तुम भी / राजी सेठ / पृष्ठ 2

Gadya Kosh से
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आज क्या देबू आया था? वह खाना खाकर बिस्तर पर लेटा था।

आया था...सुनो, तुम्हें उससे डर नहीं लगता? किससे? ...देबू से...? नहीं, अनाज वाले लाला से...तुम्हारी शिकायत कर दे तो? वह साहस करके कह गई। वह धीमे परंतु कठोर स्वर में बोला, नहीं। क्यों नहीं...? वह लोगों को लूटता है, मैं उसको लूटता हूं। उसका लूटना ग़लत है तो तुम्हारा भी... वह उठकर बैठ गई। अमर कुछ न बोला। सुनो, तुम्हें भगवान से भी डर नहीं लगता...? तुम जो डर लेती हो...। उससे क्या होता है... होता है...मेरी करनी मेरे पास रहती है। तुम्हारी तुम्हारे पास...बोझ से मरूंगा तो मैं ही...। ऐसा मत कहो... पति का मुंह अपनी कांपती हथेली से ढंकती हुई वह बोली, हम-तुम दो हैं क्या...? फिर वही अंधेरे को घूरती उसकी अबूझ चुप्पी। हां, किसी-किसी जगह पर पहुंचकर हम-तुम दो हैं...! कैसे? तुम इसे समझ नहीं सकतीं...। चलो छोड़ो...! मां की तबीयत अब कैसी है...? उसने आंखें फाड़कर पति को देखा, क्यों, क्या तुम घर में नहीं रहते? मैं? मैं घर में कहां रहता हूं...! कब होता हूं मैं घर में...? मेरे भीतर तो... स्वर में एक अबूझ विषाद। किस तरह की बातें कर रहे हो तुम...? सुनो, एक बात मानोगे? हूं...। छह महीने के लिए तुम देबू की पढ़ाई छुड़वा दो...वज़ीफे से कुछ मदद होगीछह महीने बाद भी डॉक्टर बन जाएगा तो क्या फर्ष्कष् पड़ेगा। नहीं सरना...देबू की अपनी ज़िंदगी है, अपनी किस्मत...। उसे अपने लिए दांव पर नहीं लगाउं+गा। पर उसकी भी तो कोई जिम्मेवारी है। है, पर मेरी भी तो उसके लिए कोई जिम्मेवारी है। तो फिर...फिर मुझे स्वेटर बुनने की एक मशीन दिला दो...इसमें बुरा तो कुछ नहीं...सब घर बैठे-बैठे करते हैं... दिला दूंगा, अभी तो...जानती हो, मां की बीमारी में सब कुछ हाथ से निकल गया। जानती हूं, आवाज़ कटार हो आयी। उनका इसमें क्या दोष है सरना...? क्या इसके लिए तुम उन्हें माफ नहीं कर सकतीं...? सिर से पकड़ी जाकर वह खिसिया गई। फूट पड़ी, तो फिर मैं क्या करूं...? क्या करूं? तुम कुछ मत करो सरना! एक पीड़ित शैथिल्य से भरा वह सरना को अपने साथ सटाते हुए बोला, मेरे पास बनी रहो...इसी तरह...हमेशा...सहना आसान हो जाता है, पत्नी की हथेली खींचकर उसने अपनी छाती पर रख ली और अपनी उंगलियों से उसकी खुरदरी उंगलियों के पोरों को छूता रहा।

दूसरे-चौथे दिन उसे साइकिल पर बोरी लादकर ले जाते देख सरना का जी धसक जाता। एक रात पहलेपति का गुमसुम खाट पर बैठे होना...आधी रात गए घिस-घिस आवाज़ें...पसीने से लथ-पथ शरीर...श्रांत होकर सुबह उठना ...निर्वाक्, इधर से उधर डोलना...अक्सर सब कुछ असह्य लगने लगता। एक दिन डरते-डरते बोली, किसी दिन तुलवा लिया तो? एक लंबी-सी लोहे की छड़अंदर से खोखली, सिरे से पैनी उसने दरवाज़े के पीछे से निकालकर पत्नी के सामने डाल दी। बिना खोले बोरी के पेट में जिसकी नोक भोंककर नमूने का अनाज जिससे निकालते हैं व्यापारीवह औज़ार।


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