तहजीब का तमाशा / भाग 5 / पंकज प्रसून

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कुछ तो होता है हमें

निराशा होती है हमें

तहज़ीब के सरपरस्त को देखकर, गोमती में कचरा फेंकते भक्त को देखकर, गली में घमाचौकड़ी करते छुट्टा जानवर को देखकर, आधी सड़क तक बने घर को देखकर, दफ्तर की सीड़ियों पर पान की पीक को देखकर, चौक के चौराहे पर भीख माँगते नौनिहालों को देखकर, घरोहरों में मकड़ी के जालों को देखकर। अस्पतालों में भर्ती होने के अपने नंबर का इंतजार करते मरीज को देखकर, पार्क में सिगरेट के कश भरते साहब की तमीज को देखकर, प्राइमरी पाठशाला की टपकती छत को देखकर, गुटखा खा कर डस्ट बिन के ऊपर थूकने की लत को देखकर, भरी बाजार गाड़ी खड़ी करने की फितरत को देखकर, पार्किंग स्थल की दुर्गत को देखकर

कोफ़्त होती है हमें

खुले मेन होल देख कर, शोर भरी अवध की शाम को देखकर, कार्बाइड से पकाए गए फलों को देखकर, मोहल्लों के सूखते नलों को देखकर, रेलवे क्रासिंग पर जाम देखकर, जाम में हार्न बजाते राहगीरों को देखकर, बिना हेलमेट बेख़ौफ़ बाइक दौड़ाते शूरवीरों को देखकर, खुले सीवर देखकर, खदरा में फीवर देखकर, बिजली के जर्जर खम्भे को देखकर, चौराहे पर पागल नंगे को देखकर, घरके छत से सटे हाई वोल्टेज तारों को देखकर, खिड़की से सड़क पर कूड़ा फेंकते नाकारों को देखकर, महापुरुष की प्रतिमा पर चढ़े माला के सूखते फूलों को देखकर, विलुप्त हो रहे सावन के झूलों को देखकर, जीपीओ में स्पीड पोस्ट करने वाले बेरोजगारों की कतार को देखकर, रूमी दरवाजे की दीवार में दरार देखकर

आश्चर्य होता है हमें

सिटी बस के गेट पर लटकते देश के भावी कर्णधारों को देखकर, विद्यालय से रफूचक्कर हो शापिंग माल में इश्क फरमा रहे नाबालिग मोहब्बत के मारों को देखकर, दिन में जल रही स्ट्रीट लाईट को देखकर, पंद्रह साल से अभी तक निर्माणाधीन साईट को देखकर, फ्लाई ओवर के नीचे जलभराव को देखकर, ट्रेन की मानव से टकरार को देखकर, जन जागरूकता होर्डिंग पर लगे छात्र-नेता के पोस्टर को देखकर, आये दिन ख़राब रहती नलकूप की मोटर को देखकर, फुटपाथ पर टेंट लगाए खानदानी डाक्टरों को देखकर, कोचिंग खोल कर बैठे सरकारी मास्टरों को देखकर, नाली के ऊपर लगे चाट के ठेले को देखकर, मंदिर के बाहर भिखारियों के मेले को देखकर। विश्वविद्यालय में बंद होते उच्च स्तरीय कोर्सों को देखकर, ट्रेन रिजर्वेशन काउंटर पर अपने अपने मोर्चों को देखकर।

एक पांडाल और साहित्य का के चार ‘क’

लखनऊ शायरों और कवियों का शहर रहा है। यहाँ लेखक हमेशा अल्पमत में रहा है। लेखकों के लिए संजीवनी का कार्य करता है साल में एक बार आयोजित होनेवाला राष्ट्रीय पुस्तक मेला। साल भर से विमोचन की आस लगाए बैठे लेखक का रोम रोम पुलकित हो उठता है। बांछे खिल जाती हैं और वह विमोचन समारोह की तैयारियों में जुट जाता है। आमंत्रण पत्र तो ऐसे बांटता है विमोचन न हुआ गोया शादी का रिसेप्शन हो गया। लेखक घर में किताबनुमा बहू के स्वागत में पलक पांवड़े बिछा देता है। महंगाई से बेअसर कवि पेट्रोल की परवाह न करते हुए, अध्यक्ष, बीज भाषण देने में सिद्धहस्त समीक्षक की व्यवस्था में मशगूल रहता है। बिस्किट चाय चिप्स फूलमाला शाल स्मृति चिन्ह की व्यवस्था भी करनी पड़ती है। कुछ नहीं करना पड़ता है तो वो है माइक, मंच, कुर्सी और पत्रकारों की व्यवस्था।

क्योंकि इतनी चीजें पुस्तक मेला समिति खुद उपलब्ध कराती है। अब विमोचन समारोह का रसास्वादन करने आये दर्शकों की सेहत का ध्यान रखना भी लेखक का कर्तव्य बन जाता है। कुछ लेखक जो प्रकाशकों को पैसे देकर पुस्तकें छपवाते हैं, वो अमूमन काफी कुछ लुटा चुके होते हैं। इसलिए तनिक और लूटने में कोई संकोच नहीं करते। वो भरपूर जलपान के साथ पुस्तक की एक प्रति भी मुफ्त उपलब्ध करा देते हैं। कुछ लेखकों जिनकी पुस्तकें नामी प्रकाशकों से छप कर आती हैं, उनकी किताबें खरीदनी पड़ती हैं। उनकी चाय और बिस्किट की क्वालिटी में भी बड़ा अंतर होता है।

चूंकि यह आयोजन लखनऊ में होता है इसलिए यहाँ के कवियों और शायरों को पुस्तक मेला समिति उपेक्षित नहीं कर सकती। मैंने संयोजक से पूछा-‘आप लेखक से मिलिए ही क्यों कराते हैं, कवि से मिलिए क्यों नहीं ?’वह बोले –‘क्या करूँ शहर में पांच हज़ार से ज्यादा कवि हैं। अगर एक को बुलाया तो दूसरा नाराज हो जाएगा। हम सबको संतुष्ट रखना चाहते हैं। इसलिए कवि सम्मेलनों और कवयित्री सम्मेलनों का पूरा इंतजाम कर रखा है। बस श्रोता उनसे सवाल नहीं पूछ पायेंगे। ’ मैंने कहा ‘ताली बजाने से फुर्सत मिलेगी तब न। ’

बहरहाल लखनऊ वासी पुस्तक मेले का पूरा लुत्फ़ उठाते हैं। उठाएं भी क्यूं न। आखिर लेखक, आलोचक, पाठक, प्रकाशक एक पंडाल ने नीचे जो मिल रहे हैं। वो भी डिस्काउंट रेट पर। मेरे जैसा विकट पुस्तक प्रेमी तो इन्तजार करता है पुस्तक मेले के आख़िरी दिन का जब प्रकाशक माल समेट रहे होते हैं और पुस्तकें किसी भी कीमत पर मिल जाती हैं। यहाँ तक कि एक के साथ एक फ्री भी।

बेशकीमती कविता

लखनऊ कवियों की खान है। यहाँ कर तीसरा श्रोता कवि होता है और होली आते ही शहर के श्रोता और कवि सब बौरा जाते हैं हर गली नुक्कड़ में कवि सम्मेलनों की बाढ़ आ जाती है। संयोजकों; के चंदे की रसीदें धडाधड कटने लगती है। तमाम समितियां, संस्थाएं कवियों की आवाभगत में तल्लीन हो जाती है। यूँ तो शहर में हर रस का कवि मिलेगा। पर होली के समय हास्य कवियों की डिमांड चरम पर रहती है। ऐसे में तमाम ओज और श्रृंगार के कवि अपनी विधा से भटक जाते हैं और हास्य लिखने पर उतारू हो जाते हैं। काश्मीर समस्या पर दहाड़ने वाला और मुंह से गोलियां बरसाने वाला ओज का कवि भी शहद पीकर पति और पत्नी के संवाद बाचने लगता है। श्रंगार रस का कवि प्रेमिका को छोड़ कर जीजा और साली पर कंसंट्रेट करता है। इस दिनों कवियों स्टेटस अपडेट हो जाता है, और दो से ढाई कवि सम्मलेन पर डे के औसत से कविता पढता है। ढाई इसलिए की तीसरा कवि सम्मलेन बीच में छोड़कर वह अगले दिन के कवि सम्मलेन के लिए अन्यत्र प्रस्थान कर जाता है।

मेरे कालोनी समिति के सचिव महोदय होली मिलन में कवियों की खोज में भटक रहे हैं, इतना तो वो दामाद खोजने के लिए नहीं भटके। उनको मालूम नहीं था कि यहाँ के प्रसिद्द कवियों की बुकिंग कम से कम दो महीने पहले करनी होती है। ऐसे में उनको कम जमाऊ और ज्यादा उबाऊ कवियों से काम चलाना पड़ेगा। इन दिनों कवि अपने पेमेंट के साथ भी कोई समझौता नहीं करता। शहर के व्यस्ततम आउटडोर कवियों में से एक कवि ने बताया कि मेरी कविता बहुत महंगी है और लोकल पेमेंट बहुत कम है ऐसे में बाहर जाता हूँ वहां का पैसा मेरे शहर में आता है इससे शहर की इकोनामिक ग्रोथ बढ़ती है।

एक बार एक वेल रेटेड कवि को एक संयोजक ने फोन किया। कवि जी बोले-‘आप को मेरा पेमेंट मालूम है न’संयोजक बोले –क्या बात करते हैं कवि जी, कविता तो बेशकीमती है। मैं क्या कीमत लगा लाऊंगा। आप पेमेंट की चिंता बिलकुल न करें। कवि को लगा कि जम कर पेमेंट मिलने वाला है। कवि सम्मलेन के बाद संयोजक फरार हो गए। काफी खोजने पर नहीं मिले। तभी एक श्रोता एक पर्ची लेकर आया जिस पर लिखा था -माफ करियेगा, मैं कविता की कीमत लगा नहीं पाया। आप पेमेंट की चिंता बिलकुल न करें, साहित्य की करें।

हास्य के कवियों का हाजमा दुरुस्त रहता है। कितनी भी मिलावटी खोये की गुझिया खिला बन्दा डकार तक नहीं लेगा। सारा मिलावटी भोजन उदरस्थ करके संयोजक को फ़ूड प्वाइजनिंग से बचाता है। और आपका पेट तो हंसा हंसा के फुला देगा। होली मिलन समारोहों की भी अपनी एक अलग रंगत होती है, फाल्गुन की मादकता का आलम ये रहता है कि होली मुख्य अतिथि वहीँ से तमाम मौखिक घोषणाएं कर देते हैं और संयोजक जी उनका तहे दिल से शुक्रिया भी अदा कर देते हैं। पर मादकता उतरने पर सब शांत हो जाता है।