तेज कारों, परी कथाओं के जादुई महलों की धरती - जर्मनी / संतोष श्रीवास्तव

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अपनों से बिछड़कर पच्चीस दिन के सफ़र का सबसे पहला एहसास अकेलेपन का वह एहसास है जब लगे कि हम परिंदे की तरह उन्मुक्त आकाश में अकेले ही उड़ रहे हैं। इसएहसास को हवा मिली जर्मनी के फ्रेंकफ़र्ट शहर के अंतर्राष्ट्रीय मेन हवाई अड्डे पर क़दम रखते ही। मेरे साथ भारत से आए और गाइड के रूप में हमारे साथ ही रहने वाले अजय शर्मा ने पीछे-पीछे आराम से चल रहे हनीमून जोड़े की ओर देख कर कहा... "जर्मनी के शहरों में घूमना किसी रोमेंटिक कैंडल लाइट डिनर जैसा महसूस करना है। यहाँ घुमते हुए हर पल आप किसी के लिए ख़ास होने के एहसास का आनंद उठा सकेंगे।"

खुद इस एहसास से परे महसूसते मैं इमीग्रेशन जर्मन अधिकारी के सामने थी। उसने अंग्रेज़ी में पूछा-"लेखिका हैं? इंडिया से? किस विषय पर लिखती हैं? यहाँ आपको किसी तरह की मदद चाहिए तो यह रहा मेरा कार्ड।" मैं सुखद आश्चर्य से भर उठी। इस विदेशी धरती पर कहीं अपनत्व का एहसास पा... फिरअपना अकेलापन... अकेला नहीं रहा। एयरपोर्टसे बाहर आते ही पंक्तिबद्ध आसमानी और सफेद झंडों से अलग थलगकाँच जैसी पारदर्शीफ्लाईओवर की सड़क थी जिस पर सफेद रंग की बसें चल रही थीं। एयर कंडिशंडकोच में बैठते ही अजय ने माइकसम्हाला... "इस एयरपोर्ट का नाम यहाँ बहने वाली नदी मेन के नाम पर मेन एयरपोर्ट है। जर्मनी के अधिकांश गाँवों में वाइन बनाई जाती है। इसीलिए लगभग सभी किसान अंगूर की खेती करते हैं।"

कोच के रवाना होते ही अंगूरों से लदे खेत सड़क के दोनों ओर मानो हमारी अगुवानी कर रहे थे। घास की ढलानों पर किसानों के लाल टाइल्स वाले सफेद घर जैसे गुड्डे गुड़ियों की किताब में होते हैं। सड़कें चार ट्रेक वाली... सफेद पट्टी के अंदर अपनी-अपनी सीमाओं में दौड़ती कारें, बसें, ट्रक, वैन... न कहीं हॉर्न की आवाज, न कोई शोरगुल। यहाँ के किसान भी कार से खेतों में आते हैं। खेती करके कार से ही अपने सुंदर घरों में लौट जाते हैं। सौ की रफ़्तार से दौड़ती कारें और हाइवे पर सड़क के किनारे हरे रंग की सात आठ फीट ऊँची ध्वनि प्रूफ दीवारें ताकि दीवारों के पीछे बसे गाँव ट्रैफिक से डिस्टर्ब न हो। तेज़कारों, परी कथाओं के जादुई महलों, खूबसूरतनज़ारों और गुज़रे कल के रोमांटिक शहरों की धरती जर्मनी। स्वप्न-सा लगा सब कुछ।

जर्मनी की राजधानी है बर्लिन। एक लाख पंद्रह हज़ार स्क्वेयर माइल (यहाँ किलोमीटर नहीं बल्कि मील ही होते हैं) पर बसा, 80 मिलियन की आबादीवाला यह देश पूर्व और पश्चिम जर्मनी को मिलाकर बना है। पहले जर्मनी पूर्व और पश्चिम में बँटा हुआ था। फिर भी जंगल तो एक ही थे। हरे भरे और घने... हर एक मील के बाद सड़क को क्रॉस करता पुल, ऊँचे पहाड़... रास्ते में जितने भी गाँव पड़े सबके अंत में बर्ग... हिंसबर्ग, हेमबर्ग... बर्ग का अर्थ है ऊँचाई। ऊँचाई में बसे गाँवों के नाम के साथ बर्ग शब्द लगाया जाता है। दूर अंगूर के खेतों के पास कारों से कुछ जर्मन किसान उतर रहे थे। स्वस्थ, लम्बे... ज़िन्दगी से खुश... मैं अपने देश के किसानों की दुर्दशा सोच रही थी। सोचते हुए मैंने अपनी भर आई आँखें एक नहर पर टिका दीं। साफ़ नीला जल सड़क को छूता दूर तक बहता दिखाई दिया।

कोचने जर्मनी के खूबसूरत शहर हाइडलबर्ग में प्रवेश किया। शाम के साढ़े सात बजे थे लेकिन सूरज आसमान के बीचोंबीच चमक रहा था। यहाँ साढ़े नौ बजे से पहले सूरज अस्त होता ही नहीं है। हाइडलबर्ग की आबादी एक मिलियन है जिसमें 25 फीसदी विद्यार्थी हैं। हाइडलबर्ग यूनिवर्सिटी जर्मनी की सबसे पुरानी यूनिवर्सिटी है। यहाँसड़कों के नंबर होते हैं जहाँ से आप विभिन्न दिशाओं में प्रवेश कर सकते हैं। हमने रोड नं। 656 ए प्रवेश किया। सड़कें आदमविहीन... चल रहा था तो बस वाहनों का काफ़िला... कैमरों से पूरा ट्रैफ़िक कंट्रोल होता है। यहाँरेल्वे स्टेशन को बॉन हॉक कहते हैं। ट्राम भी चलती है। पता नहीं इतने यातायात के साधन क्यों हैं जबकि आबादी इतनी कम है। कुछ कमर्शियल इमारतें दिखीं। हाइडलबर्ग प्रिंटिंग मशीन के लिए प्रसिद्ध है। सड़कों के डिवाइडर पर रंगबिरंगे फूलों की क्यारियाँ, चौराहे पर फ़व्वारे और मूर्तियाँ। अधिकतर लोग साइकलों पार... यहाँ साइकलों के सिग्नल होते हैं। औरतें ख़ुद साईकल पर और साईकल से जुड़ी बच्चों की गाड़ी... गाड़ी में लाल गाल के गोरे गदबदे बच्चे बड़े प्यारे लगे। शहर एकदम शांत... खूबसूरत घुमावदार सड़कों पर शांत इक्का दुक्का लोग। न्यू हैडलबर्ग में एक जगह आल्सटड लिखा था यानी पुराना टाउन... उसी को नया रूप दिया है। नये शॉपिंग मॉल बनाये हैं। लेकिन सब बंद थे। शाम छै: बजे सब दुकाने बंद हो जाती हैं लेकिन शटर काँच के होते हैं और अंदर बिजली जलती रहती है यानी पूरी दुकानें साफ़ दिखाई देती हैं। यह शहर नेकर नदी के दोनों किनारों पर बसा हुआ है और पर्वतों और जंगलों से घिरा हुआ है। किनारों पर ऊँची बुर्जियों वाले मकान पर्वत की वैलीसे ऊँचाई तक दिखाई दे रहे हैं। पीले, भूरे, सिलेटी, सफेद, चॉकलेटी रंग के सुंदर मकान ऐसे दिख रहे हैं जैसे परियों की किताबों में होते हैं। इमारतें सभी सत्रहवीं सदी की बनी हुई। विश्व युद्ध के दौरान इन पर बमबारी नहीं हुई थी। टाउन हॉल, होली स्पिरिट चर्च, जैसुइट चर्च, कांग्रेस हाउस... और सत्रह सौ पचपन में बना पुल नदी के बीचोंबीच दोनों किनारों को जोड़ता। पुल पर शानदार आर्क है। 1751 में बना हाइडलबर्ग का कासल जो यहाँ के पाँचवें प्रिंस ने बनवाया। मैंऑल्टश्टाड की उन गलियों में घूम रही थी जो नदी के पत्थरों से जड़ी हुई थीं। गलियों के दोनों ओर ऊँची-ऊँची इमारतें। चारों ओर बिखरी ये गलियाँ एक ओर सीधे पर्वतों की ओर खुल रही थीं और दूसरी ओर मार्केट स्क्वायर में। बड़ा-सा पत्थर जड़ा चौक, बीचोंबीच हरक्यूलिसफ़व्वारा। मार्केट स्क्वायर को मीटिंग पॉइंट भी कहते हैं। फव्वारे के चारों ओर कुर्सियाँ टेबल जिन पर शराब पीते जर्मन जोड़े या फिर विद्यार्थियों के झुंड। लड़के लड़कियाँ सभी सिगरेट पी रहे थे। सामने यहाँ के मेयर का ऑफिस था और चारों ओर रेस्तरां... मेकडॉनल, थाई, चायनीज़, जापानी, अधिकतर टूरिस्ट्स की भीड़ थी। तस्वीरें उतारते, फ्रेंच फ्राई और कोक पीते, मुस्कुराते पर्यटक लेकिन खामोशी... ऐसी खामोशी जो मन को गुदगुदाये। किंग मार्टिन लूथर ने भी सामने वाली काली टाइल्स की बिल्डिंग में कुछ साल इस खामोशी में गुजारे थे। मैकडॉनल के सामने एक जर्मन भिखारी बैठा था। अपना हैट उल्टा इतनेसमृद्ध शहर में भी भिखारी। लेकिन समृद्धि सबके नसीब में कहाँ?

हाइडलबर्ग कासल पहाड़ों पर एक ऐतिहासिक महल है जो अब खंडहर हो चुका है। 1751 में यहाँ प्रिंस थोडर रहता था। उसका जो वाइन बैरल था उसकी रखवाली एक ऑस्ट्रियन वार पेरखे करता था। बैरल में दो लाख इक्कीस हज़ार सात सौ अट्ठाइस लीटर वाइन आती थी। बैरल लकड़ी का बना था। रखवाले ने कभी पानी नहीं पिया हमेशा वाइन ही पीता था। लेकिन एक बार युद्ध के दौरान बैरल मेंवाइन नहीं होने से उसे प्यास बुझाने के लिए पानी पीना पड़ा। सुबह वह मृत पाया गया। अद्भुत, लोग शराब पीकर मरते हैं, वह पानी पीकर मरा। पुल के बायीं ओर एक बहुत बड़े बंदर की काली मूर्ति है जिसके हाथ में आइना है। लगता है वह पर्यटकों को आइना दिखा रहा है।

लगभग एक घंटा इस ऐतिहासिक जगह में बिताकर हम फ्राईबर्ग शहर की ओर बढ़े। सूरज अभी भी ढला नहीं था। रास्ते में कार्सयू सिटी पड़ी। जो कि एक इंडस्ट्रियल सिटी है। चपटेमुँह की जर्मन गायें चारागाह में घास चर रही थीं। फिर वैसे ही पुल, पुल पर डबल डेकर ट्रेनें लाल रंग की जिसके दरवाज़े सफेद थे। यहीं से ब्लैक फॉरेस्ट एरिया शुरू हो जाता है। घना, नुकीले पेड़ों वाला जंगल जहाँ सूरज की किरनें पहुँच नहीं पाती। कहते हैं यहाँ कुछ दिनों के लिए हिटलर गुम हो गया था। दोटनल पड़ीं जो बिजली के बल्बों से जगमगा रही थी। दायें बायें खूबसूरत ढलानों पर सफेद फूल खिले थे। फ्राईबर्ग पुलों का शहर माना जाता है। बीच-बीच में कुछ बंगले... बंगलों के सामने दीवार पर सूली से लटके ईसा मसीह। खिड़कियों पर रखे चौकोर गमलों में लाल, गुलाबी फूल खिले हुए। फिर जंगल शुरू हो गया। एक डरावना-सा काले पत्थरों से जड़ा टूटा फूटा बोगदा पहाड़ पर था जिससे लगी लोहे की रेलिंग दूर तक गई थी। बाईं ओर पीले फूलों वाले सरसों के खेत थे फ्राईबर्ग अंगूर के खेतों और काइज़रस्टूल पर्वतों के बीच बसा है। यानी नशीलापन और सुरक्षा दोनों के बीच सिमटा सा। इस पुराने शहर को यूरोप की इकॉलाजी राजधानी भी कहा जाता है। रात के दस बज रहे थे। सूरज डूब चुका था और रात की काली चादर शाम को दबोच चुकी थी। रेल्वे स्टेशन के पास एक भारतीय रेस्तरां में डिनर लेते हुए मुझे लगा मैं इन चौबीस घंटों में इतिहास की कितनी गलियाँ घूम आई हूँ। भूल चुकी थी ख़ुद को और जी रही थी उन ज़िन्दा एहसासों को जो मुझे सैकड़ों वर्षों के अतीत में ले गये थे। डिनर के बाद हम पैदल ही होटल इंटरसिटी आए। सामान पहले पहुँच चुका था। थकान ने घेरना शुरू कर दिया था। होटल के कमरे तक अपना लगेज ख़ुद ही ढोकर ले जाना, अजनबी शहर के अजनबी कमरे का लैच खोलना और अँधेरे में स्विच ढूँढना बड़ा पीड़ादायी था।

सत्रह मई की सुबह छै: बजे नींद खुलने पर होटल की खिड़की से बाहर का नज़ारा देखा तो रिमझिम बरसात ने मन मोह लिया। मैं बूँदों को हथेली में समा लेना चाहती थी पर ठंडी हवा ने तुरंत खिड़की बंद कर देने पर मजबूर किया। नाश्ते के दौरान अजय ने बताया-"अभी कुछ विद्यार्थी आने वाले हैं जो हमें हाइडलबर्ग यूनिवर्सिटी ले चलेंगे। वहाँ से हम ट्रुबा चलेंगे।"

"तो मैं अपनी किताबों का सेट रख लेती हूँ।" मैंने जल्दी, जल्दी नाश्ता खतम किया और अपने कमरे से जब तक किताबें लेकर लौटी विद्यार्थी आ चुके थे। परिचय के दौरान ही मैं समझ चुकी थी कि सभी विद्यार्थी हिन्दी के जानकार हैं। हल्कीहल्की फुहारों के चलते हम कोच में आ बैठे। सारेरास्तेविद्यार्थी जर्मन गीत गाते रहे। गीतों में नाज़ियों की दी हुई पीड़ा जीवन्त थी। विशाल यूनिवर्सिटी में प्रवेश करते ही मैं रोमांचित हो उठी। यहाँ हिन्दी और संस्कृत के इंस्टिट्यूट, डिपार्टमेंट, प्रोफेसर्स और विद्यार्थी देख मैं दंग रह गई। भारतीय मूल के लोगों के साथ-साथ जर्मन विद्यार्थी और प्रोफेसर्स भी ऐसी धारा प्रवाह हिन्दी बोलते हैं कि दाँतों तले उँगली दबानी पड़े। पुस्तकालयों में संस्कृत के वेद, उपनिषद, महाकाव्य, पुराण हिन्दी के महान लेखकों की पुस्तकें... सूर, तुलसी, मीरा, जायसी... सबउपलब्ध। अधिकतर ऐसे विद्यार्थी थे जिनके माँ बाप बरसों पहले भारत से यहाँ आकर बस गये थे। उनकी इच्छा थी कि बड़े होकर उनके बच्चे भारत में जाकर बसें। एक ऐसी ही भारतीय मूल की छात्रा ने गाकर सुनाया–"ठुमकि चलत रामचँद्र बाजत पैजनियाँ।" और आँखों में नमी लाते हुए बोली–"मेरा भारत महान"।

मैंने उसे बाहों में भर लिया। अपनी किताबों का सेट जब मैंने यूनिवर्सिटी के पुस्तकालय में बतौर तोहफा दिया तो लाइब्रेरियन ने किताबों को उलटते पुलटते कहा–"आप लेखिका हैं? जर्मनी में आपकी किताबों का स्वागत है।"

"वैसेभी जर्मनी अपने जर्मन विद्वानों को लेकर भारत के साथ संस्कृत के कारण एक सूत्र में बँधा है। संस्कृत साहित्य में छिपी हज़ारों वर्ष पुरानी सभ्यता और संस्कृति को विश्व रंगमंच पर लाने का श्रेय फ्रेडरिखवान, अडोल्फ़ डबल्यू श्लेगल, विल्हेम फॉन हांबोल्ट आदि जर्मन विद्वानों को ही जाता है।" मैं अभिभूत थी। भाषा की शक्ति का एहसास मेरे रोम-रोम में विचर रहा था।

विद्यार्थी हमें कोच तक छोड़ने आए और आँखों से ओझल होने तक हाथ हिलाते रहे। ट्रुबा की ओर जाते कोच की खिड़की से टिकी मैं उन्हीं के बारे में सोचती रही।

ट्रुबा ब्लैक फॉरेस्ट के बीच बसा गाँव है जो कुकू घड़ियों और केक के लिए विश्व विख्यात है। बेहद खूबसूरत रास्ते के दोनों ओर हरियाली में... परीकथाओं जैसे बंगले ऐसे बसे थे कि जिस्म के साथ-साथ आँखों में भी ठंडक उतर आई। ब्लैक-फॉरेस्ट में पॉपुलर, चीड़, ओक के घने पेड़ हैं। यहीं है ट्रुबा फेमिली यानी कुकू घड़ियों कीफैक्ट्री कम शो रूम... जहाँ कोच से उतरते ही सामने एक विशाल बंगला-सा बना था। लाल टाइल्स वाला, जिसकी बाल्कनी में दो नृत्य करने वाले जोड़े लकड़ी से बने थे। दीवार पर बड़ी गोल घड़ी जिसका नाम अजय ने हॉफगट स्टरनेन कुकू क्लॉक बताया, ने दस बजाये तो एक खिड़की खुली, चिड़िया बाहर निकली और कुकू की आवाज़ करने लगी। और तभी दोनों जोड़े नाचने लगे। जब दस बार कुकू की आवाज़ हो चुकी तब जोड़ों ने नाचना बंद कर दिया चिड़िया भी खिड़की में समा गई। अद्भुत नज़ारा था। बाजू में ही पनचक्की थी जिससे ऊर्जा पाकर घड़ी चलती थी। शोरूम में हमारा स्वागत महेश भाटिया ने किया जो भारत से यहाँ पढ़ने आया है और अपनी पढ़ाई का ख़र्च यहाँ काम करके निकालता है। महेश बताने लगा–" यहाँ पॉपुलर के दरख़्त बहुतायत से होते हैं। ट्रुबावासी उससे रहने के लिए मकान बनाते हैं और ईंधन भी उसी का जलाते हैं। 1740 से यह लकड़ी कमाई का साधन भी बन गई जब इससे घड़ियाँ बनाई जाने लगीं। एक घड़ी बनाने में दो महीने लगते हैं। सबसे बड़ी घड़ी चालीस हज़ार यूरो यानी दो लाख की है। ट्रुबा फेमिली में कई प्रकार की घड़ियाँ हैं। मियाँ बीबी क्लॉक जिसमें बारह पर बड़ा काँटा पहुँचते ही बीबी बेलन लेकर मियाँ के सिर पर उतनी ही बार मारती है जितने बजे हैं। हनीमून क्लॉक, डपलिंग ईटर आदि घड़ियाँ बनाई जाती हैं। कुछ घड़ियाँ छूने से चलने लगती हैं। एक छोटी घड़ी का डिमांस्ट्रेशन महेश ने करके दिखाया। शोरूम में सॉफ्ट टॉयज़ और पिक्चर पोस्टकार्ड भी थे। सामने हॉफगट रेस्टॉरेंट के खूबसूरत लकड़ी के बेसमेंट में हमने गर्मागर्म भारतीय भोजन लिया। बेसमेंट में गरमाहट थी, सबओर हीटर लगे थे... स्वेटर उतार देना पड़ा।