तू जी ले ज़रा / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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पिछले दिनों इक मित्र की चिट्ठी आई। जिसमे उन्होंने अपनी एक समस्या साझा की थी। मित्र की समस्या पढ़कर मुझे लगा कि ना जाने कितने लोग इस तरह की समस्या से गुजर रहे होंगे और जीवन को निराशा में डूबा चुके होंगे। उस चिट्ठी में लिखा था की उनकी महिला मित्र जिनके साथ उन्होंने कभी सुन्दर जीवन जीने के सपने देखे थे; वो अब उनकी जिन्दगी से दूर चली गई हैं। साथ ही यह भी कह गई की अब कभी वापस नहीं आना है। सामान्य-सी बात है, जीवन में बहुत कुछ ऐसा घटता है जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की थी। लोग अलग हो जाते हैं, बिछड़ जाते हैं। पुराने साथी छूट गए तो नए मिल जाते हैं। जीवन चलता ही रहता है। ये भी सामान्य-सी बात है; लेकिन असामान्य बात ये हुई कि वो मित्र अभी तक उस रिश्ते से खुद को अलग नहीं कर पा रहे हैं। जो चला गया उसकी याद में जीवन तबाह करना और अब उसकी ख़ुशी के लिए हर वो काम करना जो वो चाहता था। उसके सिवा किसी और को मन में नहीं बसाना है क्योंकि प्रेम एक बार ही होता है आदि आदि... हजारों बातें... अक्सर ऐसी बातें हमें हमारे आसपास सुनने में आती रहती हैं और ऐसे लोग भी दिख जाते हैं, जिन्होंने किसी व्यक्ति विशेष के कारण अपना जीवन बरबाद कर लिया हो। प्रेम जिससे था, वो पात्र नहीं मिला तो विवाह ही नहीं किया या समाज के दबाव में आकर कर भी लिया तो जीवन भर अतीत से चिपके रहे और वर्तमान को नष्ट करते रहे। सुनने, पढ़ने में ये साधारण-सी दिखने वाली बातें, बिलकुल भी साधारण नहीं हैं। कितने लोग हैं जो अपने साथी के बिछड़ने के गम में या तो खुद को चोट पहुँचाते हैं, आत्महत्या कर लेते हैं, अपने साथी को चोट पहुँचाते हैं या फिर नशे के अंधेरों में खो जाते हैं। ऐसी असामान्यता पढ़े-लिखे मेच्योर लोग में भी दिखती है। यहाँ एक बात और जोड़ना चाहती हूँ कि अक्सर महिलाओं को अति भावुक और सम्वेदनशील समझा जाता है तथा दलीलें दी जाती हैं की प्रेम और रिश्तों के मामलों में महिलाए ज्यादा सच्चाई के साथ जुड़ती हैं; या कि महिलाएँ शिद्दत से प्रेम करती हैं और पुरुष प्रेम को यूँ ही हलके तौर पर लेता है। लेकिन मेरा अनुभव कहता है कि पुरुष जब किसी के साथ खुद को जोड़ते हैं तो वे आसानी से अपने साथी को भुला नहीं पाते। महिलाएँ जहाँ विवाह के बाद अपनी नई दुनिया में रम जाती है वहीं पुरुष जीवन भर अपने दिल पे बोझ लिए घूमते रहते हैं। वे अविवाहित रह कर या नशे में खुद को डुबा कर जीवन तबाह कर डालते हैं। प्रेम के मामलों में सबसे ज्यादा आत्महत्याएँ पुरुषों द्वारा ही की जाती हैं। अब सवाल यह है कि क्या सच में प्रेम इतनी बड़ी चीज़ है कि लोग खुद को मिटा दें? जिसे प्रेम करते हैं उसे ही मिटा दे? या फिर अपनी पूरी जिन्दगी को ही तबाह कर ले? खुद को तबाह करने के पीछे क्या मनोविज्ञान है? आइये इससे पहले जाने कि प्रेम के मनोविज्ञान क्या है...

मनोविज्ञान में प्रेम शब्द को इसके संकीर्ण और व्यापक दोनों ही अर्थों में प्रयोग किया गया है। व्यापक रूप की बात करें तो प्रेम एक प्रबल सकारात्मक संवेग है जो एक बार अपने लक्ष्य को तय कर लेता है, तो दूसरे सभी लक्ष्य गौण हो जाते हैं। मनुष्य अपने उस लक्ष्य को जीवन की आवश्यकता और हितों का केंद्र बना लेता है। जैसे देश से प्रेम करना, माँ का बच्चों के प्रति प्रेम, संगीत या किसी कला के प्रति प्रेम होते हैं -वो इसी तरह की कोटि में आते हैं।

मनोविज्ञान में संकीर्ण अर्थों में प्रेम मनुष्य की एक प्रगाढ़ तथा अपेक्षाकृत स्थिर भावना है, ये भावना मनुष्य में अपनी महत्वपूर्ण वैयक्तिक विशेषता द्वारा दूसरे व्यक्ति के जीवन में अपनी जगह बनाने से संबंधित है। किसी व्यक्ति से प्रेम करना और बदले में उससे भी प्रगाढ़ता तथा स्थिर जवाबी भावना रखने की आवशयकता होती है। इस भावना में व्यक्ति अपने प्रिय पात्र के अलावा किसी और से प्रेम नहीं कर पाता। कोई व्यक्ति-विशेष उसके लिए सबसे अहम हो जाता है। अपने प्रिय पात्र को हांसिल करने के अलावा और कोई लक्ष्य नहीं रहता। इस राह में जो भी बाधाएँ आती हैं उन्हें वो हटा देना चाहता है: चाहे समाज के नियम हों या परिवार की मर्यादा। आए दिन होने वाले तलाक और विवाहेतर संबंधो के मूल में भी यही मंशा काम करती है। फिर इसके लिए पति बाधा हो या पत्नी या माँ-बाप, भाई-बहन या कोई दोस्त; जो भी हो उसे रास्ते से हटाने के सौ जतन किए जाते हैं। परिणाम चाहे जो भी हो लेकिन प्रेम के नाम पर ये अपराध बखूबी हो रहे हैं।

हम मनोविज्ञान से थोड़ा-सा बाहर निकले तो हम देखते हैं कि प्रेम वस्तुत: एक भौतिक अवधारणा है। प्रेम दो लोगों के बीच एक ऐसा अंतर्संबंध है जिसमें किसी की उपस्थिति मात्र आपको रोमांचित करती है। किसी के सामने होने भर से आप खुद को दुनिया का सबसे सुखी और भाग्यशाली व्यक्ति समझने लगते हैं। कोई है जो आपको पूर्ण करता है। उसी संगती, उसका साथ पाना, अपनी दिलचस्पियों और इच्छाओं को साझा करना और अंत में एक दूसरे को शारीरिक और आत्मिक रूप से समर्पित करने के लिए प्रेरित करना। प्रेम की ये भावना प्राकृतिक आधार रखती है परन्तु मूलत: यह सामाजिक ही है।

जो मनुष्य प्रेम की इस भावना के सिर्फ प्राकतिक आधारों पर निर्भर रहते हैं उन लोगों के लिए प्रेम सिर्फ व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति का माध्यम बन जाता है। वे इसके सामाजिक पहलू और सरोकारों को उठा कर ताक पर रख देते हैं और अपनी भौतिक जरूरतों और अहम की तुष्टि के लिए दुनिया सर पर उठा लेते हैं। दुनिया उनके लिए दुश्मन बन जाती है। इसके उलट जो लोग समाज की परवाह करते हैं; मर्यादा, संस्कार और सरोकारों की बातें करते हैं वे भी अपनी भावना का दमन करते हैं और कुंठाओं का शिकार होते चले जाते हैं और मानसिक रोगों का शिकार होते हैं। ये दोनों ही स्थितियाँ असामान्य हैं। ऐसे में क्या किया जाए?

माना कि प्रेम मनुष्य का समाज के प्रति पहला विरोध है लेकिन जरुरत है कि हम थोड़ा-सा प्रेम को समझें और थोड़ा-सा खुद को। ज़रा-सा समाज को भी समझें; और सभी के बीच एक संतुलन बनाना सीखे और जीवन को जीने योग्य बनाए रखें । बात को थोड़ा और सरल करूँ तो सबसे पहले अपने दिमाग से ये बेकार सी बातों को निकाल दें की आपको आपका मिस्टर राइट या मिस राईट नहीं मिली तो आपका जीवन व्यर्थ हो जाएगा। या हम उसे ही प्रेम करेंगे जो मिस्टर राईट होगा, परफेक्ट होगा। यह सोच यदि है तो वो परफेक्ट साथी आपको कभी नहीं मिलेगा। आप जहाँ है, जिसके साथ है उसे ही प्रेम कीजिए। ये भी नहीं हो सकता तो खुद से ही प्रेम कीजिए। दूसरी बात ये दिमाग से निकाल दें कि जीवन में प्रेम एक ही बार किया जाता है तो अब दूसरे से कैसे करेगे? याद रखिये प्रेम एक गहरी समझ है; एक घटना जो किसी भी क्षण आपके जीवन में घट सकती है। आपके रोकने से या तर्कों से वो रुकने वाली नहीं है। हम अपने जीवन में कई बार और बार-बार प्रेम करते हैं क्योंकि प्रेम हमारी जरुरत है। हम ना तो समाज के बिना और ना ही प्रेम के बिना जीवित रह सकते हैं। जो लोग प्रेम की पवित्र भावना और समाज के बीच संतुलन बना लेते हैं, जो प्रेम को व्यापकता देते हैं, प्रेम के सही अर्थों को खोजने की कोशिश करते हैं, इसे एक व्यक्तिगत जिम्मेदारी के रूप में समझने की कोशिश करते हैं; वे इन अंतर्द्वंदों और कुंठाओं से भी जूझ लेते हैं और अपनी व्यक्तिगत जरूरतों और सामाजिक सरोकारों के बीच तारतम्य बिठा ही लेते हैं। संतुलन में सुगंध है। प्रेम को व्यापक कर दिया जाए, मन की खिडकियों को जरा खोल दिया जाए। संशय, भय, शंकाओं के परदे को हटाये जाए। जो नहीं है उसे भूल जाएँ। जो इस पल है बस उसे याद रखें, जो जा रहा है उसे जाने दीजिए। जो दरवाजे पर है उसका स्वागत कीजिए। ये जीवन आपका और सिर्फ आपका है और आपको इजाजत है जीने की, खुश रहने की, मुस्काने की। क्या किसी की इतनी बिसात है कि वो आपकी खुशियाँ, आपके सपने, आपकी हंसी, आपकी मुस्कान आपसे छीन ले? आप जहाँ हैं जीवन वहीं है। खुशियाँ भी वहीं हैं। आप खुश होइए क्योंकि आप खुश होने के लिए ही बने हैं। आप प्रेम कीजिए कि आप प्रेम के लिए बने है। आप मुस्काइये कि आप मुस्काते हुए अच्छे लगते हैं। जीवन के हर पल को जी लीजिये, हंस लीजिये। किसी से भी प्यार कीजिए, खुद से भी प्यार कीजिए... अपने काम से भी... अपने नाम से भी... बस जरा-सा ही सही पर... तू जी ले ज़रा...