तीसरा सपना / कमल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न चाहते हुए भी भुजंग दम साधे पल्टू के पीछे खतरनाक पहाड़ी पर बढ़ा जा रहा था। उस बेहद कठिन सूत-सी पतली पगडंडी पर जरा भी चूक का अर्थ था, सैकड़ों फीट गहरी खाई में गिरना। लेकिन ‘उस’ तीखे मोड़ के नजदीक आते ही भुजंग की घबराहट बढ़ने लगी। काफी प्रयत्नों के बावजूद उसका ध्यान भटकने लगा।

“मैंने कहा था न मुझे जाने दो, मगर तुम नहीं माने। अब बताओ तुम कैसे बचोगे?” गुस्से से लाल आंखों वाले पल्टू का अट्टाहास गहरी खाई में गूंजता चला गया।

पसीने में सराबोर भुजंग का रहा-सहा हौसला भी टूट गया। उसके कदम लड़खड़ाये। पांव फिसलने की देर थी, वह झटके से गहरी खाई में गिरने लगा। उसके मुँह से मौत की डरावनी चीखें उबलने लगीं। वह बचने के लिए चारों तरफ हाथ-पांव मारने लगा। परन्तु उसके चारों तरफ पल्टू का अट्टाहास करता डरावना चेहरा घूम रहा था। भुजंग का शरीर तीव्रता से गहरी खाई में गिरता जा रहा था।

इसके पूर्व कि पथरीली, नुकीली चट्टानों से टकरा शरीर टुकड़े-टुकड़े होता, उसकी नींद खुल गई। वह बुरी तरह हांफ रहा था। टटोल कर उसने लैंप जलाया और पानी की बोतल उठा मुँह से लगा ली। गट्...गट्...गट्...पानी की ठंढक गले से होकर पेट में उतरी तो ज़ोरों से धड़कते दिल ने कुछ राहत महसूस की । धीरे-धीरे वह प्रकृतस्थ होने लगा।

पिछली तीन रातों से लगातार वही सपना उसे परेशान कर रहा है। अब यह बात उसके मन में घर करने लगी है कि जब तक पल्टू हवालात में बंद है, सपने में यूँ ही उसे परेशान करता रहेगा। पल्टू को छुड़वा गाँव वापस भेजना ही होगा। कल सुबह ही दूध बेचने का काम खत्म कर वह थानेदार से मिलेगा। ऐसा सोच वह लेट गया परन्तु नींद उससे कोसों दूर थी। पल्टू उसके दिलो-दिमाग पर बुरी तरह छाया हुआ था । ये है कहानी का सपना नंबर एक ।

संभवतः अब आप भी पल्टू के बारे में जानना चाहते होगें। लेकिन पल्टू से पहले भुजंग के बारे में जानना ज़रुरी है। यूँ समझिए कि भुजंग के बिना पल्टू की कहानी प्रारंभ ही नहीं हो सकती।

भूतकाल की पड़ताल से भुजंग का इतिहास बहुत लंबा नहीं मिलता। सिवाय इसके कि कहीं दूर से, जहां उसका लंबा- चौड़ा दूध -व्यापार चलता था, कई वर्ष पूर्व वहाँ आ बसा है। वहां वाले चतुर गुर यहाँ के व्यापार में प्रयोग कर उसका वर्तमान सुदृढ़ बन चुका है। वो वर्तमान उसके सुरक्षित व समृद्ध भविष्य का गवाह भी है।

उन दिनों वह कुछ बीमार गाय-भैसों के साथ आया था। बल्कि यूँ कहें कि अपने बीमार जानवरों के कारण उसे पूर्व की जगह छोड़नी पड़ी थी। शरीर पर अज़ीब से चकते उनकी बीमारी के प्रमाण थे। उनके दूध में भी पहले जैसी पौष्टिकता न थी। इन्हीं कारणों से पिछली जगह पर उसका दूध प्रतिबंधित हुआ था। उनका ईलाज करवाने की जगह वह अपने बीमार जानवरों से होने वाली आमदनी त्यागने को तैयार न था। तब उसने यहां का रास्ता पकड़ा जहां के लोग चमक-दमक पर ही ज्यादा ध्यान देते थे।

♦♦ • ♦♦

वह प्रचार युग था। तेज़ रौशनियों, चमकदार रंगों और सुंदर बालाओं वाला प्रचार-युग। प्रचार-बालाएं जो सदा टी.वी, पत्रिकाओं और बड़े-बड़े होर्डिंगों पर लहराती हुई बला बनी रहतीं! सुंदरियाँ भी ऐसी जिनके रसीले होंठों से झाँकती श्वेत दंत-पंक्ति वाली तिरछी मुस्कानें, नीली आँखें, वक्ष से कटि तक की प्रत्येक उठान और ढलान, उनके उठने-बैठने व चलने का अंदाज आदि सौंदर्य विशेषज्ञों द्वारा पूर्व में ही जाँचे औेर पास किये गये। बस यूँ समझ लें कि स्वर्ग की अप्सराओं को मात करती उन प्रचार-बालाओं की एक अदा के सामने पूरी की पूरी मेनका फेल।

उन अप्सराओं द्वारा भुजंग ने अपने दूध का ऐसा प्रचार करवाया कि सब तरफ सनसनी फैल गईं। अपनी दिलकश अदाओें वाले पोस्टरों में वे लोगों को ऐसी दिखतीं, मानों भुजंग नहीं वे सुंदरियां ही दूध बेच रही हों। उनके आकर्षण से हर कोई खिंचा चला आने लगा। जब वे प्रचार-बालाएं स्थानीय टी.वी. चैनल पर उस दूध की विशेषताएं लगातार बताने लगीं, तब भला लोगों को बीमार जानवर और खराब दूध कैसे नजर आते ? अब मदहोश आँखों, रसीले होंठों, कामुक अदाओं की बात कौन ठुकरा सकता था ? उन बालाओं ने तो यहाँ तक बताया कि भुजंग के दूध में ऐसे-ऐसे पौष्टिक तत्व हैं, जिनकी लोगों ने पूर्व में कभी कल्पना तक न की होगी । ...इस प्रकार भुजंग को वहां के दूध-बाज़ार पर अपना एकछत्र राज स्थापित करने में कोई खास कठिनाई न हुई। यही तो तिलिस्म है प्रचार का, जो मिट्टी को भी सोना बता, बेच देता है !

व्यापार में माहिर भुजंग कई तरह के ऑफर भी देता रहता था। जैसे कि दो लीटर दूध के साथ चौथाई लीटर फ्री और चार लीटर के साथ आधा लीटर फ्री। खूब चमकदार खटाल में ऊँचे टाइल्स-जड़े चबूतरे पर बैठ, भुजंग स्टाइल से दूध बेचा करता । प्रतीक्षारत ग्राहकों के लिए अखबार पढ़ने की अतिरिक्त सुविधा भी थी । शीघ्र ही उसके दूध की धाक चारों तरफ फैलने लगी । भुजंग ने किला फतह कर लिया था।

उसने जिस तेजी से अपने काम निपटाए, हतप्रभ स्थानीय दूध विक्रेताओं को कुछ भी समझ न आया। बड़े-बड़े अधिकारियों की पत्नियाँ जब भुजंग के दूध की धार में बहीं तो उन्हें अचानक स्थानीय दूध विक्रेताओं के वही खटाल गंदे तथा अनाधिकृत लगने लगे, जहाँ से उनकी आज तक सारी दूध-आवश्यकताएं पूरी हुआ करती थीं। वहीं से बात आगे बढ़ी और अतिक्रमण हटाने तथा शहर सुंदरीकरण के नाम पर उन सब को शहर की सीमा के बाहर खदेड़ दिया गया । परिणामतः शहर से बाहर जा दूध लाने की कठिनाई न उठा सकने वाले सभी लोगों के लिए शहर में रह गये भुजंग का दूध ही एकमात्र विकल्प बचा था । जहां साफ-सुथरे और चमकदार खटाल की बाहरी दीवारों पर लगे मादक प्रचार-बालाओं के बड़े-बड़े पोस्टर पूरे शहर को दूध पिलाने का आमंत्रण देते प्रतीत होते।

हालाँकि चर्चा थी कि भुजंग भी अतिक्रमित जमीन पर है। लेकिन उसकी शक्तिशाली सेटिंग के सामने सब नियम-कानून मुँह बाये खड़े थे (समरथ के नहीं दोष गुसांई....)। इस प्रकार स्थानीय दूध वालों के सामने केवल दो विकल्प बचे। पहला कि वे अपना बोरिया-बिस्तर समेट कहीं और चले जाएं और दूसरा कि वे अपना दूध भुजंग की शर्तों पर उसे दे दिया करें, जैसा कि उन्हें ऑफर मिल चुका था। पहले विकल्प के बारे में वे सोच भी नहीं सकते थे। अंततः सब ने अपना दूध भुजंग को बेचना स्वीकार कर लिया था।

♦♦ • ♦♦

लेकिन असल कहानी यहाँ से भी नहीं शुरु होती। वह शुरु होती है लगभग दो सौ मील पूर्व में बसे वर्मा जी के गाँव, मेरा मतलब है पल्टू के गाँव से। गर्मी की छुट्टियाँ जहां से सपरिवार बिता, शहर लौट रहे वर्मा दंपत्ति को एक विश्वासी नौकर की आवश्यकता थी।

“पल्टू के बापू, उसे हम खाना-कपड़ा के अलावा प्रतिमाह सौ रुपये नकद देंगे।”

वर्मा जी की बात सुन, गदगद पल्टू के बापू ने अपने दोनों हाथ जोड़े, “हुजूर, पल्टू तो आपका ही बच्चा है।”

“तब ठीक है, यह लो छः माह का एडवांस।” वर्मा जी ने सौ-सौ के छः करारे नोट उसकी हथेली पर रख दिये।

जब पल्टू को पता चला, उसका मन-मयूर नाच उठा। तब तक उसने शहर के केवल किस्से-कहानियाँ ही सुने थे। ऊँची इमारतें, चौड़ी सड़कें, चमचमाती गाडि़याँ, चमकते-दमकते लोग। वहां गाँव का कादो-कीचड़ थोड़े न होता है! ...और पल्टू शहर आ गया था...अपने सपनों के शहर... शहरी लोगों के बीच!

♦♦ • ♦♦

शहर पहुँचते ही उसकी ट्रेनिंग आरंभ हो गई। वह बड़ा समझदार साबित हो रहा था। जैसे-जैसे वह काम समझता जाता, वर्मा दंपत्ति के कार्य आसान होते गये। हालाँकि पल्टू के लिए सारी चीजें उतनी आसान न थीं। जब वह पहली बार मेम साहब के साथ बाज़ार गया, सब्जी वाले से उलझ गया था। थैले में पड़ी सब्जी को जब उसने हाथ से तौला, इसमें वह महिर था, उसे वह काफी कम लगी। सब्जी वाला मालकिन को ठग रहा है, ऐसा सोच वह सब्जी दोबारा तुलवाने को अड़ गया था।

“अइसे ही लेना है तो लो वर्ना छोड़ दो। बड़े आये सब्जी दुबारा तुलवाने वाले।” उसकी बात सुन सब्जी-वाला आग-बबूला हो गया।

उसके जी में आया, सब्जी वाले का सर फोड़ दे। परन्तु यह देख हैरान रह गया कि मिसेज वर्मा सब्जी वाले को कुछ बोलने की जगह उसे ही खींचती आगे बढ़ गई।

जब एक दिन वर्मा जी के साथ राशन ले कर लौटते ही उसने कुछ सामानों के पैकेट हाथ में उठा, न सिर्फ उनमें वजन कम होने की बात कही, बल्कि घर में पड़े तराजू से तौल कर उसे प्रमाणित भी किया तो शाबासी की अपेक्षा कर रहा पल्टू यह जान दंग रह गया कि कम वजन की बात उसके साहब और मेम साहब दोनों जानते हैं । उन्होंने समझाया कि दुकानदार की मनमानी न सहने का अर्थ है, कहीं ज्यादा दूर से राशन लाना, जो उनके लिए संभव नहीं है। फिर उस दूसरी दुकान पर भी वजन के सही होने की क्या गारंटी ? शहर की इस भाग-दौड़ वाली जिंदगी में जहाँ भी और जैसे भी मिले हम सामान ले लेते हैं । तभी पल्टू को दुकान की छत पर लगा बोर्ड याद आया- ‘सही वजन और सही दाम की एकमात्र दुकान ।’

“एक बार...।” वर्मा जी ने अपनी स्मृति पर जोर डालते हुए बताया, “मैंने राशन वाले को कम वजन के लिए टोका था। उसने कहा तो कुछ नहीं लेकिन ऐसा सामान देने लगा, जिसमें काफी कंकड़ रहते। यदि वैसा सामान मैं ले आऊँ तब उसे साफ कौन करेगा ? माना मेहनत करके उसे साफ कर भी लें तो निकले कंकड़ों के वजन बराबर कमी हो गई न! अब तुम्हीं बताओ राशन वाले की मर्जी से चलना ठीक या अपनी मर्जी से ?”

यह जान कर पल्टू को अपने मालिक बुद्धिमान लगे। लेकिन फिर भी शायद उसे समझने में कोई कठिनाई हो रही थी, “मगर ई तो चोरी अउर सीनाजोरी हुई न !”

“मैं अकेला तो नहीं हूँ। मुहल्ले वाले सभी वहां से सामान लेते हैं।” वर्मा जी ने उसे समझाया।

...इस प्रकार धीरे-धीरे और न चाहते हुए भी पल्टू शहर की बातें सीखने लगा था। जब कभी उसका सरल मन शहर की बातों के विरुद्ध गुस्से से भरने लगता, वह मन मार कर स्वयं को समझाने लगता, वो शहर है। शहर में यही सब चलता है! वहां की बातें देख-सुन उसके मन में बसी शहर और शहर के लोगों की सुंदर छवि, बुरी तरह खंडित हो रही थी। साफ-सुथरे शहर से उसे अपना धूल-मिट्टी वाला गाँव ज्यादा भला लगने लगा था। लेकिन इन सब के बावजूद वह अपने गाँव वापस लौटने के बारे कभी न सोचता। शहरकी जकड़ में धीरे-धीरे, बेमन से ही सही, परन्तु रहना सीख रहा था।

♦♦ • ♦♦

ऐसे ही एक सुबह उसे उठ कर दूध लाना सिखाया गया। भुजंग से उसका परिचय पहले ही करवाया जा चुका था।

अगली सुबह दूध लेने पहुँचे पल्टू के कानों में भुजंग का अपनत्व भरा वाक्य फिर से गूँज गया। “का हो भइया, शहर में मन तो लग रहा है न!”

भुजंग का अपनापन और चम-चम करता खटाल देख वह प्रभावित हुआ। वह चहक-चहक कर उससे बातें करने लगा। वहाँ की हर चीज उसकी उत्सुकता जगाने वाली थी। भुजंग ने दूध दुहने से पहले भैंस को सूई लगाई तो वह चौंका ।

“आपकी भैंस बीमार है क्या ?” उसने चिंता व्यक्त की।

“नहीं, बिल्कुल नहीं !”

“तब उसे सूई काहे लगाई ?” चिंतित स्वर अब उत्सुक था।

“सूई से दूध ज्यादा होता है।”

कुछ विचारते हुए पल्टू ने अपना संदेह प्रकट किया, “...वैसा दूध ज़रुर कम ताकत वाला हो जाता होगा।”

”नहीं, बिल्कुल नहीं। सूई वाला दूध तो और ज्यादा ताकत वाला हो जाता है।” भुजंग ने अपना व्यापारिक चतुराई भरा ऐसा उत्तर दिया कि पल्टू को सहज ही विश्वास हो आया, “...और ज्यादा दूध का अर्थ है ज्यादा ग्राहक। यानि ज्यादा मुनाफा समझे !” भुजंग के भीतर का कुटिल व्यापारी उत्साह से बताए जा रहा था।

“जब तुम्हारे ग्राहक ज्यादा हो जाएंगे, तब तुम क्या करोगे ?” पल्टू ने भोलेपन से पूछा, “तुम उन सबके लिए दूध कहाँ से लाओगे ?”

“दूध लाना तो मेरे लिए बाँये हाथ का खेल है।” भुजंग मुस्कुरा रहा था।

“भला वो कैसे ?” फिर बोला, “मैं जान गया। तुम और जानवर ले आओगे।”

लेकिन भुजंग के उत्तर ने उसे चक्कर में डाल दिया, “नहीं, बिल्कुल नहीं!”

“तब कैसे करोगे ? क्या तुम कोई जादू जानते हो ?”

“शहर में नये-नये आये हो, सब कुछ आज ही जान लेना चाहते हो क्या ?” कहता भुजंग दूध दुह रहे अपने चेले की ओर बढ़ गया। और उनके बीच उस दिन की बात चीत खत्म हो गई।

सुबह के कामों को निपटा खटाल पहुंचने तक उसे अक्सर देर हो जाती। फिर भी उसे दूध सुरक्षित और पूरा मिलता। भुजंग के साथ बहुत ज्यादा बातें नहीं हो पातीं, मगर वे दोनों काफी अपनेपन से मिलते। पल्टू और भुजंग की प्रगाढ़ता खिलने लगी। परन्तु पहले दिन जहां बात खत्म हुई थी, पल्टू उसे नहीं भूल पाया था। अब इसे संयोग कहें या दुर्योग, एक दिन वह समय से पहले खटाल पहुँच गया। दोनों प्रसन्नता से बातें करने लगे। जब उसे लगा भुजंग उसकी बात न टालेगा, उसने दूध बढ़ाने वाली बात फिर छेड़ दी।

“तुमने कहा था, बिना जानवरों को बढ़ाए ही दूध बढ़ा लोगे। भला ऐसा कैसे करोगे ?”

भुजंग उस दिन कुछ मौज में था। उसने चुनौती दे डाली, “बूझो तो जानूं।”

कुछ देर सोचने का उपक्रम कर पल्टू ने हथियार डाल दिये, “मैं हार गया, अब तो बता दो। हमारे गाँव में तो ऐसा जादू कोई नहीं कर सकता।”

अपने स्वर को रहस्यमय बनाता भुजंग बोला, “ये राज किसी को न बताना।”

“हां, हां नहीं बोलूंगा।” पल्टू ने हामी भरी।

“ज्यादा ग्राहक होने पर पहले समस्या थी। अब मैं ग्राहक बढ़ने से पहले ही उनके दूध की व्यवस्था कर लेता हूँ। यहां सब को मेरा ही दूधपसंद है। दूसरे ग्वालों से कोई दूध नहीं लेता। वे अपना सारा दूध मुझे, मेरी मन चाही कीमत पर बेच देते हैं। इस तरह मेरे पास दूध नहीं घटता।” भुजंग अपनी ही रौ में बोले जा रहा था। पल्टू के लिए सारी बातें किसी तिलिस्म से कम न थीं।

“...जब ग्राहक और बढ़ गये, तब मैंने दूध नापने वाले पौवे को नीचे से चपटा कर लिया।”

“भला वो क्यों ?”

“अरे बुद्धू, इस तरह कम दूध में ही पौवा भर जाता है।” भुजंग की बेफिक्री इस बात की गवाह थी कि उन जानकारियों के बावजूद पल्टू उसका अहित नहीं कर सकता, “...और अब तो मैं ऐसा उपाय खोज चुका हूँ जिससे मेरा दूध कभी नहीं घटेगा।”

“वो उपाय क्या है ?” आश्चर्यचकित पल्टू को भुजंग वाकई एक जादूगर लग रहा था।

“अब मैं दूध में बस ज़रुरत भर पानी मिला देता हूँ ।...स्वच्छ जल, समझे ! चलो अब तुम शांति से डोल चबूतरे पर रख लाईन लगा लो, फिर बोलोगे देर हो गई ।” भुजंग काम में लग गया।

पल्टू को मिली जानकारियाँ काफी आश्चर्यजनक थीं। ये सब बातें तो वर्मा साहब ने उसे नहीं बताईं । डोल रख वह एक तरफ खड़ा हो गया। लोग आते, अपना दूधवाला बर्तन लाईन में रख गप्पों में मशगूल हो जाते। सकुचाया-सा पल्टू एक तरफ गुमसुम खड़ा दिख रहा था। लेकिन उसके भीतर विचारों का तूफान उथल-पुथल मचा रहा था। दूध कम देने की बात तो खैर, न चाहते हुए भी, वह समझ ले रहा था। लेकिन मिलावटी व अशुद्ध दूध वाली बात उसकी समझ में नहीं उतर रही थी। वह कई-कई तर्कों से स्वयं को समझाने का प्रयत्न कर रहा था। परन्तु समझ कर शांत हो जाने की जगह उसका अंतर और भी धधकने लगता। तब तक भुजंग दूध की बाल्टी ले आया। साथ में पानी भरा चमचमाता जग भी। पल्टू के भीतर का तूफान अपने चरम पर था।...दूध तो शरीर बनाता है...खून बनाता है...आत्मा बनाता है ! मिलावटी दूध से कैसा शरीर...कैसा खून...कैसी आत्मा बनेगी...? उसका अंतर्मन उबल रहा था। उसने फिर से स्वयं को समझाना चाहा, वो शहर है। शहर में ऐसा ही शरीर, ऐसा ही खून और ऐेसी ही आत्मा होती है, उसे परेशान नहीं होना चाहिए। लेकिन न चाहने पर भी उसका ध्यान वहीं जा अटकता। और जब भुजंग दूध में पानी मिलाने लगा तो वह स्वयं को न रोक पाया, उसने बढ़ कर मजबूती से उसका हाथ पकड़ लिया।

“तुम दूध में पानी नहीं मिला सकते !” उसके स्वर में दृढ़ता थी।

अब तक सीधी-साधी बातें कर रहे पल्टू के व्यवहार में अचानक आये उस परिवर्तन से भुजंग बुरी तरह चौंका । इतने वर्षों में आज तक किसी ने उसका हाथ यूँ नहीं पकड़ा था। इतने बड़े और पहुँच वाले व्यापारी का हाथ एक अदना-सा मूर्ख-गँवार, वह भी उसके ही खटाल में पकड़ ले! परन्तु स्वयं पर शीघ्र ही उसने नियंत्रण कर लिया। उसके होंठों पर उपहास करती मुस्कान तैरने लगी।

“पानी मिला दूध सेहत के लिए अच्छा होता है।”

पल्टू ने आस-पास नजरें दौड़ाईं, “क्या आप लोग यह मिलावटी दूध लेंगे ?”

“हां लेंगे ! हम तो यही दूध लेते हैं।” कुछ लोगों का ढीठाई से मुस्कराता उत्तर सुन उसे लगा, वह चकरा कर गिर जाएगा।

“क्यों आज दूध को क्या हो गया ?” एक हंसी पल्टू के कानों में ज़हर घोल गई।

“तुम्हें नहीं लेना तो साईड हटो।” दूसरे ने टहोका लगाया।

“मैं साइड क्यों हटूँ ? सबसे पहले मैं आया हूँ, दूध पहले मैं ही लूंगा।” तब तक वह उन लोगों की उदासीनता से उबर चुका था।

“तो लो न मेरे बाप और हमें भी लेने दो, ऑफिस जाना है।” पीछे से एक गर्दन निकली।

“...लेकिन मैं पानी वाला दूध नहीं लूँगा। मैं खाँटी दूध लूँगा।” पल्टू दृढ़ था।

“क्यों भई, चिडि़याघर से भागे हो क्या ?” एक और व्यंग-बाण उसकी ओर झपटा।

अब तक मजे से तमा्या देख रहे भुजंग ने मुस्कराते हुए कहा, “शायद वहां किसी चिडि़याघर में ही रहता था। वर्मा जी अपने गाँव से लाये हैं ।”

पल्टू ने भीड़ को ललकारा, “आप सब के सामने दूध में पानी मिलाया जा रहा है। परन्तु आप लोग इसे रोकने की जगह मुझे ही रोक रहे हैं !”

“तो क्या करें ? तुम्हारी आरती उतारें या तुम्हारी तरह बेवजह का शोर करने लगें ?” एक और आवाज पल्टू की पीठ पर चाबुक सी पड़ी, “पानी मिलाने की सहमति देने के बाद हम ही उसे रोकेंगे क्या ?”

“आप सब की सहमति !” वह बुरी तरह चौंका ।

“हां, पहले भुजंग पहले छुप कर पानी मिलाता था। डर बना रहता था, कहीं तालाब या पोखर का पानी न मिला दे। सामने मिलाने से अब वह डर तो नहीं है ।” आवाज वाला चाबुक फिर लहराया।

“पल्टू महाराज, वास्तव में हम सब भुजंग के शुक्रगुजार हैं। वह सब कुछ बड़ी ईमानदारी से करता है। अगर वो बेईमानी करना चाहे तो, धोखे से हमें सिंथेटिक दूध बेच लाखों का वारा-न्यारा कर ले। लेकिन वह ऐसा नहीं करता। जानते हो न सिंथेटिक दूध कितना हानिकारक होता है ?” एक प्रश्न भी साथ में उछल कर आया।

पल्टू के इंकार पर उपहास करती हंसी फिर उभरी, “सिंथेटिक दूध नहीं जानते और चले हो हमें मिलावटी दूध की बात बताने !”

“लेकिन मुझे सब पता है।” भुजंग ने मोर्चा संभाला, “वह एक निश्चित अनुपात में तरल साबुन या डिटरजेंट, कास्टिक सोडा, खद्य तेल(पामोलिन), यूरिया, पानी आदि के मिश्रण से बनाया जाता है जिसे बाद में क्रीम निकाले दूध (सपरेटा) में मिला शुद्ध दूध के भावों पर बेचा जाता है। वह दूध बिना उबाले तकरीबन आठ घंटे तक सुरक्षित रह सकता है। चाहो तो ऐसे दूध से घी भी तैयार कर लो। मज़े की बात तो यह कि समझदार से समझदार विशेषज्ञ भी ऐसी मिलावट का पता नहीं लगा सकता। लेकिन मैं उसका व्यापार नहीं करता, क्योंकि वैसा दूध जीवन के लिए बड़ा हानिकारक है। वह ‘धीमे ज़हर’ की तरह काम करता है।”

गर्दन ताने भुजंग ऐसे बता रहा था, मानों वैसा न कर के उसने सब लोगों पर अहसान किया है। उसके भारी-भरकम तर्कों से दबा पल्टू स्वयं को बड़ा असहज और कमजोर महसूस कर रहा था। जिन लोगों को उसका समर्थन करना चाहिए था, वे ही उसके विरुद्ध भुजंग के पक्ष में मजबूती से खड़े हैं। वह तो एक भुजंग को रोकना चाहता था, वहाँ कई-कई भुजंग सीना ताने खड़े हैं। उसका विश्वास पक्का होने लगा, उन लोगों का खून, शरीर, आत्मा मिलावटी दूध से कमजोर हो चुके हैं। उसका निश्चय और मजबूत हो गया, वह किसी भी हाल में मिलावटी दूध नहीं लेगा ।

हाल में ही ‘मिनरल वाटर’ की एजेंसी ले चुके एक सज्जन आगे बढ़े, “जल्द ही हम अपने लिए और ज्यादा सुरक्षित दूध लेने लगेंगे।“

“वो कैसे ?”

“हम सब आम सहमति से दूध में ‘मिनरल वाटर’ मिलाने वाले हैं।” आवाज वाली आँखों में संभावित मुनाफा चमक रहा था।

वे सारी जानकारियां पल्टू को चकरा कर पटक देने के लिए काफी थीं, लेकिन उसने अपने होश काबू में रखे। वह चीखा, “एक तो मिलावटी दूध लेते हैं । दूसरे फरेबी भुजंग को सच्चा साबित करने के लिए इसका पक्ष ले रहे हैं । अरे, दूध ही तो इस पृथ्वी पर सबसे सच्ची और पवित्र चीज है। जब वही अ्युद्ध हो गया तब बाकी क्या बचेगा ? आप लोगों को शर्म आनी चाहिए।”

“नहीं, हमें तो शर्म नहीं आती।” पहली आवाज ने बेशर्मी से कहा।

“हमारी मर्जी जैसा चाहें दूध लें, तुम कौन होते हो हमें सिखाने वाले ? हम तुम्हारे पैसों से तो नहीं ले रहे।” पल्टू को लगा उसकी चीख प्रतिध्वनि बन कर लौट आयी है ।

“अरे गोबर गणे्य, तुम्हें दूध नहीं लेना तो हटो एक तरफ। हमें ले लेने दो पहले ही काफी देर हो चुकी है।” मिनरल वाटर वाले सज्जन ने उसे घुड़का।

अब तक पल्टू समझ चुका था, उसे अकेले ही मोर्चा लेना होगा, “नहीं, मैं नहीं हटूंगा । मैं पहले आया था, दूध पहले मैं ही लूँगा ! मेरे बाद आप लोगों की मर्जी है, दूध में पानी मिलवाएं या ज़हर ।”

हालाँकि पल्टू अकेला था, लेकिन उसके स्वर की दृढ़ता सभी आवाजों पर भारी पड़ी थी। इस बवाल में देर होने से लोगों की कसमसाहट बढ़ रही थी । वे सब किसी भी तरह मामला निपटा कर निकल जाना चाहते थे ।

एक ने भुजंग को समझाया, “अरे भई, तुम ही मान जाओ। दे दो इसे खाँटी दूध।”

भुजंग बुरी तरह चौंका। उसकी हां में हां मिलाने वाले पल्टू के पक्ष में क्यों बोलने लगे ? वह सावधान हो गया। यह सिलसिला चल पड़ा तो आगे कठिनाई पैदा करेगा। इसे अभी और यहीं खत्म करना होगा, ऐसा सोच वह भी अड़ गया, “नहीं सर, हम तो सब को एक-सी क्वालिटी का दूध देंगे। हमारा पूरा व्यापार क्वालिटी पर खड़ा है। एक गँवार के कहने से अपना क्वालिटी तो खराब नहीं करेंगे न।”

लोग चुप थे, उन्हें भुजंग का फैसला सही लगा। लेकिन हल निकलता न देख उनकी व्यग्रता बढ़ती जा रही थी।

तभी एक आदमी की समझ में भुजंग की कठिनाई आयी। वह बोला, “ऐसा करो, इसे खाँटी दूध देने से तुम्हें जो नुकसान होगा, उसे हमारे दूध में ज्यादा पानी मिला कर मेकअप कर लो।”

दूसरों ने भी उस प्रस्ताव का समर्थन किया, “हां, हां ऐसा कर लो ।”

परन्तु भुजंग जैसे व्यापारी ने तुरंत ही उस प्रस्ताव के दूरगामी प्रभावों की गणना कर ली, “नहीं सर, ऐसा नहीं हो सकता। आज इसके कहने पर हम आपके दूधमें ज्यादा पानी मिलाएंगे, कल किसी और को खाँटी दूध देने के लिए आपके दूध में और ज्यादा पानी मिलाएंगे। हम आपके दूध में कितना पानी मिलाएंगे ? हमको आपके दूध की क्वालिटी की चिन्ता नहीं है क्या ?” भुजंग ने अपनी आवाज में मिश्री घोलते हुए उस प्रस्ताव को रद्द कर दिया।

पल्टू के अलावा वहां मौजूद हर व्यक्ति बड़ा प्रभावित हुआ, देखो भुजंग को हमारी कितनी चिन्ता है। उन्हें एक बार फिर से पल्टू नागवार लगने लगा। भुजंग का मनोवांछित हो गया। उसकी कुटिल चाल ने बाजी फिर से अपने हक़ में कर ली।

“हां, हां भुजंग बिल्कुल ठीक कह रहा है।” भीड़ की आवाज उभरी, “तुम मिलाओ दूध में जितना पानी मिलाना है, हम सब तुम्हारे साथ हैं।”

भीड़ की आवाज सुन पहले तो पल्टू बड़ा विचलित हुआ, फिर उसके स्वर में भी कठोरता बढ़ गई। उसने कुटिलता से खिल आये भुजंग के चेहरे पर आँखें गड़ाये कठोर स्वर में पूछा, “तुम मुझे दूध दोगे या नहीं ?”

जाल में फंसे कीड़े को देख जो भाव मकड़े के चेहरे पर उभरते हैं, ठीक वही भाव भुजंग के चेहरे पर थे, “दूंगा, ज़रुर दूंगा । लेकिन पानी मिलाने के बाद।” उसने अपने हाथ में थमा पानी भरा जग दूधकी बाल्टी में उलट दिया।...उसका दूध बिक्री योग्य हो गया था।

यह देख पल्टू हिस्टीरियाई अंदाज में चीखा, “यह दोगे मुझे ?...यह अब दूध कहाँ रहा ?” कहते हुए उसने जोरदार लात बाल्टी पर दे मारी। धड़ाम्...की आवाज से बाल्टी उलट गई।

जमीन पर फैलते दूध के साथ भुजंग के चेहरे पर अपमान और हार की कालिमा साफ नजर आ रही थी। एक पल को वहां सन्नाटा छा गया। सभी सकते में थे।

गुस्से में कांपता भुजंग जोर-जोर से चीखने लगा, “जाने कैसे-कैसे गँवार नौकर आप लोग ले आते हैं। पहले ऐसे मूर्खों को शहर के तौर-तरीके सिखाइए, तब मेरे पास भेजिए।” फिर फर्श पर फैले दूध की ओर इशारा करता बोला, “आप सब कान खोल कर सुन लीजिए यह नुकसान मेरा नहीं है। मैं यह दूध भी आप सब के हिसाब में लिखूंगा।”

वहां काम करने वाले एक लड़के ने पल्टू को पकड़ लिया। लेकिन वह कुछ करता उससे पहले ही पल्टू के जोरदार झटके ने उसे दूर फेंक दिया। कुछ लोग बीच-बचाव करने लगे।

“देखो भुजंग, मार-पीट करने से क्या फायदा ?”

“वैसे भी इस दूधके पैसे तुम हमारे खाते में चढ़ाने की बात कह चुके हो।”

भुजंग ने अपने लड़के को रोक लिया। पल्टू ने भी वापसी की राह ली।

“आज तो बिना चाय के ही ऑफिस जाना पड़ेगा।”

“आज नींबू वाली चाय पी लेना।” दूसरे ने सुझाया।

एक आवाज धीमे से उभरी, “देखा जाए तो पल्टू ठीक ही कह रहा था।”

“तो जाइए न आप भी उसके साथ घूम-घूम कर लातें चलाइए। आपको रोका किसने है ? हां इतना बता दीजिए, कहां-कहां लातें चलाइएगा ?” पहली आवाज ने उन्हें ललकारा ।

परन्तु उस ललकार का जवाब न आया। सब लोग खामोशी से अपने गंतव्यों की ओर बढ़ गये।

♦♦ • ♦♦

खटाल में शांति छा गई। मगर भुजंग को चैन न था। पास बैठा लड़का भी कसमसा रहा था, “आपने मुझे रोक दिया, वर्ना मैं उस गँवार को न छोड़ता।”

“चेले, हम व्यापारी अगर लड़ने लगे, तब हुआ हमारा धंधा !”

“अगर उसने कल भी आकर ऐसा हंगामा किया तो ?”

“हां, वही सोच रहा हूँ। ऐसा उपाय ढूंढना पड़ेगा जिससे साँप मर जाए और लाठी भी न टूटे।” भुजंग उठते हुए बोला, “मैं उसे कल यहां आने लायक नहीं छोड़ूंगा। तुम बाकी के काम देखो मैं जरा थानेदार के घर से हो कर आया।”

“उनका दूध...।”

“नहीं, अभी बिना दूध के जाऊंगा। तभी बात बनेगी।” भुजंग निकल गया।

♦♦ • ♦♦

लगभग उसी समय पल्टू अपराधी बना वर्मा जी के सामने खड़ा था। मिसेज वर्मा दूध न आने से वे खासी परेशान थीं।

“मैं पूछता हूं, तुम्हें नेता बनने की क्या जरुरत थी?” वर्मा जी झल्लाये, “अब अगर भुजंग ने हमें दूध देना बंद कर दिया तो ? नहीं, नहीं कल से तुम दूध लेने नहीं जाओगे।”

पल्टू उनकी झल्लाहट ना समझ पाया। वह तो शाबासी की उम्मीद कर रहा था। वहां खटाल में भुजंग मौजूद था, इसीलिए लोग उसकी भाषाबोल रहे थे। परन्तु यहां तो नहीं है, फिर भी क्यों साहब उसी की भाषा बोल रहे हैं ? उसे लगा अपने दूध के जरिए भुजंग साहब के भीतर घुस आया है। शहर में सभी भुजंग के वश में हैं । क्या शहर में रहने के लिए उसे भी भुजंग के वश में होना पड़ेगा? पल्टू जैसे-जैसे सोचता जाता, उसके अंतर में बसी शहर की सुंदर छवि वैसे-वैसे ढहती जाती। उसे गाँव का कादो-कीचड़ शहर की साफ-सुथरी सड़कों से ज्यादा अच्छा लग रहा था। शहर की मृग मरीचिका से उसका मोह पूर्णतः भंग हो चुका था।

♦♦ • ♦♦

“साहब, अब मुझे शहर में नहीं रहना है। मुझे गाँव वापस भेज दीजिए।”

वर्मा दंपत्ति ठगे से रह गये। तुरंत ही उन्हें कई चिन्ताओं ने आ घेरा। पल्टू ने घर के कितने काम संभाल लिए थे। वह वापस चला गया तो सारे काम फिर से उन्हीं के सर आ पड़ेंगे।

वे दोनों पल्टू को समझाने लगे, “अरे इतनी सी बात पर घबरा गये। मैंने कहा न कल से दूध मैं ही लाया करुंगा। बिल्कुल मत घबराओ, धीरे-धीरे सब सीख जाओगे। यहां तुम्हारी जिंदगी बन जाएगी, गाँव में क्या रखा है ?”

“नहीं साहब, मैं यह सब नहीं सीखना चाहता। मैं आपके हाथ जोड़ता हूं, मुझे जाने दीजिए।” पल्टू की आँखें नम थीं। उसकी हालत देख, वर्मा दंपत्ति निरुत्तर हो गये।

“सुनो जी!” मिसेज वर्मा फुसफुसाई, “ये कोई और बखेड़ा न खड़ा कर दे। जाने दो इसे।”

उस स्थिति में वर्मा जी को भी उसकी बात जँची। अनुमति मिलते ही पल्टू जा कर सामान बाँद्दने लगा। वह जल्द से जल्द शहर छोड़ देना चाहता था।

♦♦ • ♦♦

भुजंग को खाली हाथ आया देख थानेदारनी का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा । मगर उसने जब रोनी सूरत से नमक-मिर्च लगा अपनी रामकहानी सुनाई, थानेदारनी का दिल पसीज गया। उसने बकायदा ‘फ्राई’ करके वह कहानी थानेदार को जा सुनाई (संइयाँ भये कोतवाल..)।

“कहाँ है ऊ गुंडा ?” थानेदार की कड़कती आवाज पर दो सिपाही भुजंग के साथ हो लिये।

बस अड्डे की ओर जाते पल्टू की गर्दन ‘भुजंग एण्ड पार्टी’ ने रास्ते में ही जा पकड़ी।

सारा माजरा समझते ही पल्टू अपनी गर्दन छुड़ाने के लिए छटपटाने लगा, “छोड़ो मुझे ! मुझे जाने दो ! मैं अपने गाँव जा रहा हूँ...!”

एकबारगी तो भुजंग के जी में आया कि जाने दे बला अपने आप ही टल रही है । लेकिन तुरंत ही उसने अपने मन की बात काट दी। अब तो उसे मजा चखाना ही चाहिए । यूँ ही जाने देने में क्या मजा आएगा ।

“क्यों, तब तो बड़े शेर बन रहे थे। अब शहर की दीक्षा लिए बिना गाँव कैसे जाओगे ?“

...और किसी को भी पता न चला, गाँव जाता पल्टू शहर की हवालात में पहुँच गया। वर्मा जी के मुताबिक पल्टू अपने गाँव चला गया है। पल्टू के बाप की जानकारी में वह शहर में है। जबकि उसकी असल जगह का पता केवल भुजंग और पल्टू को था। भुजंग का व्यापार पूर्ववत् चलने लगा। उस दिन की हल्की-फुल्की चर्चा के अलावा किसी ने भी पल्टू के बारे में कुछ भी जानने में रूचि न दिखाई। कायदे से तो यह कहानी यहीं समाप्त हो जानी चाहिए थी। लेकिन ठीक यही पर पेंचदार मोड़ आ जाने के कारण सब कुछ उल्टा-पुल्टा होने लगा। आप में से कुछ पाठक मुझ पर आरोप लगाएंगे कि मैं भूत-प्रेत पर विश्वास करता हूँ और उनके समर्थन में तर्क दे रहा हूँ। मगर विश्वास कीजिए ऐसा नहीं है।

पल्टू का उपाय कर निश्चिंतता से सोये भुजंग को पहली बार जो वह सपना आया तो फिर लगातार ही हर रात आने लगा। धीरे-धीरे उन सपनों की भयानकता बढ़ती ही जा रही थी। इसी कारण भुजंग ने पल्टू को हवालात से छुड़वाने का निश्चय किया।

उधर हवालात में रोते पल्टू को भी दूसरी रात एक सपना दिखा, ‘कि भुजंग के खटाल में लाइन लगाए लोग हंस-हंस कर दूध ले रहे हैं। वर्मा जी भी वहां हैं। पल्टू उन्हें वह दूध लेने से रोकता है। मगर वे नहीं मानते। तब पल्टू बाल्टी को लात मार कर गिराना चाहता है। लेकिन इस बार बाल्टी टस से मस नहीं होती। वहां खड़े लोग उस पर हंसते हैं। वह गुस्से में भर कर बाल्टी पर पिल पड़ता है। परन्तु बाल्टी पर कोई असर नहीं होता। लातें चलाता पल्टू पसीने से सराबोर हो हाँफने लगता है..।’

यहीं आ कर उसका सपना टूट गया । नींद खुलने पर वह बड़ी देर तक रोता रहा । और इस तरह इस कहानी का दूसरा सपना खत्म होता है ।

अगली सुबह भुजंग उसके सामने खड़ा था। घृणा से पल्टू ने मुँह फेरना चाहा, लेकिन उसकी बात सुन वह वैसा न कर सका।

“क्या तुम सच में अपने गाँव जाना चाहते हो ?” भुजंग मुस्करा रहा था।

पल्टू को सहसा अपने कानों पर विश्वास न हुआ। वह तेजी से उठ कर खड़ा हो गया। उसकी आँखें में तीव्र चमक थी। खु्शी से ‘हां’ में हिलती उसकी गर्दन में भुजंग को अपनी जीत दिखाई पड़ रही थी।

...थोड़ी ही देर में भुजंग उसे गाँव जाने वाली बस पर चढ़ा खु्शी-खु्शी लौट रहा था।

♦♦ • ♦♦

...और कभी भी सपना न देखने वाले वर्मा जी को पल्टू के शहर से जाने की सत्रहवीं रात वह भयानक सपना पहली बार दिखा । कहानी का तीसरा सपना बड़ा ही जीवंत था, बिल्कुल ‘लाइव टेलीकास्ट’ जैसा ! इसीलिए वो वर्मा जी को इतना भयानक लगा था। उस रात से वो सपना उन्हें लगातार डरा रहा है । सपने में उनके सर पर सवार पल्टू पागलों की तरह चीखने लगता है, “मैं तो आपकी लड़ाई लड़ा था । आप मेरा साथ देते तो मुझे कोई नहीं हरा सकता था, भुजंग भी नहीं । मुझे भुजंग ने नहीं आपने हराया है !...आपने !!”

तभी पल्टू के शरीर से टपक कर नीचे गिर रही पसीने की हर बूँद से एक नया पल्टू पैदा होने लगता हैं । पसीने की जितनी बूंदें उतने पल्टू । धीरे-धीरे वहां कई पल्टू खड़े हो जाते हैं । वे सब मिल कर वर्मा जी को बुरी तरह झिंझोड़ने लगते हैं । उनकी बढ़ती भीड़ से वर्मा जी का दम घुटने लगता है। हर बार सपने का माहौल इतना अधिक डरावना हो जाता है कि वे चीख मार कर उठ बैठते हैं।