तावीज / एक्वेरियम / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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वो हमेशा कहती थी-ये बातें, ये किस्से, ये हंसी ये, मुस्कानें और ये खूबसूरत पल मेहमान हैं, लेकिन तुम हमेशा की तरह उसकी इस बात को भी लापरवाही से धुएँ में उड़ा देते थे। तुम्हें लगता था कि तुमने वक्त को अपनी मु_ी में ही रख लिया है और उसे अपने मन में। तुम्हारे मन से निकल कर उसे कहीं जाना ही नहीं था। तुम्हारा ये यकीन का धागा पिछली बरसात में गल गया और तुम्हारी पकड़ भी ढीली हो गयी थी। उस शाम...तुमने उसे एक दिन हंसी-हंसी में 'जादू' कहा और साथ ही ये भी कि आज से मैं तुम्हें तावीज बनाकर अपनी बाजू पर बांध लेता हूँ।

और सुनो...वो मुस्काती हुई उसमें बंध भी गयी। तब से वह तुम्हारे उस जादुई तावीज में छिपकर रहने लगी थी। तुमने उस तावीज को बांध तो लिया पर ये भूल गए कि उसे सांस तुम्हारी सांसों से ही मिलती थी। तुमने उसे अपने पास रखा, साथ रखा लेकिन उसकी आवाज को नहीं सुना।

उसकी टूटती सांसों को महसूस नहीं कर सके. तुम्हें उस तावीज की मजबूती और खुद के प्रेम पर बड़ा यकीन था पर तुम भूल गए कोई कितना भी प्रेम कर ले, उसे जताना ज़रूरी होता है। ऐसे तो वह तुम्हारे बाजू में बंधी हुई सिसकती रहती थी, लेकिन तुम्हारा ये स्पर्श क्या पर्याप्त था?

हाथों में प्यार से संभालना और हाथों पर बांध लेने में कोई तो फर्क होगा न? तुम कभी जान ही नहीं पाए कि तुम्हारे उस यकीन और प्रेम के तावीज के भीतर वह मर गयी थी।

कमाल ये था कि तुम्हें खबर भी नहीं हुई. हाँ, तुम्हें लगता था कि इतना शोर मचाने वाली खामोशी से कैसे जा सकती है या कहूँ खामोशी से कैसे मर सकती है, लेकिन तुम ये क्यों भूल गए कि अचानक से कभी कुछ नहीं होता। अचानक से तुम्हारी बाजू पर बंधा तावीज नहीं टूटा था, वह दिन रात गल रहा था धीरे-धीरे। तुम उसे दिन में एक बार छू कर तसल्ली कर ही लेते थे और रोज रात सोने से पहले भी कि वह सही जगह है या नहीं। पर उसके गलने, टूटने का अहसास नहीं था तुम्हें। जब तुम बेखबर होकर नींद में सोते थे तो अक्सर बिस्तर की सिलवटों के स्पर्श से वह तावीज खुल-खुल जाता था और एक रात जब तुम बड़ी बेपरवाही से अपने सपनों के गुब्बारे उड़ा रहे थे न, ठीक उसी समय किसी गुब्बारे का पीछा करते समय तुम्हारे हाथ के हलके से झटके से वह तावीज टूट कर गिर पड़ा था। गिरते ही उसमें छिपा वह जादू भी बिखर गया था।

वो कहाँ से आई थी और कहाँ गयी, कोई नहीं जानता। वह जब तक जिसके पास रही, अपनी मर्जी से ही रही। जब-जब भी लोग उसे समझने की कोशिश करते वह आगाह करती कहती मैं एक समंदर-सी हूँ। मुझे समंदर मानो प्रेम का। तब तुम एक पल को सुनते तो थे उसे, लेकिन अगले ही पल उसकी बूंद-बूंद का विश्लेषण करने लगते, जब वह कहती-गिनती मत करो मेरी हर लहर की, लेकिन तुम उसे अनसुना करके हर लहर को गिनते जाते। हिसाब रखते जाते। जब वह कहती देखो...समंदर की खूबसूरती उसकी लहरों और बूंदों से है। तुम क्यों मुझे रेत-रेत करके खुश होते हो। बूंद-बूंद करके संतुष्ट होते हो?

ऐसे तो एक दिन तुम्हारे पास सिर्फ़ ये हिसाब-किताब ही रह जाएगा। तुम इन हिसाबों की कई किताबें लिखोगे, समंदर की खूबसूरती कभी भी मन में नहीं भर सकोगे और ऐसे...तुम मुझे खो दोगे। तुमने इस आखिरी चेतावनी को भी अपनी हंसी में उड़ा दिया था। तुम्हारी इस नादानी पर समंदर के किनारे बिखरे शंख, सीपियाँ उदास हो गए थे।

उस दिन तो तुमने कमाल ही कर दिया, उसे रजनीगंधा ही कह दिया और फिर तुम उसमें भरी खुशबू का मनोविज्ञान जांचने लगे। वह मना करती रही कि फूल की खुशबू उसकी सम्पूर्णता में है ना कि पंखुरी में और तुम बिना सुने एक-एक पंखुरी-पत्ती तोड़ते रहे। उस दिन भी तुम्हारी इस ना-समझी पर बाग का हर फूल रो पड़ा था।

सुनो...जब तुम उसे प्रकृति से मिला उपहार कहते थे, तो फिर उसे जतन से संभाल क्यों नहीं सके? हाँ, तुम मुफ्त में मिले उपहार की बेकदरी कर बैठे, है न?

अब?

अब कुछ नहीं। कुछ चीजें कभी वापस नहीं आतीं। वे जीवनभर अफसोस बनकर रहती हैं मन में।

हाँ जानती हूँ, तुम्हारी बांह पर तावीज का निशान बन गया है। फिक्र न करो कुछ समय बाद ये मिट जायेगा...है न?