तिकड़ी / उर्मिला शिरीष

Gadya Kosh से
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कालचक्र के किसी कालखंड में पृथ्वी पर स्थित किसी देश के, किसी प्रदेश के, किसी जिले के, किसी तहसील के, किसी गाँव के, किसी मुहल्ले में दो परिवार रहते थे। एक परिवार था पटेल साहब का और दूसरा परिवार था पंचायत अध्यक्ष पंडित रमाकांत तिवारी का। दोनों परिवारों का डेढ़ सौ परिवार वाले गाँव में अच्छा-खासा रुतबा था। मान-सम्मान था। पटेल साहेब का प्रभाव पंडित तिवारी की अपेक्षा ज्यादा था, क्योंकि उनके पास पुश्तैनी जमीनें थीं, हवेली थी। साहूकारी का पूरे क्षेत्र में जाल बिछा था। छोटे-मोटे गरीब-गुरबा, बेबसी के मारे, भूखे-नंगे लोगों का बचा-खुचा सोना-चाँदी और गिलट - जो जेवरों (गहनों) के रूप में होते - गिरवी रखे जाते थे और जिनका ब्याज मूल से ज्यादा हो जाता था, जो उनकी हाय के रूप में इनकी पेटियों में भरे होते। लेन-देन के कारण उनकी साख बनी हुई थी। अजीब खेल था बल्कि मनोविज्ञान था कि देने वाले का 'देना' तो सबको दीखता था पर लौटाने वाले की बात किसी के सामने न आती... यानी सामाजिक रूप से वह कर्जदार होता... जिसकी गर्दन झुकी होती... जिसकी आँखों में दयनीयता होती।

पंडित तिवारी के पास पूर्वजों से प्राप्त मंदिर, मंदिर की जमीन, जमीन से पैदा होने वाली पैदावार, ज्ञानी-ध्यानी होने का गौरव, पूजा-पाठ, धर्म-कर्म, यज्ञ-अनुष्ठान करवाने की विरासत गाँव में सर्वस्वीकृत थी। इसके अलावा पुरखों द्वारा बनवाया गया तालाब उसके आसपास की जमीन भी थी। कहा जाता है कि उनके परदादा राजपुरोहित हुआ करते थे। महाराजा हाथी पर बैठाकर उन्हें बुलाया करते थे। यह भी कहा जाता है कि पूर्वजों ने बड़ी-बड़ी पोथियाँ लिखी थीं - यानी सम्मान और गौरव उनके रक्त में बहता था और चेहरे पर झलकता तेज - उनको देवत्व के करीब ले जाता था। अपने विनम्र और उदार व्यवहार के कारण तिवारी जी ब्राह्मण देवता की तरह पूजे जाते थे। गाँव में जाति-व्यवस्था के आधार पर लोगों का 'स्टेट्स' बना हुआ था। दोनों का व्यक्तित्व और आपसी मेल गाँव की शक्ति और शान माना जाता था। दस-बीस कोस तक बसे गाँवों में उनकी महिमा बखानी जाती थी। यही कारण है कि रामलीला हो या नौटंकी, भजन-कीर्तन हो या हवन-पूजन, अखंड भागवत कथा हो या आल्हा-ऊदल का गान, सामूहिक तीर्थयात्रा का आयोजन हो या ब्राह्मणों साधु-संतों, पीर बाबाओं को दान-दक्षिणा देने की बात दोनों परिवार मिलकर सारी जिम्मेदारी उठाते थे। फिर पूरा गाँव उनके साथ था या कहिए एक आवाज देने पर उनके साथ हो लेता था। तिवारी जी पटेल साहेब को 'दद्दा' कहते थे और पटेल साहेब तिवारी जी को 'महाराज'।

ऐसे ही सुखमय समय में जब बाढ़... अकाल... सूखा... जैसी प्राकृतिक आपदाओं से यह गाँव महफूज था। हैजा... महामारी... या ऐसी ही जानलेवा बीमारियाँ... इस गाँव को छू नहीं पाती थीं... ईश्वर की कृपा से सुख-समृद्धि की वर्षा हो रही थी... दोनों परिवारों में छः-सात माह के अंतराल में दो कन्याओं का जन्म हुआ। इसे महज संयोग ही माना जाएगा। नाम भी क्या रखे गए, जिनमें दोनों के बीच रागात्मकता दिखाई देती थी - छुनिया और मुनिया। प्यार के नाम। घर के नाम। बोलचाल के नाम। पटेल साहेब ने तिवारी के घर जाकर बधाई देते हुए कहा - 'महाराज! हमारे घरों में देवियाँ आई हैं। भाग्य उनका बलवान है और... रूप-रंग भी खानदान पर गया है।' 'हाँ दद्दा, दोनों परिवारों में लक्ष्मी अवतरित हुई हैं। क्यों न एक दिन कथा बचवा ली जाए।

चूँकि दोनों परिवारों में गाढ़ी और गहरी आत्मीयता थी। रोज का उठना-बैठना था। हुक्के-पानी का साझापन था, इसलिए दोनों परिवार की बेटियाँ भी उसी आत्मीयता और प्रेम के बीच उम्र की एक-एक सीढ़ी चढ़ती जा रही थीं। अपने-अपने परिवार की परंपराओं का पालन करते हुए वे दोनों भी पक्की गुईंया (सहेलियाँ) बन गईं। उनका निष्कलुष, निर्दोष भोलाभाला बचपन गाँव की गली-गलियारों में, हरे-भरे खेत-खलिहानों में, मंदिर के अँधेरे-उजले कोनों में, बाग-बगीचों में उछलते-कूदते, पेड़ों पर चढ़ते-उतरते, ताल-तलैयों में तैरते-तारते, पलाश के घने जंगल में छुपते-छुपाते, घरों और बरामदों में छुपा-छुपी का खेल खेलते-खेलाते, नीम-पीपल के पेड़ों पर डले झूलों पर झूलते-झुलाते, पैग मारते हुए उल्लास और रोमांच से चीखते-चिल्लाते, तालाब में पायजामा फुलाकर... कमर के नीचे फँसाकर या टायर पकड़कर तैरते-तारते, गीली मिट्टी के खिलौने बनाते-बिगाड़ते... बारिश की फुहारों में भींगते-भागते, बुलबुलों के पीछे दौड़ते-दाड़ते... गाँव जब बारिश के पानी से पूरी तरह तर हो जाता, ऐसे में खेतों की मिट्टी में धँसते-धसाते अमिया (आम) या बेर या कैथा या इमली या अमरूद या अनार छीनकर, चुराकर... तोड़कर फ्रॉक में छुपाकर खाते-खिलाते, साथी लड़के-लड़कियों को बात-बात में छकाते-परेशान करते हुए... हँसी-ठिठोली करते हुए बीता था। हाँ, एक ध्यान देने योग्य बात यह थी कि छुनिया-मुनिया को उनके बचपन की हरकतों का, अनुभवों का, भविष्य में बड़ा लाभ मिलने वाला था। संभावित घटनाएँ... जो घटित हो सकती थीं... जैसे उनका शरारा फुलाकर बाँधकर तैरना सीखना स्विमिंग में काम आने वाला था... और झूला झूलते हुए पेड़ की ऊँची से ऊँची डाल की पत्तियों को दाँतों से तोड़कर लाना हवाई जहाज के टेक-ऑफ और लैंडिंग करते समय घबराहट से बचा लेने के काम आने वाला था। जब भी वे दोनों ऐसे स्थानों पर जाएँगी, उन्हें बचपन के वे साहसी कदम... रोमांचक घटनाएँ... दृश्य... बातें... आत्मविश्वास से भरने वाली थीं...

छुनिया जहाँ गोरी-चिट्टी, तीखे नाक-नक्श वाली, इकहरे बदन की आकर्षक लड़की थी। उसे देखकर रीतिकालीन काव्य में वर्णित नायिकाओं की याद हो आती। छुनिया को अपनी इस अछूती, दहकती सुंदरता का खामियाजा इस रूप में भुगतना पड़ा कि गाँव में युवा, मनचले, रूपलोभी प्रौढ़ और रूपपिपासु बूढ़े उसके आगे-पीछे घूमने लगे थे। उसे गाहे-बगाहे छूने, सहलाने, चिपकाने की कोशिश में लगे रहते...। आज जिन यौन शोषण की घटनाओं पर बहसें छिड़ जाती हैं, पकड़ा-पकड़ी हो जाती है... ऐसी बातें छुनिया के साथ पचासों बार खामोशी के साथ घटित हुई थीं। एक घटना वह कभी नहीं भुला पाती है... जब आइस-पाइस खेलते हुए पटेल साहेब के रिश्तेदार ने उसे अँधेरे में जोर से चिपकाकर उसकी छातियों को इतनी जोर से मसल दिया कि वह दर्द के कारण रातभर सो नहीं पाई थी... और एक बार एक आदमी ने उसकी फ्रॉक में रखे अमरूद उठाने के बहाने उसकी जाँघों के बीच अपनी कठोर उँगलियाँ गोल-गोल घुमा दी थी... और वो शाम जब एक लड़के ने पतंग लूटने के बहाने उसको खंडहर में बुलाकर पकड़ लिया था। छुनिया समझ गई थी कि लड़के-लड़की के बीच ये खेल इसी तरह चलते रहेंगे... इसलिए उसने भी उन सबको सबक सिखाने की तरकीबें सोच ली थीं... बाद में सबक सिखाने के वे तरीके उसे भी मजा देने लगे थे...। उसे लगने लगा था कि वह कितनी 'खास' है... कितनी सुंदर कि सब उसके पीछे कुत्ते की तरह लार टपकाते हुए भागते रहते हैं। बाद में वे कच्चे-पक्के अनुभव उसके जीवन में बड़े काम आने वाले थे... वह पुरुषों को सम्मान के साथ नहीं बल्कि बराबर के स्तर पर... बल्कि ज्यादातर को अपने इशारों पर नचाने वाली थी। उसके मन में उनके लिए 'सफेद कुत्ते', 'काले कुत्ते' संबोधन स्थायी रूप से... जबान पर बैठने वाले थे।

जबकि मुनिया मध्यम कद की साँवले रंग की हल्का-सा लचीलापन लिए नाक-नक्शे वाली लड़की थी। मुनिया समय के पहले ही जवान हो गई थी। यौवन ने उसकी देह को बेवक्त ही आकर्षण का केंद्र बना दिया था। मुनिया अब सोचती है तो उसे पत्थर की तराशी... खजुराहो की मूर्तियाँ अपना ही प्रतिरूप लगती थीं। उसकी छातियों, गर्दन और कंधों में गजब का आकर्षण था। जब दोनों किशोरावस्था में कदम रख रही थीं और दोनों की माँओं को उनके 'पाँच लाल' दिनों के बारे में जब पता चला तो चौकस और चिंतित हो गईं। उन दोनों को क्या पता था कि जाँघों को रंगने वाला वह रक्त उनकी स्वतंत्रता, अल्हड़ता और उड़ान को कैद कर देगा...। हल्का-हल्का चिनचिनाता वह रक्तस्राव... उनके मन को भी चिनचिना रहा था। छुनिया-मुनिया ने इस बंधन को, इस पहरेदारी को, इस बदलाव को शिद्दत के साथ महसूस किया। बगावत के बीज उनके चपल-चंचल मन में प्रस्फुटित होने लगे। परिवार की चौकस निगाहों और टोका-टाकी के बीच भी उन दोनों के भीतर अपने समवयस्क लड़कों के प्रति अजीब-सा मीठा-मीठा खिंचाव तेजी के साथ बढ़ता जा रहा था। वे तमाम लड़के जो बेवकूफ, आवारा और कुत्ते नजर आते थे, अब राजकुमार बनकर न सिर्फ सपनों में बल्कि देह में उठती-गिरती लहरों में भी प्रवेश कर गए थे। इस नई बेचैन कर देने वाली अनुभूति के बारे में वे दोनों पेड़ों की घनी छाँव में बैठकर या ज्वार-बाजरे के खेत में घूमते हुए बातें करतीं...। वे गर्मी के दिन हुआ करते थे। तेज चलती गरम हवाएँ। उमस। आसमान से लेकर धरती तक को धधका देने वाली धूप, ढलती शाम में, धूल भरे आसमान में दूर पक्षियों की तरह दिखाई देती पतंगों को उड़ाते, अल्हड़बाजी करते लड़कों की गतिविधियों को वे दोनों हसरत भरी निगाहों से देखतीं और देर रात तक उनके बारे में बातें करती। उनकी बातें, उनकी फुसफुसाहटें, उनकी खिलखिलाहटें सबको चौंका देती थीं।

'कर लो जितनी बातें करनी हों। शादी के बाद कौन कहाँ मिलने वाला। एक दूसरे की सूरत देखने को तरस जाओगी।' शादी उनके लिए रोमांचक घटना थी - मगर ससुराल नामक स्थान डरावना, रहस्यमय और चिंता में डालने वाला था। छुनिया-मुनिया तब भी अपने वर्तमान में जी रही थीं। उनके तथाकथित प्रेमी जब परिवारवाले खेत-खलिहान पर चले जाते और औरतें घरेलू कामों में व्यस्त हो जातीं, तब वे भौंरों की तरह मँडराते हुए सांकेतिक भाषा में मिलने का स्थान बताकर मिलने की प्रतीक्षा करते। वे दोनों भी लोटा लेकर दिशा मैदान के बहाने निकल जातीं - यह एक ऐसी अनिवार्य दैनिक क्रिया थी जिसके लिए कोई मना नहीं कर सकता था - मुँह अँधेरे तक वे अलग-अलग दिशाओं से अपने-अपने मार्गों से लौट आतीं और प्रेमी दूसरे मार्गों पर अदृश्य हो जाते...। उनकी काँपती... सिहरती देह, डरा हुआ मन... और मिलने की पुनः अभीप्सा... हर पल बढ़ती जाती। पवित्रता-अपवित्रता... उनके लिए मायने नहीं रखती थी... नैतिकता-अनैतिकता से वे शून्य थीं। उनका मन... जो माँग रहा था, उसको वे पाकर प्रसन्न थीं। पर निर्द्वंद्व चलती इस प्रेमलीला को कोई देख रहा था... पीछा कर रहा था। कौन? क्या आसमान में टिमटिमाते तारे हवा में झूमते वृक्ष या सुनसान खेत या वृक्षों पर बैठे परिंदे या देर से लौटते पथिक नहीं... वे नहीं। फिर कौन...? वह थी लच्छो।

लच्छो स्कूल जाती थी। पर हमउम्र बच्चों के बीच न तो कोई औकात थी, न ही पहचान थी...। मास्टरजी भी उसको तवज्जो न देकर तथाकथित उच्चकुलों की लड़कियों की चापलूसी करते। लेकिन अब लच्छो के पास अपनी उपेक्षा और अपमान का बदला लेने का स्वर्णिम अवसर था। उसकी आँखों में बिल्ली की आँखें दीखती थीं। मौके की तलाश में थी वह। लच्छो खुश थी और... एक दिन जब छुनिया-मुनिया घर में नहीं थीं... प्रेमालाप में लीन थीं... उनकी माताएँ... पानी भरने के लिए आई थीं... बाकी औरतें घरों को लौट गई थीं, आसपास सन्नाटा था, शाम की बेला थी... सूरज डूबने को था... परछाइयाँ लंबी होती जा रही थीं, तब ठिगनी कद की लच्छो अंदर से स्वयं को लंबा महसूस करती हुई, दृढ़ कदमों से चलती हुई उन दोनों के बीच जा खड़ी हुई। जानती थी उसकी बात पर वे दोनों यकीन नहीं करेंगी, इसलिए नाम एवं स्थान के बारे में बताते हुए उसने 'संपूर्ण आँखों देखा हाल' सुना डाला। वह देख रही थी अपनी चुगली की प्रतिक्रिया... उन दोनों का आश्चर्य... क्षोभ... डर और घर में आने दो... हाथ-पाँव तोड़ देंगे... जैसे वाक्यांश की पीड़ा दोनों परिवारों में हड़कंप मच गया। दोनों को अपने कुलच्छनों के लिए घर में कैद कर दिया गया और उन दोनों के प्रेमियों की इतनी धुनाई की गई कि उनकी सात पुश्तें आँख उठाकर देखने की हिम्मत और हिमाकत नहीं कर सकती थीं। छुनिया-मुनिया को जितने तमाचों की मार पड़ी थी... वे दोनों लच्छो को सूद समेत लौटाने की प्रतिज्ञा कर चुकी थीं। छुनिया-मुनिया वैसे भी लच्छो को दो कौड़ी की बदसूरत, जलनखोर, कमीनी आदि-आदि कहकर झूठा साबित करने में लगी थीं, लेकिन उनके माता-पिता अब किसी प्रकार की रिस्क लेने को तैयार न थे। छुनिया-मुनिया के बहकते कदमों, मन में उमड़ती प्रेमाकांक्षाओं और चरित्रहीन होने की प्रक्रिया से रोकने वाली लच्छो उनके लिए सबसे विश्वसनीय खबरनवीस बन गई थी। हितचिंतक और समझदार बनी लच्छो की हैसियत उनकी नजरों में बढ़ गई थी। और लच्छो मुस्कुरा रही थी। लच्छो की मुस्कराहट धूप की तरह असीम थी। झुलसा देने वाली थी।

लच्छो मुस्कुरा रही थी... और उधर छुनिया-मुनिया की हँसी-ठिठोली, मुस्कुराहटें कम होती जा रही थीं...। परस्पर मिलना-जुलना, लंबी-लंबी बातें करना बंद हो गया था। वे अपने-अपने घरों में कैद थीं। अकेली और उदास थीं। भयभीत और सहमी हुई थीं। उनका वर्तमान अतीत बन चुका था और जिया हुआ जीवन सपना। कभी-कभार मिलने पर उनकी बातचीत का एक ही विषय होता- लच्छो। लच्छो को सीख सिखाने की तीव्र इच्छा। उसको दबाने, बदनाम करने की कशमकश...। समय जैसे उनके बीच थम-सा गया था। जीवन निरर्थक लगने लगा था। बाहर की दुनिया, मस्ती, चूल्हा-चौकी, घिनौची और दालान तक सिमटकर रह गई थी और इस सिमटी, निराश, प्रेमविहीन दुनिया में छटपटाती छुनिया-मुनिया को तब और गहरा आघात लगा जब मुनिया अपने ताऊ के साथ शहर चली गई। शहर में उसके चचेरे भाई पहले से ही रहकर पढ़ाई कर रहे थे।

उसके ताऊजी राजनीतिज्ञ थे... राजनीति में उनकी छोटी-मोटी महत्वाकांक्षाओं को स्थान मिल जाता था। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने का श्रेय उन्हें जाता था। उससे जुड़ी स्मृतियाँ उनके जेहन में थीं जिन्हें वह अक्सर नेताओं के बीच किसी रोचक वीर-कथा की तरह सुनाया करते थे। उनकी प्रतिष्ठा थी। नाम था। यूँ भी उदारवादी विचारधारा के व्यक्ति थे... खासकर लड़कियों को लेकर उनकी सोच खुली और व्यापक थी। लड़कियों की शिक्षा को लेकर वे प्रगतिशील थे। ज्ञान की वैतरणी में लड़कियों को तैरना चाहिए तभी वे परिवार को सही ढंग से चला सकती हैं, ऐसा उनका मानना था। उनका यह भी मानना था कि जिस घर में बहू-बेटी खुश नहीं होती और जहाँ उसको सम्मान नहीं दिया जाता, उस घर में सुख-समृद्धि नहीं आती। यहाँ तक कि देवता नाराज हो जाते हैं, अतः उन्होंने मुनिया का एडमिशन स्कूल में करवा दिया। मुनिया का नया नाम लिखा गया - मीनाक्षी तिवारी।

मीनाक्षी तिवारी ने मुनिया के रूप में छुनिया को आखिरी बार गले लगाकर आँसू पोंछते हुए जीवन भर न भूलने की कसमें खाकर अपने गाँव और अपनी प्यारी सखी से विदाई ली थी, उस सूर्योदय की बेला में जब तक बैलगाड़ी आँखों से ओझल नहीं हो गई थी, छुनिया अपनी जगह पर खड़ी हाथ हिलाती रही थी। आँसुओं से उसके गाल धुल रहे थे। घर लौटते हुए उसकी हिचकियाँ बँध गई थी। भीतर का खालीपन... चारों तरफ बर्फ की तरह जम गया था। पूरा गाँव उसे निर्जन और उदास... अकेला और वीरान लगने लगा था, न रात कटती थी न दिन बीतता था। छत पर बनी अटारी में पड़ी वह विरहणी नायिका की तरह आहें भरती... छुनिया दो महीने में ही सूखकर काँटा हो गई थी। घरवालों को उसकी चिंता सताने लगी थी। चूँकि पटेल साहब का परिवार खेतीबाड़ी... जमींदारी में अव्वल था। हाँ, लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई को वो उतना महत्व नहीं देते थे... न जीवन के लिए जरूरी मानते थे, अतः अब उन्हें छुनिया की शादी जरूरी लगने लगी। पटेल साहब अपनी लाडली बेटी के लिए जमीन-जायदाद का मालिक, सुंदर और... रौबदार लड़का ढूँढ़ रहे थे और उधर लच्छो गाँव के ही निकट दूसरे गाँव के स्कूल में जाने लगी थी। उसने बोर्ड की परीक्षा में पूरे जिले में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। सर्वोच्च अंक प्राप्त करने के कारण उसे वजीफा मिल गया था... आगे चलकर वह शहर के आदर्श हायर सेकेंडरी स्कूल में चली गई थी। उसका सपना था बहिन जी बनने का। होशियार लोकप्रिय बहिन जी, जो कक्षा में बच्चों के बीच... अपने लिए प्रशंसा और सम्मान का भाव देखना चाहती थी...। लच्छो ने अपने भीतर कुछ आदर्शवादी संकल्प ले रखे थे, जैसे नंबर एक - वह छुआछूत नहीं मानेगी, न उस तरह का व्यवहार होने देगी। दो - जाति और धर्म को हमेशा अलग रखेगी... जिसका सामना उसे कदम-कदम पर करना पड़ा था। वो तो छुनिया-मुनिया की प्रेमलीला उसके पिता को न बताती तो क्या वे कभी उससे बात करते... उसे अपने घर में आने देते। तीन, गरीबी-अमीरी को दोस्ती के आड़े नहीं आने देगी, जो कि उसके अपमान का कारण बनी हुई थी।

पर सपनों की गिनती यकायक... थम गई... क्योंकि इस बीच लच्छो का रिश्ता तय कर दिया गया। उसकी जाति में ज्यादा पढ़े-लिखे लड़के नहीं मिलते थे इसलिए उसका आगे पढ़ना उसके परिवार की नजरों में बेकार था... पर लच्छो का विवाह उसके लिए वरदान साबित हुआ... ससुराल में रहते हुए पति के साथ खूब-खूब अलमस्त जीवन जीते हुए... माँ बनते हुए भी वह पढ़ाई करती रही, क्योंकि इन सारी बाह्य क्रियाओं की बनिस्बत उसके भीतर चल रहे सपने कहीं ज्यादा मजबूत विराट और सकारात्मक थे। उसकी इस चमत्कारिक प्रतिभा से उसका पति अभिभूत था...। पति छोटी-सी नौकरी में लग गया था और लच्छो पढ़ाई में। पहले बेटा... फिर बेटी... फिर तीसरी संतान बेटा... उसी क्रम में लच्छो ने बी.ए. किया... फिर एम.ए., फिर बी.एड... और अंततः लच्छो स्कूल में टीचर बन गई। चूँकि लच्छो आरक्षित कोटे में आती थी इसलिए उसे कामयाबी के अवसर उसी तरह से मिलते गए। लच्छो का जीवन जैसे चिकनी राहों पर भागता जा रहा था। भाग्य उस पर मेहरबान था। पति-परिवार उसके साथ था। परिस्थितियाँ उसके अनुकूल थीं। सपनों को पंख लग चुके थे। कालेज की नौकरी में आते ही लच्छो लक्ष्मीप्रसाद सिंह बन गई थी। इतनी कम उम्र में तीन बच्चों की माँ। माँ के पदचिह्नों पर बच्चे चल रहे थे। समय लक्ष्मी की मुट्ठियों में था। चारों तरफ से सफलताओं के दरवाजे खुल चुके थे। ठिगने कद की साधारण रंग-रूप पर भरी छातियों और उभरे कूल्हों वाली लक्ष्मी को न रंगों की समझ थी न शहरी ढंग से बात करने का अभ्यास... उसकी वेशभूषा और पूरा व्यक्तित्व देखकर कोई भी उसे अपने बीच बैठाने में संकोच करता था। वही लक्ष्मी एक नए रूप में नए रंग में नई... साज-सज्जा में दिखाई देने लगी थी। कहते हैं सफलता आत्मविश्वास को सूरज की तरह चमका देती है। स्वयं को गढ़ने के लिए वह निरंतर मेहनत कर रही थी।

योगा क्लास ज्वाइन करने के कारण लक्ष्मी की देह गठीली, आकर्षक और चिरयौवना की तरह हो गई थी। घुँघराले घने काले बालों को उसने गोलाकार कटवा लिए थे... जिससे उसकी छोटी गर्दन दिखाई देने लगी थी। भौंहों को उसने एक विशेष शेप दिलवा लिया था। गहरे कट के ब्लाउज उसके सामने यानी वक्ष पीछे यानी पीठ को सेक्सी दिखाने में मदद करते थे। होंठों पर गहरी कॉफी कलर की विदेशी लिपस्टिक लगी होती, जिससे उसके होंठ रसीले लगने लगे थे। दाँतों का इलाज करवाकर उसने सारे गेप भरवा कर, ब्लीच से चमकीले कर... मुँह की दुर्गंध को दूर कर लिया था। एक हाथ में कंगन दूसरे में घड़ी होती। दोनों हाथों की उँगलियों में बेशकीमती अँगूठियाँ... साड़ियों का सिलेक्शन लक्ष्मी अपनी अति-आधुनिक सहेलियों की मदद से करती थी। सबसे अच्छी जगह यानी राजधानी में उसे सरकारी आवास मिल गया था। बाहर बाउंड्री, घने पेड़... मखमली दूब... कतारों से सजे गमले... अंदर महँगा कालीन... सोफे और दो विदेशी... पूँछ हिलाते मुँह खोले दाँत और... जीभ लपलपाते काले कुत्ते। हालाँकि लक्ष्मी का पति तृतीय श्रेणी कर्मचारी था पर... इस बीच... लक्ष्मी की दोस्ती... बल्कि अंतरंगता... अंतरंगता की दीवार को ढहाते संबंध अपने ही गाँव के... एक बड़े अधिकारी से हो गए थे... जिसके चर्चे राजधानी के उच्च तबके में शराब के दौर के बीच चटकारे लेकर होते। उस आदिवासी अफसर ने लक्ष्मी की धाक जमा दी... धाक इस मायने में कि लक्ष्मी को उनकी लालबत्ती की गाड़ी कई दफा कालेज छोड़ने आती... और लालबत्ती वाला अधिकारी उच्च शिक्षा विभाग में कमिश्नर बन गया था। बस फिर क्या था... कालेज में महिला-पुरुष सभी लक्ष्मी के चारों तरफ यूँ भिनभिनाने लगे जैसे गुड़ पर मक्खियाँ। लोग देखते लक्ष्मी का रुतबा, लक्ष्मी की मालकियत।

वह आई.ए.एस. अफसर लक्ष्मी के गाँव से था। अपने लोगों को प्रोत्साहित करता था। मौका देता था। फिर लक्ष्मी जैसी स्मार्ट, वाचाल, बुद्धिमान और आधुनिक शहरी महिला उसके लिए खासा महत्व रखती थी। उम्र की ढलान पर एक बदशक्ल आदमी के लिए हर वक्त ताजा-तरीन लगने वाली स्त्री की हँसी, उसका सामीप्य, उसकी दैहिक मादकता उन्हें अंदर तक जवान कर देती। कहा जाता था कि गाँव में उसकी कुरूप पत्नी... परित्यक्ता की तरह संघर्ष भरा जीवन जी रही थी। इसलिए लक्ष्मी उनकी अघोषित दूसरी पत्नी के रूप में ख्याति तथा रुतबा हासिल कर चुकी थी। पुरा-पड़ोस वाले देखते सुबह-शाम... नियमित रूप से... अफसर की लालबत्ती की गाड़ी लक्ष्मी के दरवाजे पर खड़ी होती... ठीक उसी समय उसका पति अपने दोनों कुत्तों को बाहर घुमा रहा होता। इस अधिकार के चलते ही लक्ष्मी उनके पद का, उनके अधिकारों का इस्तेमाल अपने लिए और अपनी मित्रमंडली के लिए कर रही थी। लोग साहब की पावर लक्ष्मी में देखते थे। लक्ष्मी एस.पी. मैडम के रूप में स्थापित हो चुकी थी। काम करवाने वाले लोग साहब के पी.ए. से कम लक्ष्मी मैडम से ज्यादा संपर्क करते। जब सब तरफ से लोग हताश हो जाते तो लक्ष्मी उनकी उद्धारक बनने का श्रेय लूट लेती और वह शान से चश्मा पहनकर... शानदार गाड़ी में यूँ चलती-उतरती गोया इस शहर की वही मालकिन हो। इस जीवन का लुत्फ कैसे उठाया जाना चाहिए... कोई लक्ष्मी से सीख सकता था... चर्चा तो यहाँ तक चल पड़ी थी कि लक्ष्मी बहुत जल्द राजनीति में आने वाली है। साहब उसको सांसद बनवाने का मन बना चुके हैं... तो भावी राजनेता से कौन मधुर संबंध नहीं रखना चाहेगा। लक्ष्मी उड़ रही थी... मौसम का मिजाज देखकर उड़ रही थी... हवा का रुख देखकर उड़ान भर रही थी और उधर छुनिया, जिसका नाम ससुराल वालों ने 'छवि' रख दिया था, का भाग्य... परमात्मा के हाथों की कठपुतली बना था। समय ने उसके साथ ऐसा क्रूर खेल खेला कि वह स्वयं को खड़ा ही न कर सकी। माता-पिता बेवक्त बूढ़े हो गए थे। सास-ससुर की खामोशी उसे घायल कर रही थी। वह जितनी दूर तक देखती उसे निर्जन, अंधकार में डूबा भविष्य नजर आता। जिस समाज में वह रहती थी उस समाज में पति के बिना पत्नी का कोई अस्तित्व ही न था। जीने का, खुश रहने का... पहनने-ओढ़ने का मतलब था पति। गोद में पल रहा शिशु जैसे-जैसे बड़ा होता जा रहा था छवि का क्रोध, अवसाद और अकेलापन विक्षिप्तता की हद तक बढ़ता जा रहा था। बीमार पति का मरना तय था पर छवि का जीना मृत्यु तुल्य क्यों था... मुनिया यानी मीनाक्षी को चार-पाँच माह बाद जब खबर लगी तो वह रातभर... छत पर घूमती... फिसलती... आकाश को तकती रही...। दूसरी रात भी उसकी करवटें बदलते हुए बीती। बचपन एक बार फिर अपनी उद्दीपता लिए खड़ा था।

ऐसे शोकाकुल माहौल में अपनी सखि को सामने पाकर छुनिया यानी छवि का बाँध टूट पड़ा। वह दहाड़ मारकर जो रोई तो पूरा घर क्या... आसमान और धरती क्या... वृक्षों पर बैठे परिंदे तक सहमकर उड़ान भर बैठे। दुबली-पतली छवि और दुबली हो गई थी... मात्र हड्डियों का ढाँचा। छवि को इस हाल में छोड़ना मीनाक्षी को गवारा न था। मीनाक्षी इस बीच जो सीखी हो... अपनी बात मनवाना अलबत्ता सीख गई थी। दो-तीन दिन की मान-मनौवल के बाद छवि के ससुराल वालों ने उसे जाने की अनुमति दे दी।

'उसका मन बदल जाएगा। रात-दिन वही बातें सोचकर कलपती रहती होगी।'

'जल्दी वापस भेज देना।' उसकी सास ताकीद कर रही थी।

'हम तो अपने नाती का मुँह देखकर जिंदा रह लेंगे।'

'और छवि कैसे जिंदा रहेगी, जिसने आपके नाती को जन्म दिया है?'

सब खामोश थे...।

'अब और नहीं रोना है... बस...' मीनाक्षी ने उसके कंधों पर हाथ रखते हुए कहा।

'तो क्या करें...?'

'वहाँ चलकर सोचते हैं... पर तुम मान लो कि यहाँ रहकर तुम दस साल भी जिंदा नहीं रहोगी... तुम्हें स्वावलंबी बनना चाहिए... अपने लिए न सही... अपने बेटे के लिए...।'

'हमसे कुछ न होगा मुनिया...।'

'कुछ नहीं होगा से क्या मतलब। ये शब्द तो तुम्हारी जुबान पर आना ही नहीं चाहिए। सोचकर देखो क्या तुम्हारे ससुराल वाले तुम्हें जीने देंगे? गाँव की हवेली में भूतों की तरह भटकती रहोगी। क्या तुम्हें अपने बच्चे का भविष्य नहीं सँवारना है? अपने आपसे और हम सबसे वायदा करो कि वापस नहीं जाओगी।'

'वे सब नाराज हो जाएँगे। इसके भविष्य का खर्चा कौन उठाएगा। इसका हक मारा जाएगा।'

'वही देंगे, लेकिन इन शर्तों पर नहीं कि तुम उन सबके लिए अपना जीवन बर्बाद कर दो।' मीनाक्षी एक के बाद एक तर्क दिए जा रही थी, वह जानती थी वृक्ष आँधी में गिरते हैं जड़ों से उखड़ा नहीं करते... अभी भी उसे सीधा करके खड़ा किया जा सकता है। एक संतप्त जीवन... जो सारी कामनाओं से दूर भाग रहा था, बस उसे जोर से थामने की जरूरत थी।

इस प्रकार छवि की नई जीवन यात्रा ने... यहाँ से एक नया मोड़ पार किया। उस मोड़ के पीछे वाली गली को छोड़ दिया, जो अंधकार में डूबी थी। जहाँ के साए उसका पीछा करते रहते थे। मीनाक्षी के साथ रहकर वह अपने लिए जमीन तैयार कर रही थी यानी... उसने पढ़ाई आरंभ करने की कोशिश शुरू कर दी थी। हालाँकि यहाँ का खुला आकाश... खुला वातावरण... बेरोक-टोक जिंदगी अच्छी लगती थी। अपने बच्चे को लेकर कुछ करने की तमन्ना... इस अवस्था तक आने में उसे हफ्तों लग गए थे। मीनाक्षी के साथ उसका उठना-बैठना, विभिन्न स्थानों पर जाना, हाट-बाजार, कला-केंद्रों, अलग-अलग साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शामिल होना उसके लिए अलग जादुई दुनिया में जाने जैसा था। उसने महसूस किया कि ज्यादातर लोग उसकी गहरी काली जादुई आँखों... आकर्षक देह और उसकी मुस्कुराहट को विस्मय तथा प्रशंसा भरी निगाहों से देखते थे। उसकी आमंत्रित करती आँखें और होंठ... कशिश पैदा करते थे। जबकि मीनाक्षी जानती थी कि उसकी देह में थोड़ा-सा और भराव आ जाए तो वह विदेशी फिल्म अभिनेत्रियों की तरह अपनी मादक अदाओं से इस रसिक समाज को अपने मोहपाश में बाँध सकती थी।

मीनाक्षी का अपना रंग-रंगीला मित्र समाज था। कवि, कलाकार, नाट्यकर्मी, अभिनेता समाज के अलग-अलग तबकों के उच्च पदस्थ लोग अक्सर ही उसके घर में धमा-चौकड़ी मचाए रहते। शराब और शायरी के दौर चलते...। नाटकों की रिहर्सलें होतीं... एक-दूसरे की टाँग खिंचाई होती... तो दूसरे ग्रुप के लोगों का मजाक उड़ाया जाता... अब इस रंगीन महफिल में छवि का आगमन एक नए सुरूर को पैदा कर रहा था। वैधव्य की उदासी ने उसको सबको बीच सहानुभूति का पात्र बना दिया था। हर कोई उसके भविष्य को लेकर चिंता व्यक्त करता, कुछ न कुछ करवाने के लिए प्रयत्न करता। लगता कि वह किसके कितने निकट है... कितनी आत्मीय है या रहेगी। इसके लिए रसिक समाज के बंदे अपनी सेवाएँ देने के लिए प्रस्तुत रहते। धीरे-धीरे छवि ने भी अपने गँवई संकोच की जंजीरें तोड़ीं, अपनी शांत... गंभीर दर्द भरी मुस्कान को मादक बनाया... साड़ी जैसी परंपरागत देह ढांपू वेशभूषा को त्यागकर सिलवार-सूट तथा जीन्स पर आ गई। वह तमाम दुनिया जहान के साथ थिएटर में रुचि लेने लगी। पढ़े-लिखे आधुनिक बौद्धिक समाज ने उसको हाथोंहाथ लपक लिया और उसके नन्हे बेटे को एक साफ-सुथरी पढ़ी-लिखी आया के हवाले कर दिया। आहिस्ता-आहिस्ता बच्चा अपनी माँ से ज्यादा अपनी आया को प्रेम करने लगा। छवि अपने जीवन की दिशा को पकड़ रही थी - वैधव्य का ठप्पा... ससुराल वालों का भय, माता-पिता की नसीहतें बहुत पीछे छूट गई थीं... अब सब कुछ थी तो मीनाक्षी। मीनाक्षी को नौकरी की जरूरत थी, जो आज के जमाने में मुश्किल थी। वह प्रखर बुद्धि की मलिका थी। वाचाल थी। तर्क-वितर्क करना जानती थी। उसे पुरुषों को पटाना-रिझाना और नचाना आता था, खासकर ऐसे बूढ़ों को जो बाहर की दुनिया में बड़े-बड़े नामों और कामों से जाने जाते थे, लेकिन भीतरी दुनिया में वे बेहद सामान्य किस्म के रूपलोभी... रसलोभी, सुराप्रेमी सामान्य जन ही थे।

अंततः मीनाक्षी एक संस्था के संस्थापक के पास जा पहुँची।

'मैं आपकी संस्था से जुड़ना चाहती हूँ।'

'आपका स्वागत है। आप जानती ही होंगी कि हमारी संस्था के नियम और अनुशासन बड़े सख्त हैं, चाहे विचारधारा के स्तर पर हों या आचार-व्यवहार के स्तर पर। पहले आपको उनके बारे में जानना होगा। उनमें कोई समझौता नहीं किया जाता।' संस्था प्रमुख ने एक-एक शब्द पर जोर देते हुए कहा।

बूढ़ा चतुर और चालाक है। आसानी से हाथ में नहीं आएगा। मीनाक्षी ने मन ही मन उसे गालियाँ देते हुए कहा।

'क्या करना होगा?' उसने आँखों से रस उड़ेलते हुए पूछा।

'कुछ समय के लिए हमारे यहाँ आइए। कार्यक्रमों में शामिल होइए। यदि आपको लगता है कि आप वह सब कर सकती हैं तो हमें कोई एतराज नहीं है। हाँ, प्रतिबद्धता पहली शर्त है - ईमानदारी और प्रतिबद्धता। फिर आपकी योग्यता को परखने, उसे सँवारने और परिष्कृत करने की जिम्मेदारी हमारी है।' मीनाक्षी एकटक संस्था प्रमुख का गोरा, चिकना, बिना झुर्रियों का चेहरा देखे जा रही थी। उस चेहरे पर अनुभवों की रंगत थी। आँखों में भेदने वाली दृष्टि और बातों में साफगोई की धार।

मीनाक्षी उनके सामने जरा भी घबड़ाई नहीं, न ही पीछे हटी। इस भूरे बूढ़े घोड़े की लगाम अपने हाथों में लेने की अकुलाहट उसके मन में बढ़ने लगी। लोगों के साथ कैसे कूटनीतिज्ञ संबंध बनाने होते हैं, यह सब कुछ उसने अपने परिवार में देखा था। ताऊजी के राजनीतिक जीवन में अनुभव किया था। मीनाक्षी ने अब अपने पत्ते खोले। ताऊजी के बारे में बताया... संस्था प्रमुख आश्वस्त हुए। धीरे-धीरे मीनाक्षी ने अपने वाक् चातुर्य और बुद्धिमत्ता से सबको अभिभूत कर लिया। वह संस्था की एक-एक गतिविधि का जरूरी हिस्सा बनती गई। संस्था का व्यापक परिचय क्षेत्र उसका अपना क्षेत्र बन गया। हर व्यक्ति से संपर्क करना, बात करना अब मीनाक्षी का काम था। मीनाक्षी ने महसूस किया कि उस कुर्सी पर बैठकर हिंदुस्तान भर की बड़ी-बड़ी हस्तियों से संबंध बनाए जा सकते हैं। अपनी पहचान बनाई जा सकती है... जिसके लिए वह वर्षों से प्रयासरत थी। और बहुत कम समय में ही समाजसेवियों, काननूविदों, शिक्षाशास्त्रियों, साहित्यकारों, नेताओं, बड़े-बड़े अफसरों और राज्यपालों से मीनाक्षी के व्यक्तिगत संबंध बन गए थे। मीनाक्षी को सामने खुला... साफ... चमकीला आकाश दिखाई दे रहा था... जो उसके मन में दबे-छुपे सपनों को पूरा करने के लिए खड़ा था। बस जरूरत थी इस चिकने, चालाक... घाघ बूढ़े को अपने विश्वास में बनाए रखने की, क्योंकि इस आदमी ने अपना प्रभामंडल बना रखा था। देश-दुनिया की तमाम सभाओं, समितियों, में वह सदस्य, निर्णायक, सलाहकार, अध्यक्ष बनकर भाषण देने जाता, सम्मानित होता, लोगों को सम्मानित करवाकर अपनी जय-जयकार करवाता...। अपार संभावनाओं और क्षमताओं के बीच मीनाक्षी तिवारी के व्यक्तित्व का विकास कुछ इस तरह हुआ कि उसने अपने लंबे बाल कटवा लिए, उसकी चाल-ढाल और देह में आभिजात्यपन झलकने लगा। तराशी हुई भाषा शैली में होंठ दबाकर काजल लगी आँखों से गंभीरता झराती जब वह बात करती तो सामने वाला उसकी प्रशंसा किए बिना न रहता। हर व्यक्ति उससे बातें करने के लिए, संपर्क बढ़ाने के लिए लालायित रहता और वह छवि को जाकर वहाँ के दृश्यों को यों बयान करती, जब मैं वहाँ गई तो तीन भूरे कुत्ते बैठे थे... साहित्य के कुत्ते..., समाज के कुत्ते... औरतों की तरफ लार टपकाते कुत्ते।

छवि उसके होठों पर उँगली रखती - 'क्या बोल रही हो!'

'सच तो बोल रही हूँ। साले अपनी टाँगों पर सीधे खड़े नहीं हो पाते, पर औरत को देखते ही लार टपकाते हुए ललचाते आ जाते हैं। इनकी असलियत देखनी हो तो शराब की पार्टियों में देख लो। शराब पीकर इन्हें अपना ही होश नहीं रहता है। दिन में ये औरतों के सामने झुके-झुके दाँत निपोरते दीखते हैं और रात में उन्हीं औरतों के लिए ये क्या-क्या नहीं बोलते हैं। मैं तो सबके मजे लेती हूँ... कहेंगे मीनाक्षी जी किसी प्रोग्राम में दुबारा जरूर बुलाना।' कहकर मीनाक्षी जोर का ठहाका लगाती।

छवि उसका चेहरा देखे जा रही थी। और मीनाक्षी... मीनाक्षी तथाकथित बड़े लोगों को यूँ गालियाँ दिए जा रही थी, जैसे यार-दोस्त आपस में बात करते हुए गालियाँ देते हैं।

'इनमें से एक कुत्ता अपनी दो कौड़ी की किताबें लेकर सुबह-सुबह आ जाता है... हमारी किताबें पढ़िए मैडम। साला चूतिया, अपना कूड़ा जबरदस्ती पढ़वाना चाहता है। सोचता होगा मैं वहाँ पर इसकी किताबों की समीक्षा करवा दूँगी। बाहर ऐसी अकड़ दिखाता है कि सीधे मुँह बात नहीं करता और मेरे सामने गिड़गिड़ाता रहता है।'

छवि हँस-हँसकर लोटपोट हुए जा रही थी और मीनाक्षी किस्से पर किस्से सुनाए जा रही थी। इन तमाम घटनाओं, दुर्घटनाओं के बीच साहित्यिक और सांस्कृतिक शहर ने देखा एक उभरती हुई, पर स्थापित होने के लिए अपनी प्रतिभा को प्रामाणिक बनाते हुए अपने व्यक्तित्व के प्रभामंडल और मादकता से रिझाते हुए मीनाक्षी को जिसकी तूती संस्था से लेकर साहित्य और शेष समाज के बीच बोलती थी, जो आरोप-प्रत्यारोपों को... किसी के साथ अपने नाम जोड़े जाने को, मजाक के रूप में लेकर उन्मुक्त ठहाकों में उड़ा देती।

इधर छवि ने एक उभरती हुई कवयित्री और रंगमंच कलाकार के रूप में स्वयं को स्थापित करने के लिए संघर्ष शुरू कर दिया था। उसकी बिंदास छवि के कारण पुरुषों में उससे दोस्ती करने की होड़ लग रही थी और सबसे बड़ी बात कि छवि के ऊपर माता-पिता, भाई-बहिन, पति या किसी पुरुष का वर्चस्व नहीं था, जो उसके अबाध बहते जीवन को बाधित कर सके। इस बीच गरमागरम खबरें उड़ती रहतीं कि छवि फलाँ-फलाँ कवि की दोस्त है - फलाँ लेखक के साथ घूम रही थी... फलाँ कलाकार के साथ सिगरेट पी रही थी या कल रात उसके घर के सामने फलाँ मंत्री... अफसर या उद्योगपति की गाड़ी खड़ी थी। यह उसका सातवाँ वर्ष था इस शहर में। गाँव तथा परिवार को त्यागे हुए। जबकि सच्चाई यह कि उसके दोनों ही परिवारों ने उसे त्याग दिया था... उसके चरित्र और आचरण को लेकर वे शर्मसार थे। नाराज थे। ससुराल वालों के लिए वह कुलच्छनी थी... वाहियात थी... बेशर्म औरत थी। उन तमाम रिश्ते, बातों, चर्चा, कुचर्चाओं को पीछे छोड़ती छवि इन दिनों एक शादीशुदा लगभग तलाकशुदा आदमी के साथ प्रेम में डूबी हुई थी। दोस्ती और प्रेम में फर्क होता है... मीनाक्षी उससे पूछती... तुम्हें क्या चाहिए - दोस्त या प्रेमी या पति?

छवि कहती - दोस्त अपनी जगह, प्रेमी अपनी जगह और पति अपनी जगह। वैधव्य का धक्का उसके जीवन में लगा था, जिसे वह मिटाना चाहती थी। बचपन का वो उन्माद, वो प्रेम... वो स्पर्श... अब भी उसकी रगों में बहते खून को गरमा देता है। वह जीने में विश्वास करती थी... न कि रोने में। उसके लिए सेक्स एक जरूरत थी... स्वस्थ कुंठारहित देह को बनाए रखने की दवा... नैसर्गिक जरूरत... जिसे वह वर्जना या पाप नहीं मानती थी... वह अब तक खेलती रही थी... मगर अब छवि जीवन में स्थायीत्व चाहती थी, सुरक्षा चाहती थी... अपने लिए... अपने बेटे के लिए नाम चाहती थी.. एक ऐसी संपूर्ण जिंदगी की कामना उसके भीतर अंगड़ाई ले रही थी, जिसके दिल में प्यार हो, पैसा हो, भरोसा हो, उसके बेटे को अपनाने का साहस हो...।

'वह शादी करना चाहती है।'

'उसकी शादी टिकेगी...?' उसके दोस्त आपस में मजाक करते।

सवाल शादी के टिकने न टिकने का नहीं था। सवाल था उसकी जिंदगी में ठहराव लाने वाली शादी का... ये भी सच था कि उसकी शादी कई पुरुष मित्रों के गले नहीं उतर रही थी। उसके युवा... प्रौढ़... बूढ़े और दमदार, मालदार पुरुष प्रेमी उसे यूँ मुक्त करने के मूड में नहीं थे, न वे चाहते थे कि छवि किसी एक की होकर रहे। वह सबके बीच सबकी बनकर रहे, इसलिए समझाइश दी आँखें खोलने की। अनेक नाकाम कोशिशें की गईं, पर छवि अब इन तमाम खिलंदड़ों के बीच अपना शेष जीवन यूँ ही नहीं जीना चाहती थी। उसे सामने दरवाजे पर खड़ा शानदार भविष्य दिखाई दे रहा था और जैसी उसकी इच्छा थी... जैसा उसका सपना था, ठीक वैसी इच्छा और सपने लिए वह पुरुष उसे खींच रहा था। महानगर का चमकता-दमकता... जीवन... जिसमें कमाऊ पति था और दोस्तों के लिए स्पेस भी। उसके बेटे का सुरक्षित भविष्य भी...। जैसा उसका स्वभाव था उन्मुक्त मस्त... चंचल... बहुरंगी... वैसा ही उसके होने वाले पति का भी जीवन था। जैसे खुलकर वह जीना चाहती थी, वैसे ही वह भी जीना चाहता था। उसने अपनी असुंदर, कम पढ़ी-लिखी पत्नी को तलाक दे दिया था और... कई वर्षों से अत्यंत सुंदर स्त्रियों के साथ रंगरेलियाँ मनाता हुआ... अपने दोनों बच्चों के लिए घर और घर की देखरेख करने वाली पत्नी चाहता था। शादी के बाद जो प्रतिक्रियाएँ हुईं वे कितनी रोचक और लंबी थीं... वह एक अलग कहानी है। पर बचपन और किशोरावस्था के दिनों को विदा कहकर जब छवि ससुराल जा रही थी और बाद में वैधव्य के दिनों में जब उसने स्वयं को दुख के समुंदर में डूबते हुए महसूस किया तो उन दिनों को वह बीते दिनों की कहानी के रूप में भूल जाना चाहती थी। ऐसा भाग्य सबका कहाँ? ऐसा बिंदास जीवन कितनी महिलाएँ जी पाती हैं... साथ वाली महिलाएँ उसको देखकर ईर्ष्या से भर उठतीं। अगर किसी में हिम्मत है समाज और परिवार से टकराने की तो उठाओ ऐसा कदम... हम लोग तो सपने तक में उसी एक पति के बारे में सोचते रहते हैं। और वह तो खुलकर जीती है। उसकी दोस्त उसके इस तरह के जीवन की सराहना करते न थकती, क्योंकि छवि के आजाद जीवन में उन्हें अपने आजाद होने का एहसास होता... उन्हें लगता कोई तो है जो इस पति रूपी पुरुष समाज को जूतों के नीचे रखकर अपने आगे-पीछे घुमाती है।

इस बीच लक्ष्मी कालेज के हॉस्टल की वार्डन बनाई जा चुकी थी। शहर के बीचोंबीच बने कन्याओं के हॉस्टल की वार्डन। वार्डन यानी उसमें रहने वाली लड़कियों पर स्वामित्व होना... उन्हें अपने अंडर में रखकर अपने अनुसार चलाना। खाद्य सामग्री से लेकर हर चीज पर कब्जा। चूँकि इस हॉस्टल में विशेष वर्ग की लड़कियाँ रहती थीं, इसलिए लक्ष्मी का वार्डन बनना सबको जायज लगा था। लक्ष्मी के पुलिस विभाग से लेकर हॉस्पिटल तक संपर्क-संबंध थे, उसमें असीम ऊर्जा थी, लोगों को जोड़ने की कला में वह माहिर थी, कैसे किसका कहाँ कितना, किस तरह इस्तेमाल करना है, वह बखूबी जानती थी। विपरीत परिस्थितियों को भी वह अपने अनुकूल बना लेती थी। लक्ष्मी ने हॉस्टल की कायाकल्प कर दी यानी पिछले वर्षों की गंदगी, टूट-फूट, असुविधाओं को दूर करवाया... फिर कुछ ऐसी चीजें बनवाईं, जैसे बैडमिंटन कोर्ट... टेबिल टेनिस कोर्ट... वाचनालय... जिनका लोकार्पण उसने उच्च अधिकारियों से करवाया। सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति से नेता, उच्च अधिकारी अभिभूत हो गए... लड़कियों का उमड़ता मादकता लिए निष्पाप यौवन.. उनकी आँखों में बस चुका था। अब तो कार्यक्रमों का सिलसिला चल पड़ा। लक्ष्मी हॉस्टल की लड़कियों को हर जगह भेजती...। आदिवासी पिछड़ा वर्ग तथा अन्य कोटे की लड़कियों को इतनी प्रशंसा कभी न मिली थी, जितनी लक्ष्मी के कार्यकाल में मिल रही थी।

कालेज में कभी-कभार होती कानाफूसी लक्ष्मी तक नहीं पहुँच पाती, क्योंकि लक्ष्मी के रुतबे के सामने हर कोई नतमस्तक रहता थ। हाँ, इस बीच विभागाध्यक्ष से जरूर लक्ष्मी का झगड़ा हो गया था...। वे बार-बार लक्ष्मी को क्लास लेने को कहतीं और लक्ष्मी अपनी लिपस्टिक पुती मुस्कान से बात को टाल देती... टाइम टेबिल को लेकर विरोध करती।... बात प्राचार्य तक पहुँची, दोनों को समझाइश दी गई... लक्ष्मी ने देख लिया था कि विभागाध्यक्ष डॉ. अर्चना रस्तोगी... मीनाक्षी तिवारी की सास हैं। दोनों एक ही ब्लॉक में रहती हैं। लक्ष्मी को बचपन की वो घटना याद आ गई, जिसकी वजह से मुनिया को घरवालों ने घर के भीतर बंद करके पिटाई की थी... लक्ष्मी भी अब बदले के लिए सौ प्रतिशत तैयार थी। विभागाध्यक्ष किसी और भावना से उसके पीछे पड़ी थी, उसे यह मंजूर नहीं था... सो बाहर निकलते ही उसने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया - 'आप लोग समझते क्या हैं अपने आपको। सब मिलकर साजिश कर रहे हैं। मुझे पूरे दिन के लिए फँसा दिया है। आपको पता है कि मैं वार्डन हूँ। मुझे वहाँ के भी काम रहते हैं।' कहते हुए लक्ष्मी ने टाइम टेबल की पुड़िया बनाई और अर्चना रस्तोगी के मुँह पर दे मारी।

सबके सब हतप्रभ। अर्चना रस्तोगी को काटो तो खून नहीं। इतनी मजाल कि कोई उनसे ऊँची आवाज में बात कर दे... और यह छिनाल... कुत्ती... कोटे-अफसर की रखैल... समझती क्या है अपने आपको। इसे पता नहीं है कि अर्चना का काटा पाताल में भी नहीं बचता। उन्होंने फाइल... वहीं छोड़ी और तेज कदमों से अपनी गाड़ी के पास जा पहुँची। कागज की गोली उनकी छाती को छलनी कर गई थी अपमान से। उनका चश्मा बार-बार नाक से खिसक रहा था, यानी पसीने से भीगती वे कार के अंदर जा बैठी। प्रत्यक्षदर्शियों ने दाँतों तले उँगुली दबा ली।

'दो दिन नहीं टिक पाओगी। समेट लो अपने कागज-पत्तर। जानती नहीं हो कि किससे टक्कर ली है। अरे जो जलते हैं वे सामने आएँ।' जोर-जोर से बोलती लक्ष्मी ने अपना बैग कंधे पर टाँगा, रजिस्टर वहीं पटका और सीधे अपनी कार में जाकर बैठ गई। वह मोबाइल पर किसी को सारा घटनाक्रम बता रही थी - 'आप मुझे बता दो कि मैं कहाँ पर काम करूँ... प्रिंसिपल को भी समझा दो, मेरे ऊपर चिल्ला रही थी।...'

एक हफ्ते बाद विभागाध्यक्ष का ट्रांसफर हो गया। विभागाध्यक्ष इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाई और बीमार पड़ गई। सारा कालेज सन्नाटे में। भयभीत। दुखी। सत्ता का ऐसा नशा। मामूली-सी बात पर... इतनी बड़ी सजा।... तब मीनाक्षी ने आकर उन्हें बताया कि... वह असल में क्या है? लक्ष्मी को सबक सिखाने के लिए मीनाक्षी ने कमर कस ली थी। उसके इस मद को वह चूर-चूर कर देना चाहती थी... सो तैयारी शुरू कर दी गई... तैयारी नंबर - एक, लक्ष्मी की सर्विस में एस.सी. लिखा था, जबकि वह ओ.बी.सी. कोटे से आती थी। नंबर - दो, पिछले महीनों में हॉस्टल का बजट कैसे खर्च हुआ। तीन, इतनी रात तक... कई लड़कियों को अधिकारियों के बँगलों पर क्यों भेजा जाता है। लड़कियों को छुट्टियों में क्यों रोका गया था। अर्चना रस्तोगी ने अपना ट्रांसफर कैन्सिल करवा लिया और एम.ए. की लड़कियों से एक कागज पर हस्ताक्षर करवाए और... उन्हीं लड़कियों में से किसी एक ने अपनी माँगें मनवाने के नाम पर हॉस्टल की लड़कियों के हस्ताक्षर ले लिए... अब इन हस्ताक्षरों के पहले जो लिखा गया वह लक्ष्मी के जीवन में भूचाल लाने वाला था... अलग-अलग कागजों पर फोटोकॉपी लगाकर उच्च शिक्षा मंत्री, प्रमुख सचिव, आयुक्त, प्राचार्य, राज्य महिला आयोग... और न जाने कहाँ-कहाँ शिकायतें प्रेषित कर दी गईं। जब लक्ष्मी के पास... हर ऑफिस से जवाब के लिए, पेशी के लिए पत्र आया तो वह भौंचक रह गई...। उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था...। अंदरुनी बातें बाहर कैसे आ गईं। जो लड़कियाँ उसके इशारों पर नाचती थीं, वही उसके खिलाफ मोर्चा खोलकर खड़ी थीं। लक्ष्मी साहब के कंधों पर सिर रखकर फफक-फफक कर रो रही थी। साहब खामोश थे। नाराज और क्षुब्ध। लक्ष्मी के साथ उनका नाम भी बदनाम हो रहा था... आगे के प्रमोशन पर इन बातों का प्रभाव पड़ने वाला था। अब क्या होगा, वे अपने बचाव की तरकीबें सोच रहे थे... उन्हें स्वयं के साथ-साथ लक्ष्मी को भी बचाना था... वे नहीं समझ पा रहे थे कि अर्चना रस्तोगी के साथ कौन-सी ताकत काम कर रही है। और उधर... रोशनियों में डूबी कालोनी के एक मकान में... भीतर के कमरे में हँसी-ठहाके लगाए जा रहे थे। अर्चना रस्तोगी भजिया खा रही थी और मीनाक्षी और छवि शराब पी रही थीं...

'अभी तो नौकरी से भी जाएगी... देखना तो।' अर्चना रस्तोगी ने चश्मा साफ करते हुए कहा।

'छवि का जो जीवन बर्बाद हुआ था इसी कुतिया की वजह से... इसने इतनी झूठी बातें लगा दी थीं कि हमारे और इसके पिताजी ने हम लोगों को बंद कर दिया था...। इतनी कुटाई हुई थी हमारी कि आज तक उसके निशान होंगे... हमारी पीठों पर।'

'कल देखना तुम क्या होने वाला है?'

दूसरे दिन नारे लिखे बैनर हाथ में लिए लड़कियाँ सड़क पर रैली निकाल रही थीं - वार्डन मैडम हाय-हाय। वार्डन मैडम की तानाशाही नहीं चलेगी... नहीं चलेगी...। भेदभाव बंद करो, वार्डन मैडम शरम करो। मामले ने तूल पकड़ लिया था। खबरें, शिकायतें ऊपर तक पहुँच चुकी थीं। विधानसभा में प्रश्न उठवाया गया और इसका असर यह हुआ कि प्रभावशाली सत्ता को अपने हाथ में लिए चलने वाली वार्डन मैडम यानी लक्ष्मी को तत्काल वहाँ से हटा दिया गया। लक्ष्मी के लिए ये घटनाएँ... ये समय... ये दिन अंधकार में डूबे थे। अपमान और बदनामी के दिन। शर्मिंदगी और पराजय के दिन। सुनने वालों ने रस लेकर मजाक बनाते हुए फब्तियाँ कसनी शुरू कर दी थीं, जो लक्ष्मी के दिल को क्षार-क्षार किए दे रही थीं।

'देख रहे हो, मेरा नाम कैसे बदनाम किया जा रहा है..?' लक्ष्मी साहब के सामने आक्रोश और दुख से कहे जा रही थी।

'मैं क्या करूँ... मेरे हाथ में कुछ नहीं रहा।'

'कमीने, तू किस दिन काम आएगा। इतने बड़े पद पर बैठकर भी तू क्या मुझे नहीं बचा सकता? ...मेरी कितनी बदनामी हो रही है? यह सब मैंने किसके लिए किया था, तेरी खातिर न। तूने अपने लोगों को खुश करने के लिए मुझसे यह सब करवाया था। तेरे लिए मैंने अपना मान-सम्मान, घर-परिवार, सब कुछ दाँव पर लगा दिया।' लक्ष्मी के आँसू नहीं थम रहे थे। चेहरा काला पड़ गया था। देखकर लग रहा था गोया वह महीनों से बीमार पड़ी हो... उसकी देह में रक्त न बचा हो।

'सोचते हैं गाली देने से क्या होगा?' साहब ने ठण्डी आवाज में कहा।

'अभी मैं कुछ नहीं कर सकता। मामला शांत होने दो... जाँच चलने दो, बाद में देखेंगे...।' साहब ने रूखी आवाज में कहा। 'फिलहाल हमें मिलना भी नहीं चाहिए।' साहब के शब्द सुनकर लक्ष्मी के पाँवों की जमीन खिसकने लगी। साहब के बिना वह है क्या? रुई की तरह उड़ा दी जाएगी... नहीं... नहीं, साहब को नाराज नहीं करना है... लक्ष्मी ने अपनी उग्र आवाज को सामान्य किया, आँसू पोंछे और लगभग गिड़गिड़ाती हुई बोली - 'आपके अलावा मेरा है कौन? मैं बर्बाद हो जाऊँगी। मुझे माफ कर दो।'

लक्ष्मी ने मेडिकल लीव ले ली थी। बीमार होने का नाटक। अंततः जब लक्ष्मी को कुछ नहीं सूझा तो वह अपनी बचपन की सहेली, जो कि इन दिनों मंत्री थी, के पास गई।

'मुझे इन सारे आरोपों से बरी करवाओ। मेरे साथ धोखा हुआ है। जहाँ कहना पड़े कहो जो आरोप लगाए गए हैं वे सब निराधार हैं। खारिज होने चाहिए।'

'पर मैं क्या कर सकती हूँ लक्ष्मी? जाँच तो होगी ही। बात इतनी आगे बढ़ चुकी है कि...।' मंत्री ने बिना कागजों को देखे स्पष्ट शब्दों में इनकार करते हुए उसे खाली हाथ लौटा दिया।

लक्ष्मी क्षणों तक उसका चेहरा देखती रही। उसे जिस पर पूरा भरोसा था, वही पद और प्रभाव होने के बावजूद असमर्थता जता रही थी। इतने आत्मीय, व्यक्तिगत संबंध, जिनमें हजारों गोपनीय बातें शामिल थीं, उन संबंधों पर राजनीति हावी हो चुकी थी। राजसत्ता ने लक्ष्मी को उससे अलग कर दिया था। लक्ष्मी को गहरा धक्का लगा। रातों की नींद उड़ गई। अपमान और दुःख से भरी उसकी रातें आँसुओं में डूबी होतीं। वह घर से निकलती तो ऐसा प्रतीत होता मानो चारों तरफ से उपहास करती... आवाजें उसका पीछा कर रही हों...। उसे लगता जैसे वह हजारों लोगों के बीच निर्वसन करके खड़ी कर दी गई हो। रैली का वो दृश्य... वो नारे लड़कियों का यूँ बदल जाना... उसका यूँ निष्कासित किया जाना... और एक-एक व्यक्ति का साथ छोड़ते जाना...। जिसके बल पर वह सारी बाजी पलट देना चाहती थी, वही मित्र यूँ पलट गई थी गोया जानती ही न हो। जब वह सामान्य-सी कार्यकर्ता थी... तब लक्ष्मी ने उसके लिए क्या-क्या नहीं किया था...। चुनाव प्रचार से लेकर व्यक्तिगत जीवन की बातों में संबल देने वाली लक्ष्मी आज एकदम अकेली खड़ी थी। दुनिया जानती थी कि वह उनके कितने करीब है... कितनी अपनी है... कितने वर्षों का साथ है, लेकिन आज... लक्ष्मी ने पलटकर उसके चेहरे को देखा, जिस पर कोई अफसोस, कोई रंज, कोई चिंता लक्ष्मी को लेकर न थी। क्रोध से लक्ष्मी का बदन जलने लगा। तेजी से उमड़ते आँसुओं को जब्त करके वह भारी कदमों से लौट पड़ी...। उसे अपना भविष्य... अपनी नौकरी... सब कुछ डूबता हुआ नजर आ रहा था...। बचाव का कोई रास्ता न था और उसके पक्ष में खड़ा होने वाला भी कोई न था। सब उससे कतराने लगे थे। क्या एक बार बचपन फिर लौट आया था... जहाँ वह... मीनाक्षी और छवि से अलग कर दी जाती थी?

घर जाकर लक्ष्मी ने मीनाक्षी को सारी बातें बताईं।

'क्या तुम मेरी मदद करोगी?'

'मैं जिस संस्था से जुड़ी हूँ, वह राजनीति तथा विवादास्पद मामलों से दूर रहती है।'

'यह मामला जान-बूझकर विवादास्पद बनाया गया है मुझे हटाने के लिए।'

'यह सब पीछे की बातें हैं लक्ष्मी। मैं व्यक्तिगत रूप से तुम्हारे साथ हूँ पर... संस्था की तरफ से कैसे दगा करूँ?' मीनाक्षी उसे समझाने की कोशिश कर रही थी।

'ठीक है। सहसा बुरे वक्त पर कोई काम नहीं आता। जब जहाज डूबता है तो सबसे पहले चूहे भागते हैं। आज तो तुम मुझे अपनी दोस्त भी न कहो।' कहकर लक्ष्मी ने फोन पटक दिया। धम्म से कुर्सी पर बैठी वह... सामने फुदकती चिड़ियों को देख रही थी... चिड़िया... यदि इसे पकड़कर पिंजरे में बंद कर दिया जाए तो... एक दिन जिंदा न बचेगी...।

'मैंने उसका इतना साथ दिया है और आज वह मुकर रही है... कैसे! क्यों! मामला कितना भी पेचीदा क्यों न हो... उसे दबाया जा सकता है... आज ईमानदारी और नैतिकता का ढोंग करने वाली ये... क्या थी... मैं नहीं जानती हूँ क्या?...' लक्ष्मी जार-जार रोते जा रही थी, पर पराजय और पीड़ा के इस दौर में वह पराजित होकर नहीं बैठना चाहती थी। उसने प्रभारानी को पुनः फोन किया - 'आप कुछ करोगी या नहीं? ये स्थिति हमेशा नहीं रहेगी... आज मुझे आपकी जरूरत है? आज आपके सपोर्ट की जरूरत है मुझे...।'

'मैंने पूरा केस देख लिया है। सब तुम्हारे खिलाफ है और तुम्हारे ऊपर गंभीर आरोप लगाए गए हैं। आर्थिक अनियमितताएँ हैं, फर्जी प्रमाण-पत्र बनाने का आरोप है... तुम छात्राओं को जबरदस्ती लोगों के पास... यदि इस केस के बचाव में मैं उतरती हूँ तो मेरी छवि नहीं बिगड़ जाएगी... मैं क्या जवाब दूँगी!'

क्षणों तक वह उसकी उत्तेजित आवाज सुनती रही... 'आरोप' शब्द पर वह जिस तरह जोर दे रही थी उससे... उसे आभास हुआ कि वह उसी को दोषी मान रही है...।

'ये झूठे भी तो हो सकते हैं।'

'प्रमाण हैं, दस्तावेज लगाए गए हैं, लच्छो... तुम्हें यह सब करने की क्या जरूरत थी? मैं कुछ नहीं कर पाऊँगी।'

'ठीक है... जहाँ तक आरोपों की बात है तो आप जहाँ बैठी हैं और आपका जो इतिहास रहा है, वह काले धंधों का इतिहास है... जब मैं डूब रही हूँ तो मैं आपको भी नहीं छोड़ूँगी।' लक्ष्मी ने बेलिहाज होकर कहा।

'मेरा क्या बिगाड़ लोगी और अभी तो जाँच चलेगी। समझने की कोशिश करो लच्छो!'

'मुझे नसीहत मत दो... अब आप तमाशा देखो। मैं आपकी भी वो दुर्गत करूँगी कि आप पूरे देश में मुँह दिखाने लायक नहीं रहोगी। अपना बुरा वक्त भूल गईं?'

'धमकी दे रही हो?' उधर से चीखती हुई आवाज आई।

'धमकी नहीं करके बताऊँगी।' यह भी उतने ही आक्रोश और आवेश में बोल रही थी।

'जो दिखाए सो कर लो।'

'याद करो... तुम्हारे प्रेमपत्र हैं मेरे साथ।' लक्ष्मी ने सधी हुई आवाज में धमकाते हुए कहा...

दूसरी तरफ सन्नाटा छा गया। कुछ याद करती जा रही प्रज्ञारानी सन्न रह गईं। यह तो उन्होंने सपने में भी सोचा ही नहीं सोचा था कि जवानी के दिनों में लिखे गए वे प्रेमपत्र... प्रेम व्यापार बन जाएँगे... उन प्रेमपत्रों को उन्होंने लक्ष्मी के पास सुरक्षित रख दिया था... उन्हीं पत्रों का इस्तेमाल आज लक्ष्मी उनके खिलाफ उनकी राजनीतिक छवि धूमिल करने के लिए करने की धमकी दे रही थी। उन्होंने एक शब्द कहे बिना फोन रख दिया। सारे काम छोड़कर... गहरी चिंता में डूब गई। बार-बार लक्ष्मी की फाइल देखती... फाइल क्या थी पूरी पोथन्ना थी 'आरोपों की, शिकायतों की'। लक्ष्मी का पक्ष लेती है तो बवाल खड़ा हो जाएगा। विपक्षी पार्टी की महिलाएँ, एन.जी.ओ. और तमाम संस्थाएँ उनके खिलाफ धरना प्रदर्शन करने में लग जाएँगी। मामला एक वर्ग विशेष से जुड़ा था, जिसे सरकार का संरक्षण मिलता था, भले ही उनको आर्थिक लाभ न पहुँचे, उनका शोषण न रुके, लेकिन सामने कागजों पर विकास की धारा में नहीं, सबसे ऊपर होते थे... उन्होंने कई प्रभावशाली लोगों को फोन किया। सारी बातें बताईं। उनका ब्लडप्रेशर बढ़ गया था...। लगा एंजाइना का दर्द न बढ़ जाए। नींद की गोलियाँ लेनी पड़ीं। 'व्यक्तिगत कारणों से कहीं न जा सकेंगी' कहकर सारे कार्यक्रम रद्द करवा दिए!

भाई ने फोन मिलाया। विनम्र आवाज में लगभग मनाते हुए बोला - 'आप क्यों नाराज हो गई हैं? दीदी का स्वभाव तो जानती हैं। गलत बातों पर वे हमारा तक साथ नहीं देतीं। हमें बताया होता। मैं पीछे से कुछ करता हूँ। शाम को आ जाइए सारे कागज लेकर। समझ रही हैं न!

लक्ष्मी हँसी। मन ही मन बोली... अब आई लाइन पर। भलमनसाहत का तो जमाना ही नहीं रहा। जब गिड़गिड़ा रही थी, रो रही थी तो सुन नहीं रही थी। अपनी इमेज बिगड़ने का भय दिखा रही थी। अब दाग नहीं लगेगा।

लक्ष्मी निर्धारित समय पर जा पहुँची। बँगले पर उसको कोई रोकता-टोकता नहीं था, क्योंकि उसका यहाँ आना-जाना रहता था। भाई इंतजार कर रहा था। चाय-पानी के बाद मेज पर बात आ गई। भाई ने बहन का नाम लेकर दो-चार जगह फोन लगाया, मामला समझाया। क्लीन चिट दिलवाने का वायदा लिया।

'चिट्ठियाँ कहाँ हैं?' भाई ने लक्ष्मी के हाथों की तरफ देखते हुए कहा।

'वो तो लॉकर में रखी हैं।'

'तुमको चिट्ठियाँ वापस करनी होंगी।'

'क्या आपको लगता है कि मैं इतनी छिछोरी और नीच हूँ कि प्रेस में दे दूँगी।'

'आप तो प्रेस वालों को देने जा रही थीं और अब कह रही हैं कि लॉकर में रखे हैं।'

'तब मैं घबड़ा गई थी। मेरे साथ जो साजिश की गई है और जो सुलूक मेरे साथ किया गया, वह मैं कैसे बर्दाश्त करती...। और आपकी दीदी ने मुझे दो टूक जवाब दे दिया था। अपनी इमेज बचाने के लिए आदमी सब कुछ करता है... मुझे भी धमकी देनी पड़ी।'

'धमकी! धमकी की बात छोड़ो... पत्र चाहिए।'

'पत्र नहीं मिलेंगे।'

'पत्र तो देने होंगे।'

'नहीं दिए तो क्या बिगाड़ लोगे? मेरा काम होने के बाद ही पत्र मिलेंगे।'

'ब्लैकमेल कर रही है कमीनी।'

'जो समझो। एक हाथ से लो दूसरे हाथ से दो।' लक्ष्मी सौदेबाजी पर उतर आई।

'अच्छा... बड़ी होशियार बनती है...।' भाई ने दरवाजा बंद कर दिया और बोला - 'हरामजादी! छिनाल! किसके दम पर यह बकवास कर रही है। तेरे खसम ने भी तेरा साथ छोड़ दिया है। धतकर्म करते वक्त भूल गई थी कि सरकारी नौकरी में तेरे बाप का राज नहीं चलता है।'

'गालियाँ मत देना वरना...।' लक्ष्मी जोर से चीखी।

'वरना क्या करेगी?'

'पुलिस में जाऊँगी।'

'पुलिस में जाएगी... तू मेरे खिलाफ? मीडिया में जाएगी दीदी के खिलाफ? तेरे हाथ-पैर तोड़कर रख दूँगा... और तू भूल गई कि फर्जी सर्टीफिकेट बनवाकर तूने, तेरी औलादों ने सबकी आँखों में धूल झोंकी है। सबकी नौकरी खा लूँगा।' वह यानी प्रभारानी का भाई उसके सामने खड़ा धमका रहा था।

'तुम सब भी सड़क पर भीख माँगोगे और तुम्हारी दीदी को तो आत्महत्या करनी पड़ेगी या शरम के मारे जंगलों में छुपना पड़ेगा।' लक्ष्मी का पारा भी सातवें आसमान पर था। उसे लग रहा था दो कौड़ी का अनपढ़ आदमी अपनी बहिन के बल पर गालियाँ दे रहा है।

वह इससे आगे कुछ बोलती या समझती, उसने लक्ष्मी के बाल पकड़े, जिन्हें वह करीने से बनाकर और महँगे कलर से रंग कर आई थी, जमीन पर पटका और लातों-घूँसों से जमकर इतनी पिटाई कर दी कि लक्ष्मी अर्धमूर्च्छित सी हो गई। गाँव का गँवार और डाकू कहा जाने वाला दीदी का भाई जब अपनी औकात पर आता है तो अच्छे-अच्छों की रूह काँपने लगती है -

'सुन हरामजादी! ज्यादा तीन-पाँच की तो पूरे खानदान को उठवा दूँगा। जा यहाँ से और रख ले पत्र अपनी... में! अगर परसों तक पत्र नहीं मिले तो सोच लेना तेरी वो दुर्गत करूँगा कि सारी मास्टरनीगिरी भूल जाएगी।'

लक्ष्मी स्तब्ध! पोर-पोर में जैसे गाँठें पड़ गई हों। क्षणों तक वह अपनी जगह से हिल नहीं पाई। चश्मा टूटकर नीचे गिर गया था। बैग सोफे पर पड़ा था। बाल बिखरकर आँखों पर आ गए थे। स्टॉफ के लोग खिड़की दरवाजों से झाँक रहे थे। उसने बैग उठाया। साड़ी सँभाली। बालों को पीछे किया... मार से उठे चोटों के निशान... साफ दीख रहे थे...। ड्राइवर समझ गया मामला गड़बड़ और गंभीर है। वह चोर नजरों से उसकी चोटों को देख रहा था। लक्ष्मी अपने आँसुओं को बार-बार पोंछ रही थी। उसने साड़ी के पल्लू से चेहरा ढाँपा... आँखों पर गॉगल लगाया -

'हास्पिटल चलो।'

हास्पिटल में जाँच करवाकर लक्ष्मी एडमिट हो गई। परिवार के लोग, उसके साहब, छवि... मीनाक्षी... सब उसके पास आ गए। दूसरे दिन आग की तरह यह खबर फैल गई कि लक्ष्मी को हार्ट अटैक हो गया है। लक्ष्मी का ड्राइवर कम बदमाश न था... दूसरी मैडमों के घर में नौकरी कर चुका था। सबसे कह देता कि मेरा नाम मत लेना और शपथ खिलाकर सारी आँखोदेखी बयान कर देता। अंततः यह खबर भी बाहर तक पहुँच गई। दुश्मनों के कानों तक!

लक्ष्मी अभी तक सदमे में थी। चुप। मीनाक्षी और छवि को सामने पाकर वह फफककर रो पड़ी... सारी कहानी सुना डाली... 'बुरे वक्त में कोई साथ नहीं देता' कहावत को लक्ष्मी ने कई बार दोहराया। छवि का अपना मामला चल रहा था और मीनाक्षी साथ होकर भी सार्वजनिक रूप से अपने संबंधों को जाहिर नहीं करना चाहती थी।

लक्ष्मी को अभी ठीक हुए दो हफ्ते भी नहीं हुए थे कि... उसे कालेज जाना पड़ा। फर्जी सर्टिफिकेट की जाँच प्राचार्य को सौंप दी गई थी। प्राचार्य के पास वो फाइल थी जिसमें लड़कियों को झूठे सर्टिफिकेट देने का मामला शामिल था। विभागाध्यक्ष के खिलाफ कथित अपमानजनक व्यवहार की शिकायत भी थी। यानी लक्ष्मी चारों तरफ से घिर चुकी थी।

लक्ष्मी प्राचार्य पर दबाव डाल रही थी कि वे उसके खिलाफ कुछ न लिखें। पहले तो वह स्वयं कई बार गई उनके केबिन में, घर पर... फिर साहब से बात करवाई। प्राचार्य ने जाँच के लिए गोपनीय समिति बना दी थी...। जब लक्ष्मी को यहाँ दाल गलती नजर नहीं आई तो वह उनसे भी लड़ बैठी... वह शाम का समय था... उनकी गाड़ी सामने लगी थी। स्टॉफ के दो-चार सदस्य, चपरासी और ऑफिस के लोग जाने की तैयारी कर रहे थे। उसी समय लक्ष्मी जोर-जोर से चिल्लाती हुई प्राचार्य के चेंबर से निकल रही थी...। सारे लोग भौंचक्के से... उसका तमतमाया चेहरा देख रहे थे। स्टॉफ के लोग दौड़कर प्राचार्य के पास गए। वे तनाव में थी। गुस्से में भी।

'बार-बार फोन करवा रही है...। कितने लोगों के फोन। बता दिया कि कमेटी अपनी रिपोर्ट देगी... सुनती ही नहीं। इतना बोलती है... कि...' उन्होंने गिलास भर पानी पिया और गाड़ी में बैठ गईं। पसीने की बूँदें माथे पर उतर आई थीं।

'मैडम, हम लोग साथ में चलें।'

'नहीं... अभी जाकर पुलिस चौकी में कंपलेंट लिखवा देते हैं... धमकी की...।' प्राचार्य बुरी तरह से पस्त दिखाई दे रही थी।

कमेटी की रिपोर्ट आ चुकी थी। पूरे स्टॉफ की मीटिंग बुलाई गई। पहले से किसी को कुछ पता नहीं था। प्राचार्य ने मीटिंग का एजेंडा बताया, फिर लक्ष्मी पर जो आरोप लगाए गए, वो पढ़े...। कमेटी के सदस्यों के नाम बताए... और जाँच की प्रक्रिया भी... उन लड़कियों के बयान लिए गए थे, जिनके प्रमाण-पत्र बनाए थे। उन प्रमाण-पत्रों को लेकर एन.सी.सी. ऑफीसर ने गंभीर आपत्ति उठाई थी और प्राचार्य को शिकायत कर दी थी।

स्टॉफ क्लब के सदस्य खामोश बैठे थे...। उन लोगों को अपने विचार व्यक्त करने के लिए कहा गया...। लक्ष्मी सामने की कुर्सी पर चुप बैठी थी। सारा कालेज एक तरफ और वह दूसरी तरफ। अकेली। लांछित। सार्वजनिक रूप से... बेइज्जत होती हुई। शाम का वक्त था... सूरज ढल रहा था। बाहर खड़े चपरासी परस्पर हँसी-ठिठोली कर रहे थे...। एकमात्र स्टॉफ सदस्य मिसेज गुलाटी ने हस्तक्षेप करते हुए कहा - 'मैडम, लक्ष्मी को अपना पक्ष रखने का मौका मिलना चाहिए।' पर पक्ष रखने का मौका नहीं दिया गया... लक्ष्मी को जो भी कहना है... अपने लिखित उत्तर में कहे। सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया। लक्ष्मी को लगा... चारों तरफ बाढ़ का पानी है... जिसमें वह डूबती जा रही है।

जब स्टॉफ के सदस्य मीटिंग हॉल से बाहर निकले तो हल्का-हल्का अँधेरा घिर आया था। पक्षियों का कलरव पूरे वातावरण को गुंजायमान किए हुए था। सब एक दूसरे से, खासकर लक्ष्मी से नजरें बचाते-चुराते हुए निकल रहे थे... यह एक और कांड था, जिसकी कड़ियाँ लक्ष्मी के हॉस्टल वाले प्रकरण से जुड़ी थीं...। एक और केस लक्ष्मी के खिलाफ लग गया था।

वह भी पूरी ताकत, पूरे दिमाग और पूरी ऊर्जा के साथ लगी थी। लेकिन यह वक्त उसमें खिलाफ चल रहा था। तूफान में उल्टी दिशाओं में चलती हवाओं का वेग हर चीज को उखाड़ता जाता है, वैसे ही सारे लोग सारी राजनीतिक और व्यक्तिगत संबंधों की अंतरंगता पतझड़ बन गई थी। चूहा-बिल्ली का खेल चल रहा था। प्राचार्य, विभागाध्यक्ष तथा जाँच कमेटी के सदस्यों के खिलाफ बेनाम शिकायतें डाली जा रही थीं। ऐसा कोई विभाग नहीं था, जहाँ लक्ष्मी ने शिकायत न की हो। स्वयं को समाज की अलग, उपेक्षित, अपमानित, प्रताड़ित स्त्री बताकर... स्वयं के प्रति हुई प्रताड़ना, अन्याय और पक्षपात की शिकायतें कर दी थीं। मीनाक्षी उसके लिए पीछे से काम कर रही थी और छवि ने उसको भावनात्मक सहारा दिया था... उनमें स्त्री सुलभ जलन की भावना खत्म हो चुकी थी। अब वे जातिवाद से बाहर निकलकर क्षेत्रवाद की राजनीति कर रही थी। वह चुपचाप विपक्षी पार्टी के नेताओं से मिल रही थी... प्रज्ञारानी के खिलाफ भ्रष्टाचार... चरित्रहीनता के सबूत देने के नाम से कर रही थी...। सरकार उसके खिलाफ दमन की राजनीति कर रही है... यह कहकर उसने अपने लिए बॉडीगार्ड रख लिया था। बॉडीगार्ड के साथ चलती लक्ष्मी अपने आपको... भावी विधायक मानती थी...। उसके चेहरे के भाव-भंगिमाएँ मरखुंडी गाय की तरह होती... जो सामने वालों को सींग मारती और पीछे वालों को लात!

और मीनाक्षी के जितने भी, जैसे भी संबंध थे, सबका सहयोग लेकर लक्ष्मी ने जीवन की नई शुरुआत कर दी थी। वह उस अपमान को जो स्टॉफ क्लब के सामने किया गया था... उस अपमान को जो सड़क पर रैली के द्वारा किया जा रहा था... उस अपमान को जो प्रज्ञारानी के भाई ने लात-घूँसों से किया था... उस अपमान को जो उसे वार्डन के पद से हटाकर किया गया था... भूली नहीं थी। खाना खाते... सोते... जागते... अँधेरे में... उजली रातों में यही दृश्य उसकी आँखों के सामने आकर खड़े हो जाते। वह ऊपर से नीचे तक काँप जाती... उसके दाँत किटकिटाने लगते, जबड़े भिंज जाते... लगता दिमाग की नसें फट जाएँगी... वह एक-एक पल को जिंदा रखकर उसकी पीड़ा को विस्मृत नहीं करना चाहती थी। इस वक्त उसके साहब एक ऐसे पद पर पहुँच गए थे, जहाँ से वह लक्ष्मी को अपमान का बदला लेने के लिए मदद कर सकते थे। लक्ष्मी को उनसे शिकायत थी कि मुसीबत के वक्त उन्होंने उसका उस तरह साथ नहीं दिया था... जैसे देना चाहिए था। सबसे पहले उसने प्राचार्य का तबादला करवा दिया। विभागाध्यक्ष कोई कच्ची खिलाड़ी नहीं थी... उनके भी बड़े-बड़े सोर्स थे, इसलिए जब उनका तबादला हुआ तो चारों तरफ सन्नाटा खिंच गया। शक्ति प्रदर्शन में इस बार लक्ष्मी भारी पड़ी थी। यह खबर आग की तरह फैल गई। लक्ष्मी की ताकत और प्रभाव का सबको लोहा मानना पड़ा। लोगों ने उसके जाने की खुशी में लड्डू बाँटे। प्राचार्य को कोई गेट तक छोड़ने नहीं गया। हर कोई लक्ष्मी के डर से डरा हुआ था। अब लक्ष्मी ने कई महीनों बाद कैंटीन में, बरामदे में, स्टॉफ रूम में बैठना शुरू कर दिया। हाथ में किताब लिए, आँखों पर चश्मा चढ़ाए वह पढ़ने की मुद्रा में बैठ जाती। नीची निगाहों से आते-जाते लोगों को देखती। कौन उसको किस तरह देख रहा है और कौन होकर बात कर रहा है... यह सब... गौर से देखती। मीनाक्षी, छवि और लक्ष्मी की तिकड़ी इस बार सचमुच एक साथ थी... और इस अंदाज में साथ थी कि... हम तो एक गाँव के... एक मिट्टी के... एक पानी के साथी हैं... यानी सत्ता के पक्ष में, प्रवाह में तीनों एक साथ तैर रही थीं सारे गिले-शिकवे, मन-मुटाव भुलाकर।