनऊ की सिटी बसों में कितनी सवारियां आ सकती हैं यह शोध का विषय है। ड्राइवर ने बताया कि सवारियों की संख्या हमारे ब्रेक पर निर्भर करती है। ठठाठस भरी बस में एक स्पीड ब्रेक लगाने से बस में जगह ही जगह हो जाती है। तमाम सारे दृश्य देखने को मिलते हैं हमारी सिटी बसों में। यदि महिला सशक्तीकरण देखना है तो खडी महिलाओं के बीच में महिला सीट बैठा पुरुष देख लीजिये।यदि भारत का भविष्य देखना हो तो सिटी बस के गेट पर लटकते देश के कर्णधारों को देख लीजिये। ये कर्णधार टिकट कटवाना अपराध समझते हैं। ये कंडक्टर को कुछ चिल्लर थमा देते हैं। कंडक्टर का ऊपरी खर्चा इन्ही कर्णधारों के भरोसे ही चलता है।

सिटी बस सार्वजनिक लेखन का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत करती है। बस की सीट इज़हार-ए-इश्क का ख़ुफ़िया स्थल है। यहाँ पर कुछ मोबाइल नंबर प्रेम के आदर्श उद्धरणों व मोहक चित्रों के साथ सुशोभित रहते हैं। ऐसा अद्भुत लेखन करने वाले कुछ ऍमएसटी धारक होते हैं। यह बस को अपनी निजी संपत्ति समझते हैं। सिटी बस में लग रहे सीसीटीवी कैमरे शायद ही इनकी हरकतों को कैद कर सकें। क्योंकि यह यह कंडक्टर की रग रग और बस के पुर्जे -पुर्जे से वाकिफ होते हैं।