तितलियां : फुल एंड फाइनल पेमेंट / जयप्रकाश चौकसे

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तितलियां : फुल एंड फाइनल पेमेंट
प्रकाशन तिथि : 10 अप्रैल 2014

इस भयावह शोर-शराबे और टेलीविजन परदे को फाड़कर आपके घर में घुस आने वाले वाचाल नेताओं के दौर में मंगलवार रात इंदौर के प्रीतमलाल दुआ सभागृह में स्विट्जरलैंड के एन्ड्रायाज थिएटर गु्रप का माइम शो देखा, यह संवादहीन प्रस्तुति एक विरल अनुभव है और नाटक की थीम भी एक व्यक्ति द्वारा बंजर जमीन पर हरे-भरे वृक्ष लगाने के पचास वर्ष की संघर्ष गाथा पचपन मिनट में प्रस्तुत की गई और शो के अंत में एक दर्शन ने पूछा कि विगत वर्षों में दुनिया के अनेक देशों में पर्यावरण की रक्षा की का संदेश देने वाले प्रयासों का क्या प्रभाव पड़ा, इस परिश्रम से आपको क्या मिलता है? प्रस्तुति के एक पात्र का अनुभव पात्र का अभिनय करने वाले मारकस ने कहा कि कहीं भी कोई व्यक्ति प्रस्तुति की प्रेरणा से दरख्त लगाता है या बगीचा बनाता है और वहां फूलों पर तितलियां मंडराती हैं तो ये तितलियां ही मेरा मुआवजा हैं- फुल एंड फाइनल पेमेंट। इस स्विट्जरलैंड वासी के मन का वृंदावन सदैव मुस्कराएगा। पूरी प्रस्तुति में मारकस, उनके दो पुत्र एवं पत्नी ही सारा कार्य करते हैं। दो गिटारवादक भी हैं। मारकस से खाकसार का प्रश्न था कि इस पचपन मिनट की प्रस्तुति के पहले और बाद में वजन लेने का प्रयास करें तो पता चले कि इतनी तीव्र गति से सारे माइम के कारण कितना वजन घटता है। उनका उत्तर था कि प्रस्तुति के बाद वे चार लीटर द्रव्य पीते हें, जिसमें पानी और फलों का जूस ही है, अर्थात चार किलो वजन घटता है। उनके अभिनय में एक शास्त्रीय नृत्य करने वाले की चपलता है, शरीर के रोम-रोम पर उनका नियंत्रण है और पूरे पचपन मिनट तक उनका शरीर थर्राती प्रत्यंचा पर चढ़े तीर की तरह है और लक्ष्य है दर्शक का हृदय। इतने लंबे समय तक एकाग्रता साधना अध्यात्म के दायरे में आती है।

सारे विश्व में पर्यावरण को लेकर चिंता है और कई देशों में इसकी रक्षा के महत्वपूर्ण कार्य हो रहे हैं परंतु भारत की सरकार उदासीन रही हैं और जनता हद दर्जे तक लापरवाह और गैरजवाबदार है। किसी भी राजनीतिक दल को इसकी फिक्र नहीं है। प्रचार माध्यमों के कारण सारे देश में 'विकास' को खुल जा सिम सिम की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। आज ही इंदौर के वंदनानगर क्षेत्र में मकान के सामने चार फीट की पट्टी और पौधे लगाने के लिए दी गई थी और वहां लगी हरियाली को उजाड़कर सड़क को चौड़ा किया जा रहा है। पूरे देश में ही सीमेंट की चौड़ी सड़कें बनाई गईं परंतु उनके बीच मिट्टी की पट्टी नहीं है और बरसात के पानी का नाश हो रहा है। सभी शहरों को सीमेंट का जंगल बनाया जा रहा है और जंगलों को काटने के कारण ही तेंदुओं के शहर में आने की खबरें प्रकाशित होती रहती हैं। अधिकांश स्वयंभू नेता सिंगापुर को मॉडल मान रहे हैं, शंघाई को भी मॉडल मान रहे हैं। किसी भी देश का सच्चा विकास उस देश की मिट्टी, जलवायु, पहाड़ और नदियों को संवारते हुए एक स्वदेशी मॉडल से ही हो सकता है। इस प्रस्तुति में इसी तरह के विकास और परिणामस्वरूम हुए युद्ध के प्रभावों को भी प्रस्तुत किया गया है।

विगत माह कैनेडा के दल द्वारा दिल्ली वाले बलात्कार पर मार्मिक नाटक देखने को मिला। मन में प्रश्न उठता है कि विदेश के रंगकर्मी मनुष्य की चिंता के कारण सारे देशों में जाकर प्रस्तुति देते हैं। भारत में रंगकर्मियों की कमी नहीं, परंतु हमारा कोई दल विदेश में अंतरराष्ट्रीय स्तर का नाटक नहीं खेलता। शिशिर भादुड़ी का 'सीता' विगत सदी के दूसरे-तीसरे दशक में अमेरिका में सफलता से मंचित किया गया था। निरंजान पॉल, हिमांशु रॉय और देविका रानी ने उसी दशक में लंदन में नाटक प्रस्तुत किए थे। वह महात्मा गांधी द्वारा प्रेरित सांस्कृतिक पुनर्जागरण का कालखंड था। हमने विगत अनेक दशकों में देश को फिल्ममय कर लिया, राजनीति पर चटखारे लेकर नुक्कड़ बहस करते हैं, टेलीविजन पेड प्रचार या सांस्कृतिक प्रदूषण फैलाने वाले 'सोप' दिखा रहा है। पूरे देश में फूहड़ता का जश्न मनाया जा रहा है। कलाओं का लोप हो रहा है, अनेक पुराने वाद्ययंत्र अब दिखाई भी नहीं देते।

आज युवा जोश की बात होती है। भारत में सबसे अधिक संख्या में युवा होने की बातें सुन रहे हैं और इसी युवा वर्ग की सारी ऊर्जा को बाजार ने नौकरियों के मायाजाल में उलझा दिया है। उनके सपने अब ऐसे हैं कि बाइस में नौकरी, चौबीस में कार, पच्चीस में विवाह। शारीरिकता से परे कहीं कुछ नहीं है। इनके सपनों की तरह इनके राजनीतिक रुझान भी खोखले हैं। बहरहाल तवलीन फाउंडेशन एवं हेलन ओ ग्रेउी इंटरनेशनल को धन्यवाद, जिनके सौजन्य से ह प्रस्तुति संभव हो पाई। भारत के कुछ स्थानों पर कुछ संस्थाएं हैं जो उन तितलियों की तरह है जिन्हें मारकस ने अपनी सम्पदा और एकमात्र सम्बल बताया है।