ताकि शान्ति बनी रहे / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

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एक सिद्ध पुरुष था। महीने में तीन बार वह महानगर में जाता था। वहाँ के बाजारों में लोगों के बीच वह रुपए-पैसे से एक-दूसरे की मदद करने का प्रचार करता था। वह बहुत सुलझा हुआ इन्सान था और दूर-दूर तक प्रसिद्ध था।

एक शाम तीन लोग उसकी कुटी पर आए। उसने उनका स्वागत किया। वे उससे बोले, "तुम रुपए-पैसे से लोगों की सहायता करने की शिक्षा देते हो। यह प्रवचन तुम धनी लोगों के बीच जाकर देते हो न कि गरीबों के बीच जाकर। हम बिना शक-ओ-शुबह कह सकते हैं कि इस ख्याति ने तुम्हें धनी बना दिया है। अब, बाहर निकलो और सारा धन हमें सौंप दो। हमें उसकी जरूरत हैं।"

सिद्ध बोला, "दोस्तो, मेरे पास इस बिस्तर, इस चटाई और पानी भरे इस लोटे के अलावा कुछ नहीं है। अगर तुम्हें इनकी जरूरत है तो ले जाओ। मेरे पास न तो सोना है न चाँदी।"

इस पर उन्होंने हिकारत से उसे देखा और वापस घूम लिए। लेकिन आखिरी आदमी उसके दरवाजे पर खड़ा रह गया और उससे बोला, "धोखेबाज! बेइमान!! तू उस बात की शिक्षा लोगों को देता है जिसको तू खुद अमल में नहीं ला सकता।"