तेरा ज़िक्र है या इत्र है / ममता व्यास

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तेरा जिक्र है, या इत्र है? जब-जब होता है, महकाता है, बहकाता है, चहकाता है। हम जब भी किसी से बात करते हैं, हमारी बातों में अक्सर उन्हीं लोगों का जिक्र ज्यादा होता है जिन्हें हम अपने सबसे करीब महसूस करते हैं; भले ही वे हमारे पास ना हो; भले ही वे हमारे साथ हो ना हो; लेकिन वे हमारी बातों में हमेशा मौजूद होते हैं। उनका जिक्र होना, मानों इत्र की शीशी खुल गयी हो और खुशबू चारों ओर बिखर गई... क्या है ये खुशबू? जिक्र के साथ इत्र का क्या सम्बन्ध है? इस खुशबू का क्या मनोविज्ञान है? क्या सिद्धांत हैं? क्या खुशबू के पास उसके होने के कोई तर्क हैं? क्या कोई परमिट है उसके पास? क्यों आती है? कहाँ से आती है? कहाँ चली जाती है? कब तक रुकेगी? कोई समय सीमा भी तो नहीं। इसका कोई सरहद, कोई पैमाना नहीं। कोई आशियाना नहीं। क्या किसी ख़ास से कोई याराना होता है इसका? दिखती नहीं पर छूती है। उठती है तो आग लगा देती है। बहती है तो समन्दर कर देती है। बड़ी भोली, बड़ी मासूम, बड़ी मीठी-सी... कहीं पढ़ा था मैंने " दुनिया की सबसे खूबसूरत शै वही है जो दिखाई ना दे। सिर्फ महसूस की जाए।“ यकीनन, वो ईश्वर ओर प्रेम होंगे। लेकिन मैंने खुशबू को भी ईश्वर और प्रेम जैसा पवित्र और खूबसूरत मान लिया है।

ये तीनों अलग-अलग हैं भी नहीं। एक ही हैं। नाम अलग-अलग दिए है हमने। ईश्वर, इश्क और मुश्क... ईश्वर को सोचो तो खुशबू आती है। खुशबू में डूब जाओ, तो ईश्वर दिखता है; और इश्क में डूबो तो ईश्वर दिखते है और इबादत की खुशबू उठने लगती है। है ना कमाल की बात जो खुद दिखाई ना दे पर होने का अहसास करा दे! तीनों गड्ड-मड्ड हैं आपस में।

बहरहाल, हम बात कर रहे थे कि किसी का जिक्र हो और इत्र फैल जाए। किसी की बातों में खुशबू होती है। किसी के शब्द खुशबू बिखेरते है। किसी अजनबी से मुलकात हमें खुश्बू से क्यों भर देती है? हम जिन्दगी भर खुद को सराबोर पाते है उस खुश्बू से। क्यों भरी दुनिया में कोई विशेष खुश्बू आपको बांधने लगती है। और आप खिंचे चले जाते हैं उसकी तरफ़...

इन खुशबुओं के अपने रहस्य है। किसी दीवाने शायर ने कह दिया कि तेरे खुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे? तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूँ, आग बहते पानी में लगा आया हूँ। बहते पानी में आग कैसे लगा दी खुशबू ने? है ना, हैरानी की बात? इतनी हल्की, मासूम, अनदेखी, अनछुई सी शै कैसे गंगा में आग लगा सकती है? इतिहास गवाह है, इस खुशबू ने राजाओं से उनके राजपाठ छुड़वाए, एक मछुआरन ने अपनी खुश्बू से इतिहास बदल दिए। ये जोगियों के जोग बिगाड़ देती है। ये रोगियों को भला चंगा कर देती है। तो कहीं योगियों को भोगी बना देती है। इस खुशबू ने नगरवधुओं को योगिनी बनाया। इस खुश्बू ने तवायफों के कोठों को मंदिर में बदल दिया। इन खुशबुओं ने सन्यासियों के तप भंग कर दिए।

जैसे सपेरे की बीन बजते ही घने जंगलों से सांप निकल आते हैं, बौराए-से, बलखाते, इठलाते, बेखबर-से... क्या कोई खुश्बू उन्हें खींचती है? क्यों चन्दन के पेड़ भी नहीं रोक पाते उन्हें? कृष्ण की बंसी ने कभी किसी को नहीं पुकारा। ना कभी किसी का भूले से नाम लेकर बुलाया। उस छलिये ने कभी आवाज़ भी तो नहीं दी। लेकिन... बंसी के हर सुर से प्रेम की खुश्बू उठती थी, इक़ पुकार, इक़ बुलावा! और सच्ची पुकार आपको खींच कर ले जाती है उस ठिकाने पर। लेकिन क्या कोई ठिकाना है इसका? कौन जाने किस ग्रह से आती है और कहाँ चली जाती है? कौन कहता है कि खुश्बू फूलों में बसती है। मैंने तो देखा है कि ये पत्थरों में भी हंसती है, रेगिस्तानों में चमकती है, समन्दरों में तैरती है, चन्द्रमा में छिपती है... हाँ... ये फूलों से झांकती है, रूह को सताती है, नींदों को उड़ाती है, आँखों से छलकती है, होठों पर कांपती है, भीड़ में तन्हा किए जाती है, रात के स्याह सन्नाटों में आपको आवाज़ देती है, बैचेन करती है। सो जांएगे तो सपनों में आकर हँसेगी, जाग जांएगे तो रुलाएगी। अपने भीतर झांकेगे तो हँसने कि आवाज़ आएगी। बाहर खोजेगे तो रो-रो कर बुलाएगी। ये आपका जीना मुहाल कर देगी पर आपको मरने भी नहीं देगी। जब तक आप उसे खोज ना ले। आप लाख चुप रहे पर ये तो सारे राज खोलेगी। सदियों से ना जाने कितने खुशबुओं के ज्ञानी अपनी खुश्बू की तलाश में भटक रहे हैं, तरस रहे है। वहीं दूसरी ओर ना जाने कितनी पवित्र खुशबुयें अपने ज्ञानियों की प्रतीक्षा में है।

किसी किताब में नहीं लिखा, ना ही किसी वेद पुराण में लिखा है कि किसकी खुश्बू कहाँ गुम हुई है। इसलिए मोटी-मोटी किताबों में मत खोजना इसके सुराग। ना किसी मंत्र या तंत्र में है इसका इलाज। असल ज्ञानी वही जो खोज ले अपने हिस्से की खुश्बू, बिना तर्क किये, बिना संदेह के, बिना आडम्बर के। आपको अपने सयानेपन की खोल से बाहर आना होगा। दीवानी कर देने वाली खुश्बू को पाने के लिए सयानापन नहीं शुद्ध दीवानापन जरुरी है। पहचान जरुरी है। खुश्बू की पहचान करने के लिए कोई ग्रन्थ नहीं पढने होंगे। बस आखें बंद करके अपने मन कि बात सुननी होगी। मन समझते है ना आप? महसूस किया है कभी?

याद रहे चन्दन के पेड़ आग में जलाने के लिए नहीं होते। वे तो अनमोल खुश्बू है उसे संजोना होता है मन की गहराइयों में। सच्चे रिश्तों की खुश्बू कभी नहीं जाती। वो आपका पीछा नहीं छोड़ती। पत्ती-पत्ती झड जाती है लेकिन खुश्बू चुप नहीं होती। बशर्ते आप उसे सुन सके। महसूस कर सके। जब-जब जिक्र होगा उस खास का, आप एक खुश्बू अपने आस-पास महसूस करेंगे और कह उठेंगे --तेरा जिक्र है, या इत्र है? मैं जब-जब करता हूँ, महकता हूँ, चहकता हूँ, बहकता हूँ, भटकता हूँ...