तेरे बिना कितनी बेस्वादी रतियां / जयप्रकाश चौकसे

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तेरे बिना कितनी बेस्वादी रतियां
प्रकाशन तिथि : 02 फरवरी 2022


अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय अभिनीत मणिरत्नम की फिल्म ‘गुरु’ में नायक, गुजरात के छोटे से कस्बे से मुंबई आता है। उसका उद्देश्य शेयर बाजार से धन कमाना है। ज्ञातव्य है कि यह फिल्म अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय के विवाह के पूर्व बनी थी। फिल्म की कहानी में नायक चाहता है कि शेयर बाजार आम आदमी के धन से संचालित हो। जब वह शेयर मार्केट में आया था उस समय उसके पास टीन की एक पेटी थी, जिसमें वह सैकड़ों सपने लेकर मुंबई आया था। जब वह शेयर मार्केट में पहुंचता है तो वहां उसका बड़ा मखौल उड़ाया जाता है। दरअसल, उस समय तक शेयर बाजार कुछ चुनिंदा व्यापारियों का ही क्षेत्र माना जाता था। लेकिन बाजार में आने के बाद नायक शेयर बाजार का गणतंत्रीकरण करना चाहता था। वह आम आदमी की बचत के रुपयों से शेयर बाजार को संचालित करना चाहता था। उसका विश्वास था कि आम आदमी का धन और उसकी भावनाएं ही शेयर मार्केट को संचालित करें। मार्था नुसबौम नामक एक लेखिका ने एक किताब लिखी है ‘पॉलिटिकल इमोशन।’ किताब में प्रस्तुत किया गया है कि आम आदमी की बचत और भावना ही सारे संसार के कार्यकलाप को संचालित करती है। इंसान की भावना ही दौलत है और राजनीति हो या आर्थिक नीतियां हों, सभी भावना द्वारा संचालित होती हैं। राजनीति पर भी सामूहिक भावना ही निर्णायक शक्ति होती है। बहरहाल फिल्म ‘गुरु’ में एक प्रेम का रिश्ता ही सब कुछ तय करता है। फिल्म का एक मधुर गीत इस तरह है कि ‘तेरे बिना बेस्वादी रतियां ओ सजना।’ ‘गुरु’ का नायक आम आदमी को ही भाग्य विधाता सिद्ध करना चाहता है। उसकी सफलता से वे सब लोग आहत हो जाते हैं, जो शेयर मार्केट पर आम आदमी के दबदबे से मुक्ति चाहते हैं। फिर क्या था यह सब देखकर सारे दलाल षड्यंत्र रचते हैं और नायक पर आरोप लगाकर उसे भ्रष्टाचार के मामले में फंसा दिया जाता है। लेकिन वह भ्रष्टाचार के आरोप का खंडन करता है। बाद में पता चलता है कि सारे आरोप झूठे हैं। फिर नायक दलालों के तौर- तरीकों का ही इस्तेमाल करके अपने पर लगाए गए सभी आरोपों को बेबुनियाद साबित करता है। फिल्म निर्माण में एक औद्योगिक समूह की ही पूंजी लगी थी। आम आदमी तो बस स्वेच्छा से सभी तमाशों का हिस्सा बनता है। हर देश ने गणतंत्र का अपना स्वरूप गढ़ा है और आम आदमी इस पर मंत्रमुग्ध भी है।

दशकों पूर्व बलराज साहनी अभिनीत फिल्म ‘सट्टा बाजार’ में भी यही तथ्य रेखांकित किया गया है। सारांश यह है कि आम आदमी हमेशा मात्र तमाशबीन बना रहना चाहता है। यहां तक कि वह अपने तमाशे पर स्वयं ही तालियां बजाता है। वैचारिक संकीर्णता कोई नया आविष्कार नहीं है परंतु पहली बार यह एक सुचारू रूप से चलने वाली मशीन का रूप धारण कर चुकी है। इस मशीन का तेल भी वही है, ईंधन भी वही है और उपभोक्ता भी वही है। सभी को अपने कंट्रोल में रखने वाला अपने आपको भी नियंत्रित दिखाता है। कभी-कभी मशीन ऐसा प्रोडक्ट भी बनाने लगती है, जिसके लिए वह प्रोग्राम्ड नहीं है। मशीन मात्र एक कलपुर्जा नहीं है। उसका अपना स्वतंत्र वजूद है। बात उस समय रोचक हो जाती है, जब मशीन का एक हिस्सा ही अपने दूसरे हिस्से के खिलाफ उठ खड़ा होता है। तब हमें मालूम होता है कि कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा? बहरहाल, ‘गुरु’ मात्र फिल्म नहीं है। बल्कि यह रचना औद्योगिक घराने के आचार-विचार के दांव-पेंच आम आदमी के सामने रखती है।

मेहनतकश के पसीने से ही सारी ऊर्जा निकलती है और वह जानता भी नहीं है कि उसे अपने ही पसीने के दाम भी चुकाने पड़ रहे हैं। दुष्यंत कुमार ने कहा है कि ‘वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बेक़रार हूं आवाज़ में असर के लिए।’