तितलियों का शोर / हरिओम

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरा नाम रघुवंश है और मेरी पत्नी का मीना.मैं एक सरकारी मुलाज़िम हूँ जबकि मीना एक कालेज में पढ़ाती है.हम सरकारी कालोनी के एक छोटे फ्लैट में रहते हैं. हमारी दो बेटियाँ हैं-एक आठ साल की और दूसरी पाँच. इस घर में हम चारों के अलावा कुछ तस्वीरें, टेलीविज़न, कम्प्यूटर और ढेर सारे खिलौनें हैं जिनसे हम अपना खालीपन और खुशी बाँटते हैं. बेटियाँ आना-माना, स्टोन पेपर सिज़र्स, चाइनीज़ व्हिस्पर्स, लूडो और स्पेलर्स में भी हमें शामिल कर ही लेती हैं. जैसे हम उन्हें कभी-कभार सोने से पहले मच्छरमार मुहिम में शामिल करते हैं. बेटियों को हमने माडर्न समय के अनुसार सुन्दर नाम दिए थे. बड़ी बेटी जब समझने लायक़ हुई तो उसे पता चला कि उसके नाम का सही उच्चारण कोई आसानी से नहीं कर पाता. अगर कर भी ले तो नाम का मतलब ज़रूर पूछता था. वह इस आसान समय में अपने हर लिहाज़ से मुश्किल नाम को लेकर वह कई बार हमसे मुँह फुला चुकी थी. अपने इसी अनुभव के चलते हमने छोटी बेटी को आसान नाम दिया. जब वह समझने लायक़ हुई तो उसे लगा कि उसका नाम आसान तो है लेकिन दूसरे बच्चों जितना अच्छा नहीं. फिर एक दिन अचानक उन्होने एक साथ अपना नाम बदलने की घोषणा की. बड़ी का नाम क्रीमा और छोटी का अलिंदा हो गया. तो दरअसल यह क्रीमा और अलिंदा की कहानी है.

क्रीमा और अलिंदा का मन जब अपने खिलौनों से ऊब जाता तो वे कम्प्यूटर और टी.वी. की तरफ़ मुड़ती. जब वहाँ हमारी तरफ से आँखें खराब होने का लेक्चर मिलता तो अपने कमरे में घुसकर दरवाज़ा बंद कर लेतीं और फिर छीन-झपट, फैशन शो, पिट्ठू परेड और मेकअप एक्सरसाइज़ेज़ के बीच उनकी चीखों और किलकारियों का तेज़ शोर हमारे कानों के परदे कंपाता. हम उन्हें वहाँ भी टोकते और चुपचाप बैठने, पढ़ने या सोने की नसीहत देते. बीच-बीच में नंगे पाँव होने, ब्रश देर से करने, हाथ-मुँह साफ न करने, जूते और स्कूल बैग सही जगह न रखने या छुपकर टाफी-चाकलेट खाने पर भी उन्हें हमारी डांट खानी ही पड़ती थी. फिर कभी वे आपस में कुछ सलाह-मशविरा करतीं और अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर बिल्कुल खामोश हो जातीं. हम खुश होकर अपनी समझदारी भरी बातें करते और इस दुर्लभ चुप्पी का आनंद उठाते. जब बगल के कमरे की शांति कुछ ज़्यादा ही गहरी हो उठती तो दरवाज़ा खोलकर देखते. दोनों कागज़ पर रंग भर रही होतीं. इतनी देर में ही पन्नों पर गुलाब, सूरजमुखी, आम, केले, हाथी, पर्वत या पतंगें साकार हो आतीं. उनके चेहरों के साथ-साथ कपड़ों पर भी रंगोली खिली होती. फिर हमें ये बताना होता कि दोनों में से किसका चित्र बेहतर है और ये काम हमेशा बेहद मुशकिल होता क्योंकि फैसला क्रीमा के हक़ में होने पर अलिंदा की ठिनठिन शुरु हो जाती.

क्रीमा और अलिंदा एक मिशनरी स्कूल में पढ़ने जाती थीं जहाँ बच्चों को एक साथ क्लास में खड़ा करके शपथ दिलवाई जाती थी-- ‘आई स्वेयर टु स्पीक इंग्लिश ओनली इन द कैम्पस एन्ड बैक होम एज़ वेल.’ जब क्रीमा घर आकर यह शपथ दुहराती तो अलिंदा खिलखिलाकर हँसती, कहती -- ‘दीदी! मेरी टीचर भी गिटपिट करती है. और मुझे उसकी कोई बात समझ में नहीं आती.’ फिर वह देर तक टीचर की नकल करती और आखिर में बड़े अंदाज़ में बोलती -- ‘हुँह..कद्दू..’

एक दिन उन दोनों ने हमारे सामने आकर अपना फैसला सुनाया कि कालोनी में चूँकि उनकी उम्र के बच्चे नहीं रहते इसलिए उन्हें यहाँ नहीं रहना है. हमें ये पता ही नहीं चला कि कब उन्होंने एक-एक घर का सर्वे कर डाला. बहुत ज़िद करने के बाद हमें हमेशा की तरह आखिरकार उन्हें डाँटकर चुप कराना पड़ा. गोलगप्पे-सा मुँह बनाकर वे चुप हो गईं.

एक दिन स्कूल की छुट्टी थी. मैं किसी काम से बाहर निकल गया था. मीना भी किसी काम में लग गई थीं. क्रीमा और अलिंदा कालोनी में घूमने की बात कहकर घर से निकल गईं. काफी देर तक वापस न आने पर मीना ने परेशान होकर मुझे फोन किया. वापस आकर हमने पूरी कालोनी छान मारी लेकिन उनका कहीं पता न चला. हम घर-घर उनकी तलाश कर ही रहे थे कि दूर से कुछ बच्चों का एक झुंड हमारी तरफ आता हुआ दिखा. उनमें से कुछ के हाथों में हरे पत्तों वाली टहनियाँ थीं और एक बच्चा बकरी के बच्चे को रस्सी में बाँधे हुए साथ-साथ ला रहा है. कुछ दूसरे बच्चे तालियाँ बजाते साथ आ रहे थे. सबके सब धूल से सने हुए थे. पास आने पर दिखाई दिया कि क्रीमा और अलिंदा बकरी के बच्चे को बड़े प्यार से पत्तियाँ खिलाती आ रही हैं. वे रह-रहकर उसे गले लगा रही थीं. उनके चेहरे की चमक देख हमारा गुस्सा जाता रहा. फिर देर रात तक हमें अलिंदा और क्रीमा से बकरी और उन बच्चों के किस्से सुनने पड़े.

उस रात वे चैन से सोईं. लेकिन अगली सुबह उन्होंने स्कूल जाने से इंकार कर दिया. अलिंदा का साफ कहना था कि -- ‘स्कूल का बैग बहुत भारी है.. और टीचर जो बोलती हैं कुछ समझ नहीं आता.. और रोज़-रोज़ एक ही ड्रेस पहनकर जाना पड़ता है....स्कूल में झूले लगे हैं लेकिन थोड़ी देर ही खेलने को मिलता है..साथ वाली लड़की मेरा टिफिन खा जाती है...’ उसके पास बहाने बहुत थे. क्रीमा भी हाँ-हाँ किए जा रही थी. शायद रात में उन्होंने यह तय कर लिया था. फिर क्रीमा ने कहा-- ‘हम स्कूल जाएँगे लेकिन इस गिटपिट स्कूल नहीं. उन बच्चों वाले स्कूल जाएँगे जहाँ खूब छुट्टी होती है. खेलने को मिलता है और बैग भी हलका है.’ और ‘जब जो कपड़े चाहो पहनकर जा सकते हो’ अलिंदा ने जोड़ा. हमारे बहुत समझाने पर भी जब वे अपनी ज़िद पर अड़ी रही तो मुझे गुस्सा आने लगा. मीना ने दोनों का स्कूल बैग तैयार कर रखा था लेकिन वे अटल इरादों के साथ मुन्न मारे खड़ी थीं. मैंने सोचा इन्हें टाफी वगैरह देकर स्कूल जाने के लिए मनाया जा सकता है. मेरे मुँह से निकला -- ‘तुम दोनों जो चाहो तुम्हें मिलेगा लेकिन स्कूल जाना पड़ेगा.’ दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में देखा और एक साथ ही बोली -- ‘पहले प्रोमिस करो. पक्का दोगे.’ मैंने हाँ कहा तो एक साथ बोल उठीं -- ’हमारे लिए बकरी का बच्चा लेकर आइए. मैं और मीना एक-दूसरे का चेहरा देखते रहे. हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब प्रोमिस कैसे पूरा करें. फिलहाल शाम तक की मोहलत लेकर हमने मामला सुलझाया.

हमने दिनभर बहुत सोचा फिर मार्केट से बड़ा चार्ट पेपर और ढेर सारे कलर्स खरीदे. हमने मिलकर चार्ट पेपर पर एक सुन्दर बकरी का बच्चा बनाया और उनके कमरे की दीवार पर ले जाकर टाँग दिया. स्कूल से वापस लौटते ही फ़रमाइश हो गई. मैंने मुस्कुराते हुए कहा -- ‘जाकर देखो बकरी का बेबी तुम्हारे कमरे में इंतज़ार कर रहा है. यह सुनते ही उनके होंठो से मुस्कान और आँखों से रोशनी छलकी और वे सरपट अपने कमरे की ओर भागीं. इधर-उधर देखने के बाद उनकी नज़र दीवार पर गई....थोड़ी देर में ही वे- ‘पापा चीट! मम्मी चीट!’ कहते हुए हमारे पीछे-पीछे भाग रही थीं और हम हँसते हुए उनसे बचने की कोशिश कर रहे थे.

एक रोज़ मैंने बाहर लान में एक सुन्दर तितली देखी. मैंने उसे अपनी हथेलियों पर सहेज लिया और ले जाकर अलिंदा को दिया. उसकी खुशी का ठिकाना न रहा.मैं थोड़ी देर बाद ही आफिस निकल गया. वापस आया तो घर में हैरान कर देने वाली शांति छाई हुई थी. दोनों अपने कमरे में मुँह लटकाए हुए बैठी थीं. वजह पूछ्ने पर मीना ने बताया कि दिनभर घर में तितली के साथ घमाचौकड़ी मची रही. दोनों तितली को अपने पास रखना चाहती थीं फिर अलिंदा ने तितली को अपनी किताब में छुपा दिया.थोड़ी ही देर में तितली मर चुकी थी. मैं कुछ बोलता इससे पहले ही अलिंदा मेरे पास आकर मेरा हाथ पकड़कर बोली -- ‘सारी पापा! मैं लान से दूसरी तितली पकड़कर आपको दूँगी.’ मैं उसकी मसूमियत पर कुछ न बोल सका.बात आई-गई हो गई.

थोड़े दिन बाद एक रोज़ हमें कुछ खरीददारी करने बाज़ार जाना था और वहीं से किसी मित्र के यहाँ भी हाज़िरी लगानी थी. क्रीमा और अलिंदा की स्कूल की छुट्टी थी. हमने उन्हें प्यार से समझा दिया था कि उन्हें घर के अंदर ही रहना है. चाहे पढ़ें, खेले या कार्टून देखें. दोनों ने शराफ़त से सिर हिलाया. उस रोज़ हमें काफी देर बाहर रहना पड़ा. हम शाम को ही घर वापस आ सके. कमरे में प्रवेश करते ही दोनों की खनखनाती हँसी हमारे कानों में गूँज गई. वे अपने बिस्तर पर चादर के भीतर छिपी खिलखिला रही थीं. हम इसे उनकी आपसी मस्ती मान रहे थे कि अचानक मीना की निगाह दीवारों पर गई. उसने मुस्कुराते हुए मेरी ओर कुछ यूँ देखा कि बरबस मेरी नज़र भी ऊपर उठ गई. मेरे कमरे की सभी दीवारों पर कलर पेंसिल, स्केच पेन और मीना की लिपस्टिक से पेड़-पौधे-झाड़ियाँ, रंग-बिरंगे फूल और उन पर मंड़राती हुई छोटी-बड़ी तमाम तितलियाँ बनी हुई थीं. यही हाल उनके अपने कमरे का भी था. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि उनकी इस रंगसाज़ी पर हँसूँ या गुस्सा करूँ. मैं बड़ी देर तक अपना सिर खुजाता घूम-घूमकर तितलियाँ गिनता रहा. जब उन्हें यक़ीन हो गया कि माहौल बिल्कुल सही है तो दोनों शरारती मुस्कान लिये मेरे पास आईं. अलिंदा क्रीमा की तरफ़ कनखियों से देखती जा रही थी और उसका चेहरा गुड़हल जैसा खिला हुआ था और उसके दाँत अनारदानों की तरह खुल-बिखर रहे थे. क्रीमा की आँखों में शरारती चमक के साथ हमसे तारीफ़ पाने की उम्मीद भी थी. क्रीमा ने बड़े भोलेपन से कहा --‘ पापा! ये हमने बनाया है. कैसा है?’ फिर उसने अपनी निगाहें चारों ओर नचाईं. अलिंदा ने इस बीच मुश्किल से अपनी हँसी रोकते हुए कहा -- ‘और..और पापा! ये ढेर सारी तितलियाँ आपके लिए.’ मेरे पास वाक़ई शब्द नहीं थे.

अगली सुबह जब दोनों स्कूल चली गईं तो मैंने देखा कि घर में चारों ओर सचमुच तितलियों का रंग और उनका मीठा शोर भरा पड़ा है. मैं बहुत देर तक उसमें डूबा रहा और मीना मेरी ओर देख-देखकर दिनभर अनायास मुस्कराती रहीं...

जनवरी 2010.