तेरी दीवानी / रणविजय

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हल्की बारिश आदमी को बाहर निकलने को बेचैन कर देती है। मौसम ज़रा तपिश देना शुरू किया ही था कि आसरा देने ये आ गई। चण्डीगढ़ के सेक्टर 17 के अपने ऑफ़िस से शशांक ने सर उठाकर एक तरफ़ कान लगाकर सुनने की कोशिश की। सरकारी दफ़्तर में अधिकारी की भारी मेज़, उसके एक पार लगी विज़िटर कुर्सियाँ, फ़िर चैम्बर में ही सोफ़े, सेंट्रल टेबल, अलमीरा,बुक शेल्फ इत्यादि फ़र्नीचर अपना रोब इतना बढ़ा देते हैं कि बेचारी प्रकृति के दख़ल की जगह ही नहीं बचती। रही सही कसर खिड़कियों पर लगे पर्दे और डिज़ाईन से ही अंदर ख़ामोश रहने वाले स्प्लिट एयर कंडीशनर पूरी कर देते हैं। उसने सुना कि बाहर बारिश की बौछारों की सरसराहट क्षीण तरीक़े से अंदर आ रही है। मुकम्मल 2 वर्ष में आज पहली बार उसने अपनी पहली मंज़िल पर मौजूद ऑफ़िस की बालकनी का दरवाज़ा खोला। वह निकलकर बाहर आ गया। एक फुहार ने उसका गीला स्वागत किया। उसका शरीर तर हो गया जैसे उसे बहुत अरसे से फुहार की प्यास हो। फुहार का आनन्द, नहाने और शावर में नहीं है।इसमें हवा और पानी का ऐसा मिश्रण होता है जो बस आपको छू कर हट जाता है , इस प्रक्रिया में आनन्द की असंख्य राशि मिल जाती है ।

सड़क पर जगह-जगह लोग इधर-उधर किसी छाया की तलाश में भाग रहे थे। काले डामर पर मटमैले पानी की धाराएँ बनने लगी थीं। बैंक की तरफ़ को एक लड़का और एक लड़की जा रहे थे। उसकी नज़रें ठिठक गईं। उनकी चाल में खिलंदडता थी। वे कोई जल्दी में नहीं थे। छोटे-छोटे बालों वाली लड़की, काले रंग के टाइट टॉप और नीले डेनिम में थी। लड़का टाइट हरी टी शर्ट और ब्लैक जींस में, एक बैग पीठ पर लटकाए, उसके कन्धों पर हाथ रखे चल रहा था। लड़की को शरारत सूझी तो इकट्ठे पानी के गड्ढे पर वह कूद गई। उठती छींटों से लड़का दूर भागा और तुरंत ही उसको झूठ-मूठ मारने के लिए दौड़ा। उसकी क़मर पकड़ में आ गई और लड़की उस घेरे में झूल गई। शशांक के होंठों पर एक मुस्कान फैल गई। दोनों ठिठोली करते-करते बैंक के शेड के नीचे पहुँच गए थे। लड़की जैसे ही वहाँ पहुँची उसने अपने माथे पर लटकते बालों को पीछे की तरफ़ झटका। बाल तो पीछे गए ही, शशांक भी कई वर्ष पीछे चला गया। ऐसी ही तो थी वह और ऐसी ही शरारती भी।

बारिश तो 15 मिनट की आँख मिचौनी खेलकर निकल गई। शशांक बालकनी में अटक गया और किसी याद में लटक गया। चपरासी दो बार आकर देख चुका।

पहली बार यक़ीन करने के लिए कि साहब अंदर ही हैं कि नहीं, दूसरी बार इसलिए कि होश में हैं कि नहीं? उन खेलती आकृतियों ने उसे कुछ वर्ष पहले मधुर यादों में भेज दिया।

"मैं हूँ...चित्रा। “

आज भी उसी श्रव्य ध्वनि , आवृत्ति, परिमाण और भाव के साथ उसके दिल पर बिजली-सी गिराती है। साल-दर-साल हृदय के पट पर इस आवाज़ की लिखावट और मोटी होती जा रही है।

चटख लाल रंग की लगभग टाइट टी शर्ट और ब्लैक जींस और वह बालों को झटक देना। अभी इस लोक में विचर रहा था कि चपरासी ने पीछे से अहिस्ता से कहा–

“सर, ये मिलना चाहते हैं। बहुत देर से बैठे हैं।“ कहकर एक कार्ड थमा दिया।

उसने कार्ड देखा और अनमने से कहा–

“भेज दो।“

बालकनी से धीरे से कार्ड को हाथों में क्रश कर बालकनी से उछाल दिया। उसको नफ़रत हो गई थी उद्यमियों की ओछी हरकतों से। ख़ैर राजकाज। पहले तो पूछते नहीं, बाद में जी हज़ूरी।

जब वह फ़ुरसत हुआ तो उसने मनिंदर को याद करना ज़रूरी समझा। आजकल इस शहर में वही अकेला यार जैसी फीलिंग देता था। बाक़ी सब मतलबपरस्त। था तो ये भी, पर अब वैसा नहीं रहा।

“हेलो सर जी, की हालचाल है?”

“हाल सब ठीक है मनिंदर। शाम को मिल ज़रा, बियर पिएँगे।“

“क्या हुआ सर जी, आज ऑफ़िस से ही मूड बना रहे हो, सब ख़ैरियत?”

“सब ठीक है। घर में कोई है नहीं। बीवी बच्चे इलाहबाद गए हैं 7-8 दिनों के लिए। तो आ जाओ बैठते हैं।“

“यहाँ भी अमृतसर गए सब। स्कूल की छुट्टी का फ़ायदा उठा रहे हैं।“

“तो आओ, हम भी उठाते हैं।“

“ठीक है...स...र...चलो आता हूँ।“ कुछ हिचकते हुए उसने कहा।

“क्यों ...क्या हुआ?” भाँपते हुए शशांक ने पूछा।

“नहीं सर जी... कोई बात नहीं ... मिलते हैं।“ मैं कॉल करूँगा शाम 6:30 पर।

“ओके।“ वे समझ गये कि वह मना नहीं कर पाया । ख़ैर ...

मनिंदर सिंह मोहाली में एक फ़ैक्ट्री चलाता है। शशांक के टच में वह तब आया, जब प्रोविडेंट फ़ंड के इंस्पेक्टर ने छापा मारा था और कंप्लायंस (compliances) का उसका बड़ा घोटाला पकड़ा था।

चित्रा का नम्बर दो बार लगाकर तुरंत काट दिया। कमी उसी की थी, उसने इतने दिनों तक बेपरवाही जो की।

पहली मुलाक़ात का पूरा चित्र आँखों के सामने नुमायाँ हो गया।

शशांक ट्रेनिंग पर आया था, तो अपने पुराने दोस्तों के पास चला गया। ये वे दोस्त थे जो उसके साथ ज़माने से हैं, जब से अपना वजूद समझने की समझ हुई तब से। इनके सामने कोई आवरण नहीं चलता था। ये हमेशा आपको आपके एलिमेंटल (elemental) स्वरूप में ही देखते थे, बिना किसी मिश्रण तथा परिष्कार के। ये चमकते स्टील के अंदर के बदसूरत आयरन (तत्व, मिश्र धातु नहीं) को अच्छे से जानते थे। ठेठ लहजे में कहें तो इनके सामने आप हमेशा नंगे ही रहते थे, फ़िर चाहे कितना भी सूट–बूट पहनकर बदलने की कोशिश कर लें।

मनीष और अभिषेक के साथ ‘एक शाम अवारादागर्दी के नाम’ ज़िया जा रहा था। नज़र के छोर तक सफ़ेद-ही-सफ़ेद इमारतें और एक ख़ूबसूरत, मन को मोहने वाली गोलाई कनॉट प्लेस (नयी दिल्ली) की तरफ़ अपने आप खींच लेती थी। उस वक़्त का सबसे बड़ा रिफ़्रेशमेंट यही था, ख़रीदारी कुछ नहीं, शबाबदारी पूरी।

टहलते हुए अचानक अभिषेक ने रोका और 2 मिनट बोलकर गलियारे से बाहर सड़क की तरफ़ बढ़ गया। ये आउटर सर्किल था। उसका बिना ठीक से बताए अचानक यूँ कटना, शशांक को अच्छा नहीं लगा था पर अगले ही पल जो नजारा देखा तो ज़रूरत साफ़ समझ में आ गई। अभिषेक 3 लड़कियों के एक झुंड में जा मिला था, जो सड़क किनारे खड़ी थीं। मंद-मंद मुस्कुराकर वह एक लड़की की तीव्र वाचालता का जवाब दे रहा था। उस लड़की के कंधे तक के छोटे बाल अक्सर उसके मुँह पर आ जाते थे जिन्हें वह हल्के से एक अदा से झटक देती थी। चटख लाल रंग की लगभग टाइट टी शर्ट और ब्लैक जींस में वह बड़ी दिलकश लग रही थी। एक झटके में उसका अक्स दिल की गहराइयों में उतर गया। वैसे वह उन लोगों से 25-30 फ़ीट के फ़ासले पर था। लड़कियों ने इन दोनों को देखा भी नहीं था, इसलिए ये उनके लिए अदृश्य अस्तित्व थे। शशांक ने अपने बालों को एक बार गर्दन से झटका दिया और इस ख़ूबसूरती पर ख़ुद ही मुस्कुरा दिया। वह एक बार और ऐसा करना चाहता था, पर मनीष की उपस्थिति में वह ये नक़ल का खेल, खेल न सका।

अभिषेक थोड़ी देर में लौट आया, शशांक ने कुछ भी नहीं कहा। उसने अपने जज़्बातों को पहले थम जाने का वक़्त दिया। एक लहर जो उफनी थी, वह अब रह-रहकर आने लगी थी, उसका उठान बढ़ता ही जा रहा था। रात जब ख़ामोशी पर थी, तब उसके अंदर एक शोर था। उसने बहुत इत्मिनान और सरलता से दोस्तों के सामने ये सवाल बस चला भर दिया–“अभिषेक, शाम को जिस लड़की से तू मिला, वह कौन थी?”

“अरे वे, फ़्रेंड हैं...क्यों?” अभिषेक ने वैसी ही लापरवाही से कहा।

शशांक को ‘क्यों ‘ का कोई माक़ूल जवाब सूझा ही नहीं।

“कुछ नहीं। बस यूँ ही...।”

पर उससे रहा नहीं गया, थोड़ा लजाते हुए उसने थोड़ा-सा पर्दा सरकाया–

“रेड टी शर्ट वाली अच्छी लग रही थी।“

“अच्छा...।” पहली टिप्पणी मनीष की आई, जो किताबों में डूबा हुआ पढ़ रहा था। फ़िर उसने क़िताब एक तरफ़ सरकाते हुए अभिषेक से शरारत भरे अंदाज़ में कहा-

“दर्शन करवाओ भई इन्हें...।”

वास्तव में अभिषेक ही उस लड़की को जानता था, क्योंकि वह उसके साथ दिल्ली विश्वविद्यायल में पोस्ट ग्रेजुएशन में थी। वह हॉस्टलर थी। अभिषेक और मनीष रेंट पर बाहर रहते थे।

अपनी झेंप मिटाने वाले स्वर में शशांक ज़ोर से उत्साहपूर्वक चिल्लाया-

"हाँ...हाँ, दर्शन करवाओ और अच्छे से करवाओ... साले।" अब कुटिल मुस्कान वापस करने की ज़िम्मेदारी उसकी थी। थोड़ी और कुटिलता और उद्दंडता लाते हुए मनीष ने कहा-

“फिर तो देव से भी मिलना पड़ेगा।“

"देव कौन?" अब चौंकने की बारी शशांक की थी। लड़की के साथ एक लड़के से मिलने का झमेला क्या? ‘भाई के साथ रहती है क्या’?

"देव, उसका बॉयफ्रेंड" कहकर मनीष और पीछे अभिषेक ठहाका मारकर हँस पड़े। फ़िर सांत्वना स्वरूप वह बोला-

"कोई बात नहीं मिलाएँगे ज़रूर...कल ही।“

यह तो उसने सोचा भी नहीं था कि लड़का, भाई के अलावा भी कुछ हो सकता है। स्वार्थी मन ऐसी ही लुभावनी तस्वीरें बुनता है जहाँ हर पसंद आने वाली लड़की जैसे ख़ाली बैठी इसी राजकुमार का इंतज़ार कर रही थी।

फ़ोन पर घंटी बजी तो शशांक यादों से बाहर निकला। मनिंदर का फ़ोन था।

“सर, ताज में आइए, वहीं मिलता हूँ।“

“वहाँ...?”

“आज वहीं सर।“

उन्हें समझ नहीं आया कि बियर पीने के लिए ताज जैसे होटल का ख़र्च क्यों?

शशांक ने पूरी शाम चैम्बर के बाहर, लाल बत्ती लगाकर गुज़ार दी थी, जिस से कोई डिस्टर्ब नहीं करे। चपरासी से उसने कहा-

“गाड़ी में सामान रखो और ड्राईवर को रेडी करो।“

यादों का वज़न रुई पर पड़े की पानी की तरह है जो पूरा सराबोर कर, उसको भारी कर देती है। उसके भी क़दम बोझिल थे। उस रात होटल की मुलाक़ात और उसकी कही बात मस्तिष्क में गूँज रही थी।

ताज पहुँचकर शशांक ने ड्राईवर को घर जाने को बोल दिया।

“फोन करेंगे, तब आ जाना।“ उसे पता था, यहाँ वक़्त अच्छा कटेगा सो देर तो होनी ही थी।

मनिंदर रिसेप्शन के पास ही सोफ़े पर बैठा था, उसे देखते ही वह खड़ा हो गया और आगे बढ़ा। उसके पीछे एक महिला और खड़ी हुई, जो कुछ ठिठकते हुए उसके पीछे आ रही थी। शशांक ने देखा तो था कि सामने सोफ़े पर एक महिला बैठी है, पर उसे लगा होटलों में 2 असम्बद्ध अंजान लोग भी इस तरह बैठ जाते हैं, बिना किसी बातचीत के। धीरे-धीरे उसका ध्यान वहीं केन्द्रित हो गया और लगने लगा कि कुछ कनेक्शन ज़रूर है। वेस्टर्न वन पीस ड्रेस (बॉडी कॉन ड्रेस) में वह लम्बी भरी-भरी औरत पूरी पंजाबी लग रही थी। मनिंदर ने गर्मजोशी से स्वागत किया और पीछे मुड़ा। तब शशांक को पक्का हो गया।

“सर ये पम्मी है, परमिंदर, मेरी पुराणी दोस्त।“

“हेल्लो, हाउ आर यु?” एक फ़ॉर्मेलिटी करनी पड़ी और कोफ्त हुई कि ये किसको ले आया? शायद इसीलिए हिचक रहा था क्या।

थोड़ी औपचारिकता के बाद वे बार की तरफ़ बढ़ गए। बार में आमने-सामने सोफ़े पर बैठ गए। एक तरफ़ वे दोनों थे। मनिंदर ने कहा–

“सर, बियर ही लेंगे या कुछ और?” उसे पसंद पता था पर आज मूड कुछ और था।

“आज स्कॉच लेंगे...रेड लेबल ले लो।“

उसने बैरे को बुलाकर आर्डर कर दिया। शशांक ने नोट किया कि बिना पम्मी से पूछे ही उसने उसके लिए जिन आर्डर कर दिया था। उसे पम्मी के होने से असहज लग रहा था। मनिंदर को भी लगा ही। पम्मी को तो लगना ही था। पर सबकी कुछ-कुछ मजबूरी थी।

तीन पैग और डेढ़ घंटे के बाद ज़िंदगी आसान हो गई। अब सब अंतरंग हो गए थे। इतनी देर में ये खुल गया था कि पम्मी मनिंदर की गर्लफ़्रेंड थी। जब उसकी शादी एक इंजिनियर से हो रही थी तब मनिंदर कुछ नहीं करता था फ़िर वह रायपुर चली गई और ये ज़िंदगी में कुछ करने के लिए ख़ाली हो गया। इस बार 4 वर्ष बाद अपने पिंड आई है।

दोनों सोफ़े पर पहले दूर-दूर बैठे थे पर अब वह दूरी नापकर क़रीब हो गए थे। शशांक को अब सारी बातें साफ़ हो गई थीं। क्यों वह शाम को कतरा रहा था? और क्यों आज ताज में ड्रिंक का प्रोग्राम बना। उनके प्रोग्राम अभी और आगे के भी थे, जो बातों-बातों में उसे समझ आ गए थे। पम्मी अच्छी लग रही थी। चित्रा और भी अच्छी है। वह सोचने लगा, चित्रा इस ड्रेस में कैसी दिखेगी?

उसने ड्राईवर को फ़ोन किया और बुला लिया। कबाब में अब और हड्डी बनना उसे मंज़ूर नहीं था।

रास्ते भर वह यही सोचता रहा कि चित्रा अब कैसे बर्ताव करेगी? कैसे मिलेगी...अब जब कि उसकी ज़िंदगी भी किसी और पगडंडी पर चल चुकी है। एक पूरी रात इस उधेड़बुन में निकल गई कि पम्मी बारिश में भीगी होती तो मनिंदर क्या करता? चित्रा भीगती तो शशांक क्या करता? और पम्मी की जगह चित्रा होती और वह मनिंदर की जगह होता तो आगे क्या होता? क्या फ़िर वही...नहीं नहीं... वह हमेशा बरज देती है। इतना अधिकार क्यों जताती है। उसका भी तो कुछ अधिकार है? पम्मी ने तो कुछ नहीं कहा होगा। उसकी बातचीत से भी ऐसा नहीं लगा कि वह चित्रा की तरह करेगी। इसी उधेड़बुन में यह पक्का हो गया कि वह कल उसे ज़रूर बात करेगा। नशे में नींद ने कब आग़ोश में ले लिया, ये मालूम न चला।

शशांक को चित्रा पहली ही नज़र में पसंद आ गई। क्यों पसंद आई, इसका कोई तर्कयुक्त या ऊँगली रखकर चिह्नित कर देने वाला कारण नहीं मिला। वैसे तो तब तक शशांक का विवाह तय हो चुका था और 5 माह बाद होने ही वाला था। पर ये अरेंज्ड मैरिज थी। किसी लड़की (सुंदर–असुंदर दूर की बात थी) से उसका कभी दोनों तरफ़ वाला प्यार (Both side love) नहीं रहा। जब से कली और फूल, गली और सड़क, गुलाब और गेंदे का अंतर समझ में आया, लगभग तभी से उसने अपने आपको अंदर क़ैद कर लिया था, जहाँ से वह कभी-कभी गर्दन उठाकर दूसरी दुनिया देख लेता था और फ़िर चेतना आते ही वापस अपने खोल में कछुए-सा घुस जाता था। अंदर थीं तो किताबें और मोटा डंडे वाला अनुशासन। कॉलेज से निकलते-निकलते कोई-कोई दिल में धड़कने तेज़ करता था। पर वे सब पढ़ाई के बवंडर में उड़ गए।

उसका फिदा हो जाना महसूस कर अभिषेक ने उसे चित्रा से मिलाने का फ़ैसला किया। अगले दिन, चित्रा को उसने कॉलेज की कैंटीन पर मिलने को बोला। सुनियोजित तरीक़े से वह शशांक को अपने साथ ले गया। जब दोनों कैंटीन पर पहुँचे तब तक चित्रा आई नहीं थी। दोनों नीम के पेड़ के बड़े से चबूतरे पर बैठ गए। अप्रैल का महीना अभी शुरू हुआ था। मौसम में पसीने वाली गर्मी अभी नहीं आई थी। ऊँचे पेड़ के नीचे एक आनंददायी शीतलता थी। दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर के किसी भी कैपंस की कैंटीन पर इसी तरह का माहौल होता, शोर और जोश से सराबोर। लड़के-लड़कियों की चटर-पटर करती हुई टोली-सी आती थी और कहीं भी एक गोल घेरा डाल बैठ जाती। एक-एक दो-दो चाय पीकर ये कितनी तकरारें कर लेते थे। ये किसी छोटे शहर से बिलकुल ही भिन्न था। लड़के लड़कियाँ यहाँ साथ में गलबहियाँ डाले घूमते थे, जैसे उनमें कोई फ़र्क़ ही न हो।

अभिषेक ने चाय आर्डर कर दिया। शशांक अधीर हुआ जा रहा था और गर्दन उठा-उठाकर, घुमाकर चारों तरफ़ फास्ट मोड में स्कैन कर रहा था। उसे इंतज़ार, बेचैनी, अधीरता, जिज्ञासा और घबराहट सब एक साथ हो रहा था। कैंटीन पर आने जाने वालों की अच्छी भीड़ थी।

केवल एक एँगल से, 25-30 फ़ीट दूर से देखकर किसी को असल ज़िंदगी में पहचान पाना मुश्किल होता है। पर अगर चीज़ दिल की गहराइयों तक उतरी हो तो उसका आस-पास होना भी पता चल जाता है। शशांक ने चित्रा को आते हुए दूर से ही देख लिया। पीला शोर्ट कुर्ता तथा लाल पलाजो, लहराता उड़ता पीले–लाल फूलों वाला टुपट्टा, उसे लाल पीले गुलाब के बुके का अहसास दे रहे थे। आगे माथे पर से किनारों के तरफ़ गए बाल हवा में अठखेलियाँ कर रहे थे। एक दो बार का उसका बालों को पीछे झटकना हृदयघात कर देता था। वह ये लक्षित ही नहीं कर पाई कि कोई उसे हतप्रभ, सम्मोहित लगातार निहार रहा है, जब तक कि वह बिलकुल क़रीब न आ गई। पीताम्बरधारी ग़ौर वर्णीय चित्रा का वह रूप शशांक को हिलाने के लिए काफ़ी था। जैसे-जैसे वह परी क़रीब आ रही थी, वह कॉन्सश (conscious) होता जा रहा था। कैसे खड़ा रहे, पहले क्या बोले, किस तरह उसे देखे? एक ज़माने की सम्पूर्ण प्यास उसकी आँखों में बैठ गई, जिसका एकलौता जलस्रोत चित्रा में था। पर वह एकटक उसे पी नहीं सकता था। लोक लाज, अपरिचय की दीवार बीच में जो थी।

अभिषेक ने औपचारिक इंट्रोडक्शन कराया। दोस्त के रुतबा अफ़जाई में उसने एक राई भर भी कमी न की, वह जितना था उससे ज़्यादा हवा भरकर उसे पेश किया। अपने लिए इतनी रंगीनपोशी देखते हुए वह शरमा उठा। संघ लोक सेवा आयोग से चयनित क्लास वन अफ़सर (प्रोविडेंट फ़ंड में असिस्टंट कमिश्नर) था आख़िर वो, चित्रा इम्प्रेस होने लगी। वह एक ब्रिलियंट स्टूडेंट था, पुराना रिकॉर्ड और वर्तमान जॉब उसका सबूत था। उसकी फ़िज़ा बन गई थी, उसी भाव में उनमें आपस में बातचीत शुरू हुई। शशांक इस दूरी को अब पाटने की कोशिश करने लगा और अपने को साधारण ही दिखाने लगा। अचानक अभिषेक उठकर बोला-

“तुम लोग थोड़ी देर बात करो, मैं ज़रा अभी डिपार्टमेंट से आता हूँ।“

दर असल ये दोस्ती के नमक का हक़ अदा करने वाला पैंतरा था। अब सिर्फ़ वे दोनों रह गए और अगल-बगल की चहल-पहल, जिससे उन्हें मतलब नहीं था। पढ़ाई, बैकग्राउंड, जॉब, जॉब सिनेरियो, दोस्तों इत्यादि जैसे सामान्य पहली मुलाक़ात वाले विषय ही इसमें टच हुए। यह पहली और ऊपरी सतह तक पहुँचने की बेसबर कोशिश थी। उसका माथे पर चढ़ आए बालों को पीछे की तरफ़ गर्दन के हल्के झटके से भेजना ऐसा मंज़र था जिसका वह बार-बार इंतज़ार करता था। अब तक तो उसने इसकी एक पूरी फ़िल्म बना ली थी, अकेले में, आँख बंद कर दुबारा जीने के लिए।

पहली मुलाक़ात एक दूसरे में कशिश जगाने के लिए बहुत थी। जब बहुत देर तक अभिषेक वापस नहीं लौटा तो चित्रा जाने को तैयार हो गई। न चाहते हुए भी उसे वापस लौटना था। शशांक ने उसे उसके हॉस्टल तक छोड़ने की ज़िद की। इस बात में एक अपनापन था जो चित्रा को कहीं-न-कहीं गुदगुदा गया। दोनों ने कैंपस के अंदर ही एक टैक्सी पकड़ी और एक कोमल सफ़र की तरफ़ बढ़ गए। टैक्सी की सीट ने उनको और क़रीब आने का मौक़ा दिया। हॉस्टल की दूरी कम थी पर दोनों को ही पहुँचने की जल्दी नहीं थी। अक्सर एक दूसरे की आँखों में टोह से देखने और फ़िर पकड़े जाने वाले भाव से तुरंत नज़र हटा लेने वाली दुर्घटनाओं से दोनों नहीं बचे। जब शशांक चित्रा को हॉस्टल छोड़कर वापस लौटा तो उसके पास उसका मुक़ाम पता था और चित्रा के पास उसका मोबाइल नम्बर। वह स्वयं मोबाइल का प्रयोग नहीं करती थी।

बात इतनी सामान्य न थी कि इसकी चर्चा मनीष और अभिषेक करें नहीं। छेड़ते हुए मनीष ने पूछ लिया–

"कैसी लगी?"

शशांक इस बार भी मुस्कुराया पर मुस्कुराने का अंदाज़ बदल गया था। उसके मस्तिष्क में लहराता पीला–लाल टुपट्टा और उड़ते हुए बालों को लापरवाही से झटके हुए चित्र थिरक गए। अनुभवी बुज़ुर्ग की तरह मनीष ने ताड़ लिया। फ़िर उसने उतनी ही बुज़ुर्गियत से अहसास कराया-

" बेट्टा , भूलना मत, उसका एक लॉन्ग टाइम ब्वॉयफ़्रेंड है,... देव।“

एक ताकीद बेमौक़ा गिरी।

“दोनों का लगभग तीन साल का साथ है, कभी-कभी दोनों कई-कई दिनों के लिए एक दूसरे के साथ बाहर जाते हैं।"

इशारों-इशारों में कही बात का मतलब शशांक समझ गया। थोड़ा ख़राब तो लगा। पर अभी वह कोई ग्रहण देखना नहीं चाहता था। उसने हँसकर टाल दिया-

"कोई बात नहीं यार, मैं कौन-सा उससे प्यार करता हूँ।"

अगले दिन शाम को अकारण ही चित्रा और देव दोनों मनीष से मिलने आ गए। मनीष बाहर रेंट पर एक रूम सेट में रहता था। रूम सेट मतलब (रूम, बाथरूम तथा किचन) । ये थोड़ा सरप्राइज़िंग था। क्योंकि मनीष और चित्रा-देव का आपसी परिचय बड़ा औपचारिक था। क्योंकि शशांक वहीं रुका हुआ था इसलिए मनीष को समझते देर न लगी कि हो-न-हो चित्रा जानबूझकर ही यहाँ आई है। देव तो केवल इसका सारथी बनकर आया है।

शशांक ने नोटिस किया कि देव लम्बा स्मार्ट लड़का था। पहनावे और गेटअप से वह आकर्षक था और चित्रा के लिए सचमुच ही फ़िट था। उसे यह अच्छा नहीं लगा। बातों से बातें निकलती चली जा रही थीं। चित्रा ने किचन जाकर सबके लिए चाय बनाई। शशांक ने उसकी भरसक मदद की। चाय के साथ पहचान भी पक रही थी, मीठी, सोंधी, स्वादिष्ट। ग्रुप में बातचीत में भी दोनों ने काफ़ी रस और रुचि से बातें की। दोनों एक दूसरे को समझते रहे पर उनकी कोशिश कामयाब रही कि देव को कुछ अटपटा नहीं लगे। बड़े शहरों में वैसे ऐसी बातें आम हैं। मनीष को ज़मीनी हक़ीक़त का पता था इसलिए उस पर अंकुरित होने वाले पौधे को वह भलीभाँति समझ रहा था।

शाम बढ़ते-बढ़ते रात हो गई पर चित्रा ने जाने का नाम न लिया और न ही देव को जाने दिया। अब सबने मिलकर रात का खाना भी बनाया। रात 10 बजे तक एक पार्टी-सा माहौल बना रहा। विदा होते वक़्त चित्रा की आँखें सजल दिखी क्योंकि शशांक को अगले ही दिन दूसरे शहर के लिए विदा होना था। पर ये देखने के लिए भी वैसी ही आँखें चाहिए थीं।

सुबह अलसाई हुई थी। रात के ड्रिंक का असर ख़त्म हो चुका था। पर आँख खुलते ही फ़िर से पम्मी से चलते हुए चित्रा घूम गई। ऑफ़िस पहुँचने के लिए अब वक़्त कम था। उठकर चाय बनाते हुए उसने ब्रश निपटा दिया था। शेव करने के लिए जब वह मिरर के सामने खड़ा हुआ, तो बहुत देर तक अपने को देखता रहा। गालों पर हाथ फिराकर, एँगल बदल-बदलकर बार-बार उसने अपने को निहारा और हर बार अपने को उतना ही ख़ूबसूरत पाया। वह अभी भी चित्रा को चाहने के क़ाबिल है। इन्हीं ख़यालों में वह शावर की तरफ़ बढ़ गया। उसका निश्चय उसे ऊर्जा दे रहा था। वह जल्दी से तैयार होकर ऑफ़िस के लिए निकल गया।

घंटी बज रही थी। लगभग 2 से ढाई साल हो गए थे कोई बातचीत नहीं हुई। केवल होली, दीवाली, विजयदशमी, न्यू इयर इत्यादि जैसे औपचारिक सार्वजनीन मैसेज जिनमें कोई अपनत्व नहीं, वे ही एक्सचेंज हुए थे। क्योंकि उसने अपनी तरफ़ से, ढील दे दी थी तो चित्रा ने भी छोड़ दिया बिना दख़ल के। फ़ोन तीसरी घंटी पर ही उठ गया। ये देखकर उसको तसल्ली हुई।

“हेल्लो।“

“हाय चित्रा...कैसी हो?” आत्मीयता से मुस्कानपूर्वक उसने पूछा।

“ठीक हूँ...।” वह ग़म्भीर लग रही थी।

“कहीं बिज़ी हो क्या?” कुछ आशंका हुई कि शायद अब मामला वैसा नहीं रहा।

“अम्मम्म...ज़रा-सा। एक मीटिंग चल रही है। रुको बाहर निकल लूँ फ़िर बात करूँ?” वह उठने लगी।

“अरे नहीं...मैं फ़िर कर लूँगा।”

“तुम्हारा फ़ोन मैं छोड़ नहीं सकती कभी।“ वही गहराई उभर आई।

“प्लीज़...मैं काट रहा हूँ...ऐसा मत करो ... मीटिंग कर लो, नथिंग अर्जेंट ...ओके? मैं डिसकनेक्ट कर रहा हूँ।“ उसे पुराना भरोसा वापस मिल गया था। अब फ़िक्र नहीं थी। उसने बिना तकलीफ़ दिए फ़ोन काट दिया। थोड़ी देर तक फ़ोन हाथ में लिए उसका नाम स्क्रीन पर देखता रहा, फ़िर मन-ही-मन बुदबुदाया–

“चित्रा...तुम भी न।“ फ़िर मुस्कुरा दिया। उसका ख़ून बढ़ गया था और उसमें नया संचार हो गया था।

दिल्ली से विदा होने के बाद वह अपने काम में मशग़ूल हो गया था। चित्रा का हैंगओवर उतरा नहीं था पर उससे मिल पाने का कोई रास्ता पास नहीं था। झटके गए बालों का कोलाज और एक पीला लाल लहराता दुपट्टा उसे जीने नहीं दे रहे थे। जल्दी ही शादी भी होने वाली थी। शशांक की होने वाली पत्नी डॉक्टर थी। घरवालों ने एक अच्छा ख़ानदान देखकर विवाह तय कर दिया था। चित्रा के पास भी पहले से ही देव नाम का एक बंधन है। कशमकश भरी बेचैनी थी। बस एक आह-सी सीने में जलती रही, इस मुश्किल का न कोई ओर न छोर और न कोई हल।

ठीक तीसरे दिन रात 9 बजे 011 कोड से एक अज्ञात नंबर से उसके मोबाइल पर फ़ोन आया। उसका दिल धड़क गया और अनजाने ही लगने लगा कि ये उसी का फ़ोन है। मधुर कोमल आवाज़ में चित्रा ने कहा–

"मैं हूँ...चित्रा।"

एकदम से कलेजे को ठंडक पड़ी। जैसे एक पहाड़ भरभराकर गिर गया हो और एक शीतल नदी उसके ऊपर बह गई। कल से ही वह अजीब बेचैनी अनुभव कर रहा था। इस फ़ोन का उसको रोज़ इंतज़ार था। क्यों था, ये पता नहीं। नहीं होना चाहिए था ये पता था। ऐसा तो नहीं कह सकते कि उसको गहराई से प्यार था, पर आकर्षण गहरा था। ऐसा ही कुछ हाल चित्रा का भी रहा होगा। स्त्री की भाँति, थोड़े से उलाहना से चित्रा ने कहा-

"अरे...तुम तो मुझे भूल ही गए।" फ़िर अपनी ही बात पर जैसे हँसने लगी। बिना नाज़ के सीधी बात कह दे तो वह लड़की ही क्या?

"अरे कहाँ? नहीं तो, पर तुम्हें मैं कैसे कॉल करता?" कुछ झेंपते हुए शशांक ने इल्ज़ाम वापिस कर दिया।

"चिट्ठी तो लिख सकते थे।" अटेंशन तो चाहिए ही।

"हाँ...पर...।" अब शशांक पकड़ा गया कुछ कहते न बना।

चित्रा खिलखिलाकर हँसने लगी-

"अरे मैं तो मज़ाक कर रही थी, चिट्ठी इतनी जल्दी कैसे पहुँचेगी?" उसकी खिलखिलाहट उसके लिए जैसे प्राणवर्षा कर रही हो। उसका चित्त भी खिल उठा था क्योंकि चुहल में उसने उसे परास्त जो कर दिया था।

"अब से लिखा करूँगा।" कहकर उसने एक झूठा आश्वासन दिया। अब वह बात का सिरा छोड़ना नहीं चाहता था।

"और उसमें क्या लिखोगे?" फ़िर से चित्रा ने उसे फँसा लिया। बातूनी जो थी वो।

"तुम्हारे बारे में लिखूँगा...।" अचकचाया-सा वह बोला।

"जैसे क्या?"

"जैसे...जैसे ...मुझे तुम से बात करना अच्छा लगता है।" एक नये नर्वस किशोर की तरह वह लड़खड़ाया।

"अच्छा...और...।" उसको मज़ा आ रहा था।

"और...अम्म... हाँ... तुम्हारी बातें मुझे अच्छी लगती हैं।" कहकर शर्माया-सा वह हँसने लगा।

"अच्छा? बहुत अच्छा...और क्या-क्या अच्छा लगता है?" अब वह उसे छेड़ने लगी।

"मुझे तुम बहुत अच्छी लगती हो।" जैसे झटके से ही निकल आया हो। पर तुरंत ही वह घबरा उठा। तजुर्बा नहीं था कि इस पर क्या रिएक्शन आ सकता है। इसके बाद की ख़ामोशी जानलेवा थी।

एक लम्बी शांति के बाद चित्रा बोली-"क्या सचमुच?"

ये एक ऐसा सवाल था जिसमें विश्वास के लिए तहक़ीक़ात थी तथा एक एश्योरेंस (assurance) की माँग थी।

"सचमुच, ...पहले ही दिन से, जब से तुमसे मिला...या यूँ कहें कि जिस दिन से कनॉट प्लेस में तुम्हें पहली बार देखा।" उसने अनुमान से कल्पना में चित्र देखा कि वह हल्का आल्हादित होकर मुस्कुराई है और उसी रौ में हल्के से बालों को पीछे झटका है।

मोबाइल फ़ोन जो कि महँगा था, लक्जरी थी और अब तक चित्रा उसके ख़िलाफ़ लड़कियों को सुनाती थी। अचानक से हवा पानी जैसी अत्यंत ज़रूरी चीज़ों में शुमार हो गया। उस ने एक मोबाइल फ़ोन ख़रीद लिया था। कॉल करने की ज़िम्मेदारी शशांक की थी। धीरे-धीरे बातें मिनटों से घंटों में होने लगीं। रात की नीरवता और अकेलापन मोहब्बत की आग को माक़ूल हवा देते थे। रोज़ रात में बात होती, दिन में एस एम एस (SMS) एक्सचेंज होते रहते, मन वहीं अटका रहता।

रह-रहकर ज्यों-ज्यों इस अहसास में ज़ीना-ज़ीना वह उतरता गया वैसे-वैसे शशांक के मन को एक खटका लगने लगा। इससे पहले कि बात बहुत गंभीर हो जाती उसने विवाह वाली सूचना देना ज़रूरी समझा। आज वह अपने को इसके लिए तैयार कर के आया था। थोड़ी-सी रोज़ की रूमानी बातों के बाद-

“ चित्रा...।” कदाचित गंभीरता के साथ।

“हूँ अ अ...।” वह अपने ही तरन्नुम में थी।

“एक बात बतानी थी...।” कहाँ से शुरू करे, अभी भी मुश्किल हो रहा था।

“ह्ममम..., सुन तो रही हूँ।” उसी चुहल में उसने कहा।

“थोड़ी सीरियस बात है...।”

“अच्छा माय बेबी... मैं सुन रही हूँ।“ पर अब उसको थोड़ा खटका लगा।

“दरअसल...बात ये है कि मेरे घर वालों ने मेरी शादी तय कर रखी है...लड़की डॉक्टर है, कानपुर के हैं...।” एक साँस में वह कह गया।

“...” कोई रिएक्शन नहीं मिला।

“चित्रा... चित्रा... बेबी... सुनो... मैं तुम्हें पहले ही बोलना चाह रहा था परंतु...।” सन्नाटा भाँपकर उसने बात को साफ़ करना चाहा। फ़िर भी उधर से कोई आवाज़ नहीं आई।

“तुम कुछ बोलती क्यों नहीं... कुछ तो कहो, चित्रा...।”

ये किसी आशान्वित मरीज़ का अचानक से लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम खींच लेने जैसा था। चित्रा मोहब्बत के एक ऐसे पुल पर थी, जो अचानक से टूट गया। उसको गहरा आघात लगा। वह रूँआसी हो गई या शायद रोने लगी थी। उसकी तरफ़ से बहुत देर तक फ़ोन पर ख़ामोशी रही। शशांक आवाज़ देता रहा। पर जवाब न मिला। थोड़ी देर बाद फ़ोन कट गया। उसने बहुत बार फ़ोन किया पर उठा नहीं। उसने कई एसएमएस लिखे परंतु कोई जवाब नहीं आया। वह बहुत बेचैन हो गया।

पूरी रात वह सो नहीं पाया और अगले ही दिन उसने छुट्टी लेकर दिल्ली की फ़्लाइट पकड़ी। दिल्ली में उसने अपने जिगरी दोस्तों मनीष और अभिषेक को भी नहीं बताया। वह सीधा चित्रा के हॉस्टल पहुँच गया। उसने एक लड़की के माध्यम से चित्रा को बुलवाया। उसका इंतज़ार बहुत भारी पड़ रहा था। वह लगातार गेट के लोहे की सलाखों के अंदर दूर तक देखे जा रहा था, जैसे उस पार ज़िंदगी बसती हो। एक काया अस्त-व्यस्त, धीमी चाल में जब दृष्टिगोचर हुई तो उसके हालात स्पष्ट हो रहे थे। काया ने सर उठाकर देखा भी नहीं, जबकि तमाम लड़कियाँ उसके बगल से गुज़र रहीं थीं।

वह जब हॉस्टल गेट पर आई तो उसको बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी कि उसे शशांक मिलेगा। उसका चेहरा सूजा हुआ था जैसे अभी भी सो रही हो। वह सायास मुस्कुराई। शशांक ने उसे गले लगाना चाहा, पर हॉस्टल गेट पर वह ऐसा नहीं कर सकता था।

“अरे...तुम कैसे? इतनी दूर से ...क्यों?”

“तुम को कितना फ़ोन किया, मैसेज किया, पर कोई जवाब नहीं दिया तुमने?” एक बेचारगी वाली झुँझलाहट में उसने कहा।

“हाँ...बस ऐसे ही ...।” उसने टालना चाहा।

“ये क्या हाल बना लिया है?” उसने ज़बरदस्ती बात को सामान्य करने के लिए कहा।

“...” उसने कुछ नहीं कहा सिर्फ़ एक बार अपने को इधर-उधर देखा।

उसने चित्रा से अनुनय किया कि वह उसके साथ कहीं चले। वह कुछ कह न पाई। वह वापस गई और कपड़े बदलकर आ गई। अब दोनों टैक्सी में बैठ चुके थे। शाम को 5 बज रहे थे। चुपचाप बिना बात किए बैठे रहे। वे एक दूसरे को देखने में भी झिझक रहे थे। चित्रा ने ही सुझाया कि किसी दोस्त के पास जाने की बजाय वह किसी होटल में ही चले।

शशांक ने एक जगह टैक्सी रोकी। ये एक होटल था। वह एक उदास मूर्ति-सी रिसेप्शन में बैठ गई थी। एक दारुण म्लानता उसके चेहरे पर छाई हुई थी। शशांक ने एक रूम लिया और फ़िर रूम ब्वॉय सामान लेकर दोनों के साथ सीढ़ियों पर बढ़ गया। दोनों में सिवाय थोड़ी औपचारिकता के अभी भी ख़ामोशी थी।

रूम का दरवाज़ा जैसे ही शशांक ने बंद किया, चित्रा उसकी पीठ से लिपट गई और ज़ोर से पकड़कर सिसकने लगी। बहुत देर से दर्द का असबाब लादे वह चल रही थी, उसे एक दर्द खींचने वाले बाज़ुओं की गिरफ़्त की सख़्त ज़रूरत थी। वह ऐसे ही खड़ा रहा, जब तक कि आँसुओं से उसकी पीठ नहीं भीगी। उसका अपराधबोध बढ़ने लगा। उससे कुछ कहा नहीं जा रहा था। चित्रा ने उसको ज़ोर से पकड़ रखा था, इतना ज़ोर से कि वह घूमकर चित्रा के सामने भी नहीं आ पा रहा था। अपना एक बाज़ू ऊपर उठा कर कैसे-कैसे करके उसने सिसकती चित्रा को अपने सामने किया। दोनों हथेलियों में उसका चेहरा लेकर उठाने की कोशिश की, पर भावनाओं का भार ज़्यादा था। उसने तब से लेकर अब तक कई बार उससे माफ़ी माँग ली थी, पर वह रोती ही रही। अब शशांक को भी रोना आ रहा था। दोनों बहुत देर तक एक दूसरे से लिपटे रहे। चित्रा की सिसकियाँ उसके सीने पर चोट कर रही थी। वहीं शशांक के हृदय की तेज़ एवं तीव्र धड़कनें चित्रा के कानों में पड़ रही थी। शशांक को पल-पल ऐसा महसूस होना लगा कि अभी दिल उछलकर सीने से बाहर आ जाएगा। बीती रात कैसे वह तड़पा है उसका दिल ही जानता है। कितने ही विचार और बातें उसके दिमाग़ में उमड़ते घुमड़ते रहे। उसने किसी तरीक़े से चित्रा को बेड पर बिठाया और उसके आँसुओं को हाथों से पोछने लगा। फ़िर उसने फ़्रिज से पानी की बोतल निकाला और गिलास में निकालकर पानी पीने को दिया।

जब वह कुछ रिलैक्स दिखने लगी तो शशांक ने कुछ सफ़ाई के अंदाज़ में उसके बगल बैठकर कहना शुरू किया-

“मैं नहीं जानता कि कब कैसे क्या हो गया,...चित्रा... तुम मुझे अच्छी लगी तो मैं तुम से मिलने आ गया। मेरी ऐसी कोई इच्छा नहीं थी कि मैं तुम्हें अँधरे में रखूँ। पर ये बात कब कैसे यहाँ तक पहुँच गई, मुझे अहसास न हुआ। मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता। आई रियली लव यू।“

इस बात पर चित्रा फ़िर से फफक-फफक कर रोने लगी।

दोनों में बातचीत के सिलसिले को 1 महीना ही हुआ था। इस बातचीत में चित्रा ने कई बार ज़िक्र किया कि उसे शशांक में एक विचित्र सुपर नैचुरल (supernatural) आकर्षण प्रथम दिन से ही लगा है। ऐसा लगता है जैसे उसे कई जन्मों से उसकी तलाश हो। उसे शशांक से एक बहुत स्ट्रौंग रूहानी कनेक्ट-सा लगता है। सारी सहृदयता के बावजूद भी शशांक को ये बात हमेशा अविश्वस‍नीय ही लगी। पर क्योंकि चित्रा उसे अच्छी लगती थी, इसलिए उसने उसकी बात पर कभी कोई अरुचिकर प्रतिक्रिया नहीं दी। कल रात से चित्रा को ये अहसास होने लगा कि वह शशांक को खो देगी।

कुछ देर बाद चित्रा ने शशांक को कंधे से पकड़कर, अपना मुँह आगे बढ़ाया और उसके होठों को चूम लिया। उसके गालों को दोनों हाथों से पकड़कर दुलारते हुए कहा-

"जो मेरा है वह किसी और का हो नहीं सकता और जो किसी और का है वह मेरा नहीं हो सकता। मेरा प्यार तुम्हारे लिए संपूर्ण हृदय, तन मन से है और यही मेरा है। बाक़ी तुम्हारी मर्ज़ी है।" उसने इतनी देर में पहली दफ़ा अपने बालों को पीछे झटका। जैसे इसी के साथ रात की बात को भी झटक दिया हो।

इतना कहकर वह फ़िर से लिपट गई। उसकी बात से शशांक को सांत्वना मिली परंतु उसका अपराधबोध कम नहीं हआ। परंतु इस अचानक मिली गरमाई से वह उसको जहाँ-तहाँ चूमने लगा। उसने उसको खींचकर अपने सीने से लगा लिया। बैठे-बैठे ही उसने उसको बेड पर लिटा लिया और स्वयं उसके ऊपर लेट गया। उसके सीने में वासना का एक ज्वार आया और कामदेव का आक्रमण हो गया। चित्रा ने उसको आगे बढ़ने से रोका। उसके बढ़ते हुए हाथों को पकड़ लिया, परंतु शशांक क़ाबू में नहीं था। उसके हाथ जहाँ-तहाँ टटोल रहे थे और सब कुछ खोल डालने में व्यस्त थे। एक वेदना से अचानक चित्रा ने कहा-

"शशांक, ये शरीर तुम्हारा ही है, सदा के लिए, मुझे इस से बड़ी ख़ुशी नहीं मिलेगी कि तुम इसमें समा जाओ। पर क्या तुम मुझे भी ये हक़ दे पाओगे?"

अचानक एक करेंट (current) -सा लगा और कामदेव मुरझा गए। वह निढाल-सा उसके ऊपर लेट गया और धीरे से उसके कान में बोला-

"सॉरी, चित्रा.........माफ़ करना मुझे। मैं बहक गया था।" चित्रा ने उसके होठों पर फ़िर से उपने होठ रख दिए।

फिर दोनों अगल-बगल बहुत देर तक लेटे रहे और छत पर चलते पंखे को देखते रहे। थोड़ी देर बाद चित्रा के फ़ोन की घंटी बजी। चित्रा ने पर्स से मोबाइल फ़ोन निकाला और देखकर पुनः रख दिया। उसके चेहरे पर विचलन का चिह्न आया। शशांक ने पूछा-

“क्या हुआ? फ़ोन किसका था? अटेंड नहीं किया?“

चित्रा ने थोड़े अनमने से कहा–

“देव का है। मुझे ढूँढ़ रहा होगा, उसे मेरे साथ जाना था।“

इस बाबत सुनते ही शशांक को एक सहारा मिला कि आख़िर चित्रा के पास एक ब्वॉयफ़्रेंड है। जिसके साथ वह सदा ही उठती बैठती रही है। इस तरह वह उसे किसी मझदार में छोड़कर नहीं जा रहा है। उसके पास पहले से ही सम्बल है और इस बारे में उसने आज तक भी शशांक को नहीं बताया।

चित्रा किसी उलझन में खोई रही, जो उसके चेहरे से स्पष्ट था। जब से देव का ज़िक्र आया, शशांक ने तब से कुछ पूछा भी नहीं। फ़िर उसने धीरे-धीरे बोलना शुरू किया-

"देव मेरा फ़्रेंड है पिछले तीन बर्ष से। उसे मेरा ब्वॉयफ़्रेंड ही समझा जाता है। क्योंकि वह मेरे ही क्लास में है, लगभग साथ में ही रहता है। जब से उसने मुझे प्रपोज़ किया है तब से लगातार मैं भी उसके साथ ही हूँ। परंतु हमारे बीच प्यार कितना है? ये कहा नहीं जा सकता। वैसे देव के बारे में तुम्हारे दोस्तों ने ज़रूर बताया होगा। इसलिए मैंने कभी उसके बारे में तुम्हें बताया नहीं।“

"हाँ... मुझे पता है।" शशांक ने सहमति में सिर हिलाया।

चित्रा ज़ोर देकर रात भर वहीं रुकी। क्योंकि आने वाली ज़िंदगी में ऐसे हसीन पल कम ही मिलने थे। इतनी सारी बातों में कभी भी शशांक ने स्पष्ट या अस्पष्ट तरीक़े से नहीं कहा कि वह अपनी सगाई तोड़कर उसके साथ भी रह सकता है। इस संकेत का साफ़ अर्थ उसको समझ में आ गया। रात भर में दोनों में पुनः एक संतुलन (equilibrium) स्थापित हो गया और फ़िर ज़िंदगी सहज हो गई।

इसके बाद विवाह तक दोनों कई बार मिले। शशांक के विवाह में चित्रा शामिल न हुई। जबकि शशांक ने इसके लिए विनय किया था। एक प्रौढ़ समझ एवं परस्पर विश्वास का नया बंधन दोनों में विकसित हो गया, जहाँ वे लोग एक दूसरे को सदा याद रखे थे पर एक दूसरे की ज़िंदगियों में दख़ल नहीं देते थे।

शादी के बाद शशांक की तरफ़ से लगभग बातचीत बंद ही हो गई। चित्रा ने भी अपने को समेट लिया। इस दरम्यान 5 वर्ष का लम्बा अंतराल गुजर गया। चित्रा अब नौकरी पर थी। वह भोपाल में इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में इंस्पेक्टर थी। इस बात की मोटी-मोटी जानकारी उसे थी। चित्रा की शादी को लगभग एक वर्ष हो गया था। उसकी ज़िंदगी से देव निकल चुका था।

आज भी चित्रा ने पुरानी आत्मीयता से ही उससे बात की थी जैसे वह पहले करती थी। उसकी आत्मीयता से उसका जो उत्साह बढ़ा था, वह पुरानी बातों को याद करते हुए अपराधबोध में बदलता गया। उसे अपनी बेरुख़ी पर लज्जा हुई। शुतुरमुर्ग की तरह वह अपना सर ज़मीन में गाड़ लेना चाहता था।

अब अक्सर ही वह चित्रा से और चित्रा उससे बात करने लगी। एक निरंतरता बन गई और एक दूसरे की चाह फ़िर बढ़ने लगी। उसके मन में एक टीस पलने लगी, वह उसको फ़िर से गले लगाना चाहता था और प्रेम की सम्पूर्णता को प्राप्त करना चाहता था।

एक दिन शशांक बिना उसको बताए, उससे मिलने के लिए भोपाल पहुँच गया। यह एक सरप्राइज़ था। पर उसको यक़ीन था कि वह चित्रा के लिए किसी भी अन्य चीज से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण था। सुबह 10 बजे उसने फ़ोन लगा दिया-

“हेल्लो चित्रा...मैं तुम्हारे शहर में हूँ।“

“क्या...?” उसे यक़ीन न हुआ।

“यस...सचमुच।“

“कब, कैसे ...बिना ख़बर...छोड़ो मज़ाक़।“

“सरप्राइज़ बनकर आया हूँ ... ख़ुद देख लो आकर।“

“अरे जाओ तुम... इतने साल ग़ायब रहे, अब बोल रहे हो, मेरे लिए भोपाल आये हो।” उसे यक़ीन नहीं हुआ पर दिल मनाने लगा कि क़ाश वह आया हो।

“तुम अभी आकर देखो... होटल का एड्रेस मैसेज कर रहा हूँ।“

थोड़ी देर में उसको लगने लगा कि शायद आज क़यामत उसके भाग्य में है।

वह प्लेन मैरून रंग की सिल्क साड़ी में थी, जिस पर गोल्डन बॉर्डर था। प्रोफ़ेशनल ड्रेसिंग की शायद आवश्यकता थी, साड़ी । उसने ग़ौर किया कि वह अब भी उतनी ही सुंदर थी जितनी वह 5 वर्ष पहले थी। साड़ी के पारंपरिक परिधान में तो औरत का निखार वैसे ही बढ़ जाता है। उसने अपना भरपूर असर उस पर छोड़ा। पर अब उसके बाल छोटे नहीं थे और न ही वह माथे पर लटकते थे। जिस अदा का वह क़ायल था, वह झटकना अब ग़ायब हो चुका था। कितने वर्षों में भी अभी वह रील मस्तिष्क में हू–ब-हू वैसी चल जाती थी। कनॉट प्लेस और वह कैंटीन। चित्रा के तुलना में शशांक अब पहले से मोटा हो गया था, स्मार्टनेस में कमी आ चुकी थी।

आते ही उसने चित्रा को बाहों में भर लिया। जैसे कोई वर्षों बाद किसी जिगरी से मिला हो। चित्रा ने कोई विरोध नहीं किया, बल्कि थोड़ी देर बाद वह ख़ुद ही उससे लिपट गई। आज शशांक ने बड़ी शिद्दत से उसकी बात को महसूस किया जो वह कहती थी कि उसके साथ, उसका कोई बहुत स्ट्रोंग रूहानी कनेक्ट है। हॉल में इससे ज़्यादा अनौपचारिकता अनुचित लगने लगती , इसलिए शशांक उसको लेकर रूम की तरफ़ बढ़ गया।

दोनों एक साथ होटल रूम तक गए और फ़िर काफ़ी देर तक एक दूसरे से लिपटे रहे। थोड़ी देर बाद चित्रा बिस्तर पर विश्राम की अवस्था में आधी लेट गई और शशांक पास ही चेयर पर बैठ गया। वह उसके हाथ को अपने हाथों में लेकर खेलने लगा। इसी तरह खेलते-खेलते वह उसके ऊपर आ गया और फ़िर बेसाख़्ता उसको चूमने लगा। चित्रा ने भी उसका पुरज़ोर साथ दिया परंतु जब वह उसको निर्वस्त्र करने लगा तो उसने याद दिलाया-“शशांक, ये तो सदा तुम्हारा था पर क्या यही हक़ तुम भी दे सकोगे?”

पर शशांक माना नहीं, वह अब निश्छल, निष्कपट शशांक नहीं रहा बल्कि ज़माने के साथ चलने वाला व्यक्ति बन गया था। उसने जवाब दिया-

“जो मेरा है, वह मैं आज पाना चाहता हूँ।“

अब चित्रा अपने प्यार के हाथों मजबूर थी। इतने वर्षों में आज प्रथम बार उनके बीच शारारिक सम्बंध बना। चित्रा ने उसे फ़िर नहीं टोका।

जब ये ज्वर शांत हुआ तो शशांक सोच में पड़ गया कि आख़िर उसको उसके सतीत्व से खेलने की क्या पड़ी थी? वह उसको जान से ज़्यादा प्यार करती है तो उसे इसका फ़ायदा नहीं उठाना चाहिए। अलबत्ता चित्रा ने उससे कोई शिकायत नहीं की। उसे जो भी शशांक ने दे दिया ख़ुशी या ग़म , सब मंजूर था।

बहुत देर तक वह यूँ ही चुपचाप लेटा रहा। उसने इस बारे में कुछ नहीं कहा। चित्रा को आज कुछ ज़रूरी काम थे, जो वह छोड़कर आई थी। उसका फ़ोन बार – बार बज रहा था ।शशांक ने ही उसे कहा कि वह अपना काम निबटा ले। जब वह उसके पास से जाने लगी तो उसने आहिस्ता से कहा-

“मैं सदा ही तुम्हारी हूँ, पर तुम मेरे कब बनोगे? इसका मैं पूरा जन्म इंतज़ार करूँगी। मैं अपने को मिटाकर भी तुम्हें ख़ुश देखना चाहती हूँ। मैं विगत 5 साल तिल-तिल मरी हूँ और लगभग रोज़ रोई हूँ। तुमने मुझे फ़ोन करना, ईमेल करना सब बंद कर दिया। तुम्हें तकलीफ़ न हो इसलिए मैंने अपनी तरफ़ से फ़ोन नहीं किया। तुमने मेरे ईमेल का जवाब देना बंद कर दिया। परंतु जब भी तुम चित्रा को याद करोगे, चित्रा सब कुछ छोड़कर तुम्हारे पास आएगी।” ये कहकर वह जाने को हुई, जाते-जाते उसने जैसे कुछ अचानक याद आया हो, ऐसे रुककर कहा–

“और हाँ, मैं ये ऐसे तो नहीं चाहती थी, पर फ़िर भी शुक्रिया, आज तुमने मुझे पूर्णता दे दी। ये क्षण अमृत की तरह मुझे सदैव तुमसे जोड़कर रखेंगे।“

शशांक कटे पेड़-सा लटककर गिर गया। वह सोच में डूबा रहा कि आख़िर इस प्रेम को प्रतिफल में मैं क्या दे सकूँगा? इतना बड़ा बोझ लेकर मैं कैसे जी पाऊँगा? किसी के स्वयं को मिटा देने वाले प्यार का बोझ कोई किन कन्धों पर संभाल सकता है, इतने मज़बूत कंधे आज तक नहीं बने।