तुम्हारे जाने का शून्य कैसे करे सिंगार मेरा / संतोष श्रीवास्तव

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वे एक नहीं, दो नहीं, दस नहीं लगभग चार सौ के करीब थीं। अलग-अलग उम्र की। सैर कंवर पचास साल की थी जिसके पति 1971 के भारत पाक युद्ध में मारे गए थे। रूपसी बीस साल की थी। जिसकी शादी के चंद महीने बाद ही उसका पति सड़क दुर्घटना में मारा गया था। उनमें से कइयों की मांग में सिदूर था, रंगबिरंगी चूड़ियाँ और रंगीन साड़ियाँ पहने वे नाच रही थीं। उन विधवाओं का सुहागिन बन नाचना एक छोटे से विद्रोह की हुंकार थी... समाज की उन परंपराओं, बंदिशों के खिलाफ जो पति की मृत्यु के बाद उन पर थोपी गई थीं। मसलन-यहाँ मत बैठो, वहाँ मत बैठो, पराए मर्द से बात मत करो, रंगीन वस्त्र और गहने मत पहनो, मेहंदी-महावर, बिंदी, सिंदूर से दूर रहो। उनका स्पर्श भी पाप है। घर आई सुहागिन स्त्री की चावल, हल्दी, सुपारी से गोद भरकर विदा मत करो वरना वह भी विधवा हो जाएगी। किसी भी मांगलिक उत्सव, समारोह, हवन, पूजन में तुम्हारा शामिल होना अमंगलकारी है, कामाग्नि को शांत रखने के लिए तामसी भोजन का त्याग करो। उबला हुआ, सादा सात्विक भोजन करो, नरम बिछौनों पर सोना वर्जित है, इससे काम की लालसा जागती है। खुद को कुरूप बनाओ, स्त्री के सौन्दर्य के प्रतीक सिर के बालों का मुंडन कराके रखो। सौन्दर्य पर पुरुष को आकृष्ट करता है और व्यभिचार का कारण बनता है, अपना अधिक से अधिक समय भजन कीर्तन में लगाओ वही तुम्हें इस वैधव्य के शाप से मुक्ति दिलाएगा।

विधवा स्त्री ससुराल और मायका दोनों जगह अभागिनी मानी जाती है। ये अभागिनें राजस्थान के अलग-अलग जिलों से बस्सी आई थीं। उम्र भले बीस हो या पचास, जाति चाहे चमार हो या ब्राह्मण लेकिन उनको एकसूत्र में बाँधने वाला धागा था दु: ख का धागा। उन्हें एक जैसी प्रताड़ना मिली थी, एक जैसा अवांछित होने का एहसास था। किसी की जमीन पर जेठ ने कब्जा कर लिया है तो किसी को देवर की कुटिल निगाहें झेलनी पड़ी थीं। सास-ससुर के ताने तो दिनचर्या में शामिल थे... कुलच्छिनी, मेरे बेटे को खा गई। बेटे की जगह तू मर जाती तो मेरा उध्धार हो जाता। पर तेरा भोगना तो बाकी था। मरती कैसे? वे सभी बस्सी में होने वाले चार दिवसीय सम्मेलन में बुलाई गई थीं जो विधवाओं की दशा सुधारने की दिशा में प्रयासरत है। इस सम्मेलन में तमाम तर्कों-कुतर्कों के पश्चात चंद प्रस्ताव और विधवाओं के लिए अलग विधेयक की मांग का प्रस्ताव पारित हुआ। विडंबना यह कि जिन दिनों बस्सी में यह सम्मेलन हो रहा था ठीक उन्हीं दिनों महोबा में एक स्त्री सती हुई थी। इतिहास अपने को बार-बार दोहराता है पर विधवाओं की स्थिति प्राचीन काल से आज तक जस की तस है।

वैदिक काल में विधवा को दोबारा शादी की अनुमति उन परिस्थितियों में थी जबकि उसके कोई संतान न हो। संतान प्राप्ति के लिए पर पुरुष से संभोग विवाह नहीं कहलाता था उसे नियोग कहते थे। पांडु, धृतराष्ट्र, विदुर नियोग से ही पैदा हुए थे। देवर के साथ विवाह का उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद में कहा गया है कि पति की मृत्यु के बाद पत्नी उसी के चिता में जला दी जाती थी या तो स्वेच्छा से या रिश्तेदार उसे चिता में ढकेल देते थे। ऋग्वेद में मृत पति के भाई से शादी करने की अनुमति थी। यह धार्मिक परंपरा पितृसत्ताक समाज में शायद इसलिए थी कि कहीं विधवा स्त्री संपत्ति पर अपने हक की मांग न कर बैठे वरना देवर, जेठ के साथ ही विवाह क्यों? किसी दूसरे पुरुष से पुनर्विवाह की उशे धार्मिक अनुमति क्यों नहीं थी? कहने को यह आधुनिक युग है जहाँ कई परंपराएँ मनुष्य ने सुविधानुसार बदल दी हैं पर विधवा वैदिक युग से आधुनिक युग तक वहीं की वहीं खड़ी है। इस युग में जितने भी युद्ध हुए, शहीद की विधवाओं की, उनसे काफी छोटे देवरों या काफी बड़े जेठों के साथ शादियाँ की गई हैं। हरियाणा के गांवों में किए गए अध्ययन से यह बात सामने आई है कि किसी तरह जमीन का बंटवारा न हो इसलिए घर की विधवा बहू का उसी घर में पुनर्विवाह रचाया जाता है। बस्सी में पुनर्विवाह जैसी ही एक परंपरा मौजूद है जिसे नाता कहते हैं। जिसमें पराया मर्द कुछ रकम ससुराल वालों को अदा करके विधवा से रिश्ता जोड़ लेता है। इस रिश्ते के बाद विधवा अपने ससुराल की संपत्ति पर हक नहीं जता सकती।

विधवाओं की दुर्दशा के जीते जागते केंद्र हैं-वृंदावन और वाराणसी। यहाँ बंगाल से आई और देश के अन्य राज्यों से भी उनके बेटे या रिश्तेदारों द्वारा भेजी विधवाएँ विधवाश्रम में हजारों की तादाद में जीवन काटती मौत का इंतजार कर रही हैं। इन्हें संपत्ति से बेदखल कर एक तरह से लावारिस घोषित कर यहाँ तक पहुँचाया गया है। विडंबना यह है कि वारिस होते हुए भी ये लावारिस हैं। घर होते हुए भी ये बेघर हैं, जिस घर की तमाम जिम्मेदारियों को ये पत्नी, बहू, माँ बनकर ढोती रहीं-उसी घर ने उन्हें बोझ समझकर घर निकाला दे दिया। उन्हें यह कहकर विधवा आश्रम में भर्ती किया जाता है कि सांसारिक विषयों से इनके मन में विरक्ति आ गई है और ये प्रभु की शरण में आना चाहती हैं। पर ये विधवाएँ न तो जोगन नजर आती हैं, न विरक्त विषय वासना से मुक्त। वृंदावन में चंद पैसों और मुट्ठीभर चावल या आटे के लिए पर्यटकों के पीछे भिखारिन-सी लग जाती हैं।

भारत में तीन करोड़ विधवाएँ हैं। इनमें से दस हजार वृंदावन में रहती हैं। इतनी ही वाराणसी में। 1991 की जनगणना के अनुसार भारतीय महिलाओं की पूरी जनसंख्या में 8 प्रतिशत विधवा होने की पीड़ा झेल रही हैं। आखिर क्यों? क्यों पीड़ित है विधवा? क्या वह अकेले अपनी नियति का सामना नहीं कर सकती? क्या वह इतनी लाचार और बेबस है कि परिवार द्वारा ढकेल दी जाए वृंदावन या वाराणसी के रास्ते पर? आज जब इक्कीसवीं सदी के ग्लैमर और सफलता के सोपानों को चढ़ती नारी हर क्षेत्र में अपना परचम लहरा रही है तब पति की मृत्यु के बाद दुत्कार दी जाती विधवा कि शक्ति क्यों चुक गई? असल में तमाम विकास और आधुनिकता के नारों के बीच सच्चाई यह है कि भारतीय समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा सामंती विचारों की गिरफ्त में है। इस समाज में विधवा हमेशा से प्रताड़ना का शिकार है। उसे न तो मांगलिक कार्यों में शामिल किया जाता है न ही कोई सामाजिक प्रतिष्ठा प्रदान की जाती है बल्कि उसकी तो पहचान ही मिटा देने का प्रयास किया जाता है। बड़ी संख्या में विधवाएँ अपने भाग्य को कोसती अपने परिवार, समाज से दूर वृंदावन और वाराणसी के मंदिरों, धार्मिक संस्थाओं, आश्रमों की शरण में चली, भेज दी जाती हैं। दुनिया मान लेती है कि बेचारी विरक्त होकर प्रभु की शरण में अपना परलोक सुधार रही है पर क्या सचमुच ऐसा है? ज्ञानी संत कहते हैं कि नारी शरीर ही पाप की जड़ है। इस पाप को इन विधवाओं को धर्म और समाज सेवा के नाम पर तंग कोठरियों में रखा जाता है जहाँ वे पंडों, महंतों, मठाधीशों और चेले-चपाटों की हवस का शिकार होती हैं। ये सभी नाम के आगे दासी लगाकर सम्बोधित की जाती हैं। आश्रम में, मंदिर में, मठों में भजन कीर्तन आरती भोग के पश्चात प्रभु शयन करते हैं और ये दासियाँ चटाई बन बिछ जाती हैं जिसमें अपने-अपने ढंग से काम-क्रीड़ा में मस्त हो जाते हैं इन दासियों के रखवाले। उनमें से कई ऐसी दासियाँ हैं जिन्हें अपनी रोटी भएक मांगकर या धर्म के ठेकेदारों की चाकरी करके खुद जुटानी पड़ती है और इस यौन शोषण और तिरस्कृत ज़िन्दगी को ठोते हुए वे बस मौत का इंतजार करती हैं।

शहीदों की विधवाओं की तरफ सरकार बिल्कुल भी ध्यान नहीं देती। करगिल युद्ध में आॅपरेशन विजय के दौरान घुसपैठियों से मुकाबला करते हुए शहीद दिलीप लिंगवाल की पत्नी मध्य प्रदेश सरकार से न्याय मांगती दर-दर भटक रही है जबकि मुख्यमंत्री की ओर से दस लाख रुपये की सहायता राशि और विधवा को सरकारी नौकरी देने की घोषणा कि गई थी। अभी तक कोई मदद उस तक नहीं पहुँची। यही हालात औरत को मजबूर करते हैं कि वह अपना और अपने बच्चों का पेट पालने के लिए गैरकानूनी काम करे। समाज में बुराइयों की जड़ यही आॅफिसों की ठंडी फाइलें हैं।

अमेरिका में 11 सितंबर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में आतंकवादी हमला हुआ था जिसमें रेतिक और क्विग्ले के पति मारे गए थे। जब इन दोनों के पति मारे गए तो चारों तरफ से मदद और सहानुभूति मिली। दोस्तों और पड़ोसियों ने लगातार खाना भेजा, कई अपरिचित लोगों ने आर्थिक मदद दी। अब वे दोनों विधवाएँ अफगानिस्तान की विधवाओं की सहायता करने के लिए कमर कस रही हैं। इन्होंने अमेरिका से मदद के रूप में एक लाख डॉलर जुटाए हैं। अफगानिस्तान में युद्ध में मारे गए शहीदों की विधवाओं का दु: ख इन्होंने अपनी आंखों से देखा। दोनों ने मिलकर बियॉड द एलेवेंथ संस्था गठित की है जो गैर-सरकारी संगठनों के साथ मिलकर अफगानिस्तान की विधवाओं को शिक्षा, प्रशिक्षण और जीवन उपयोगी सभी बुनियादी चीजें उपलब्ध कराएगी। तालिबान शासन की समाप्ति के बावजूद अफगानिस्तान में अभी भी स्त्रियाँ संपत्ति से ज़्यादा कुछ नहीं समझी जातीं। विधवाओं की हालत तो एकदम नारकीय है। उनकी कोई गिनती ही नहीं है। उनके मकान छीन लिए गए हैं, यहाँ तक कि कई विधवाओं को अफने बच्चों तक से अलग कर दिया गया। इन्हें बड़े पैमाने पर मदद की ज़रूरत है। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि काबुल में तीस से पचास हजार विधवाएँ हैं और उनके औसतन पांच बच्चे हैं। एलेन के मुताबिक, जो कि केयर के कैंब्रिज कार्यालय के वरिष्ठ निदेशक हैं, इन विधवाओं को भोजन और बसेरा पाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ रहा है। यही कारण है कि बड़ी संख्या में औरतें और बच्चे पाकिस्तान पलायन कर रहे हैं।

भारत की विधवा समस्या अब अंतरराष्ट्रीय रूप लेती जा रही है। लंदन में लुंबा ट्रस्ट की स्थापना ही भारतीय विधवाओं के कल्याण के लिए की गई है। लुम्बा ट्रस्ट की अध्यक्ष हैं ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की पत्नी चेरी ब्लेयर। चेरी ब्लेयर ने यह घोषणा कि है कि 23 जून अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस के रूप में मनाया जाएगा। ट्रस्ट को उम्मीद है कि इस तरह वह व्यक्तिगत रूप से अंतरराष्ट्रीय संस्थानों, सरकारों और स्वयंसेवी संस्थाओं का ध्यान विधवाओं की स्थिति की ओर खींच पाएगा और उनकी गरीबी, बीमारी और परेशानियों को दूर कर पाएगा। लुम्बा ट्रस्ट इस उम्मीद को लेकर 23 जून को विधवा दिवस के रूप में मनाने की गुहार दुनियाभर से कर रहा है कि इस अवसर पर उसे सब ओर से सहयोग मिलेगा और लोग 23 जून को कम से कम एक पाउंड या अपना एक दिन का वेतन इस नेक कार्य के लिए दान करेंगे। विधवा दिवस 23 जून को ही क्यों? लुम्बा ट्रस्ट की स्थापना ही विधवाओं की स्थिति सुधार के उद्देश्य को सामने रखकर की गई है। राज लुम्बा लंदन में भारतीय मूल के नागरिक हैं। उनकी माँ पुष्पावती लुम्बा के पति का निधन 23 जून, 1954 को हुआ था। पुष्पावती एक जागरूक महिला थीं और जानती थीं कि भारत में विधवा स्त्री को कैसे-कैसे नारकीय अभिशाप झेलने पड़ते हैं। वे ऐसी लाचार स्त्रियों के लिए कुछ करना चाहती थीं। अप्रवासी व्यवसायी राज लुम्बा ने माँ की इच्छा को मद्देनजर रखकर 1997 में लंदन में लुम्बा ट्रस्ट की स्थापना कि थी जिसका मकसद भारतीय विधवाओं को आर्थिक सहयोग देकर शिक्षा और रोजगार या नौकरी दिलाना था ताकि वे सम्मानित ज़िन्दगी जी सकें। ट्रस्ट हर साल भारत के किसी एक राज्य की विधवाओं को आर्थिक सहयोग देता है। ट्रस्ट के सहयोग से उत्तराखण्ड की विधवाओं ने इस वर्ष नई सुबह का सूरज देखा है। इस दिशा में संदेश देने का सबसे सशक्त साधन फ़िल्में हैं जो जन-जन तक पहुँचती हैं और जिसका आकर्षण बरकरार है।