तीर्थयात्रा / अशोक अग्रवाल

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इंजन चालू था. बावजूद इसके खीज और गुस्से से तमतमाए यात्री ड्राइवर पर पिले हुए थे। ड्राइवर के लत्ते सभी दिशाओ सें खींचे जा रहे थे। डपटती, काँखती, नकियाती और पिनपिनाती आवाज़ों से उजबक बना वह उस दिशा की ओर देख रहा था जिधर कण्डक्टर को गए आधे घण्टे के क़रीब हो चुका था ।

‘महालक्ष्मी ट्रैवल एजेंसी’ की इस डीलक्स बस को चलाते उसे दस वर्ष होने को आए, लेकिन ऐसी तवालत में वह पहली बार फँसा था । बस पैट्रोल-पम्प पर रुकी थी और वहीं वह लालच में मारा गया । बुढ़िया भी उस तीर्थ की यात्रा पर निकली थी, जहाँ इस बस के यात्री जा रहे थे । बुढ़िया का लड़का तो उसके हाथ में नोट थमा कर फुर्र हो गया, लेकिन वह… बुढ़िया निस्पृह भाव से बस की पिछली सीट पर बैठ गई । धचकों के भय से वहाँ कोई भी नहीं बैठा था । वैसे भी पच्चीस सीटों वाली बस में कुल अठारह प्राणी सफ़र कर रहे थे ।

पहला पड़ाव ऋषिकेश था । ड्राइवर ने चेतावनी दी, ‘‘सिर्फ़ एक घण्टे बाद हम रवाना हो जाएँगे । सभी समय से आ जाएँ। बुढ़िया को छोड़ सभी यात्री न सिर्फ़ सही वक़्त पर चले आए थे, बल्कि उस निर्धारित वक़्त को बीते चालीस मिनट हो चले थे ।

— हम क्या बेवकूफ़ हैं? गंगा में गोता तक नहीं लगाया ।’’

— हम चोटीवाले की दुकान से आधा भोजन बीच में ही छोड़कर भागे आ रहे हैं ।

महिलाएँ अलग कुनमुना रही थीं ।

— पहाड़ी रास्ता है । सात बजे के बाद ट्रैफ़िक बन्द हो जाता है ।

— रास्ता बेहद खतरनाक है…।

— हमें आगे नहीं जाना चाहिए । यहीं से लौटकर पहले ट्रेवल कम्पनी में ड्राइवर की शिकायत करना ज़रूरी है ।

सबसे अधिक गुस्से और खीज़ का कारण यह था कि मात्र एक फ़ालतू बुढ़िया के चलते उन्हें यह जहमत उठानी पड़ रही थी ।

— इससे पूछो… कहाँ गई इसकी अम्मा ? हम तो पहले ही कह रहे थे…।

आवाज़ों से घिरा ड्राइवर अब बुढ़िया की नहीं, सिर्फ़ कण्डक्टर के लौटने की प्रतीक्षा कर रहा था । आग का भभूका बने उसने मन में निर्णय ले लिया था कि कण्डक्टर के लौटते ही बुढ़िया की पोटली सड़क पर पटक बस को दौड़ा देगा…।

दूर से कण्डक्टर के पीछे-पीछे आती बुढ़िया को देखते ही उसने आवाज़ों के घेरे से खरगोश की मानिन्द छलाँग लगाई । बुढ़िया के नज़दीक पहुँचते ही खरगोश भेड़िए में तबदील हो गया ।

यात्रियों ने राहत की साँस ली । कण्डक्टर ने बताया, बुढ़िया रास्ता और बस का नम्बर भूल गई थी । गीली धोती लपेटे सहमी हुई बुढ़िया बस में सबसे पीछे सवार हुई । ड्राइवर अभी भी बौखला और चीख़ रहा था — बस से पोटली उतारो ! …अब नीचे नहीं उतरोगी अम्मा । टट्टी और पेशाब सब बन्द !

यात्रा अब ड्राइवर की बौखलाहट का मज़ा ले रहे थे ।

बस ने हॉर्न दिया ।

बिना किसी क्रम और आयोजन के सभी यात्रियों की सीट निर्धारित हो गई थी । ड्राइवर के समानान्तर सबसे आगे की दो सीटों पर नवदम्पत्ति विराजमान थे । गुलाबी सूट पहने लड़की का गोल चेहरा तीखे शृंगार-प्रसाधनों से भरपूर दिपदिपा रहा था । हाथ का चूड़ा इस बात का संकेत दे रहा था कि विवाहित जीवन में प्रवेश किए उसे कुछ ही दिन हुए होंगे । लड़के ने जींस के ऊपर रेशमी कुरता पहना था । उसका बायाँ हाथ लड़की की कमर को लपेटता हुए खिड़की से टिका था, और दाएँ हाथ की अँगुलियाँ लड़की की हथेली को सहला रही थीं । विण्डस्क्रीन का पूरा फ़्रेम उनकी आँखों की गिरफ़्त में था ।

दम्पत्ति के ठीक पीछे वाली सीटों पर दो समवयस्क किशोरियाँ खिड़की से बाहर झाँकते हुए हर दृश्य में एक-दूसरे को साझीदार बना रही थीं । दोनों युवक की बहनें थीं और पहली बार इतनी निर्बन्ध यात्रा का अवसर पाया था । किशोरियों की सीट के तत्काल पीछे बस के प्रवेशद्वार के कारण इनके और शेष यात्रियों की सीटों के बीच लगभग दो फुट का अन्तराल आ गया था, जिसने स्वाभाविक रूप से बस को दो वर्गों में विभक्त कर दिया था ।

ड्राइवर के पीछे वाली सीटों पर माँ-बेटी बैठी थीं, जो अपने आधुनिक हाव-भाव और पहनावे से बहनें अधिक लग रही थीं । माँ राजपत्रित अधिकारी के पद से समय पूर्व अवकाश ग्रहण कर चुकी थी और बेटी पब्लिक स्कूल में अँग्रेज़ी की अध्यापिका थी । साल में दो बार प्रायः स्कूल की छुट्टियों में देशाटन के लिए अवश्य निकलतीं । इस बार पहले उनका इरादा गोआ के समुद्री तटों पर कुछ दिन एकान्तवास करने का था । लेकिन माँ के मन में पता नहीं कब की छिपी हुई कोई कामना अनायास अँकुरित हो आई और जीवन की सार्थकता व निरर्थकता जैसे महत्वहीन सवाल उन्हें उद्वेलित करने लगे । परिणामस्वरूप समुद्री जहाज़ की यात्रा स्थगित हो इस यात्रा में तबदील हो गई । इस तरह की समूह-यात्रा का उनका पहला अनुभव था । निर्णय लेने की बाध्यता के कारण उन्हें परतंत्रता का अहसास हो रहा था ।

इनके ठीक पीछे की सीट पर सार्वजनिक निर्माण विभाग का इंजीनियर अपनी पत्नी के साथ बैठा ऊँघ रहा था । दोनों अपनी उम्र के चौथे दशक को पार कर पाँचवें दशक की पहली सीढ़ी पर क़दम रख चुके थे । यह उनके जीवन का ऐसा मोड़ था, जब अप्रत्याशित रूप से कुछ भी घटित होने की संभावना प्रायः निःशेष हो जाती है । इंजीनियर को झपकी के दौरान कई बार भ्रम होता कि वह बस में नहीं अपने दफ़्तर की कुर्सी पर बैठा है । दफ़्तर की ज़िन्दगी में उसने स्वयं को इतना ग़र्क कर लिया था कि पत्नी ने जब इस यात्रा का कार्यक्रम बनाया तो वह उलझन में पड़ गया । पत्नी को लगता था कि उसका निःसन्तान होना ही उनके जीवन में गहरा आई उदासीनता का एकमात्रा कारण है और इसने उसे बेहद चिड़चिड़ा, अहिष्णु, सम्वेदनशील लेकिन शंकालु भी बना डाला था ।

सर्वाधिक प्रफुल्लित और आनन्दमय था शेष यात्रियों का समूह । एक ही परिवार के दो पुरुष, दो स्त्रियाँ और छह बच्चे । बच्चों की होड़ खिड़कियों से अटकने की थी, जो प्रायः वाक् युद्ध को पछाड़ती हुई हाथापाई तक पहुँच जाती। पुरुष और स्त्रियाँ प्रौढ़ावस्था में प्रवेश कर चुके थे और उनके चेहरों से ही लगता था कि जीवन को सन्तुष्ट और रसमय बनाने के जितने भी भौतिक साधन संभव हो सकते हैं, वे प्रचुर मात्रा में उन्हें उपलब्ध हैं । कमर की खाल फूलती हुई सिलवटों में लटक रही थी और शरीर का शायद ही कोई हिस्सा ऐसा रहा होगा, जहाँ चर्बी अपना विस्तार पाने में संकट महसूस करती हो । दोनों पुरुष सहोदर और लकड़ी के व्यापारी थे । यात्राओं को उन्होंने तीर्थों तक सीमित कर रखा था । तीर्थस्थलों के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी जाना उनके लिए महज भोग-लिप्सा ही नहीं, समय की बर्बादी भी थी । बस जिस वक़्त हॉर्न देते हुए झटके से रुकी, उस वक़्त वे रामेश्वरम् की आगामी यात्रा की रूपरेखा में रंग भर रहे थे ।


— पन्द्रह मिनट का रेस्ट ! — ड्राइवर के घोषणा करते ही यात्रियों ने गेट की ओर लपकना शुरू किया ।

यह देवप्रयाग था । बड़े व्यापारी भाई ने श्रद्धाभाव से आँखें बन्द कर नमन किया और औरतों को बताने लगा — प्रलयकाल में जब पूरी पृथ्वी जल में डूब गई और वराह भगवान् ने अपनी थूथन से पृथ्वी को पकड़ खींचना शुरू किया, तो धरती का जो हिस्सा सबसे पहले जल से बाहर निकला, वह यही देवप्रयाग है ।

औरतों ने श्रद्धाविनत हो आँखें मूँदीं और मन्दिर की ओर तेज़़ी से चल पड़ीं ।

बच्चे उल्लास से किलकारियाँ भरते हुए उस तरफ़ भागे जहाँ दो भिन्न दिशाओं से तेज़ गति से आती हुई भागीरथी और अलकनंदा एक-दूसरे में समाहित होती हुईं गंगा में रूपांतरित हो रही थीं । सभी यात्रा उस मुँढेरी के पास एकत्रित हो गए, जहाँ नदियों के संगम का नाद स्पष्ट रूप से सुना जा सकता था ।

बस में वापिस लौटने पर सभी की दृष्टि बुढ़िया पर गई, जो पिछली सीट पर उसी एक मुद्रा में खिड़की के बाहर झाँकते हुए बैठी थी । अकेली वही नीचे नहीं उतरी थी । कौतुक से उसे देखते हुए सभी ने ठहाका लगाया और पुनः अपनी सीटों पर विराजमान हो गए ।

श्रीनगर पहुँचने तक रात हो गई । बस के रुकते ही युवक सबसे पहले नीचे उतरा । ‘पर्यटन निवास’ में सिर्फ़ दो ही कमरे ख़ाली थे और उसने उनका आरक्षण करवा लिया । वह विजेता की तरह वापिस लौटा, जबकि शेष यात्रा अभी तक ठहरने के स्थल को लेकर विवाद में उलझे थे ।

बस में बुढ़िया अकेली रह गई थी । नीचे उतर चबूतरे पर बैठी वह अपने खाने की पोटली खोल रही थी ।

व्यापारी भाइयों को धर्मशाला में कमरा मिल गया था । दोनों भाई बस से सामान उतारते बुढ़िया की ओर सशंक दृष्टि से देख रहे थे ।

— यह कहाँ ठहरेगी ? — एक भाई ने इंजीनियर से पूछा ।

— बस से बढ़िया जगह रात गुज़ारने के लिए कहाँ मिलेगी ? — इंजीनियर हँसा ।

बुढ़िया अचार और आलू की सब्ज़ी के साथ बासी पूरियाँ इत्मीनान से खा रही थी ।

— सामान की ज़िम्मेदारी कौन लेगा? बुढ़िया का कुछ अता-पता भी नहीं है । ड्राइवर ने इसे बीच रास्ते चढ़ाया है । ऐसी घटनाएँ इन यात्राओं में खूब होती हैं ।

दूसरा भाई उलझन में पड़ गया ।

माँ-बेटी दोनों अभी तक कुछ भी तय नहीं कर पाई थीं ।

आठ बज रहे थे जबकि उनकी यहाँ से रवानगी का वक़्त ठीक सात बजे तय हुआ था । दम्पती को छोड़कर सभी आ चुके थे। बुढ़िया नित्यकर्म से निवृत्त हो ठीक छह बजे ही अपनी सीट पर जा बैठी थी ।

सबसे अधिक माँ-बेटी कुनमुना रही थीं ।

— बेचारी बुढ़िया रास्ता भटक गई तो सब उसकी जान के पीछे पड़ गए थे । — बेटी माँ से कह रही थी ।

— तीर्थयात्रा पर नहीं, हनीमून मनाने निकले हैं ।

दोनों किशोरियाँ कुछ-कुछ लज्जित भाव से आँखें चुराती हुई ‘पर्यटक निवास’ की दिशा में देख रही थीं । वे दो बार कमरे का दरवाज़ा खटखटा आई थीं ।

अलसाए और आँखों में नींद की खुमारी लिए दम्पती लगभग आधे घण्टे बाद आए । ड्राइवर जो अभी तक अन्तर्ध्यान था, उनके आते ही प्रकट हुआ और तेज़़ी से हॉर्न बजाने लगा ।

इंजीनियर की पत्नी को दम्पती की सीटों को हथियाने का सुनहरा अवसर हाथ लगा था । वह चुपचाप उन पर जाकर विराजमान हो गई । इंजीनियर को उसने इशारे से वहीं बुला लिया ।

युवक और युवती काफी देर तक बिना कुछ बोले उलझन में घिरे अपनी पुरानी सीटों के समीप खड़े रहे । इंजीनियर ने बैचेनी से पहलू बदला, लेकिन उसकी पत्नी ने सख़्ती से उसकी हथेली दबा दी । वे चुपचाप पीछे की ख़ाली सीटों पर जाकर बैठ गए ।

बस का वातावरण श्रीनगर की सीमा को पार करते ही पुनः यात्रामय हो गया. बच्चे दृश्यों से उकता ‘कॉमिक्स’ में खो गए । बड़ा व्यापारी भाई उठा और ‘केदारनाथ की जय’ के उद्घोष के साथ लड्डुओं का डिब्बा हाथ में पकड़े एक सिरे से उनका वितरण करने लगा ।

पानी के लिए बस कुछ देर के लिए रुकी । सारे यात्री, सिवाय दम्पती के, नीचे उतर आए । युवक लपककर आगे पहुँचा, लेकिन इंजीनियर की पत्नी ख़ाली सीट पर बैग रख गई थी । युवक ने एक क्षण के लिए कुछ सोचा और फिर बैग नीचे रख दिया । युवक ने पत्नी को इशारे से बुलाया ।

इंजीनियर की पत्नी अन्दर आते ही गर्म हो गई — यह कहाँ की तमीज़ है ? हम यहाँ बैठे थे ।

— हम कल से इन सीटों पर बैठे चले आ रहे हैं ! — युवक ने तल्ख़ी से उत्तर दिया ।

— आप बेकार नाराज़ हो रही हैं, — ड्राइवर ने हस्तक्षेप किया — आप अपनी पुरानी सीटों पर चले जाइए ।

इंजीनियर चुपचाप अपनी सीट पर आकर बैठ गया । इंजीनियर की पत्नी भुनभुनाती और पति के दब्बूपन से उबलती धीमे से फुसफुसाई मुझे पता है — तुम इसी सीट पर क्यों बैठे रहना चाहते हो !

माँ-बेटी दोनों ने पीछे मुड़कर देखा तो इंजीनियर हतप्रभ-सा हो आया । उसने अपनी गर्दन खिड़की से बाहर निकाली और मुस्कराने की कोशिश की ।

— इधर देखो… मन्दाकिनी का बहाव कितना तेज़ है ।


रुद्रप्रयाग पहुँच बस रुक गई । दोपहर के बारह बजे थे । यात्रियों को ड्राईवर ने पूरे एक घण्टे का वक़्त देने की घोषणा की । इंजीनियर इस बार बस से नीचे उतरते हुए कैमरा उठाना नहीं भूला । वह तेज़़ी से भागकर उस दिशा में पहुँच जाना चाहता था, जिधर से कलकल की धीमी आवाज़ आ रही थी । उसने ड्राइवर से कुछ बात की और फिर पत्नी की ओर घूमा — तुम खाना खा लेना । मैं आगे जा रहा हूँ । रास्ते में मिल जाऊँगा ।

पत्नी के कुछ कहने से पहले ही वह आगे बढ़ गया । पुल के ऊपर क़दम रखते ही पुल काँपा । उसने नीचे झाँका तो मुग्ध होकर रह गया । दो भिन्न दिशाओं से आती मन्दाकिनी और अलकनन्दा तेज़ प्रवाह के साथ एक-दूसरे में समाहित हो रही थीं । उसकी अँगुलियाँ कब शटर दबाने में जुट गईं, उसे पता ही नहीं चला ।

वह पुल को पारकर सड़क पर चलने लगा । एक घण्टे बाद बस पुल को पार करती इसी दिशा में आएगी । वह मुश्किल से दो-तीन किलोमीटर ही चलेगा कि बस घरघराती हुई उसे फिर अपने शिकंजे में कस लेगी । वह तेज़़ी से सड़क के किनारे लगभग भागने-सा लगा, पीछे आती बस को पछाड़ते हुए । अलकनन्दा का दिखाई देना बन्द हो गया और मन्दाकिनी दाईं दिशा में दूर खिसकती जा रही थी ।

इंजीनियर अपनी मस्ती में आगे बढ़ा जा रहा था कि पीछे से आती बस हॉर्न देती हुई रुक गई । इंजीनियर के सीट पर पहुँचते ही पत्नी फट पड़ी — मैंने साथ आकर बड़ी भूल की ।

शाम हो चली थी और गौरीकुण्ड आने में अधिक देर नहीं थी ।

बस के रुकते ही युवक और छोटा व्यापारी भाई साथ-साथ नीचे उतरे और साथ-साथ ही होटल तक पहुँचे । कोई कमरा ख़ाली नहीं था । दूसरे होटल में सिर्फ़ एक कमरा ख़ाली था, जिसमें उनसे पहले माँ-बेटी पहुँच चुकी थीं । व्यापारी भाई अब होटलों को तलाशना छोड़ धर्मशालाओं की ओर भागने लगे ।

इंजीनियर की भागदौड़ और सुस्ती से परेशान उसकी पत्नी जगह की तलाश में ख़ुद निकल गई थी । इंजीनियर के अतिरिक्त अब सिर्फ़ वहाँ बुढ़िया बची थी । ड्राइवर को गौरीकुण्ड में बस खड़ी करने की अनुमति नहीं मिली । वह छह किलोमीटर पीछे सोनप्रयाग जा रहा था । बुढ़िया ड्राइवर की उस डाँट-फटकार के बाद बस से एक बार भी नीचे नहीं उतरी थी । डर से वह जैसे मुक्त ही नहीं हो पर रही थी ।

सभी यात्रियों के गर्म कपडे़ निकल आए । बुढ़िया ने अपनी लोई ओढ़ ली थी ।

— आप कहाँ ठहरेंगी ? — इंजीनियर ने पूछा ।

— मैं पहले भी आ चुकी हूँ, रात भर के लिए कित्ती जगह चाहिए ! — बुढ़िया मुस्कराई — पहले होटल-धर्मशाला कुछ नहीं थे । यहाँ से बस कब खुलेगी ? — बुढ़िया ने अपनी पोटली उठाते उससे पूछा ।

— कल सुबह हम केदारनाथ के लिए निकलेंगे । रात को वहीं ठहरेंगे । अगले दिन वहाँ से चलकर यहाँ रात तक लौट आएँगे । उससे अगली सुबह यहाँ से चल देंगे । — इंजीनियर ने समझाया ।

बुढ़िया अपने पोरों पर हिसाब लगाने लगी । उसके चेहरे पर सन्तोष छलक आया — आज दसमी है। बस तिरोदसी की सिदौसी छूटेगी ।

बारिश होने के कारण सुबह सर्दी बढ़ गई थी । पैदल यात्रियों के लिए लगभग अठारह किलोमीटर की दुर्गम पहाड़ी चढ़ाई थी । गौरीकुण्ड के सभी होटल, धर्मशाला और दुकानें हलचल से भरे थे । घोड़े वाले हर कमरे का दरवाज़ा खटखटाते सौदेबाज़ी कर रहे थे । कुछ छोटे बच्चे फटे कपड़ों में ठिठुरते उन परिवारों को तलाश रहे थे, जिनके साथ कम उम्र के शिशु आए थे । दुकानों के बाहर पालकीवाले उन वृद्धों के पीछे पड़े थे, जो न तो पैदल जा सकते थे और न ही घोड़ों पर सवारी कर सकते थे ।

व्यापारी भाइयों ने बच्चों के साथ पैदल चलना तय किया, लेकिन बड़े की पत्नी एक फर्लांग भी चल पाने में असमर्थ थी । घोड़े की सवारी से उसे बेहद डर लगता था । पालकी का किराया भी बहुत अधिक था । छोटा भाई एक बलिष्ठ मज़दूर को पकड़ लाया, जिसके हाथ में बाँस की बनी मजबूत टोकरी थी । वह बड़े भाई की पत्नी को अकेला सिर पर लादने को तैयार हो गया । छोटे भाई ने अपनी पत्नी के लिए घोड़ा कर लिया । इंजीनियर की पत्नी की चढ़ाई पर साँस टूटने लगती थी । उसने भी घोड़े की यात्रा करना तय किया । दम्पत्ति और बहनें कभी का घोड़ों पर रवाना हो चुके थे ।

इंजीनियर ने अपनी बग़ल में कैमरे का बैग और पानी की बोतल लटकाई । ‘रामबाण’ से मुश्किल से एक किलोमीटर आगे गया होगा कि उसने बड़े व्यापारी भाई की पत्नी को एक पत्थर पर बैठे देखा । टोकरी वाले मज़दूर और व्यापारी भाइयों में तेज़ चख-चख हो रही थी । उसे देखते ही व्यापारी भाइयों की आवाज़ और तेज़ हो गई — तुम नहीं चलोगे तो एक भी पैसा नहीं मिलेगा ।

मज़दूर सख़्ती से अड़ा था — आप पैसे दें या नहीं, मैं सेठानी को बिल्कुल नहीं ले जाऊँगा ।

व्यापारी भाइयों ने असहाय और विवशता से इधर-उधर देखा । दूर-दूर तक कोई दूसरा ख़ाली पालकीवाला या टोकरी वाला नहीं था ।

इंजीनियर के पूछताछ करते ही बड़ा व्यापारी भाई भभक उठा — अजी… हरामज़दगी की भी हद होती है । बोतल से ज़रा-सा पानी क्या बिखर गया, कह रहा है मैं आगे नहीं ले जाऊँगा ।

मज़दूर अपनी तल्ख़ आवाज़ में ज़ोर से बोला, ‘‘बाबू साहेब… गाली मत दीजिए, इज़्ज़त हमारी भी है । हम मेहनत-मज़दूरी करते हैं, पेशाब नहीं पीते ।

इंजीनियर ने सेठानी की तरफ़ देखा । पत्थर के ऊपर सिर झुकाए वह चुपचाप बैठी थी ।

— यह झूठ बोलता है… बोतल से पानी गिर गया था । — बड़ा व्यापारी भाई उत्तेजना और आक्रोश से चिल्लाया । उसे लगा एक अदने से मज़दूर ने उसकी सारी इज़्ज़त सरेआम नीलाम कर डाली है ।

इंजीनियर मज़दूर को एक तरफ़ ले गया । कुछ देर उसके गुस्से को शान्त करते हुए समझाता रहा । आख़िरकार मज़दूर मान गया । सेठानी टोकरी में उसी तरह सिर झुकाए बैठ गई । मज़दूर के पीछे-पीछे दोनों भाई भी आगे बढ़ गए ।

सूरज छिपने की तैयारी कर रहा था और अभी दो किलोमीटर और चलना शेष रहा था । इंजीनियर के क़दम तेज़ हो गए । मोड़ पार करते ही उसने देखा, बुढ़िया एक बन्द दुकान के चबूतरे पर बैठी सत्तू में पानी मिलाती लड्डू तैयार कर रही थी । इंजीनियर को देखते ही उसके चेहरे पर वात्सल्य की मुस्कान थिरक उठी । एक लड्डू उसने इंजीनियर की ओर बढ़ाया ।

— बूढ़ी अम्मा आप इतनी जल्दी यहाँ पैदल ही पहुँच गईं ? — इंजीनियर अभी भी आश्चर्य से मुक्त नहीं हो पा रहा था ।

— सुबह चार से पहले चल दी थी । रुकती-रुकती आईं, इससे देर हुई । बाक़ी तो कब के आगे बढ़ लिए । बीस साल हुए, तब ऋषिकेश से ही पैदल चले थे । इहाँ तक आने में एक माह से अधिक लगा था । रात चट्टी पर टिकते । — बुढ़िया उत्साह से पुराने दिन दोहराने लगी । उन दिनों का एक-एक क्षण जैसे अभी-अभी घटित हुआ हो ।

दोनों अब धीरे-धीरे साथ-साथ चल रहे थे । केदारनाथ के चिह्न दिखाई देने लगे ।

मन्दिर के पास पहुँचने पर इंजीनियर ने पाया कि बुढ़िया बिना कुछ बोले चुपचाप उसका साथ छोड़ चुकी थी । उसकी पत्नी व्यापारी भाइयों के परिवार के साथ घुल-मिल चुकी थी, जैसे वह उसके साथ नहीं, उन्हीं के साथ यात्रा पर निकली हो ।

बड़ा व्यापारी भाई इंजीनियर को सारी सूचनाएँ दे रहा था । उस अहसान से लदा हुआ, जिसके कारण मजदूर पुनः टोकरी ढोने को तैयार हो गया था। — धर्मशाला का एक कमरा हमारे पिताजी के नाम का बना है। दस हज़ार रुपए दिए थे । जनाब अभी तक बहुत उछल रहे थे । दो घण्टे ख़ूब भटकते रहे । मेरे पास आए तो उनके लिए भी एक कमरे की व्यवस्था करा दी । हम तो उनकी तरह स्वार्थी नहीं हो सकते हैं । — व्यापारी भाई का इशारा नवदम्पत्ति की ओर था । वह धीरे से इंजीनियर के कान में फुसफुसाया — इन सभी को ज़मीन पर सोना होगा, लेकिन आपके कमरे में मैंने अपने पण्डे से कहकर दो पलंग गिरवा दिए हैं । नई रेशमी रजाइयाँ भी । हमारे होते आपको कोई कष्ट कैसे होगा ?

पहली दफ़ा बस के सारे यात्रा एक स्थान पर ठहरे थे । ड्राइवर और कण्डक्टर भी वहाँ नज़र आए । इंजीनियर को बुढ़िया का ख़याल आया । अकेली वही इन सबके बीच अनुपस्थित थी ।

रात में तापमान और अधिक गिर गया । सुबह आँख खुलने पर सभी ने पाया कि रुई के नन्हे-नन्हे फाहों की तरह बर्फ़ गिर रही है । इंजीनियर ने छाता खोला और गिरती बर्फ़ में बाहर निकल आया । दिन के धुन्ध भरे उजियारे में वह केदारनाथ की पहाड़ियाँ देखने लगा । उसे आश्चर्य हुआ, जब उसने सामने से रेनकोट पहने और छाता ताने अध्यापिका को आते देखा । वह उससे भी पहले गिरती बर्फ़ में बाहर निकल गई थी । छाते और ओवरकोट के ऊपर बर्फ़ बिछी थी । जूतों के ऊपर भी बर्फ़ के फ़ाहे चिपके थे । उसने अभिवादन में हाथ हिलाया । अध्यापिका ने प्रत्युत्तर में हाथ हिलाया, लेकिन रुकी नहीं । इंजीनियर धीरे-धीरे उसी दिशा में जूतों के निशानों की बगल में चलने लगा, जो अध्यापिका अपने पीछे छोड़ गई थी ।

जब वह घण्टे भर बाद वापिस लौटा तो सभी यात्री बरामदे में खड़े ड्राइवर और कण्डक्टर के साथ बहस में उलझे थे । ड्राइवर ने सूचना दी थी कि जोशीमठ से कोई दस किलोमीटर पहले चट्टान खिसकने से रास्ता बन्द हो गया है और अब बद्रीनाथ नहीं जाया जा सकता । बर्फ़ अभी भी गिर रही थी और मौसम साफ़ होने के कोई आसार नहीं थे । ऐसे में आज गौरीकुण्ड नहीं लौटा जा सकता था । व्यापारी भाई ड्राइवर के साथ यह तर्क कर रहे थे कि बद्रीनाथ न जाने से उनकी यात्रा के दो दिन कम हो जाएँगे, वे दो दिन का किराया कम देंगे । ड्राइवर यह बात मानने को तैयार नहीं था । उनमें समझौता हुआ कि उन दो दिनों के परिवर्तन में एक दिन यहीं रुका जाए और एक दिन वापिसी में ऋषिकेश या हरिद्वार अधिक ठहरा जाए । इंजीनियर ने जब बुढ़िया का सवाल उठाया तो व्यापारी भाई लापरवाही से हँसे — वह हमारे साथ नहीं है । उसकी ज़िम्मेदारी हमारी नहीं है ।

— लेकिन अब वह हमारे साथ जुड़ चुकी है — इंजीनियर ने कहा तो ड्राइवर बोला — केदारनाथ कितनी बड़ी जगह है ? हममें से किसी-न-किसी से टकरा जाएगी ।

मन्दिर के पट खुल चुके थे । सभी केदारनाथजी के दर्शन की तैयारी में जुट गए । इंजीनियर सिर्फ़ यही सोच रहा था कि यदि बुढ़िया किसी को भी न दिखाई दी तो ? वह ऐसे ख़राब मौसम में भी गौरीकुण्ड के लिए लौट चुकी हो तो…?

इंजीनियर की आशंका सही निकली । अगले दिन मौसम साफ़ होने और गौरीकुण्ड के लिए चल देने तक बुढ़िया किसी को भी दिखाई नहीं दी । बुढ़िया अब उनकी आपसी बातचीत का एक दिलचस्प केन्द्र-बिन्दु बन गई थी ।

— बुढ़िया केदारनाथ तक पहुँची भी या रास्ते में ही मर-खप गई ?

— आते हुए ‘रामबाण’ में तो मिली थी ।

— मैंने कल पूजा के वक़्त मन्दिर में उसे देखा था, लेकिन मेरे वहाँ पहुँचने तक वह पता नहीं कहाँ गायब हो गई ।

— मुझे तो लगता है, वह यहीं हमेशा के लिए रुकने आई थी । लौटना होता तो क्या इस तरह निपट अकेली आती ?

व्यंग्य और हास्य से शुरू हुआ वार्तालाप धीरे-धीरे ऐसे मोड़ पर पहुँच जाता, जहाँ सभी रहस्यमयी आशंकाओं से ग्रस्त हो जाते । कोई अपराध-भाव भी धीरे-धीरे महीन छिद्र बनाता हुआ उनकी आत्माओं के भीतर रिसने लगा । उन्हें यह तक पता नहीं था कि वह किस गाँव-क़स्बे की रहने वाली थी और उसका नाम-पता क्या था? यदि कुछ अनहोनी घटित हो गई तो…?

सोनप्रयाग पहुँचने वालों में सबसे आगे थे ड्राइवर और कण्डक्टर । बस के नज़दीक पहुँचते ही उनकी दृष्टि बुढ़िया पर पड़ी, जो वहीं चादर बिछाए उकडूँ बैठी थी । ड्राइवर ख़ुशी से चिल्लाया — बूढ़ी अम्मा, तुम यहाँ बैठी हो ! वहाँ केदारनाथ में तुम्हारे नाम का ढिंढोरा पिटा था ।

बुढ़िया सलज्ज भाव से मुस्कराई । इंजीनियर की आशंका सही थी । बुढ़िया गिरती बर्फ़ में ही बस के छूट जाने की आशंका में सुबह ही निकल पड़ी थी । एक पुराने मोमजामे का टुकड़ा उसके पास था । उसके सारे प्रयासों के बावजूद वह यहाँ पहुँचने तक झीर-झीर हो चुका था और बुढ़िया ठण्ड खा गई थी । उसे लगातार खाँसी उठ रही थी । ड्राइवर भागकर उसके लिए गर्म चाय और पूरियाँ लाया ।

जैसे-जैसे यात्री वहाँ पहुँचते गए, बुढ़िया को सही-सलामत पा ख़ुशी से उछलते गए । बुढ़िया अब सहज रूप से उनके समुदाय का हिस्सा बन गई । देर तक उसकी हिम्मत और दिलेरी उनकी चर्चा का विषय बनी रही ।

वापिसी का सफ़र प्रारम्भ हुआ । रुद्रप्रयाग आने तक विशेष कुछ भी घटित नहीं हुआ, सिवाय इसके कि सोनप्रयाग के कुछ आगे बढ़ते ही ड्राइवर ने बस रोककर तीन देहातियों को बस में बैठा लिया । 200-300 की ऊपर की कमाई नहीं करेगा तो क्या ख़ाली हाँडी चाटेगा ? नज़र चूकते ही बस के खड्ड में गिरने का जोखिम वह उठाए और मलाई मालिक खाए ! यात्रियों ने इस बार कोई प्रतिरोध नहीं किया । तीनों देहाती सबसे पीछे की सीट पर बुढ़िया के पास जाकर बैठ गए ।

युवक बस के जल्दी-से-जल्दी ऋषिकेश पहुँचने की प्रतीक्षा कर रहा था । वहाँ पहुँचते ही वे इस बस से विदा ले लेंगे । वह पत्नी को बता रहा था कि हम उसी होटल में ठहरेंगे, जहाँ से गंगा बहती हुई दिखाई देती है । पता नहीं, फिर ऐसा मौक़ा कब मिलेगा ?

रुद्रप्रयाग पहुँचने तक एक बज गया । यहाँ से रास्ता दो दिशाओं में फूटता था । एक बद्रीनाथ की ओर, दूसरा ऋषिकेश की ओर । बस के ऋषिकेश की ओर मुड़ने से पहले ही बुढ़िया अपनी पोटली को सम्भालती हुई उठी और बस से नीचे उतर गई । वह यहाँ से अकेली बद्रीनाथ चली जाएगी । सहयात्रियों ने उसे बहुत समझाया । रास्तों के बन्द होने के बारे में बताया, यहाँ तक कि ख़ूब डराया भी, लेकिन वह सिर्फ़ मुस्कराती रही ।

हॉर्न की हल्की आवाज़ के साथ धचकती हुई बस थके हुए यात्रियों को समेटे ऋषिकेश की ओर बढ़ी तो सभी की नज़रें बुढ़िया की ओर उठीं । बुढ़िया की देह में नदियाँ और पहाड़ियाँ खिलखिला रही थीं । उनके देखते-देखते वह झरने की तरह लुप्त हो गई ।