तुलसी की भावुकता / गोस्वामी तुलसीदास / रामचन्द्र शुक्ल

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प्रबन्धकार कवि की भावुकता का सबसे अधिक पता यह देखने से चल सकता है कि वह किसी आख्यान के अधिक मर्मस्पर्शी स्थलों को पहचान सका है या नहीं। राम कथा के भीतर ये स्थल अत्यन्त मर्मस्पर्शी हैं-राम का अयोध्या त्याग और पथिक के रूप में वनगमन; चित्रकूट में राम और भरत का मिलन; शबरी का आतिथ्य; लक्ष्मण को शक्ति लगने पर राम का विलाप; भरत की प्रतीक्षा। इन स्थलों को गोस्वामीजी ने अच्छी तरह पहचाना है; इनका उन्होंने अधिक विस्तृत और विशद वर्णन किया है।

एक सुन्दर राजकुमार के-छोटे भाई और स्त्री को लेकर-घर से निकलने और वन वन फिरने से अधिक मर्मस्पर्शी दृश्य क्या हो सकता है? इस दृश्य का गोस्वामीजी ने मानस, कवितावली और गीतावली तीनों में अत्यन्त सहृदयता के साथ वर्णन किया है। गीतावली में तो इस प्रसंग के सबसे अधिक पद हैं। ऐसा दृश्य स्त्रियों को सबसे अधिक स्पर्श करनेवाला, उनकी प्रीति, दया और आत्मत्याग को सबसे अधिक उभारनेवाला होता है, यह बात समझकर मार्ग में उन्होंने ग्राम बधुओं का सन्निवेश किया है। ये स्त्रियाँ राम जानकी के अनुपम सौन्दर्य पर स्नेह शिथिल हो जाती हैं, उनका वृत्तान्त सुनकर राजा की निष्ठुरता पर पछताती हैं; कैकेयी की कुचाल पर भला बुरा कहती हैं। सौन्दर्य के साक्षात्कार से थोड़ी देर के लिए उनकी वृत्तियाँ कोमल हो जाती हैं, वे अपने को भूल जाती हैं। यह कोमलता उपकार बुद्धि की जननी है-

सीता लषन सहित रघुराई। गाँव निकट जब निकसहिं जाई।।

सुनि सब बालबृद्ध नर नारी। चालहिं तुरत गृह काज बिसारी।।

राम लषन सिय रूप निहारी। पाइ नयन फल होहिं सुखारी।।

सजल विलोचन पुलक सरीरा। सब भए मगन देखि दोउ बीरा।।

रामहिं देखि एक अनुरागे। चितवत चले जाहि सँग लागे।।

एक देखि बट छाँह भलि, डासि मृदुल तृन पात।

कहहिं 'गँवाइय छिनुक स्तम, गवनब अबहिं कि प्रात'।।

राम जानकी के अयोध्याइ से निकलने का दृश्य वर्णन करने में गोस्वामीजी ने कुछ उठा नहीं रखा। सुशीलता के आगार रामचन्द्र प्रसन्नमुख निकलकर दास दासियों को गुरु के सुपुर्द कर रहे हैं, सबसे वही करने की प्रार्थना करते हैं जिससे राजा का दु:ख कम हो। उनकी सर्वभूतव्यापिनी सुशीलता ऐसी है कि उनके वियोग में पशु पक्षी भी विकल हैं। भरतजी जब लौटकर अयोध्यान आए, तब उन्हें सर सरिताएँ भी श्रीहीन दिखाई पड़ीं, नगर भी भयानक लगा। भरत को यदि रामगमन का संवाद मिल गया होता तो हम इसे भरत के हृदय की छाया कहते। पर घर में जाने के पहले उन्हें कुछ भी वृत्ता ज्ञात नहीं था। इससे हम सरसरिता के श्रीहीन होने का अर्थ उनकी निर्जनता, उनका सन्नाटापन लेंगे। लोग रामवियोग में विकल पड़े हैं। सरसरिता में जाकर स्नान करने का उत्साह उन्हें कहाँ? पर यह अर्थ हमारे आपके लिए है। गोस्वामीजी ऐसे भावुक महात्मा के निकट तो राम के वियोग में अयोध्याय की भूमि ही विषादमग्न हो रही है; आठ आठ ऑंसू रो रही है।

चित्रकूट में राम और भरत का जो मिलन हुआ है, वह शील और शील का, स्नेह और स्नेह का, नीति और नीति का मिलन है। इस मिलन से संघटित उत्कर्ष की दिव्य प्रभा देखने योग्य है। यह झाँकी अपूर्व है? 'भायप भगति' से भरे भरत नंगे पाँव राम को मनाने जा रहे हैं। मार्ग में जहाँ सुनते हैं कि यहाँ पर राम लक्ष्मण ने विश्राम किया था, उस स्थल को देख ऑंखों में ऑंसू लेते हैं-

राम बास थल बिटप बिलोके। उर अनुराग रहत नहिं रोके।।

मार्ग में लोगों से पूछते जाते हैं कि राम किस वन में हैं। जो कहता है कि हम उन्हें सकुशल देखे आते हैं, वह उन्हें राम लक्ष्मण के समान ही प्यारा लगता है। प्रिय सम्बन्धी आनन्द के अनुभव की आशा देनेवाला एक प्रकार के उस आनन्द को जगानेवाला है-'उद्दीपन' है। सब माताओं से पहले राम कैकेयी से प्रेमपूर्वक मिले। क्यों? क्या उसे चिढ़ाने के लिए? कदापि नहीं। कैकेयी से प्रेमपूर्वक मिलने की सबसे अधिक आवश्यकता थी। अपना महत्तव या सहिष्णुता दिखाने के लिए नहीं, उसके परितोष के लिए। अपनी करनी पर कैकेयी को जो ग्लानि थी, वह राम ही के दूर किए हो सकती थी, और किसी के किए नहीं। उन्होंने माताओं से मिलते समय स्पष्ट कहा था-

अंब! ईस आधीन जग काहु न देइय दोषु।

कैकेयी को ग्लानि थी या नहीं, इस प्रकार के सन्देह का स्थान गोस्वामीजी ने नहीं रखा। कैकेयी की कठोरता आकस्मिक थी, स्वभावगत नहीं। स्वभागवत भी होती तो भी राम की सरलता और सुशीलता उसे कोमल करने में समर्थ थी।

लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानि पछितानी अघाई।।

अवनि जमहि जाचति कैकेयी। महि न बीचु, बिधि मीचु न देई।।

जिस समाज के शील सन्दर्भ की मनोहारिणी छटा को देख वन के कोल किरात मुग्ध होकर सात्वि क वृत्ति में लीन हो गए, उसका प्रभाव उसी समाज में रहनेवाली कैकेयी पर कैसे न पड़ता?

(क) भए सब साधु किरात किरातिनि राम दरस मिटि गई कलुषाई।

(ख) कोलकिरात भिल्ल बनवासी। मधु सुचि सुन्दर स्वादु सुधा-सी।।

भरि भरि परन पुटी रुचि रूरी। कन्द मूल फल अंकुर जूरी।।

सबहिं देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुननामा।।

देहिं लोग बहु, मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं।।

और सबसे पुलकित होकर कहते हैं-

तुम्ह प्रिय पाहुन बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे।।

देब काह हम तुम्हहिं गोसाईं। ईंधन पात किरात मिताई।।

यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहिं न बासन बसन चोराई।।

हम जड़ जीव जीव धन घाती। कुटिल कुचाली कुमतिकुजाती।।

सपनेहुँ धरम बुद्धि कस काऊ। यह रघुनन्दन दरस प्रभाऊ।।

उस पुरुष समाज के प्रभाव से चित्रकूट की रमणीयता में पवित्रता भी मिल गई। उस समाज के भीतर नीति, स्नेह, शील, विनय, त्याग आदि के संघर्ष से जो धर्मज्योति फूटी उससे आसपास का सारा प्रदेश जगमगा उठा-उसकी मधुर स्मृति से आज भी वहाँ की वनस्थली परम पवित्र है। चित्रकूट की उस सभा की कार्रवाई क्या थी, धर्म के एक एक अंग की पूर्ण और मनोहर अभिव्यक्ति थी। रामचरितमानस में वह सभा एक अध्याुत्मिक घटना है। धर्म के इतने स्वरूपों की एकसाथ योजना, हृदय की इतनी उदात्त वृत्तियों की एकसाथ उद्भावना तुलसी के ही विशाल 'मानस' में सम्भव थी। यह सम्भावना उस समाज के भीतर बहुत से भिन्न भिन्न वर्गों के समावेश द्वारा संघटित की गई है। राजा और प्रजा, गुरु और शिष्य, भाई और भाई, माता और पुत्र, पिता और पुत्री, श्वसुर और जामाता, सास और बहू, क्षत्रिय और ब्राह्मण, ब्राह्मण और शूद्र, सभ्य और असभ्य के परस्पर व्यवहारों का उपस्थित प्रसंग के धर्मगाम्भीर्य और भावोत्कर्ष के कारण, अत्यन्त मनोहर रूप प्रस्फुटित हुआ। धर्म के उस स्वरूप को देख सब मोहित हो गए-क्या नागरिक क्या ग्रामीण और क्या जंगली। भारतीय शिष्टता और सभ्यता का चित्र यदि देखना हो तो इस राज समाज में देखिए। कैसी परिष्कृत भाषा में, कैसी प्रवचन पटुता के साथ, प्रस्ताव उपस्थित होते हैं, किस गम्भीरता और शिष्टता के साथ बात का उत्तर दिया जाता है, छोटेबड़े की मर्यादा का किस सरसता के साथ पालन होता है। सबकी इच्छा है कि राम अयोध्याा को लौटें; पर उनके स्थान पर भरत बन को जायँ, यह इच्छा भरत को छोड़ शायद ही और किसी के मन में हो। अपनी प्रबल इच्छाओं को लिए हुए लोग सभा में बैठते हैं; पर वहाँ बैठते ही धर्म के स्थिर और गम्भीर स्वरूप के सामने उनकी व्यक्तिगत इच्छाओं का कहीं पता नहीं रह जाता। राजा के सत्यपालन से जो गौरव राजा और प्रजा दोनों को प्राप्त होता दिखाई दे रहा है, उसे खंडित देखना वे नहीं चाहते। जनक, वशिष्ठ, विश्वामित्रा आदि धर्मतत्व के पारदर्शी जो कुछ निश्चय कर दें, उसे वे कलेजे पर पत्थर रखकर मानने को तैयार हो जाते हैं।

इस प्रसंग में परिवार और समाज की ऊँची नीची श्रेणियों के बीच कितने सम्बन्ध का उत्कर्ष दिखाई पड़ता है, देखिए-

(1) राजा और प्रजा का सम्बन्ध लीजिए। अयोध्याि की सारी प्रजा अपना सब काम धन्धा छोड़ भरत के पीछे राम के प्रेम में उन्हीं के समान मग्न चली जा रही है और चित्रकूट में राम के दर्शन से आह्लादित होकर चाहती है कि चौदह वर्ष यहीं काट दें।

(2) भरत का अपने बड़े भाई के प्रति जो अलौकिक स्नेह और भक्तिभाव वहाँ से यहाँ तक झलकता है, वह तो सबका आधार ही है।

(3) ऋषि या आचार्य के सम्मुख प्रगल्भता प्रकट होने के भय से भरत और राम अपना मत तक प्रकट करते सकुचाते हैं।

(4) राम सब माताओं से जिस प्रकार प्रेमभाव से मिले, वह उनकी शिष्टता का ही सूचक नहीं है, उनके अन्त:करण की कोमलता और शुद्धता भी प्रकट करता है।

(5) विवाहिता कन्या को पति की अनुगामिनी देख जनक जो यह हर्ष प्रकट करते हैं-

पुत्रि! पवित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जग कह सब कोऊ।।

वह धर्मभाव पर मुग्ध होकर ही।

(6) भरत और राम दोनों जनक को पिता के स्थान पर कहकर सब भार उन्हीं पर छोड़ते हैं।

(7) सीताजी अपने पिता के डेरे पर जाकर माता के पास बैठी हैं। इतने में रात हो जाती है और वे असमंजस में पड़ती हैं-

कहत न सीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब रजनी भल नाहीं।।

पति तपस्वी के वेश में भूशय्या पर रात काटे और पत्नी उससे अलग राजसी ठाट बाट के बीच रहे, यही असमंजस की बात है।

(8) जब से कौशल्या आदि आई हैं, तब से सीता बराबर उनकी सेवा में लगी रहती हैं।

(9) ब्राह्मण वर्ग के प्रति राज वर्ग के आदर और सम्मान का जैसा मनोहर स्वरूप दिखाई पड़ता है, वैसे ही ब्राह्मण वर्ग में राज्य और लोक के हितसाधन की तत्परता झलक रही है।

(10) केवट के दूर से ऋषि को प्रणाम करने और ऋषि के उसे आलिंगन करने में उभय पक्ष का व्यवहारसौष्ठव प्रकाशित हो रहा है।

(11) वन्य कोल किरातों के प्रति सबका कैसा मृदुल और सुशील व्यवहारहै।

कवि की पूर्ण भावुकता इसमें है कि वह प्रत्येक मानवस्थिति में अपने को डालकर उसके अनुरूप भाव का अनुभव करे। इस शक्ति की परीक्षा का रामचरित से बढ़कर विस्तृत क्षेत्रों और कहाँ मिल सकता है! जीवनस्थिति के इतने भेद और कहाँ दिखाई पड़ते हैं! इस क्षेत्रों में जो कवि सर्वत्रा पूरा उतरता दिखाई पड़ता है, उसकी भावुकता को और कोई नहीं पहुँच सकता। जो केवल दाम्पत्य रति में ही अपनी भावुकता प्रकट कर सकें, या वीरोत्साह ही का अच्छा चित्रण कर सकें, वे पूर्ण भावुक नहीं कहे जा सकते। पूर्ण भावुक वे ही हैं जो जीवन की प्रत्येक स्थिति के मर्मस्पर्शी अंश का साक्षात्कार कर सकें और उसे श्रोता या पाठक के सम्मुख अपनी शब्दशक्ति द्वारा प्रत्यक्ष कर सकें। हिन्दी के कवियों में इस प्रकार की सर्वांगपूर्ण भावुकता हमारे गोस्वामीजी में ही है जिसके प्रभाव से रामचरितमानस उत्तरी भारत की सारी जनता के गले का हार हो रहा है। वात्सल्य भाव का अनुभव करके पाठक तुरन्त बालक राम लक्ष्मण के प्रवास का उत्साहपूर्ण जीवन देखते हैं जिसके भीतर आत्मावलम्बन का विकास होता है। फिर आचार्यविषयक रति का स्वरूप देखते हुए वे जनकपुर में जाकर सीताराम के परम पवित्र दाम्पत्य भाव के दर्शन करते हैं। इसके उपरान्त अयोध्या त्याग के करुण दृश्य के भीतर भाग्य की अस्थिरता का कटु स्वरूप सामने आता है। तदनन्तर पथिक वेशधारी राम जानकी के साथ साथ चलकर पाठक ग्रामीण स्त्री पुरुषों के उस विशुद्ध सात्विकक प्रेम का अनुभव करते हैं जिसे हम दाम्पत्य, वात्सल्य आदि कोई विशेषण नहीं दे सकते, पर जो मनुष्यमात्र में स्वाभाविक है।

रमणीय वन पर्वत के बीच एक सुकुमारी राजवधू को साथ लिए दो वीर आत्मावलम्बी राजकुमारों को विपत्ति के दिनों को सुख के दिनों में परिवर्तित करते पाकर वे 'वीरभोग्या वसुंधरा' की सत्यता हृदयंगम करते हैं। सीताहरण पर विप्रलम्भ ऋंगार का माधुर्य देखकर पाठक फिर लंका दहन के अद्भुत, भयानक और बीभत्स दृश्य का निरीक्षण करते हुए राम रावण युद्ध के रौद्र और युद्धवीर तक पहुँचते हैं। शान्तरस का पुट तो बीच बीच में बराबर मिलता ही है। हास्यरस का पूर्ण समावेश रामचरितमानस के भीतर न करके नारद मोह के प्रसंग में उन्होंने किया है। इस प्रकार काव्य के गूढ़ और उच्च उद्देश्य को समझनेवाले, मानव जीवन के सुख और दु:ख दोनों पक्षों के नाना रूपों के मर्मस्पर्शी चित्रण को देखकर, गोस्वामीजी के महत्तव पर मुग्ध होते हैं; और स्थूल बहिरंग दृष्टि रखनेवाले भी, लक्षण ग्रन्थों में गिनाए हुए नव रसों और अलंकारों पर, अपना आह्लाद प्रकट करते हैं।

यहाँ पर कहा जा सकता है कि गोस्वामीजी मनुष्य जीवन की बहुत अधिक परिस्थितियों का जो सन्निवेश कर सके, वह रामचरित की विशेषता के कारण। इतने अधिक प्रकार की मानव दशाओं का सन्निवेश आपसे आप हो गया। ठीक है, पर उन सब दशाओं का यथातथ्य चित्रण बिना हृदय की विशालता, भावप्रसार की शक्ति, मर्मस्पर्शी स्वरूपों की उद्भावना और शब्दशक्ति की सिध्दि के नहीं हो सकता। मानव प्रकृति के जितने अधिक रूपों के साथ गोस्वामीजी के हृदय का रागात्मक सामंजस्य हम देखते हैं, उतना अधिक हिन्दी भाषा के और किसी कवि के हृदय का नहीं। यदि कहीं सौन्दर्य है तो प्रफुल्लता, शक्ति है तो प्रणति, शील है तो हर्षपुलक, गुण है तो आदर, पाप है तो घृणा, अत्याचार है तो क्रोध, अलौकिकता है तो विस्मय, पाखंड है तो कुढ़न, शोक है तो करुणा, आनन्दोत्सव है तो उल्लास, उपकार है तो कृतज्ञता, महत्तव है तो दीनता, तुलसीदासजी के हृदय में बिम्बप्रतिबिम्ब भाव से विद्यमान है।

गोस्वामीजी की भावात्मक सत्ता का अधिक विस्तार स्वीकार करते हुए भी यह पूछा जा सकता है कि क्या उनके भावों में पूरी गहराई या तीव्रता भी है? यदि तीव्रता न होती, भावों का पूर्ण उद्रेक उनके वचनों में न होता, तो वे इतने सर्वप्रिय कैसे होते? भावों के साधारण उद्वार से ही सबकी तृप्ति नहीं हो सकती। यह बात अवश्य है कि जो भाव सबसे अधिक प्रकृतिस्थ है, उसकी व्यंजना सबसे अधिक गूढ़ और ठीक है। जो प्रेमभाव अत्यन्त उत्कर्ष पर पहुँचा हुआ उन्होंने प्रकट किया है, वह अलौकिक है, अविचल है और अनन्य है। वह घन और चातक का प्रेम है।

एक भरोसो, एक बल, एक आस बिस्वास।

एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास।।

अपना उद्देश्य वह आप ही है। उसकी प्यास, उसकी उत्कंठा सदा बनी रहे, इसी में उसकी मर्यादा है; इसी में उसका महत्तव है-

चातक तुलसी के मते स्वातिहु पियै न पानि।

प्रेम तृषा बाढ़ति भली, घटे घटैगी आनि।।

प्रिय के लाख दुर्वव्यावहार से भी वह हटनेवाला नहीं है-

बरषि परुष पाहन पयद पंख करौ टुक टूक।

तुलसी परी न चाहिए चतुर चातकहि चूक।।

उपल बरषि गरजत तरजि, डारत कुलिस कठोर।

चितव कि चातक मेघ तजि कबहुँ दूसरी ओर?

वह मेघ के लोकहितकर स्वरूप के प्रति आप से आप है-वह जगत् के हित को देखकर है-

जीव चराचर जहँ लग है सब को हित मेह।

तुलसी चातक मन बस्यौ घन सों सहज सनेह।।

जगत में सब अपने सुख के लिए अनेक साधन और यत्न करते हैं और फलप्राप्ति से सुखी होते हैं। फिर चातक और मेघ का वह प्रेम कैसा है जिसके भीतर न किसी सुख का साधन है, न फल की चाह! यह ऐसा ही कुछ है-

साधन साँसति सब सहत, सबहिसुखदफल लाहु।

तुलसी चातक जलद की, रीझि बूझि बुध काहु।।

चातक को मेघ का जीवों को सुख देना अत्यन्त प्रिय लगता है। वह जो बारहों महीने चिल्लाता है, सो अधिकतर प्रिय के इस सुखदायक मनोहर रूप के दर्शन के लिए, केवल स्वाती की दो बूँदों के लिए नहीं-

जाँचै बारह मास, पियै पपीहा स्वाति जल।

उसकी याचना के भीतर जगत् की याचना है, अत: इस याचना से उसका मान है। इस माँगने को वह अपना माँगना नहीं समझता-

नहिं जाचत नहिं संग्रही सीस नाइ नहिं लेइ।

ऐसे मानी माँगनेहि को बारिद बिनु देइ।।

अब इस प्रेम की अनन्यता का स्वरूप देखिए-

चरग चंगुगत चातकहिं नेम प्रेम की पीर।

तुलसी परबस हाड़ पर परिहै पुहमी नीर।।

बधयो बधिक, परयो पुन्यजल, उलटि उठाई चोंच।

तुलसी चातक प्रेमपट मरतहुँ लगी न खोंच।।

चातक का प्रिय लोकसुखदायी है। उसका मेघ सचमुच बड़ा है और सबके लिए बड़ा है। अत: चातक के प्रेम के भीतर महत्तव की आनन्दमयी स्वीकृति छिपी हुई है। इस महत्तव के सम्मुख वह जो दीनता प्रकट करता है वह सच्ची दीनता है, हृदय के भीतर अनुभव की हुई दीनता है, प्रेम की दीनता है। किसी के महत्तव की सच्ची अनुभूति से उत्पन्न दीनता से भिन्न दीनता को लोभ, भय आदि का बदला हुआ रूप समझिए। जिससे बड़ा चातक और किसी को नहीं समझता, उसे छोड़ यदि और किसी के सामने वह दीनता प्रकट करे तो उसकी दीनता की सच्चा ई में फर्क आ जाय, उसके प्रेम की अनन्यता भंग हो जाय। जो आज एक से कहता है कि 'आपसे न माँगें तो और किससे माँगने जायँगे?' और कल दूसरे से, वह उस दैन्य तक पहुँच ही नहीं सकता जो भक्ति का अंग है। जिस महत्तव के प्रति सच्ची दीनता प्रकट की जाती है, उसका कुछ आभास लोक को उस दीनता में दिखाई पड़ता है-

तीन लोक तिहुँ काल जस चातक ही के माथ।

तुलसी जासु न दीनता सुनी दूसरे नाथ।।

इस प्रेम के सम्बन्ध में ध्याेन देने की बात यह है कि यह समान के प्रति नहीं है, अपने से बड़े या ऊँचे के प्रति है। गोस्वामीजी अपने से बड़े या छोटे के साथ प्रेम करने को समान के साथ प्रेम करने से अच्छा समझते हैं-

कै लघु कै बड़ मीत भल, सम सनेह दुख सोइ।

तुलसी ज्यों घृत मधु सरिस मिले महाबिष होइ।।

इससे उनका भीतरी अभिप्राय यह है कि छोटे बड़े के सम्बन्ध में धर्मभाव अधिक है। यदि प्रिय हमसे छोटा है तो उसपर जो हमारा प्रेम होगा वह दया, दाक्षिण्य, अनुकम्पा, क्षमा, साहाय्य इत्यादि वृत्तियों को उभारेगा, यदि प्रिय हमसे बड़ा है तो उसपर आलम्बित प्रेम, श्रद्धा, सम्मान, दैन्य, नम्रता, संकोच, कृतज्ञता, आज्ञाकारिता इत्यादि को जाग्रत करेगा। इसमें तो कुछ कहना ही नहीं कि हमारे गोस्वामीजी का प्रेम दूसरे प्रकार का था-वह पूज्यबुद्धिगर्भित होकर भक्ति के रूप में था। उच्चता की जैसी प्राप्ति उच्च को आत्मसमर्पण करने से हो सकती है, वैसी समान को आत्मसमर्पण करने से नहीं। यह तो पहले ही दिखाया जा चुका है कि शील बाबाजी द्वारा निरूपित भक्ति के आलम्बन के स्वरूप के-आभ्यन्तर स्वरूप के सही-अन्तर्गत है। भक्ति और शील की परस्पर स्थिति ठीक उसी प्रकार बिम्बप्रतिबिम्ब भाव से है जिस प्रकार आश्रय और आलम्बन की। और आगे चलिए तो आश्रय और आलम्बन की परस्पर स्थिति भी ठीक वही मिलती है जो ज्ञाता और ज्ञेय की है। हमें तो ऐसा दिखाई पड़ता है कि जो ज्ञान क्षेत्रों में ज्ञाता और ज्ञेय है, वही भाव क्षेत्रों में आश्रय और आलम्बन है। ज्ञान की जिस चरम सीमा पर जाकर ज्ञाता और ज्ञेय एक हो जाते हैं, भाव की उसी चरम सीमा पर जाकर आश्रय और आलम्बन भी एक हो जाते हैं। शील और भक्ति का अभेद देखने का इतना विवेचन बहुत है।

दाम्पत्य प्रेम का दृश्य भी गोस्वामीजी ने बहुत ही सुन्दर दिखाया है, पर बड़ी ही मर्यादा के साथ। नायिकाभेदवाले कवियों का सा या कृष्ण की रासलीला के रसिकों का सा लोकमर्यादा का उल्लंघन उसमें कहीं नहीं है। सीता राम के परम पुनीत प्रणय की जो प्रतिष्ठा उन्होंने मिथिला में की, उसकी परिपक्वता जीवन की भिन्न भिन्न दशाओं के बीच पति पत्नी के सम्बन्ध की उच्चता और रमणीयता संघटित करती दिखाई देती है। अभिषेक के समय राम को वन जाने की आज्ञा मिलती है। आनन्दोत्सव का सारा दृश्य करुण दृश्य में परिणत हो जाता है। राम वन जाने को तैयार हैं और वन के क्लेश बताते हुए सीता को घर रहने के लिए कहते हैं। इसपर सीता कहती हैं-

बन दुख नाथ कहे बहुतेरे। भय बिषाद परिताप घनेरे।।

प्रभु बियोग लवलेस समाना। सब मिलि होहिं न कृपानिधाना।।

कुस किसलय साथरी सुहाई । प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई।।

कन्द मूल फल अमिय अहारू। अवध सौधसत सरिस पहारू।।

मोहिं मग चलत न होइहि हारी । छिनु छिनु चरन सरोज निहारी।।

पाँय पखारि बैठि तरु छाहीं । करिहौं बाउ मुदित मन माहीं।।

बार बार मृदु मूरति जोही। लागिहि ताति बयारि न मोही।।

दु:ख की परिस्थिति में सुख की इस कल्पना के भीतर हम जीवनयात्रा में श्रान्त पथिक के लिए प्रेम की शीतल सुखद छाया देखते हैं। यह प्रेम मार्ग निराला नहीं है, जीवनयात्रा के मार्ग से अलग होकर जानेवाला नहीं है। यह प्रेम कर्मक्षेत्रों से अलग नहीं करता, उसमें बिखरे हुए काँटों पर फूल बिछाता है। राम जानकी को नंगे पाँव चलते देख ग्रामवासी कहते हैं-

जौ जगदीस इनहिं बन दीन्हा। कस न सुमनमय मारग कीन्हा।।

थोड़ी दूर साथ चलकर उन्होंने जान लिया होगा कि उनका मार्ग 'सुमनमय' ही है। प्रेम के प्रभाव से जंगल में भी मंगल था। सीता को तो सहस्त्रों अयोध्यामओं का सुख वहाँ मिल रहा था-

नाह नेह नित बढ़त बिलोकी। हरषित रहति दिवस जिमि कोकी।।

सिय मन राम चरन अनुरागा । अवध सहस सम बन प्रिय लागा।।

परन कुटी प्रिय प्रियतम संगा। प्रिय परिवार कुरंग बिहंगा।।

सासु ससुरसम मुनितिय मुनिबर । असन अमियसम कन्द मूल फर।।

अयोध्याु से अधिक सुख का रहस्य क्या है? प्रिय के साथ सहयोग के अधिक अवसर। अयोध्याप में सहयोग और सेवा के इतने अवसर कहाँ मिल सकते थे? जीवनयात्रा की स्वाभाविक आवश्यकताओं की पूर्ति वन में अपने हाथों से करनी पड़ती थी। कुटी छाना, स्थान स्वच्छ करना, जल भर लाना, ईंधन और कन्दमूल इकट्ठा करना इत्यादि वहाँ के नित्य जीवन के अंग थे। ऐसे प्राकृतिक जीवन में प्रेम का जो विकास हो सकता है, वह कृत्रिम जीवन में दुर्लभ है। प्रिय के प्रयत्नों में ऐसे ही स्वाभाविक सहयोग की अभिलाषिणी एक ग्रामीण नायिका कहती है-

आगि लागि घर जरिगा, बड़ सुख कीन।

पिय के हाथ घइलवा भरि भरि दीन।।

दूसरा कारण इस सुख का था हृदय का प्रकृति के अनेक रूपों के साथ सामंजस्य, जिसके प्रभाव से 'कुरंग बिहंग' अपने परिवार के भीतर जान पड़ते थे। उस जगज्जननी जानकी का हृदय ऐसा न होगा तो और किसका होगा जिसे एक स्थान पर लगाए हुए फूल पौधों को छोड़कर अन्य स्थान पर जाते हुए भी दु:ख होता था।

सीताजी द्वारा ऋंगार के संचारी भाव 'व्रीड़ा' की व्यंजना के लिए कैसा उपयुक्त अवसर चुना गया है! वन के मार्ग में ग्रामीण स्त्रियाँ राम की ओर लक्ष्य करके सीता से पूछती हैं कि ये तुम्हारे कौन हैं। इसपर सीता-

तिनहिं बिलोकि बिलोकति धरनी। दुहुँ, सँकोच सकुचति वर बरनी।।

'विलोकति धरनी' कितनी स्वाभाविक मुद्रा है! 'दुहुँ सँकोच' द्वारा कवि ने सीता, के हृदय की कोमलता और अभिमानशून्यता भी कैसे ढंग से व्यंजित कर दी है। एक तो राम को खुले शब्दों में अपना पति कहने में संकोच; दूसरा संकोच यह समझकर कि यदि इन भोलीभाली स्त्रियों को कोई उत्तर न दिया जायेगा तो ये मन में दुखी होंगी और मुझे अभिमानिनी समझेंगी।

इसके आगे सीताजी में ऋंगारी चेष्टाओं का विधान भी अत्यन्त निपुणता और भावुकता के साथ गोस्वामीजी ने किया है-

बहुरि बदन-बिधु अंचल ढाँकी । पिय तन चितै भौंह करि बाँकी।।

खंजनमंजुतिरीछे नैननि। निज पति कहेउ तिन्हहिं सिय सैननि।।

यदि आम रास्ते पर राम के साथ बातचीत करने में ये चेष्टाएँ दिखाई जातीं तो कुलवधू की मर्यादा का भंग होता और कोई विशेष निपुणता की बात न होती, रूढ़ि का अनुसरण मात्र होता। पर बीच में उन स्त्रियों को डाल देने से एक परदा भी खड़ा हो गया और अधिक स्वाभाविकता भी आ गई। सीता में ये चेष्टाएँ अपने साथ राम के सम्बन्ध की भावना द्वारा उत्पन्न दिखाई पड़ती हैं। यदि रामसीता के परस्पर व्यवहार में ये चेष्टाएँ दिखाई जातीं तो 'संभोग ऋंगार' का खुला वर्णन हो जाता, जो गोस्वामीजी ने कहीं नहीं किया है।

अब प्रश्न यह है कि ये चेष्टाएँ 'अनुभाव' होंगी या विभावान्तर्गत 'हाव'। हिन्दी के लक्षणग्रन्थों में 'हाव' प्राय: 'अनुभाव' के अन्तर्गत रखे मिलते हैं। पर यह ठीक नहीं है। 'अनुभाव' के अन्तर्गत केवल आश्रय की चेष्टाएँ आ सकती हैं। 'आश्रय' की चेष्टाओं का उद्देश्य किसी भाव की व्यंजना करना होता है। पर 'हावों' का सन्निवेश किसी भाव की व्यंजना कराने के लिए नहीं होता, बल्कि नायिका का मोहक प्रभाव बढ़ाने के लिए, अर्थात् उसकी रमण्यता की वृध्दि के लिए, होता है। जिसकी रमणीयता या चित्ताकर्षकता का वर्णन या विधान किया जाता है, वह 'आलम्बन' होता है। अत: 'हाव' नामक चेष्टाएँ आलम्बनगत ही मानी जायँगी और आलम्बनगत होने के कारण उनका स्थान 'विभाव' के अन्तर्गत ही ठहरता है।

अब विचार करना चाहिए कि सीताजी की उक्त चेष्टाएँ 'अनुभाव' होंगी या 'हाव'। लक्षण के अनुसार 'संभोगेच्छा प्रकाशक भ्रूनेत्रादिविकार' ही 'हाव' कहलाते हैं। पर सीताजी के विकार इस प्रकार के नहीं हैं। वे विकार राम के साथ अपने सम्बन्ध की भावना से उत्पन्न हैं और उनके प्रेम की व्यंजना करते हैं। इस प्रकार आश्रय की चेष्टाएँ होने के कारण वे विकार 'अनुभाव' ही होंगे।

सीताहरण होने पर इस प्रेम को हम एक ऐसे मनोहर क्षेत्रों का द्वार खोलते हुए पाते हैं जिसमें बल और पराक्रम अपनी परमावस्था को पहुँचकर अनीति और अत्याचार का ध्वंरस कर देता है। वन में सीता का वियोग चारपाई पर करवटें बदलवानेवाला प्रेम नहीं है-चार कदम पर मथुरा गए हुए गोपाल के लिए गोपियों को बैठे बैठे रुलानेवाला वियोग नहीं है, झाड़ियों में थोड़ी देर के लिए छिपे हुए कृष्ण के निमित्ता राधा की ऑंखों से ऑंसुओं की नदी बहानेवाला वियोग नहीं है-यह राम को निर्जन वनों और पहाड़ों में घुमानेवाला, सेना एकत्र करानेवाला, पृथ्वी का भार उतारनेवाला वियोग है। इस वियोग की गम्भीरता के सामने सूरदास द्वारा अंकित वियोग अतिशयोक्ति पूर्ण होने पर भी बालक्रीड़ा सा लगता है।

हनुमान् के प्रकट होने के पहले जानकी उद्विग्न होकर कह रही थीं-

पावकमय ससि स्तवत न आगी। मानहुँ मोहिं जानि हतभागी।।

सुनिय बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका।।

नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जिनि करहि निदाना।।

इतना कहते ही हनुमान का मुद्रिका गिराना और सीता का उसे अंगार समझ कर हाथ में लेना, यह सब तो गोस्वामीजी ने प्रसन्नराघव नाटक से लिया है। हनुमान को सामने पाकर सीता उसी मर्यादा के साथ अपने वियोगजनित दु:ख की व्यंजना करती हैं जिस मर्यादा के साथ माता पुत्र के सामने कर सकती है। वे पहले 'अनुज सहित' राम स्का (अकेले राम का नहीं) कुशल पूछती हैं, फिर कहती हैं-

कोमलचित कृपालु रघुराई। कपि, केहि हेतु धरी निठुराई।।

सहज बानि सेवक सुखदायक। कबहुँक सुरति करत रघुनायक।।

कबहुँ नयन मम सीतल ताता। होइहिं निरखि स्याम मृदुगाता।।

प्रिय के कुशलमंगल के हेतु व्यग्रता भारतीय ललनाओं के वियोग का प्रधान लक्षण है। प्रिय सुख में है या दु:ख में है, यह संशय विरह में दया या करुण भाव का हलका सा मेल कर देता है, भारत की कुलवधू का विरह आवारा आशिकों माशूकों का विरह नहीं है, वह जीवन के गाम्भीर्य को लिए हुए रहता है। यह वह विरह नहीं है जिसमें विरही अपना ही जलना और मरना देखता है, प्रिय मरता है कि जीता है, इससे कोई मतलब नहीं।

पवित्र दाम्पत्य रति की कैसी मनोहर व्यंजना उन्होंने सीता द्वारा उस समय कराई है जिस समय ग्रामवनिताओं ने मार्ग में राम को दिखाकर उनसे पूछा था कि 'ये तुम्हारे कौन हैं?'

कोटि मनोज लजावनहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे।।

सुनि सनेहमय मंजुल बानी। सकुचि सीय मन महँ मुसुकानी।।

तिन्हहिं बिलोकि बिलोकतिधरनी। दुहुँ सँकोच सकुचति बर बरनी।।

सकुचि सप्रेम बालमृगनयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी।।

सहज सुभाय सुभग तनगोरे । नाम लषन लघु देवर मोरे।।

बहुरि बदन बिधु अंचल ढाँकी । पिय तन चितै भौंह करि बाँकी।।

खंजन मंजु तिरीछे नैननि। निज पति कहेउ तिन्हहिं सिय सैननि।।

कुलवधू की इस अल्प व्यंजना में जो गौरव और माधुर्य है, वह उद्धत प्रेमप्रलाप में कहाँ?

शोक का चित्रण भी गोस्वामीजी ने अत्यन्त हृदयाद्रावक पद्धति से किया है। शोक के स्थल तुलसीदासवर्णित रामचरित में दो हैं-एक तो अयोध्या् में राम वनगमन का प्रसंग और दूसरा लंका में लक्ष्मण को शक्ति लगने का। राम के वन जाने पर दु:ख फैला, वह शोक ही माना जायेगा; वह प्रिय का प्रवासजन्य दु:ख नहीं। अभिषेक के समय वनवास बड़े दु:ख की बात है-

कैकयनंदिनि मन्दमति, कठिन कुटिलपन कीन्ह।

जेहि रघुनन्दन जानकिहिं, सुख अवसर दुख दीन्ह।।

अत: परिजनों और प्रजा का दु:ख राम की दु:खदशा समझकर भी था, केवल राम का अलग होना देखकर नहीं-

राम चलत अति भएउ बिषादू। सुनि न जाइ पुर आरतनादू।।

यह विषाद (जो शोक का संचारी है) और यह आर्तनाद शोकसूचक है। प्रिय के दु:ख या पीड़ा पर जो दु:ख हो, वह शोक है; प्रिय के कुछ दिनों के लिए वियुक्त होने मात्र का जो दु:ख हो, वह विरह है। अत: राम के इस दु:खमय प्रवास पर जो दु:ख लोगों को हुआ, यह शोक और वियोग दोनों है।

'तुलसी राम बियोग सोक बस समुझत नहिं समुझाए।'

में वियोगी और शोकसूचक वाक्य यद्यपि मिले हुए हैं, पर हम चाहें तो उन्हें अलग करके भी देख सकते हैं। शुद्ध वियोग-

जब जब भवन बिलोकति सूनो।

तब तब विकल होति कौशल्या दिन दिन प्रति दुख दूनो।

को अब प्रात कलेऊ माँगत रूठि चलैगो माई?

स्याम तामरस नयन स्तवत जल काहि लेहुँ उर लाई1\

शोक या करुणा की व्यंजना इस प्रकार के वाक्यों में समझिए-

मृदु मूरति सुकुमार सुभाऊ। ताति बाउ तन लाग न काऊ।।

ते बन वसहिं बिपति सब भाँती। निदरे कोटि कुलिस सहि छाती।।

राम सुना दुख कान न काऊ। जीवन तरु जिमि जोगवइ राऊ।।

ते अब फिरत बिपिन पदचारी। कन्द मूल फल फूल अहारी।।

दशरथ के मरण पर यह शोक अपनी पूर्ण दशा पर पहुँच जाता है। उस समय की अयोध्यात की दशा के वर्णन में पाठकों को करुणा की ऐसी धारा दिखाई पड़ती है, जिसमें पुरवासियों के साथ वे भी मग्न हो जाते हैं।

लागति अवध भयावनि भारी। मानहुँ कालराति ऍंधियारी।।

घोर जंतु सम पुर नर नारी। डरपहिं एकहि एक निहारी।।

घर मसान, परिजन जनु भूता। सुत हित मीत मनहुँ जमदूता।।

बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं। सरित सरोवर देखि न जाहीं।।

बिधि कैकयी किरातिनि कीन्हीं जेहि दव दुसह दसहु दिसि दीन्हीं।।

सहि न सके रघुबर बिरहागी। चले लोग सब ब्याकुल भागी।।

करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महाबिपति किमि जाइ बखानी।।

सुनि बिलाप दुखहू दुख लागा। धीरजहू कर धीरज भागा।।

गोस्वामीजी द्वारा चित्रित राजकुल का यह शोक ऐसा शोक है जिसके भागी केवल पुरवासी ही नहीं, मनुष्य मात्र हो सकते हैं; क्योंकि यह ऐसे आलम्बन केप्रति


1. यद्यपि वनमगन के समय राम इतने बच्चे न थे, पर वात्सल्य दिखाने के लिए गोस्वामीजी ने कौशल्या के मुख से ऐसा ही कहलाया है।

है जिसके थोड़े से दु:ख को भी देख मनुष्य कहलानेवाले मात्र न सही तो मनुष्यता रखनेवाले सब करुणार्द्र हो सकते हैं।

दूसरा करुण दृश्य लक्ष्मण को शक्ति लगने पर राम का विलाप है। इस विलाप के भीतर शोक की व्यंजना अत्यन्त स्वाभाविक रीति से की गई है। उसके प्रवाह में एक क्षण के लिए सारे नियम, व्रत, सारी दृढ़ता बही जाती सी दिखाई देती है-

जौ जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू।।

भाव दशा का तात्पर्य न समझनेवाले, नीति के नाम पर पाखंड धारण करनेवाले, इसे चरित्रग्लानि समझेंगे या कहेंगे। पर ऐसे प्रिय बन्धु का शोक, जिसने एक क्षण के लिए भी विपत्ति में साथ न छोड़ा, यदि एक क्षण के लिए सब बातों का विचार छुड़ा देनेवाला न होता तो राम के हृदय की वह कोमलता कहाँ दिखाई पड़ती जो भक्तों की आशा का अवलम्बन है? यह कोमलता, यह सहृदयता सब प्रकार के नियमों से परे है। नियमों से निराश होकर, 'कर्मवाद' की कठोरता से घबराकर, परोक्ष 'ज्ञान' और परोक्ष 'शक्ति' मात्र से पूरा पड़ता न देखकर ही तो मनुष्य परोक्ष 'हृदय' की खोज में लगा और अन्त में भक्तिमार्ग में जाकर उस परोक्ष हृदय को उसने पाया। भक्त लोगों का ईश्वर अविचल नियमों की समष्टि मात्र नहीं है; वह क्षमा, दया, उदारता इत्यादि का अनन्त समुद्र है। लोक में जो कुछ क्षमा, दया, उदारता आदि दिखाई देती है वह उसी समुद्र का एक बिन्दु है।

'आत्मग्लानि' का जैसा पवित्र और सच्चा स्वरूप गोस्वामीजी ने दिखाया है, वैसा शायद ही किसी ने कहीं दिखाया हो। आत्मग्लानि का उदय शुद्ध और सात्विचक अन्त:करण में ही हो सकता है, अत: भरत से बढ़कर उपयुक्त आश्रय उसके लिए और कहाँ मिल सकता है? आत्मग्लानि नामक मानसिक शैथिल्य या तो अपनी बुराई का अनुभव आप करने से होता है अथवा किसी बुरे प्रसंग के साथ अपना सम्बन्ध लोक में दिखाई पड़ने से उत्पन्न हीनता का अनुभव करने से। भरतजी को ग्लानि थी दूसरे प्रकार की, पर बड़ी सच्ची और बड़ी गहरी थी। जिन राम का उनपर इतना गाढ़ा स्नेह था, जिन्हें वे लोकोत्तार श्रद्धा और भक्ति की दृष्टि से देखते आए, उनके विरोधी वे समझे जायँ-, यह दु:ख उनके लिए असह्य था। इस दु:ख के भार से हलके होने के लिए वे छटपटाने लगे, इस घोर आत्मग्लानि को वे हृदय में न रख सके-

को त्रिभुवन मोहिं सरिसअभागी। गति असि तोरि मातु जेहि लागी।।

पितु सुरपुर, बन रघुबर केतु। मैं केवल सब अनरथ हेतु।।

धिग मोहिं भयउँ बेनु बन आगी। दुसह दाहदुख दूषन भागी।।

वे रह रहकर सोचते हैं कि मैं लाख अपनी सफाई दूँ, पर लोक की दृष्टि में निष्कलंक नहीं दिखाई पड़ सकता-


जो पै हौं मातु मते महँ ह्वैहौं।

तौ जननी जग में या मुख की कहाँ कालिमा धवैहों?

क्यौं हौं आज होत सुचि सपथनि? कौन मानिहै साँची?

महिमा मृगी कौन सुकृती की खल बच बिसिषन बाँची?

गहि न जाति रसना काहू की, कहौ जाहि जो सूझै?

दीनबंधु, कारुण्यसिंधु बिनु कौन हिए की बूझै?

कैकेयी को सामने पाकर इस ग्लानि के साथ अमर्ष का संयोग हो जाता है। उसकी पवित्रता के सामने माता के प्रति यह अवज्ञा कैसी मनोहर दिखाई पड़ती है-

(क) जो पै कुरुचि रही अति तोहीं, जनमत काहे न मारेसि मोहीं।।

पेड़ काटि तैं पालउ सीचा । मीन जियन हित बारि उलीचा।।

जब तैं कुमति! कुमत जियठयऊ। खंड खंड होइ हृदय न गयऊ।।

बर माँगत मन भई नपीरा। गरि न जीह मुँह परेउ न कीरा।।

अस कोजीव जन्तुजग माँहीं। जेहि रघुनाथ प्रान प्रिय नाहीं।।

भे अति अहित राम तेउ तोहीं। को तू अहसि?सत्यकहु मोहीं।।

(ख) ऐसे तैं क्यों कटु बचन कह्यो, री?

'राम जाहु कानन' कठोर तेरे कैसे धौं हृदय रह्यो री।।

दिनकर बंस, पिता दसरथ से राम लषन से भाई।।

जननी! तू जननी तो कहा कहौं? बिधि केहि खोरि न लाई।।

'हौं लहिहौं सुख राजमातु ह्नै, सुत सिर छत्रा धरैगो।।'

कुल कलंक मल मूल मनोरथ तब बिनु कौन करैगो?

ऐहैं राम सुखी सब ह्वै हैं, ईस अजस मेरो हरिहैं?

तुलसिदास मोको बड़ो सोच, तू जनम कौन बिधि भरिहैं?

एक बार तो संसार की ओर देखकर भरतजी अयश छूटने से निराश होते हैं; पर फिर उन्हें आशा बँधती है और वे कैकेयी से कहते हैं कि ईश मेरा तो अयश हरेंगे, मैं तो मुँह दिखाने लायक हो जाऊँगा, पर तू अपने दिन कैसे काटेगी? वे समझते हैं कि राम के आते ही मेरा अयश दूर हो जायेगा। उनको विश्वास है कि सारा संसार मुझे दोषी माने, पर सुशीलता की मूर्ति राम मुझे दोषी नहीं मान सकते-

परिहरि राम सीय जग माहीं। कोउ न कहहि मोर मत नाहीं।।

राम की सुशीलता पर भरत को इतना अविचल विश्वास है! वह सुशीलता धन्य है जिस पर इतना विश्वास टिक सके; और वह विश्वास धन्य है जो सुशीलता पर इस अविचल भाव से जमा रहे! भरत की आशा का एक मात्र आधार यही विश्वास है। कौशल्या के सामने जिन वाक्यों द्वारा वे अपनी सफाई देते हैं, उनके एक एक शब्द से अन्त:करण की स्वच्छता झलकती है। उनकी शपथ उनकी अन्तर्वेदना की व्यंजना है-

जे अघ मातु, पिता सुत मारे। गाय गोठ महिसुर पुर जारे।।

जे अघ तिय बालक बध कीन्हें। मीत महीपति माहुर दीन्हें।।

जे पातक उपपातक अहहीं । करम बचन मन भव कबि कहहीं।।

ते पातक मोहि होहु बिधाता । जौं एहु होइ मोर मत माता।।

इस सफाई के सामने हजारों वकीलों की सफाई कुछ नहीं है, इन कसमों के सामने लाखों कसमें कुछ नहीं हैं। यहाँ वह हृदय खोलकर रख दिया गया है जिसकी पवित्रता को देख जो चाहे अपना हृदय निर्मल कर ले।

हास्यरस का एक अच्छा छींटा नारदमोह के प्रसंग में मिलता है। नारदजी बन्दर का मुँह लेकर स्वयंवर की सभा में एक राजकन्या को मोहित करने बैठे हैं-

काहु न लखा सो चरित बिसेखा। सो सरूप नृप कन्या देखा।।

मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदय क्रोध भा तेही।।

जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेहि न बिलोकी भूली।।

पुनिपुनिमुनिउकसहिंअकुलाहीं। देखि दसाहरगन मुसुकाहीं।।

गोस्वामीजी का यह हास भी मर्यादा के साथ है, 'स्मित' हास है, बड़े लोगों का हास है। उसपर भी उद्देश्यगर्भित है, निरा हास ही हास नहीं है। यह मोह और अहंकार छुड़ाने का एक साधन है। इसके आलम्बन का स्वरूप भी विदूषकों का सा कृत्रिम नहीं है।

हास के अतिरिक्त बालविनोद की सामग्री देखनी हो, तो सुन्दरकांड में

एक लम्बी पूँछ के बन्दर को पूँछ में लुक बाँधकर नाचते हुए और राक्षसों के

लड़कों को ताली बजा बजाकर कूदते हुए देखिए। थोड़ी देर वहीं ठहरने पर ऐसा

भयानक और बीभत्स कांड देखने को मिलेगा, जो भुलाए न भूलेगा। कवितावली

में लंकादहन का बड़ा ही विस्तृत और पूर्ण चित्रण है। देखिए, कैसा आवेगपूर्ण

भय है-

(क) 'लागि, लागि आगि' भागि भागि चले जहाँ तहाँ,

धीय को न माय, बाप पूत न सँभारहीं।

छूटे बार, बसन उघारे, धूम धुंध अंध,

कहैं बारे बूढ़े 'बारि बारि' बार बारहीं।।

हय हिहिनात भागे जात, घहरात गज,

भारी भीर ठेलि पेलि रौंदि खौंदि डारहीं।

नाम लै चिलात, बिललात अकुलात अति,

तात, तात! तौंसियत झौंसियत झारहीं।।

(ख) लपट कराल ज्वालजाल माल दहूँ दिसि,

धूम अकुलाने पहिचानै कौन काहि रे।

पानी को ललात, बिललात जरे गात जात,

परे पाइमाल जात, भ्रात! तू निबाहि रे।।

प्रिय! तू पराहि, नाथ नाथ! तू पराहि, बाप,

बाप! तू पराहि, पूत, पूत! तू पराहि रे।

तुलसी बिलोकि लोग ब्याकुल बिहाल कहैं,

'लेहि दससीस अब बीस चख चाहि रे!।'

इसी लंकादहन के भीतर यह बीभत्स कांड सामने आता है-

हाट बाट हाटक पिघलि घी सो घनो,

कनक कराही लंक तलफति ताय सों।

नाना पकवान जातुधान बलवान सब,

पागि पागि ढेरी कीन्हीं भली भाँति भाय सों।।

पिशाचिनियों और डाकिनियों की बीभत्स क्रीड़ा का जो कविप्रथानुसार वर्णन है, वह तो है ही, जैसे-

ओझरी की झोरी काँधो, ऑंतनि की सेल्ही बाँधो,

मूड़ के कमंडलु, खपर किए कोरि कै।

जोगिनी झुटुंग झुंड झुंड बनी तापसी सी,

तीर तीर बैठी सो समय सरि खोरि कै।।

सोनित सों सानि सानि गूदा खात सतुआ से,

प्रेत एक पियत बहोरि घोरि घोरि कै।

तुलसी बैताल भूत साथ लिए भूतनाथ,

हेरि हेरि हँसत हैं हाथ हाथ जोरि कै।।

कवायद की पूरी पाबन्दी के साथ बहुत थोड़े में रौद्र रस का उदाहरण देखना हो, तो यह देखिए-

माषे लषन कुटिल भईं भौंहैं। रद पट फरकत नयन रिसौंहैं।।

रघुबंसिन महँ जहँ कोउ होई। तेहि समाज अस कहै न कोई।।

इसमें अनुभाव भी है, अमर्ष संचारी भी है। सम्भव है, कुछ लोगों को 'रिसौंहैं' शब्द के कारण 'स्वशब्दवाच्यत्व' दोष दिखाई पड़े, पर अनुभाव आदि द्वारा पूर्ण व्यंजना हो जाने पर विशेषण रूप में 'भाव' का नाम आ जाना दोष नहीं कहा जा सकता।

युद्धवीर के उदाहरणों से तो सारा लंकाकांड भरा पड़ा है। 'उत्साह' नामक भाव की भी व्यंजना अत्यन्त उत्कर्ष को पहुँची हुई है और युद्ध के दृश्य का चित्रण भी बड़ा ही उग्र और प्रचंड है। वीर रस का वर्णन कौशल उन्होंने तीन शैलियों के भीतर दिखाया है-प्राचीन राजपूत काल के चारणों की छप्पयवाली ओजस्विनी शैली के भीतर; इधर के फुटकरिए कवियों की दंडकवाली शैली के भीतर; और अपनी निज की गीतिकावाली शैली के भीतर। नीचे तीनों का क्रमश: एक एक उदाहरण दिया जाता है-

(1) कतहुँ बिटप भूधर उपारि परसेन बरक्खत।

कतहुँ बाजि सों बाजि, मर्दि गजराज करक्खत।।

चरन चोट चटकन चकोट अरि उर सिर बज्जत।

बिकट कटक बिद्दरत बार बारिद जिमि गज्जत।।

लंगूर लपेटत पटकि भट 'जयति राम, जय' उच्चरत।

तुलसीस पवननन्दन अटल जुद्ध, क्रुद्ध कौतुक करत।।

(2) दबकि दबोरे एक, बारिध में बोरे एक,

मगन मही में एक गगन उड़ात हैं।

पकरि पछारे, कर चरन उखारे, एक,

चीरि फारि डारे एक मींजि मारे लात हैं।।

तुलसी लखत राम रावन, बिबुध बिधि,

चक्रपानि चंडीपति चंडिका सिहात हैं।

बड़े बड़े बानइत बीर बलवान बड़े,

जातुधान जूथप निपाते बातजात हैं।।

(3) भए क्रुद्ध जुद्ध विरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे।

कोदंड धुनि अति चंड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे।।

मंदोदरी उर कंप कंपति कमठ भू भूधर त्रासे।

चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि, देखि कौतुक सुर हँसे।।

धनुष चढ़ाने के लिए राम और लक्ष्मण का उत्साह और धनुर्भंग की प्रचंडता का वर्णन भी अत्यन्त वीरोल्लासपूर्ण है। जनक के वचन पर उत्तोजित होकर लक्ष्मण कहते हैं-

सुनहु भानु कुल कमल भानु! जौ अब अनुसासन पावौं।

का बापुरो पिनाकु? मेलि गुन मंदर मेरु नवावौं।।

देखौ निज किंकर को कौतुक, क्यों कोदंड चढ़ावौं।

लै धावौं, भंजौं मृनाल ज्यों तौ प्रभु अनुज कहावौं।।

धनुष टूटने पर-

डिगति उर्बि अति गुर्बि, सर्ब पब्बै समुद्र सर।

ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर।।

दिग्गयंद लरखरत, परत दसकंठ मुक्ख भर।

सुर बिमान हिमभानु भानु संघटित परस्पर।।

चौंके बिरंचि संकर सहित, कोल कमठ अहि कलमल्यो।

ब्रह्मांड खंड कियो चंड धुनि जबहिं राम सिव धनु दल्यो।।

धनुर्भंग के इस वर्णन में प्रश्न यह उठता है कि उसमें प्रदर्शित 'उत्साह' का आलम्बन क्या है। प्रचलित साहित्य ग्रन्थों में देखिए तो युद्धवीर का आलम्बन विजेतव्य ही मिलेगा। यह विजेतव्य शत्रु या प्रतिपक्षी ही हुआ करता है। अत: यहाँ विजेतव्य धनुष ही हो सकता है। पर पृथ्वी पर पड़ा हुआ जड़ धनुष मनुष्य के हृदय में उठाने या तोड़ने का उत्साह किस तरह जाग्रत करेगा, यह समझते नहीं बनता है। वह तो पड़ा पड़ा ललकार नहीं रहा है। यदि किसी मनुष्य में इतना साहस और बल है कि वह बड़ी बड़ी चट्टानों को उठा सकता है, तो पहाड़ पर जाकर उसकी क्या दशा होगी? अत: हमारी समझ में उत्साह का आलम्बन कोई विकट या दुष्कर 'कर्म' ही होता है।

लक्ष्मण को शक्ति लगने पर राम की व्याकुलता देख कार्य तत्परता की मूर्ति हनुमान कहते हैं-

जौ हौं अब अनुसासन पावौं।

तौ चंद्रमहिं निचोरि चैल ज्यों आनि सुधा सिर नावौं।

कै पाताल दलौं व्यालावलि अमृतकुंड महि लावौं।।

भेदि भुवन करि भानु बाहिरो तुरत राहु दै तावौं।।

बिबुध बैद बरबस आनौं धरि तौ प्रभु अनुज कहावौं।

पटकौं मीच नीच मूषक ज्यों सबहि को पापु बहावौं।।

हनुमान के इस 'वीरोत्साह' का आलम्बन क्या है? क्या चन्द्रमा, अश्विनीकुमार इत्यादि? खैर, इसका विस्तृत विवेचन अन्यत्रा किया जायेगा; यहाँ इतना ही निवेदन करके रसज्ञों से क्षमा चाहते हैं।

अब अद्भुत रस का एक उदाहरण देकर यह प्रसंग समाप्त किया जाता है। हनुमानजी पहाड़ हाथ में लिए आकाशमार्ग से अपूर्व वेग के साथ उड़े जा रहे हैं-

लीन्हों उखारि पहार बिसाल चल्यो तेहि काल बिलंब न लायो।

मारुतनन्दन मारुत को, मन को, खगराज को बेग लजायो।।

तीखी तुरा तुलसी कहतो पै हिये उपमा को समाउ न आयो।

मानो प्रतच्छ परब्बत की नभ लीक लसी कपि यों धुकि धायो।।

इस पद्य के भीतर 'मारुत को, मन को, खगराज को' इस वाक्यांश में कुछ 'दुष्कर्मत्व' प्रतीत होता है। मन को सबसे पीछे होना चाहिए; मन का वेग जब कह चुके; तब खगराज का वेग उसके सामने कुछ नहीं है। पर समग्र वर्णन से जो चित्र सामने खड़ा होता है, उसके अद्भुत होने में कोई सन्देह नहीं। गगनमंडल के बीच पहाड़ की एक लीक सी बँध जाना कोई साधारण व्यापार नहीं है। इस अद्भुतता की योजना भी एक स्वभावसिद्ध व्यापार के आधार पर हुई है और प्रकृति का निरीक्षण सूचित करती है। यह सूचित करती है कि अत्यन्त वेग से गमन करती हुई वस्तु की एक लकीर सी बन जाया करती है, इस बात पर कवि की दृष्टि गई है। जिसकी दृष्टि ऐसी ऐसी बातों पर न जाती हो, वह कवि कैसा? प्रकृति के नाना रूपों को देखने के लिए कवि की ऑंखें खुली रहनी चाहिए; और सबका प्रभाव ग्रहण करने के लिए उसका हृदय खुला रहना चाहिए। अद्भुत रस के इस आलम्बन द्वारा गोस्वामीजी की वह स्वाभाविक विश्वव्यापारग्राहिण् सहृदयता लक्षित होती है, जो हिन्दी के और किसी कवि में नहीं। इस स्वभावसिद्ध अद्भुत व्यापार के सामने 'कमल पर कदली, कदली पर कुंड, शंख पर चन्द्रमा' आदि कवि प्रौढ़ोक्ति सिद्ध रूपकातिशयोक्ति के कागजी दृश्य क्या चीज हैं? लड़कों के खेल हैं। बालकों या बालरुचिवालों का मनोरंजन उनसे होता हो, तो हो सकता है।

गोस्वामीजी ने अपनी इस परिष्कृत और गम्भीर रुचि का परिचय अलंकारों की योजना में बराबर दिया है। लंकादहन के प्रसंग में जहाँ हनुमानजी अपनी जलती हुई पूँछ इधर से इधर घुमाते हैं; वहाँ भी अपनी 'उत्प्रेक्षा' और 'सन्देह' को वे इसी स्वभावसिद्ध व्यापार पर टिकाते हैं-

बालधी बिसाल बिकराल ज्वाल जाल मानौ,

लंक लीलिबे को काल रसना पसारी है।

कैंधों ब्योम बीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,

बीर रस बीर तरवारि सी उघारी है।।

ध्या न से देखिए तो कई एक व्यापार, जो देखने में केवल अलौकिकत्व विधायक प्रतीत होते हैं, हेतूत्प्रेक्षा के व्यंग्य से अपना प्रकृत स्वरूप खोल देंगे। पथिक वेश में राम लक्ष्मण वन के मार्ग में चले जा रहे हैं (क्षमा कीजिएगा, यह दृश्य हमें बहुत मनोहर लगता है इसी से बार बार सामने आया करता है) गोस्वामीजी कहते हैं।

जहँ जहँ जाहिं देव रघुराया। तहँ तहँ मेघ करहिं नभ छाया।।

जिस समय मेघखंड आकाश में बिखरे रहते हैं; उस समय पथिक के मार्ग में कभी धूप पड़ती है, कभी छाया। इस छाया पड़ने को देखकर किसी अवसर पर यदि कवि किसी साधारण पुरुष को भी कह दे कि 'मेघ भी आपके ऊपर छाया करते चलते हैं' तो उसका यह कहना अस्वाभाविक न लगेगा। इस कथन द्वारा जिस प्रताप आदि की व्यंजना इष्ट होगी, वह उत्प्रेक्षा का हेतु हो जायेगा। प्राचीन कवियों में इस प्रकार की सुन्दर स्वाभाविक उक्तियाँ अकसर मिलती हैं जिनमें से किसी किसी को लेकर और उनपर एक साथ कई प्रौढ़ोक्तियाँ लादकर पिछले खेवे के कवियों ने एक भद्दी इमारत खड़ी की है। फल इसका यह हुआ है कि उनमें अतिशयोक्ति ही अतिशयोक्ति रह गई है। जो कुछ स्वाभाविकता थी, वह जान (अपनी कहिए या उन पुरानी उक्तियों की कहिए) लेकर भागी है। उदाहरण के लिए अभिज्ञानशाकुन्तल में भौंरा शकुन्तला का पीछा किए हुए है और बार बार उसके मुँह की ओर जाता है-

'सलिल से असंभमुग्गदो, णोमलिअं उज्झिअ बअणं से महुअरो अहिबट्टइ।'

हमारे लाला भिखारीदासजी ने इस उक्ति को पकड़ा और उसके ऊपर यह भारी भरकम ढाँचा खड़ा कर दिया-

आनन है अरबिन्द न फूले, अलीगन! भूले कहा मँडरात हौ?

कीर कहा तोहि बाई भई भ्रम बिंब के ओठन को ललचात हौ?

दासजू ब्याली न बेनी रची, तुम पापी कलापी कहा इतरात हौ?

बोलति बाल न बाजत बीन, कहा सिगरे मृग घेरत जात हौ?

ऐसे संकट में पड़ी हुई नायिका शायद ही कहीं दिखाई पड़े। भ्रमरबाधा तक तो कोई चिन्ता की बात नहीं, पर उसके ऊपर यह शुकबाधा, मयूरबाधा और मृगबाधा देख तो हाथ पर हाथ रखकर बैठे ही रहना पड़ेगा।

बहुत लोगों ने देखा होगा कि भौंरे आदमी के पीछे अकसर लग जाते हैं,

कान और मुँह के पास मँडराया करते हैं और हटाने से जल्दी हटते नहीं। इसी

बात पर स्त्रियों में यह प्रवाद प्रचलित है कि जब कोई परदेश में होता है, तब

उसका सन्देशा कहने के लिए भौंरे आकर कान के पास मँडराया करते हैं।

अत: इस प्रकार की पुरानी उक्तियों में जो सौन्दर्य है, वह हमें अतिशयोक्ति में

न दिखाई देकर स्वभाव-सिद्ध वस्तु द्वारा व्यंग्य हेतूत्प्रेक्षा में दिखाई पड़ता है।

जैसे भौंरा जो बार बार मुँह के पास जाता है, वह मानो मुख को कमल

समझने के कारण।

छोटे छोटे संचारी भावों की स्वतन्त्रा व्यंजना भी गोस्वामीजी ने जिस मार्मिकता से की है, उससे मानवी प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण प्रकट होता है। उन्होंने ऐसे भावों का चित्रण किया है जिनकी ओर किसी कवि का ध्या न तक नहीं गया है। संचारियों के भीतर वे गिनाए तो गए नहीं हैं; फिर ध्या न जाता कैसे? सीता के सम्बन्ध में राम लोकध्वयनि चरों के द्वारा सुनते हैं-

चरचा चरनि सों चरची जानमनि रघुराइ।

दूत मुख सुनि लोक धुनि घर घरनि बूझी आइ।।

मर्यादास्तम्भ राम लोकमत पर सीता को वन में भेज देते हैं। लक्ष्मण उन्हें वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ ऑंखों में ऑंसू भरे लौट रहे हैं। उस अवसर पर-

दीनबंधु दयालु देवर देखि अति अकुलानि।

कहति बचन उदास तुलसीदास त्रिभुवन रानि।।

ऐसे अवसर पर सीता ऐसी गम्भीरहृदया देवी का यह 'उदासीन भाव' प्रकट करना कितना स्वाभाविक है-

तौ लौं बलि आपुही कीबी बिनय समुझि सुधारि।

जौ लौं हौं सिखि लेउँ बन ऋषि रीति बसि दिन चारि।।

तापसी कहि कहा पठवति नृपनि को मनुहारि।

बहुरि तिहि बिधि आइ कहिहै साधु कोउ हितकारि।।

लषन लाल कृपाल! निपटहिं डारिबी न बिसारि।

पालबी सब तापसनि ज्यों राजधर्म बिचारि।।

सुनत सीता बचन मोचत सकल लोचन बारि।

बालमीकि न सके तुलसी सो सनेह सँभारि।।

काव्य के भावविधान में जिस 'उदासीनता' का सन्निवेश होगा, वह खेदव्यंजक ही होगी-यथार्थ में 'उदासीनता' न होगी। उसे विषाद, क्षोभ आदि से उत्पन्न क्षणिक मानसिक शैथिल्य समझिए। कैकेयी को समझाते समय मंथरा के मुख से भी उदासीनता की व्यंजना गोस्वामीजी ने बड़ी मार्मिकता से कराई है। राम के अभिषेक पर दु:ख प्रकट करने के कारण जब मंथरा को कैकेयी बुरा भला कहती है, तब वह कहतीहै-

हमहुँ कहब अब ठकुर सुहाती। नाहिं त मौन रहब दिन राती।।

कोउ नृप होउ हमहिं का हानी। चेरि छाँड़ि अब होब कि रानी।।

हिन्दी कवियों में तुलसी ऐसे भावुक के सिवा इस गूढ़ भाव तक और किसकी पहुँच हो सकती है? और कौन ऐसे उपयुक्त पात्र में और ऐसे उपयुक्त अवसर पर उसका विधान कर सकता है? इस 'उदासीनता' के भाव का आविष्कार उन्हीं का काम था। सूरदास ने इसका कुछ आभास मात्र यशोदा के उस सँदेसे में दिया है जो उन्होंने कृष्ण के मथुरा चले जाने पर देवकी के पास भेजा था-

सँदेसो देवकी सों कहियो।

हौ तो धाय तिहारे सुत की कृपा करत ही रहियो॥

'आश्चर्य' को लेकर कविजन 'अद्भुतरस' का विधान करते हैं जिसमें कुतूहलवर्ध्दक बातें हुआ करती हैं। पर इस आश्चर्य से मिलताजुलता एक और हलका भाव होता है जिसे, कोई और अच्छा नाम न मिलने के कारण, हम 'चकपकाहट' कह सकते हैं और आश्चर्य के संचारी के रूप में रख सकते हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञानियों ने दोनों (वंडर और सरप्राइज) में भेद किया है। आश्चर्य किसी विलक्षण बात पर होता है-ऐसी बात पर होता है जो साधारणत: नहीं हुआ करती। 'चकपकाहट' किसी ऐसी बात पर होती है जिसकी कुछ भी धारणा हमारे मन में न रही हो, और जो एकाएक हो जाय। जैसे, किसी दूर देश में रहनेवाले मित्रा को सहसा अपने सामने देखकर हम 'चकपका' उठते हैं। राम का सेतु बाँधना सुन रावण चकपकाकर कहताहै-

बाँधयो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस।

सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस।।

यह ऐसा ही है जैसा सहसा किसी का मरना सुनकर चकपकाकर पूछना-'अरे कौन? रामप्रसाद के बाप? माताप्रसाद के लड़के? शिवप्रसाद के भाई? अमुक स्टेट के मैनेजर?' इस भाव का प्रत्यक्षीकरण भी यह सूचित करता है कि गोस्वामीजी सब भावों को अपने अन्त:करण में देखनेवाले थे, केवल लक्षणग्रन्थों में देखकर उनका सन्निवेश करनेवाले नहीं।

दूसरों का उपहास करते तो आपने बहुत लोगों को देखा होगा, पर कभी आपने मनुष्य की उस अवस्था पर भी ध्याउन दिया है जब वह पश्चात्ताप और ग्लानिवश अपना उपहास आप करता है? गोस्वामीजी ने उसपर भी ध्या न दिया है। उनकी अन्तर्दृष्टि के सामने वह अवस्था भी प्रत्यक्ष हुई है। सोने के हिरन के पीछे अपनी सोने की सीता को खोकर राम वन वन विलाप करते फिरते हैं; मृग उन्हें देखकर भागते हैं; और फिर जैसा कि उनका स्वभाव होता है, थोड़ी दूर पर जाकर खड़े हो जाते हैं। इसपर राम कहते हैं-

हमहिं देखि मृगनिकर पराहीं। मृगी कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीं।।

तुम आनन्द करहु मृगजाए। कंचनमृग खोजन ये आए।।

कैसी क्षोभपूर्ण आत्मनिन्दा है!

यहाँ एक और बात ध्यामन देने की है। कवि ने मृगों के ही भय का क्यों नाम लिया? मृगियों को भय क्यों नहीं था? बात यह है कि आखेट की यह मर्यादा चली आती है कि मादा के ऊपर अस्त्रा न चलाया जाय। शिकार खेलनेवालों में यह बात प्रसिद्ध है। यहाँ गोस्वामीजी का लोकव्यवहार परिचय प्रकट होता है-

देखिए श्रम की व्यंजना किस कोमलता के साथ गोस्वामीजी करते हैं। सीता राम लक्ष्मण के साथ पैदल वन की ओर चली है-

(क) पुर ते निकसी रघुबीर बधू, धरि धीर दए मग में डग द्वै।

झलकी भरि भाल कनीं जल की, पुट सूखि गए अधराधर वै।।

फिरि बूझति है चलनो अब केतिक, पर्नकुटी करिहौ कित ह्वै।

तियकी लखि आतुरता पियकी ऍंखियाँ अति चारु चलीं जल च्वै।।

(ख) जलको गए लक्खन हैं लरिका, परिखौ पिय छाँह घरीक ह्वै ठाढ़े।

पोछि पसेउ वयारि करौं, अरु पायँ पखारिहौं भूभुरि डाढ़े।।

तुलसी रघुबीर प्रिया स्तम जानिकै, बैठि बिलंब लौं कंटक काढ़े।।

जानकी नाह को नेह लख्यो, पुलको तनु बारि बिलोचन बाढ़े।।

कुलवधू के 'श्रम' की यह व्यंजना कैसी मनोहर है? यह 'श्रम' स्वतन्त्रा है, किसी और भाव का संचारी होकर नहीं आया है।

गोस्वामीजी को मनुष्य की अन्त:प्रकृति की जितनी परख थी उतनी हिन्दी के और किसी कवि को नहीं। कैसे अवसर पर मनुष्य के हृदय में स्वभावत: कैसे भाव उठते हैं, इसकी वे बहुत सटीक कल्पना करते थे। राम के अयोध्या् लौटने पर जब सुग्रीव और विभीषण ने राम और भरत का मिलना देखा तब उनके चित्ता में क्या आया होगा, यह देखिए-

सधन चोर मग मुदित मन, धनी गही ज्यों फेंट।

त्यों सुग्रीव विभीषनहि, भई भरत की भेंट।।

रास्ते भर तो वे बहुत ही प्रसन्न आए होंगे और राम के साथ रहने के कारण अपने को गौरवशाली-शायद साधु और सज्जन भी-समझते रहे होंगे। पर यह महत्तव उनका निज का अर्जित नहीं था, केवल राम की कृपा से मिला हुआ था। वे जो उसे अपना अर्जित समझते आ रहे थे, यह उनका भ्रम था। उनका यह भ्रम राम और भरत का मिलना देखकर दूर हो गया। वे ग्लानि से गड़ गए। उनके मन में आया कि एक भाई भरत हैं और एक हम लोग हैं जिन्होंने अपने भाइयों के साथ ऐसा व्यवहार किया।

इस प्रसंग को समाप्त करने का वादा शायद अभी किया जा चुका है। बस, दो बातें और कहनी हैं। कवि लोग अर्थ और वर्णविन्यास के विचार से जिस प्रकार शब्दशोधन करते हैं, उसी प्रकार अधिक मर्मस्पर्शी और प्रभावोत्पादक दृश्य उपस्थित करने के लिए व्यापारशोधन भी करते हैं। बहुत से व्यापारों में जो व्यापार अधिक प्राकृतिक होने के कारण स्वभावत: हृदय को अधिक स्पर्श करनेवाला होता है, भावुक कवि की दृष्टि उसी पर जाती है। यह चुनाव दो प्रकार से होता है। कहीं तो

(1) चुना हुआ व्यापार उपस्थित प्रसंग के भीतर ही होता है या हो सकता है, अर्थात् उस व्यापार और प्रसंग का व्याप्यव्यापक सम्बन्ध होता है और वह व्यापार उपलक्षण मात्र होता है; और कहीं (2) चुना हुआ व्यापार प्रस्तुत व्यापार से सादृश्य रखता है; जैसे, अन्योक्ति में गोस्वामीजी ने दोनों प्रकार के चुनाव में अपनी स्वाभाविक सहृदयता दिखाई है।

(1) प्रथम पद्धति का अवलम्बन ऐसी स्थिति को अंकित करने में होता है जिसके अन्तर्गत बहुत से व्यापार हो सकते हैं और सब व्यापारों का वाच्य एक सामान्य शब्द हुआ करता है; जैसे अत्याचार, दैन्य, दु:ख, सुख इत्यादि। अत्याचार शब्द के अन्तर्गत डाँटने डपटने से लेकर मारना पीटना, जलाना, स्त्रीर बालकों की हत्या करना, न जाने कितने व्यापार समझे जाते हैं। इसी प्रकार दीन दशा के भीतर खाने पहनने की कमी से लेकर द्वार द्वार फिरना, दाँत निकालकर माँगना, किसी के दरवाजे पर अड़कर बैठना और हटाने से भी न हटना ये सब गोचर दृश्य आते हैं। इन दृश्यों में जो सबसे अधिक मर्मस्पर्शी होता है, भावुक कवि उसी को सबका उपलक्षण बनाकर, स्थिति को हृदयंगम करा देता है। गोस्वामीजी ने अपने दैन्य भाव का चित्रण स्थान स्थान पर इसी पद्धति से किया है। कुछ उदाहरण लीजिए-

कहा न कियो, कहाँ न गयो, सीस काहि न नायो?

हा हा करि दीनता कही, द्वार द्वार बार बार, परी न छार मुँह बायो।

महिमा मान प्रिय प्रान तें तजि, खोलि खलन आगे खिनुखिनु पेट खलायो।।

इसका अर्थ यह नहीं है कि तुलसीदासजी सचमुच द्वार द्वार पेट खलाते और डाँट फटकार सुनते फिरते थे।

कहीं राजा राम के द्वार पर खड़े अपनी दीनता का चित्र आप देखते हैं।

राम सों बड़ो है कौन, मो सों कौन छोटो।

राम सों खरो है कौन, मो सो कौन खोटो।।

सारी विनयपत्रिका का विषय यही है-राम की बड़ाई और तुलसी की छोटाई। दैन्यभाव जिस उत्कर्ष को गोस्वामीजी में पहुँचा है, उस उत्कर्ष को और किसी भक्त कवि में नहीं। इस भावरहस्य से अनभिज्ञ और इस उपलक्षणपद्धति को न समझनेवाले ऊपर के पदों को देख यदि कहें कि तुलसीदासजी बड़े भारी मंगन थे, हटाने से जल्दी हटते नहीं थे और खुशामदी भी बड़े भारी थे, तो उनका प्रतिवाद करना समय नष्ट करना ही है। खेद इस बात पर अवश्य होता है कि 'स्वतन्त्रा आलोचना' का ऐसा स्थूल और भद्दा अर्थ समझनेवाले भी हमारे बीच वर्तमान हैं। एक स्थान पर गोस्वामीजी कहते हैं-

खीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु,

रीझिबे लायक तुलसी की निलजई।

इस पर यदि कोई कह दे कि तुलसीदासजी बड़े भारी बेहया थे, तो उसकी क्या दवा है?

तुलसीदासजी को जब स्वामी के प्रति अपने प्रेम की अनन्यता की इस प्रकार प्रतीति हो जाती है कि 'जानत जहान मन मेरे हू गुमान बड़ो, मान्यो मैं न दूसरो, न मानत, न मानिहौं' तब प्रेमाधिक्य से वे मुँहलगे हो जाते हैं और कभी कभी ऐसी बातें भी कह देते हैं-

हौं अब लौं करतूति तिहारिय चितवत हुतो न रावरे चेते।

अब तुलसी पूतरो बाँधिहै सहि न जात मोपै परिहास एते।।

पर ऐसी गुस्ताखी कभी नहीं करते कि 'आपने करम भवनिधि पार करौं जौ तो हम करतार, करतार तुम काहे के?'

देखिए, संसार की अशान्ति का चित्र कैसा मर्मस्पर्शी और प्राकृतिक जीवन व्यापार उपलक्षण के रूप में चुनकर वे अंकित करते हैं-

डासत ही गई बीति निसा सब कतहुँ न, नाथ! नींद भरि सोयो।

(2) प्रस्तुत व्यापार के स्थान पर उसी के सदृश अप्रस्तुत व्यापार चुनने में भी गोस्वामीजी ने प्रभावोत्पादक प्राकृतिक दृश्यों की परख का पूर्ण परिचय दिया है। प्रेमभाव का उत्कर्ष दिखाने के लिए उन्होंने चातक और मीन को पकड़ा है। दोहावली के भीतर चातक की अन्योक्तियाँ प्रेमी भक्तों के हृदय का सर्वस्व हैं। यही चातकता और मीनता वे जीवन भर चाहते रहे-'करुणानिधान! बरदान तुलसी चहत सीतापति भक्ति सुरसरि नीर मीनता।' अन्योक्ति आदि के लिए भी वे तत्काल हृदय में चुभनेवाला दृश्य लाकर खड़ा कर देते हैं। इससे प्रस्तुत विषय के सम्बन्ध में जो भाव उत्पन्न करना इष्ट होता है; वह भाव थोड़ी देर के लिए अवश्य उत्पन्न होता है। प्रासादों में सुख से रहनेवाली सीता वन में कैसे रह सकेगी-

नव रसाल बन बिहरन सीला। सोह कि कोकिल बिपिन करीला।।